Monday, December 10, 2007

श्मशान में लाल झंडा

यह शांति का लाल सूरज नहीं है _ मेधा पाटकर
पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार ने बार-बार सवाल उठाया कि मेधा पाटकर नंदीग्राम क्यों गईं? मेरा कहना है कि जहां भी अन्याय होगा, मानवीय मूल्यों पर हमला होगा, वहां जाने का हमारा हक़ बनता है. नंदीग्राम पश्चिम बंगाल में ज़रुर है पर भारत में भी है. एक भारतीय नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. ऐसा ही सवाल हमसे सिंगूर की राह में भी पूछा गया था और कोलकाता हाईकोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया था.नंदीग्राम में हम पर हमला करने वाले आम आदमी नहीं थे, वे किसी खास पार्टी के कैडर थे. वे किस पार्टी के कैडर थे, यह दुनिया को मालूम हो चुका है. 12 नवंबर को जब दूसरी बार हम नंदीग्राम प्रवेश की राह में सीपीएम कैडरों के एक-एक अवरोधक से जूझ रहे थे तो उनके स्टेट चेयरमैन का मीडिया में बयान आ रहा था-हम मेधा पाटकर को किसी भी कीमत पर घुसने नहीं देंगे. किसी संगठन के कैडर और चेयरमैन के बीच इस तरह का संवाद , अनुशासन आप पश्चिम बंगाल में ही देख सकते हैं. 8 नवंबर को हमला सिर्फ हमारे ऊपर हुआ, यह सही नहीं है. पश्चिम बंगाल के वयोवृद्ध बुद्धीजीवी तरुण सान्याल, मशहूर शिक्षाविद सुनंद सान्याल, जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. मैहर इंजीनियर और अनुराधा तलवार जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस हमले के शिकार हुए. हमारे साथ-साथ सफर कर रहे मीडिया के साथियों पर भी हमला हुआ और मुझे अपने से अधिक मीडिया पर हुए हमले का दुख है. हमारे साथ मार खाने वाले मीडियाकर्मी भी हमारी ही तरह निर्दोष थे.नंदीग्राम में मीडिया को लगातार रोकने की कोशिश की गई. देश में पहली बार ऐसा नहीं हुआ है. गुजरात में भी मीडिया का प्रवेश कुछ समय के लिए रोक दिया गया था. पहले प्रवेश बंद करना, फिर निषेध हटा लेना, एक मक़सद से ही ऐसा किया गया होगा. मीडिया को इस तरह प्रवेश से रोकना, देश की आंख पर परदा डालना है. क़ानून को अपने हाथ में लेकर प्रवेश रोकना औऱ प्रवेश करने की कोशिश करने पर हमले करना, इमरजेंसी घोषित न करते हुए भी अघोषित राजनीतिक आपातकाल मैंने देश में पहली बार देखा है. कुछ दृश्य तो गुजरात से भी ज्यादा भयानक, ज्यादा खतरनाक दिखे.सीपीएम की योजनाबद्ध हिंसाविमान बोस बार-बार हमें रोकने की वजह, नंदीग्राम में हमारे जाने से, उन्माद फैलने की आशंका बता रहे था. जबकि गांव में सीपीएम समर्थकों ने कहा- आप पहले क्यों नहीं आईं, पहले आने से नंदीग्राम जलने से बच जाता. विमान बोस उन्माद के बारे में ज्यादा जानते हैं. हमारे पास तो सत्य, शांति और अहिंसा का हथियार ही है. हिंसात्मक तरीके से दखल कब्जा अभियान को वे शांति स्थापना कह रहे हैं. शांति और हिंसा की परिभाषा पश्चिम बंगाल में बदल नहीं सकती. वे कह रहे हैं- 11 माह बाद नंदीग्राम में शांति का लाल सूरज उगा है. ध्वस्त, बर्बाद, जले हुए घरों पर लहराते हुए लाल झंडे की श्मशानी सूरज को हम शांति का लाल सूरज तो नहीं कह सकते.नवंबर में नंदीग्राम में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है. इस बार पुलिस की भूमिका हमले से अलग रखने की रही. सब कुछ राज्यसत्ता ने और साफ-साफ कहें, पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा ने नहीं, सीपीएम ने योजनाबद्ध तरीके से पूरा किया है. हम सरकार से ज़्यादा उन पर यकीन करते हैं, जिन हजारों-हजार लोगों के घर-बार, चास-बास सब बर्बाद हो गये हैं. अपनी ज़िंदगी से उजड़े-बर्बाद हुए लोग झूठ बोल रहे हैं और सरकार सच बोल रही है, इसकी जांच सीबीआई ही कर सकती है.कोलकाता हाईकोर्ट ने 14 मार्च के हमले को असंवैधानिक कहा है लेकिन नवंबर महीने का दखल-कब्जा भी उतना ही असंवैधानिक और अमानवीय है. नंदीग्राम में सेज की परियोजना रद्द होने के बाद सीपीएम सरकार के खिलाफ संग्राम करने वाले गांव-समाज को खत्म कर बदला लेना, यह राजनीतिक अपराधीकरण और अमानवीयता की हद है. निहत्थे लोगों पर हो रहे हमले की फोन से पल-पल की सूचना, बहनों पर अत्याचार के किस्से, लापता और मृतकों के बारे में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के अपुष्ट दावे, यह सब जनसंहार का साक्ष्य ही तो है.पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति शासन लगाने और सरकार को गिराने की मांग की है. हमने पहले भी धारा 355 का विरोध किया था लेकिन सरकार गिराने की मांग हम बेहतर विकल्प के आधार पर ही कर सकते हैं. राष्ट्रपति शासन या धारा 355 की मांग एक तरह से प्रदेश की जनता पर आपातकाल थोपना है. आपातकाल लगा कर नागरिक अधिकारों को कुचलने की मांग हमें पसंद नहीं है.बगदाद बचाने जैसी गुहार और बुश की इच्छाभूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति ने नवंबर महीने के हमले की पूर्व सूचना देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सोनिया गांधी को दी थी. फिर भी नंदीग्राम की हिफाजत नहीं हुई. देश के सर्वोच्च सत्ता का समाज के सबसे कमजोर वर्ग की हिफाजत के प्रति असंवेदनहीनता लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है. इससे नंदीग्राम के आहत, बर्बाद ग्रामेर मानुष की लोकतांत्रिक आस्था कमजोर पड़ी है. कोलकाता से देर रात सोनिया गांधी से लेकर मंत्रियों तक, मै, इस तरह फोन करती रही, जैसे बगदाद को बचा लेने की यह आख़री रात है. लेकिन हुआ वही, जैसा बुश ने चाहा.बुद्धदेव ने कहा-जैसे को तैसा. नंदीग्राम बर्बाद हो गया. यूपीए गठबंधन की भूमिका भी नंदीग्राम के सवाल पर संदिग्ध रही. किसी प्रदेश में राज्य-पोषित हिंसा को रोकने में नकारा साबित होना, यूपीए गठबंधन की नियत पर सवाल उठाता है.नंदीग्राम, न्यूक्लियर डील और माओवादीनंदीग्राम ने परमाणु डील को प्रभावित किया है और किसी तरह का आंतरिक समझौता कांग्रेस और वाम के बीच हुआ है, ऐसा कहा जा रहा है. लेकिन इसके कोई मज़बूत आधार नहीं हैं. परमाणु समझौते के सवाल पर हम नंदीग्राम से ज्यादा भाजपा को सत्ता से रोकने की जिद को महत्वपूर्ण मानते हैं. हमें सीपीएम की पश्चिम बंगाल की भूमिका से ज़रुर ऐतराज है पर इसी सीपीएम की परमाणु समझौते के सवाल पर मजबूती के साथ अकड़ने से साम्राज्यवादी ताक़तों को कड़ी चुनौती मिली है. परमाणु के मुद्दे पर डटे रहने से देश ही नहीं, दुनिया भर में परमाणु के खिलाफ एक तरह की हवा बनी और बहस शुरु हुई. सीपीएम की इस भूमिका की तारीफ़ होनी चाहिए.नंदीग्राम में मार्च से लेकर अब तक माओवादियों की उपस्थिति के हमें कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़े. भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति में शामिल तृणमूल कांग्रेस, एसयूसीआई, जमायत-उलाम-ए-हिंद सहित सभी घटक दल माओवादी राजनीति के धुर विरोधी हैं. फिर माओवादियों का प्रवेश किस तरह हो सकता है?मार्च से नवंबर तक निहत्थे किसान-मज़दूरों पर हमला हुआ, सशस्त्र माओवादियों पर नहीं. माओवादियों ने 14 मार्च और 10-11 नवंबर को ज़रुर सशस्त्र संघर्ष किया होता, अगर वे वहां उपस्थित होते.नंदीग्राम में हथियारों की राजनीति को थोड़ी और गंभीरता से देखने की जरुरत है. नंदीग्राम में सेज का विरोध करने वाले भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थक भी 11 महीने पहले सीपीएम के ही समर्थक थे. सेज की किसान विरोधी नीति ने गांव के किसानों को संग्राम के लिए प्रेरित किया. पहले लोगों को टुकड़े में बांटिए, फिर हथियार बांटकर हिंसक माहौल तैयार करिये. 14 मार्च के जनसंहार के बाद भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थकों ने भी बदले के भाव में हिंसा का सहारा लिया था, जिसे हम उचित नहीं ठहरा सकते. हिंसा हर हाल में बुरी है, चाहे इधर की हो या उधर की. लेकिन हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हिंसा को बढ़ावा किसने दिया! गांव के भोले-भाले किसानों को हथियारों से लैस करना, यह लोकतांत्रिक राजनीति नहीं है तो वामपंथी भी नहीं हो सकती. राजनीति को अपराधीकरण से बचाने के लिए सबसे ज्यादा ज़रुरी है कि राजनीतिक दलों का निःशस्त्रीकरण किया जाये. हथियार सिर्फ पश्चिम बंगाल में सीपीएम के पास ही नहीं है, देश में दूसरे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास भी सशस्त्र दस्ते हैं. चुनाव लड़ने वाली किसी भी राजनीतिक दल को सशस्त्र दस्ते रखने का हक़ नहीं होना चाहिए.गांधीवाद से आगे की राजनीतिआलोचक कहते हैं कि मुझे गांधीवाद से आगे की राजनीति का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैं मार्क्सवादी सरकार के खिलाफ खड़ी हुई हूं. हमें लगता है कि मार्क्स और गांधी दोनों ने समाज के सबसे कमज़ोर मेहनतकश को श्रम के उचित दाम और उनके हक़-न्याय की बात की थी. हमें गांधी विरुद्ध अंबेडकर, मार्क्स विरुद्ध गांधी के विवाद से अलग रखा जाए तो अच्छा है. सब जानते हैं, हमारे विश्वास की अवधारणा अपने निजी चिंतन पर नहीं, मार्क्स, गांधी, अंबेडकर की विचारधारा के आधार पर तय होती है. देश के वरिष्ठ वामपंथी, मार्क्सवादी जो हमारे साथ ऐनरॉन से लेकर नर्मदा के मुद्दे पर साथ खड़े हुए, उन्होंने हमें कभी भी मार्क्स विरोधी नहीं माना.नंदीग्राम राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ सत्य, न्याय और शांति के अहिंसात्मक विकल्पों को चुनने का संदेश देता है. हमें सीपीएम से अपेक्षा थी कि सेज के सवाल पर जो भूमिका वे महाराष्ट्र के रायगढ़ में लेते हैं, वही भूमिका नंदीग्राम में लेंगे. पूंजीपति सत्ता और राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं. वामपंथियों को इस गठजोड़ से बचना होगा.सत्ता राजनीति को पहले भ्रष्ट करती है, फिर अपने मूल्यों से गिराती है. आज पूंजीकरण और बाज़ारीकरण ने राजनीति का चित्र औऱ चरित्र ही बदल दिया है. मुनाफे का बाज़ार ही नहीं, मुनाफे की राजनीति, राजनीतिक दलों का उद्देश्य हो गया है. वामपंथी राजनीति भी अगर मुनाफे से प्रभावित हो रही है तो लोकतंत्र के बचाने की ज़िम्मेवारी किसकी है ?धार्मिक संप्रदायवाद की तरह भाषा और प्रदेशवाद भी एक तरह की सांप्रदायिकता है. गुजरात की राज्यसत्ता ने भाषावाद और प्रांतवाद को ख़ूब इस्तेमाल किया है. बंगाल के बुद्धीजीवी नंदीग्राम के सवाल पर किसी भी राजनीतिक दल से ज़्यादा सक्रिय हैं. हमें लगता है कि बंगाल के बुद्धीजीवी संप्रदायवाद के जाल को काटना जानते हैं. हमें बंगाल के एक-एक ग्रामेर मानुष, कलाजीवी, बुद्धीवीजी, शिल्पकार समाज पर पूरा भरोसा है, वे बंगाल को बदलकर दम लेंगे.(प्रस्तुतिः पुष्पराज)

www.raviwar.com से साभार

Friday, December 7, 2007

नंदीग्राम से खुलती मार्क्सवादी भूमिसुधारों की पोल

डरावनी कहानियों का रंग उतरना शुरू हो गया हैं. ऐसे में इस तूफान के पीछे के कारणों को जानना महत्वपूर्ण है.
पहेली जैसा प्रश्न ये है कि सीपीएम ने नंदीग्राम मामले में जो हुआ वो क्यों होने किया? शायद वे उस चीनी नेतृत्व के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे रहे थे, जिसने खुलेआम थिआनानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन का दमन किया था और उसके बाद इतना कड़ा रुख अपनाया गया कि बीजिंग के महाशक्ति के रूप में तेज़ी से उभरने की वजह से अब इस बारे में कोई बात भी नहीं करना चाहता.
हालांकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी विशेष आर्थिक क्षेत्रों की जरूरत के सवाल पर एक मत नहीं हैं. पार्टी के ज्यादातर सदस्य इण्डोनेशियाई भागीदारी को लेकर सशंकित हैं. पार्टी का एक दूसरा बड़ा खेमा किसानों की जमीनें अधिग्रहित करने के मुद्दे पर खुश नहीं है. फिर ऐसा क्या है कि पार्टी नेता भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन को दबाने की कोशिशें कर रहे थे? इसका जवाब साफ है. दरअसल नंदीग्राम में पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार की कई कड़वी सच्चाईयां दफन हैं.
भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं.
इससे अलग दूसरा कारण ये कि पार्टी के बहुत से कैडरों की निगाहें उस सूत्र पर भी गड़ी हुई हैं, जिसके तहत वे करोड़ों की सेज परियोजना में अपने लाभ का गणित हल कर सकते हैं.
पूरा मिदनापुर जिला और खासतौर से नंदीग्राम क्षेत्र मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है. वहां भूमि सुधारों की प्रक्रिया के दौरान बड़ा उत्साह देखा गया क्योंकि ज़मींदारों से अपनी खुन्नस निकालना, उन्हें चिढ़ाना उस समय पार्टी समर्थकों का एक पसंदीदा सिद्धांत बन गया था. दूसरी ओर भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. यानी जमीनों पर कागजी कब्जा एक तरह से सीपीएम के पास है. कागजातों का सीपीएम के पास होना ही वो राज़ है, जिसके कारण सीपीएम अचानक उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत तक वोट झटकने की स्थिति में पहुंच गई. लोग अपनी ज़मीन छिन जाने के डर से सीपीएम का हर हाल में साथ देने के लिए मजबूर थे. जब सेज का प्रस्ताव आया तो इस क्षेत्र को चुना भी इसीलिए गया. सीपीएम नेता इस अतिविश्वास में थे कि यहां के लोग इस मुद्दे पर ज़्यादा विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जमीनों के कागजात तो पार्टी के कब्जे में थे.
लेकिन, जिस बिंदु पर सीपीएम गौर नहीं कर पाई, वो ये कि बिना कागजातों के भी भूमि नंदीग्राम के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी थी. बस पहले से ही पक्षपात के शिकार किसानों ने छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने का निर्णय लिया. उन्होंने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति(बीयूपीसी) के बैनर तले अपने को संगठित किया और राज्य पुलिस, प्रशासन और सीपीएम के अनधिकृत बाहुबलियों से जमकर लोहा लिया. 14 मार्च, 2007 को हुए संघर्ष में 140 से ज्यादा किसान मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए. नतीजा ये निकला कि सीपीएम समर्थकों का उस क्षेत्र के गांवों में रह पाना मुश्किल हो गया. भाग कर सभी ने खेजुरी के शरणार्थी शिविर में शरण ली.
नवम्बर से पहले अधिग्रहण का विरोध कर रहे बिना कागजातों की ज़मीन वाले लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी हो गया. सीपीएम की योजना के मुताबिक अब तक इन किसानों द्वारा जोती जा रही भूमि पर पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा कब्जा किया जाना था. केवल कागजी कब्जे से तो कोई मकसद हासिल होने वाला था नहीं जब जमीन पर असल कब्जा अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का था. और ज्यादा दिन अगर ये सब चलता तो ये बात भी दुनिया के सामने आ जाती कि भूमि सुधारों में दी गयी ज़मीनों के कागजात सीपीएम के ऑफिसों में रखे हुए हैं.
दुख इस बात का है कि कई राज्यों में कांग्रेस भी कुछ ऐसी ही कार्य-प्रणाली अपना रही है. आपात भूमि सुधार के दौरान जिन लोगों ने जमीनें पाईं थीं, उनमें से बहुत-से लोग अब खेती में रुचि नहीं रखते. बहुत सारे जो पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं, आरक्षण के तहत नौकरी पा गए और शहरों में चले गए गए. लिहाजा वे बस नाम के ही भूस्वामी रह गए. स्थानीय दबंग नेता अनपढ़ गरीब किसानों को इन नाममात्र के भूस्वामियों के रूप में दिखा कर पावर ऑफ़ अटॉर्नी अपने किसी आदमी के नाम करवा देते हैं. बाद में इन जमीनों को किसी अनजान अप्रवासी भारतीय को बेच दिया जाता है. ये लोग जमीनों को एक लाभकारी निवेश के रूप में देखते हैं. यानी कि जो काम महाराष्ट्र में कांग्रेस कर रही है वही काम नंदीग्राम में वामपंथी कर रहे हैं.
शरद जोशी
(लेखक राज्य सभा सदस्य और किसानों के मुद्दों से जुड़ी संस्था शेतकरी संगठना के संस्थापक हैं)

तहलका हिन्दी से साभार

किस्सा कैडर का


विचारधारा के लिए लड़ने वाले सिपाही या राजनीतिक गुंडे ? पश्चिम बंगाल में पिछले तीन दशक से सीपीएम के अबाध राज का राज़ कैडर ही रहे हैं. कैसे कैडर सीपीएम की मदद करते हैं और इसमें उनका क्या फायदा है बता रहे हैं शांतनु गुहा रे...
भास्वती सरकार कार्ल मार्क्स के केवल नाम से ही परिचित हैं, मगर मार्क्स के सिद्धांत क्या हैं ये जानने के लिए उन्होंने उनकी किताबों को कभी नहीं खंगाला. 34 वर्षीय ये स्कूल शिक्षिका अपने पति(राज्य परिवहन निगम में क्लर्क) के साथ कोलकाता के दक्षिणी इलाके में रहती हैं. समर्पित सीपीएम कैडरों की तरह ये दोनों पति-पत्नी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) की गढ़िया से निकलने वाली रैलियों का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं. सरकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन पर बात तो करती हैं लेकिन अपनी तस्वीर छपवाने के सवाल पर पीछे हट जाती हैं. हालांकि उनके पड़ोसी बताते हैं कि सरकार को रैलियों में नारे लगाने के बदले पैसे मिलते हैं, लेकिन वो इस बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं.
गौरतलब है कि ये महिला कैडर, पार्टी में और पांच साल बिताने के बाद नेता के रूप में अपनी पदोन्नति का सपना संजोए हुए है. सरकार का पार्टी से जुड़ाव छात्र जीवन में ही हो गया था. तब वो स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया(एसएफआई) की एक सामान्य सदस्य थीं और उसी दौरान उन्होंने पहली बार सीपीएम की रैली में भी हिस्सा लिया था. कैडर सत्ता का उतना आनंद नहीं ले पाते. लिहाजा सरकार सहित राज्य के लाखों कैडर राज्य के शीर्ष पार्टी नेताओं के संपर्क में आने की अपनी बारी के इंतजार में हैं. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के लिए नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.
पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.
अब जरा ये देखें कि पार्टी के प्रति इस अंधभक्ति के फलस्वरूप सरकार जैसे लोगों को मिलता क्या है.
पहले राज्य में सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया राज्य सरकार के हाथ में होती थी और इनमें से 90 प्रतिशत तक नौकरियां प. बंगाल में सीपीएम कैडरों की झोली में ही जाती थीं. नौकरियों से योग्यता का कोई लेना-देना नहीं था और वामपंथ से थोड़ा-सा जुड़ाव ही पर्याप्त योग्यता मानी जाती थी. कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया को कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) के जिम्मे कर दिया मगर अब भी सैकड़ों अस्थाई नियुक्तियां स्थानीय नेताओं के निर्देशों पर ही होती हैं. चाहे सरकारी नौकरी हो, नगर परिषद् की या फिर किसी निजी संस्थान की - पार्टी का संदेश स्पष्ट हैः यदि आप हमारे साथ हैं, तो हम भी आपका ध्यान रखेंगे.
बहरहाल, कैडर के सवाल पर सरकार कहती हैं, “मैं एक कैडर हूं और पार्टी के लिए काम करती हूं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कोई गुंडा-बदमाश हूं.” वो एक सीधा-सा सिद्धांत जानती हैं - पार्टी के प्रति अंधभक्ति कैडर के जीवन और उसकी प्रगति की अनिवार्य शर्त है. यानी कैडर को हर हाल में पार्टी के पक्ष में खड़ा होना है, पार्टी के बचाव का रास्ता तलाशना है. वह इसे पलटवार का सिद्धांत कहती हैं. उनका मानना है कि विरोधी हर कदम पर पार्टी पर कीचड़ उछालते रहते हैं, लिहाजा कैडरों को उसके जवाब के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है.
उदाहरण के तौर पर जिस दिन फिल्मकार अपर्णा सेन ने नंदीग्राम विरोधी रैली में हिस्सा लेने का निर्णय किया, कैडर पहले से तैयार थे कि मीडिया में उन्हें क्या कहना है. सेन के इस कदम पर कैडरों ने ये प्रचारित करना शुरू किया कि कोलकाता में हाल में संपन्न हुए फिल्म समारोह में अध्यक्ष न बनाए जाने को लेकर वो सरकार से नाराज थीं. जिन तक ये कहानी नहीं पहुंच पाई थी, उन्होंने दूसरा कारण गढ़ा: सेन इसलिए नाराज थीं क्योंकि राज्य सरकार ने सेन की अगली फिल्म को वित्तीय सहायता देने से इनकार कर दिया था.
पश्चिम बंगाल में यदि आप एक कैडर हैं, तो आपको न केवल इस सिद्धांत में विश्वास करना होगा, बल्कि इसे प्रचारित-प्रसारित भी करना होगा. यानी जमीनी स्तर पर व्यावहारिक मार्क्सवादी सिद्धांत यही है.
स्थानीय न्यूज चैनल तारा बंगला की संपादक सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है. गली के नुक्कड़ पर होने वाली सभा में वक्ता के रूप में कोई प्राध्यापक भी हो सकता है. किसी सार्वजनिक सभा में भीड़ जुटाने वाला संयोजक हो सकता है. पास-पड़ोस के तलाक, किराएदारी, असफल प्रेम प्रसंग जैसे मामलों को सुलझाने के प्रयास करता कोई कार्यकर्ता भी हो सकता है और विरोधियों के खिलाफ क्रूर कार्रवाई करने वाला कोई क्षेत्रीय गुंडा भी हो सकता है, जिसे सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त होता है.”
चट्टोपाध्याय अपने स्टूडियो में घटी एक घटना का उदाहरण देती हैं. एक प्राइमटाइम शो के खत्म होने के बाद उन्होंने स्टूडियो में मौजूद और सत्ताधारी पार्टी से निकटता रखने वाले गार्डन रीच इलाके के डॉन झुनू अंसारी से पूछा कि क्या उन्होंने अपने आदमियों को नंदीग्राम में जवाबी कार्रवाई के लिए भेजा था. अंसारी ने ऐसा करने से तो इनकार किया लेकिन ये जरूर बताया कि ज्यादातर कैडर बंगाल के बाहर से आए थे.
सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है.
जानकार बताते हैं कि ज्यादातर माकपाई कैडर बेरोजगार हैं और सीपीएम से उनके जुड़ाव के कई कारण हैं. एक तो इससे उनकी कुछ आमदनी की गारंटी हो जाती है, दूसरे, उनका एक सामाजिक स्तर बन जाता है और साथ ही प्रसिद्धि की राह पर पहला कदम भी पड़ जाता है.
सीपीआई(एमएल) के वरिष्ठ नेता अरिंदम पाल स्वीकारते हैं कि “पार्टी के कई कार्यकर्ता मुश्किलें खड़ी कर देने वाले हैं. शीर्ष कामरेड इसे महसूस भी करते हैं लेकिन उन्हें पता है कि राजनीति में आपको बुद्धिजीवियों की नहीं, ऐसे ही तत्वों की जरूरत पड़ती है.” उन्होंने हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर घटी घटना का हवाला दिया, जहां कैडरों ने एयरपोर्ट यूनियन के चुनाव प्रचार के दौरान एक तरह से इस पर कब्जा कर लिया था. इस उपद्रव के कारण एयरपोर्ट्स अथॉरिटी के लगभग 55 प्रतिशत कर्मचारी काम पर आए ही नहीं. हॉवड़ा स्टेशन पर होने वाले रेलवे इम्प्लाइज यूनियन के चुनाव में भी इसी नजारे की उम्मीदें लगाई जा रही है. “ये तो राष्ट्रीय चुनाव है, और मुंबई व दिल्ली के मतदाता भी वोट देने आएंगे. लेकिन मुंबई में विक्टोरिया टर्मिनस के पोस्टरों से पटे होने और कामकाज ठप्प होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दरअसल, ये सब सिर्फ बंगाल में ही संभव है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी इस तरह के चुनावों को अपने जनाधार से जुड़ाव का आदर्श रास्ता मानती है. यही दरअसल कैडर हैं”, कहते हैं सीपीआई(एमएल) के ही कार्तिक सेन.
शहर के जादवपुर विश्वविद्यालय में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान छात्रा सोहिनी मजुमदार कहती हैं, “सभी पार्टियों की तरह वाम मोर्चे में और सीपीएम में भी इस तरह के लोग इसलिए हैं, क्योंकि आप खुद इस तरह के लोगों का समर्थन चाहते हैं. लेकिन उनके बारे में नकारात्मक सोच इसलिए बन गई है क्योंकि ज्यादातर घटनाओं में उनके बुरे पक्ष को ही सामने लाया जाता है.” इस तरह की शुरुआती घटनाओं में से एक 1990 में उत्तरी कोलकाता के विधानसभा चुनाव में हुई थी जहां स्थानीय डॉन नंदा के नेतृत्व में अपराधियों ने सुबह 10 बजे ही बूथ पर कब्जा कर लिया था. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया से सक्रिय रूप से जुड़ी मजुमदार स्वीकारती हैं, “वहां नंदा का खुलेआम रिवाल्वर लहराना निश्चितरूप से परेशान करने वाली बात थी.” लेकिन वो ये भी कहती हैं कि अब परिस्थिति बदल रही है और हाल ही में पार्टी ने इस तरह के 12 हजार लोगों को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया है.
प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य अमाल मुखर्जी कहते हैं, “कैडर ब्रिगेड, कार्यकर्ता बनने के लिए मौका देख कर सुविधानुसार अपने रंग बदलता है. चूंकि उनके पास आरएसएस की शाखा की तरह कोई नियमित अड्डा नहीं होता और उन्हें रोज सुबह परेड नहीं करनी पड़ती, लिहाजा उन्हें पहचानना मुश्किल होता है.”
पास के ही सरकारी स्कूल में पार्टी की स्थानीय शाखा की एक बैठक चल रही है जहां कार्ल मार्क्स, लेनिन, प्रमोद दासगुप्ता व ज्योति बसु जैसे नेताओं के कटआउट लगे हुए हैं. पूछे जाने पर सभा के आयोजक अनिरबन रॉय चौधरी कहते हैं, “यहां ऐसी कोई गलत चीजें नहीं है. किसी के पास कोई गोली-बंदूक नहीं होती. ये तो पश्चिम बंगाल के बारे में मीडिया की अपनी कपोल कल्पना है. कैडर तो अनुशासित कार्यकर्ता मात्र होते हैं जो पार्टी हित में जमीनी जनाधार जुटाने का काम करते हैं.”
वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक, केंद्रीय कर्मचारी उत्पल मित्रा कहते हैं, “कोई राजनीतिक पार्टी किसी राज्य में तीन दशक तक सिर्फ इस वजह से सत्ता में नहीं रह सकती, क्योंकि उसके पास कैडर के रूप में असामाजिक तत्व हैं.” मित्रा नंदीग्राम के प्रेत को दफन करने के लिए शहर भर में निकाली जा रही रैलियों का नियमित हिस्सा होते हैं.
वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है.
अब सवाल ये उठता है कि राज्य भर में कैडरों की वृद्धि को आखिर प्रोत्साहित किसने किया है और उनकी संख्या इतनी कैसे हो गई जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है? विश्लेषक कहते हैं कि शुरुआत 1977 में सीपीएम के सत्ता में आने के साथ हुई. पश्चिम बंगाल में रीयल एस्टेट कारोबार में तेजी की शुरुआत ही हुई थी. इससे जुड़े हर तरह के फायदे पार्टी से जुड़े लोगों को दिए जाने लगे. देखादेखी और लोग भी बहती गंगा में हाथ धोने को सीपीएम से जुड़ने लगे. भूमि सुधारों ने भी लोगों की पार्टी के प्रति अंधस्वामिभक्ति सुनिश्चित की.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निरबेद रे कहते हैं, “वास्तव में सीपीएम में कैडरों की भीड़ 1990 में आनी शुरू हुई और ये आज तक जारी है.” रे आगे जोड़ते हैं, “इन कैडरों ने राज्य के मतदाताओं का विस्तृत डाटाबेस तैयार किया, जो चुनावों के दौरान पार्टी के काम आया और क्षेत्र पर पकड़ बनाने में उनकी मदद की. कैडरों के पास अपने पास-पड़ोस के बारे में जो सूक्ष्म जानकारी होती है, वो अन्य पार्टियों के पास नहीं होती और ये जानकारी उन्हें बड़ी मदद पहुंचाती है.” रे की मानें तो वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है. “लेकिन आज अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों व नव उदारवादी नीतियों का समर्थन, बाहुबलियों पर भरोसा और अपने सहयोगियों के प्रति उपेक्षापूर्ण बरताव वामपंथी राजनीति का शगल बन गया है.” रे आगे कहते हैं, “आज तो कैडर नंदीग्राम में लोगों को धमकाने, उन्हें वहां से बेदखल करने या फिर उन्हें अपने प्रभाव में लेने संबंधी पार्टी के अभियान का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.”
कैडरों की क्रूरता की पहली घटना 1978 में तब सामने आई थी जब उन्होंने बीरभूमि जिले के मारिचझापी में असहाय बांग्लादेशी शरणार्थियों पर फायरिंग में पुलिस का साथ दिया था. रे कहते हैं कि “उसके बाद तो इस तरह की घटनाओं का सिलसिला सा चल पड़ा. शहर के एक पुल से गुजर रहे 17 आनंदमार्गियों की सरेआम हत्या इसी तरह की एक जघन्य घटना थी, लेकिन नंदीग्राम आज इन सभी घटनाओं को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष पर पहुंच गया है क्योंकि सभी को ऐसा लग रहा है कि हथियारबंद कैडरों की वहां उपस्थिति व उनके द्वारा की गई हिंसा को पार्टी खुद ही जायज ठहरा रही है.”
वरिष्ट स्तंभकार प्रभाष जोशी भी सच की पड़ताल में एक दल के साथ नंदीग्राम गए थे. उनका कहना है कि कैडर नजर न आने वाली ऐसी इकाई है जिसमें अनवरत बढ़ोतरी हो रही है. “ये तो आप भाग्यशाली थे जो नंदीग्राम में इनमें से कुछ को देख पाए, वरना ग्रामीण इलाकों में जिन कैडरों को बाइक वाहिनी के रूप में जाना जाता है, उनके बारे में तो शायद ही किसी को पता हो.”
राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एस.एन. भार्गव कहते हैं कि कैडर एक ऐसी विध्वंशक सेना हैं जिसकी ताकत पुलिस की मिलीभगत से बनती है. भार्गव कहते हैं, “नंदीग्राम के कैडर पश्चिमी मिदनापुर, बांकुरा व 24-परगना जिलों से आए थे और वे स्वचालित आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल में पूर्ण प्रशिक्षित थे.”
कुछ भी हो कैडर तो इन सब चर्चाओं से बेखबर अपनी प्राथमिकता वाले कामों में आज भी व्यस्त हैं. और ये काम हैं--नंदीग्राम की हिंसा की लीपापोती और सरकारी तंत्र के पार्टी हितों के आगे घुटने टेकने के आरोपों को खारिज करना.
तहलका हिन्दी से साभार

Wednesday, November 21, 2007

गिद्ध नजर के साए में किसान



aneeta
krishi क्षेत्र की सब्सिडी घटाने के लिए विकसित देशों के दबाव, विशेषज्ञों के सुझाव और भारतीय खाद एसोसिएशन की मंशाएं हम अक्सर सुनते रहते हैं, लेकिन कोई भी ऐसा पुख्ता विचार या फार्मूला अब तक सामने नहीं आया है कि सब्सिडी खत्म करके भारतीय किसानों की स्थिति बेहतर बनाई जा सकती है। जो भी अभिकरण सब्सिडी खत्म करने की वकालत करते हैं, उनके अपने लक्ष्य हैं, जो उनके मुनाफे का पोषण करते हैं। विकसित देश अपनी सब्सिडी के दम पर अपने कृषि उत्पादों से तीसरी दुनिया के देशों को पाट रहे हैं और वे नहीं चाहते कि गरीब देशों के किसान इस हालत में रह पाएं कि वे सही कीमत का अनाज उपजा सकें। खाद एसोसिएशन भी कहती रही है कि खाद पर सब्सिडी हटा दी जाए, ताकि वे भी खुले बाजार में कीमतों के उतार–चढा़व का स्वाद चख सकें। पर लाख टके की बात यह है कि जब विकसित देश भी अपनी कृषि के लिए बिना सब्सिडी का मैकेनिज्म विकसित नहीं कर पाए हैं और वे संरक्षणवादी नीतियां अपना रहे हैं, तो भारत सहित विकासशील देशों पर सब्सिडी हटाने का जोर क्यों दिया जा रहा है और विकसित देशों की द्विस्तरीय बात विकासशील देश क्यों माने। खेती में काम आने वाला सबसे बड़ा कच्चा माल खाद है, जिसके मैक्सिमम रिटेल प्राइस पर सरकार का नियंत्रण है, ताकि किसान उसे खरीदने की हिम्मत जुटा सकें। किंतु खाद का उत्पादन और वितरण महंगा है, तो खाद निर्माता को सब्सिडी देकर भरपाई की जाती है। एक विचार यह है कि खाद सहित सभी कृषि सब्सिडी पर सरकार नियंत्रण हटा दे। कीमत नियंत्रण भी समाप्त हो जाए और सब्सिडी का फायदा ऐसे किसानों तक सीधे पहुंचाया जाए, जिनको वाकई इसकी जरूरत हो। इससे कृषि क्षेत्र को मजबूत करने का नया रास्ता खुलेगा। कहा जाता है कि खाद पर सब्सिडी का फायदा किसानों के बजाय खाद निर्माताओं को होता है। सरकार सहित देश को पता है कि देश में 65 प्रतिशत लोग खेती–किसानी पर आश्रित हैं और करोड़ों किसानों को सीधे सब्सिडी देना बड़ा खर्चीला और भ्रष्टाचार को आमंत्रण देने वाला काम है। इसीलिए देश में खेती के लिए आवश्यक चीजों पर सब्सिडी का मॉडल अपनाया गया। अति विकसित देशों ने सब्सिडी के दम पर विश्व के कृषि बाजारों पर कब्जा किया हुआ है। इसलिए ही वे नो–सब्सिडी की वकालत करते हुए गरीब देशों से हर हाल में सब्सिडी हटा लेने का दबाव देते हैं। उत्पादन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, समर्थन मूल्य और निर्यात किसी भी स्तर पर दी जाने वाली सब्सिडी को वे हटवाने के लिए कई प्रकार के कूटनीतिक षडयंत्र भी करते हैं, क्योंकि वे विश्व को राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक तौर पर पहले से ही दुनिया पर कब्जा जमाए हुए हैं और अब वे जीवन के लिए नितांत आवश्यक खाघ निर्भरता में सेंध लगाकर दुनिया को ब्लेकमेल करना चाहते हैं, ताकि वे दुनिया के कानून अपने हिसाब से बनाने का कुचक्र जारी रख सकें। अगर विकसित देश अपनी सब्सिडी और आयात नियंत्रण का जंजाल खत्म कर दें, तो दुनिया का खाघ नक्शा रातोरात बदल जाए और दुनिया में ये देश एक दाना भी निर्यात न कर सकें, जो विश्व गेहूं व्यापार पर राज करते हैं। विकसित देशों में किसानों की संख्या कम है। इसलिए वहां की सरकारें इन किसानों को भरपूर सब्सिडी देती हैं। सब्सिडी के कारण इन देशों के किसानों का सस्ता गेहूं और अन्य मुख्य फसलें मुनाफे का सौदा है और वह वहां की सरकारों के कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पीएल 480 के दिनों में खाघ कूटनीति तीसरी दुनिया के लिए अमरीका और यूरोप का प्रमुख हथियार था। भारत के मुकाबले विकसित देशों में कृषि पर कहीं ज्यादा सब्सिडी दी जाती है। 1999 के दौरान एक करोड़ किसानों के लिए अमरीका में 54 अरब डालर, यूरोपीय यूनियन के देशों में 114।5 अरब डालर और जापान में 58।9 अरब डालर की सब्सिडी दी गई, जबकि भारत में 65 करोड़ किसानों के लिए यह केवल 7.2 अरब डालर ही रही, जो कृषि उत्पादन के मुकाबले अमरीका में 24 प्रतिशत, यूरोप में 49 प्रतिशत, जापान में 65 प्रतिशत और भारत में महज 6.5 प्रतिशत थी। उनकी सब्सिडी उनके खाघान्नों की कीमतें विश्व बाजार में 20 प्रतिशत तक कम रखने का काम करती है, जिससे तीसरी दुनिया के किसानों को खेती–किसानी से मुनाफा नहीं मिल पाता है। तिस पर तुर्रा ये कि यही देश खाघान्नों की कीमतें उद्देश्यपरक बनाने की बातें करते हैं। पश्चिमी यूरोप में 1970 के दौर में कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत मुख्य फसलों का समर्थन मूल्य ऊंचा रखा गया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विदेशी जिंस का मूल्य देसज जिंसों के मुकाबले ऊंचा रहे, ताकि विदेशी जिंस वहां के बाजार में कब्जा न कर सकें। इसके बाद वहां निर्यात पर सब्सिडी भी दी जाने लगी, ताकि वे अपना अतिरिक्त भंडार निर्यात कर सकें, जिसे एक्सपोर्ट एन्हांसमेंट प्रोग्राम कहा जाता है। धीरे–धीरे खाघ घाटे के क्षेत्र कृषि अर्थव्यवस्था बन गए। 1970 में यूरोप को खाघान्न आयात करने पडे़, लेकिन सब्सिडी और आयात नियंत्रण के चलते 1980 में वह खाघ स्वालंबी हो गया। 1986 में तो यूरोप का खाघान्न, मांस, चीनी और दुग्ध उत्पादों का निर्यात अमरीका से भी ज्यादा हो गया। पिछले कई सालों से हम देख रहे हैं कि जब से बहुराष्ट्रीय और निजी कंपनियों को गेहूं और अन्य खाघान्न के भंडारण व खरीद की छूट दी गई है, तब से हालत यह हो गई है कि देश का बफर स्टॉक भी पूरा नहीं हो पा रहा है। निजी कंपनियां गेहूं को खरीद रही हैं और सरकारी एजेंसियां मुंह तक रही हैं। नतीजा यह है कि सरकार ने इसी महीने साढे़ तीन लाख टन गेहूं के आयात की घोषणा की है। इसमें किसानों की गलती नहीं है, जो बेहतर कीमत मिलने पर निजी कंपनियों को माल बेच रहे हैं। यह तो सरकार को सोचना पड़ेगा कि वह किसानों को बेहतर मूल्य क्यों नहीं दे पा रही है। अगर विश्व बाजार में गेहूं 1100–1200 रूपये प्रति क्विंटल होगा और देश में उसी समय समर्थन मूल्य 850 रूपये होगा, तो 250–350 रूपये के अंतर को मुनाफे में तब्दील करने के लिए निजी कंपनियां कसरत क्यों नहीं करेंगी। उन्हें ऐसा करने से तभी रोका जा सकता है कि जब किसी भी जिंस की लिवाली के समय विश्व कीमतों और घरेलू कीमतों में 100–150 रूपये से ज्यादा का अंतर न हो। इतना मार्जिन निजी कंपनियों को आकर्षित नहीं करेगा, क्योंकि इतना अंतर तो भंडारण, कमीशन, परिवहन में ही खर्च हो जाएगा। यूरोप ने कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत जो काम 1970 में किया था, उसे सरकार ने अब करने की इच्छा जताई है कि गेहूं का समर्थन अब लगभग 1000 रूपये रहेगा, जो तकरीबन विश्व कीमतों के आस–पास ही होगा और निजी कंपनियों के लिए ज्यादा आकर्षक नहीं होगा। अगले लिवाली सीजन में इस समर्थन मूल्य के बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। यूरोप की तरह भारत को भी बेहतर समर्थन मूल्य ही नहीं, बल्कि सब्सिडी भी जारी रखनी होगी, ताकि सस्ते अनाज से हमारे बाजारों को पाटा न जा सके। उरूग्वे चक्र से अब तक की वार्ताओं में अमरीका और यूरोप की नीतियां पूरी तरह संरक्षणवादी रही हैं। फिर भी विकासशील देशों पर सब्सिडी खत्म करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी से राष्ट्रीय सुरक्षा और खाघ सुरक्षा के सरोकार जन्मे हैं। कृषि की सब्सिडी पर होने वाली अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत को यह बात प्रमुखता से उठानी चाहिए कि किसानों और कृषि को सब्सिडी बंद किए जाने से अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाती है, तो सबसे पहले विकसित देशों के किसानो को सब्सिडी बंद करने का मॉडल पेश करने की पहल करनी चाहिए, ताकि विकासशील देश उसका अनुसरण कर सकें। किंतु ऐसे प्रयोग गरीब देशों की धरती पर करने की कोशिशों को खारिज किया जाना चाहिए, जो हर सूरत में जानलेवा साबित होने वाली हैं। खाद, जल, बिजली, फसली बीमा और ग्रामीण क्षेत्रें में कोई भी निजी कंपनी सक्रिय नहीं होना चाहती, क्योंकि ये घाटे के सौदे हो सकते हैं, जबकि निजी कंपनियों का इंजन मुनाफे से चलता है। लेकिन सरकार के लिए मुनाफा मायने नहीं रखता। उसके लिए गरीबों व किसानों का संरक्षण ही सर्वोपरि होता है।इसलिए सब्सिडी जरूरी हो जाती है, जो सरकार की उच्चतम क्षमता पर निर्भर करती है। खाघ पदार्थ, खाद, बिजली और सिंचाई पर सब्सिडी 80 हजार करोड़ रूपये है। प्रधानमं®ी मनमोहन सिंह ने 11वी योजना के सिलसिले में सब्सिडी की समीक्षा पर भी जोर दिया है, किंतु कृषि की बात करते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कृषि क्षे® की सब्सिडी से सीधा आम और गरीब आदमी का ताल्लुक है। एक आ॓र अमीर मुल्क अपने किसानों और उत्पादों को सब्सिडी दें और उन्हीं उत्पादों का हम खरीदें, क्योंकि वे सस्ते हैं और हम अपने किसानों को बर्बाद कर दें, क्योंकि उनकी लागत या उत्पाद मूल्य ज्यादा है। सस्ते खाघान्न की उलब्धता की मजबूरी की कीमत पर हम अपने किसानों की बर्बादी का नजारा देखना चाहते हैं।


raashtriiy sahaaraa se saabhaar

Monday, November 12, 2007

ज़्यादा घातक है आज का साम्राज्यवाद

ज्यादा घातक है आज का साम्राज्यवाद
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अष्टभुजा शुक्ल

अब डेढ़ सौ साल का कोई आदमी इस दुनिया में सदेह नहीं बचा है जिससे पूछा जाय कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम का आंखों देखा हाल सुनाओ। अब वह मुकम्मल तौर पर इतिहास है जिसके बहुत सारे लिखित-अलिखित बयान पिछली तारीखों में दर्ज हैं। फिर भी वह हिन्दुस्तान का स्वाभिमान वर्ष है जिसमें किसी देश और समाज का मुक्तिकामी तुमुलनाद सुनाई देता है। मुट्ठीभर परजीवी उपनिवेशवादी शक्तियों की अजगरी जकड़न में कोई महादेश किस तरह पिसता चला गया और क्यों चला गया, इसकी शिनाख्त और आत्मालोचन के लिए 2007 भी आने वाले भविष्य में एक इतिहास की ही तरह रेखांकित किया जाएगा। 1857 की राष्ट्रीय क्रांति की हकीकत और फसाने को लेकर आज की तारीख में पुनर्मूल्यांकन या पुनर्पाठ का दौर जारी है तथा विचारकों का बौध्दिक संग्राम छिड़ा हुआ है। इस घमासान में 1857 से 1947 तक की रील का फ्लैशबैक विभिन्न पहलुओं को उजागर कर रहा है जिसे लेकर बुध्दिजीवियों के अपने-अपने पक्ष, तर्क एवं निहितार्थ हैं। एक वर्ग जहां इसे तत्कालीन सामंतवादी शक्तियों की निजी हितरक्षा का विक्षोभ मान रहा है तो दूसरा वर्ग जनसाधारण के राष्ट्रीय प्रतिरोध का उत्कट बलिदान। अन्य प्रकार के बुध्दिजीवी इस मूल्यांकन में ब्रिटिश हुकूमत की वकालत में उस स्तर की सोच तक पहुंच गए हैं जहां 'अंग्रेज देर से आए और पहले ही चले गए', का हाय-हाय और पश्चाताप प्रकट हो रहा है।

जो भी हो अलग-अलग ढपली का एक सामूहिक और सुखद राग यह है कि 1857 पूरी गंभीरता के साथ बहस एवं चर्चा के केंद्र में है। यह स्वाधीनता की कामना और ऊर्जा के साथ किसी भी राष्ट्र की संजीदा धड़कन का जीवंत प्रमाण है। इसके सापेक्ष 1947 की 50वीं स्वर्ण जयंती की बहसें सिर्फ इश्तिहार और चूं-चूं मुरब्बा साबित हुईं। इसके कारण सुस्पष्ट हैं। जो सत्ता की आजादी होती है, वही जनता की आजादी नहीं होती एवं जो सत्ताओं के संग्राम हैं, वहीं जनसंग्राम नहीं होते। संदेहास्पद आजादी को पाकर भी जनसाधारण उतना उल्लसित नहीं हो सकता जितना कि मुक्ति संग्राम के स्मरण मात्र से वह रोमांचित हो उठता है। इस विमर्श में जहां गदर के गद्दारों को भी याद रखने पर बल दिया जा रहा है वहीं राजनैतिक गुलामी के चोले में निहित सामाजिक गुलामी को भी उधेड़कर प्रतिगामी ताकतों को चिन्हित किया जा रहा है। नायकों और खलनायकों की पहचान के क्रम में 1857 का इतिहास सचमुच हमारी पिछली आंख का काम कर रहा है।
इसमें रत्ती भर संदेह नहीं कि भारत का विपुल जन समुदाय दोहरी गुलामी की प्रतारणा झेल रहा ता। ब्रिटिश गुलामी की भीतरी पर्तों में वर्ण व्यवस्था की व्याधि भी कम यातनाप्रद नहीं रही। मनुष्य की सामाजिक हिकारत और घृणा किसी कोढ़ से कम न थी। इसके फलस्वरूप जो लोक जीवन के जनविद्रोह और बलिदान रहे, वे वर्चस्वशाली वर्ग की प्रभुता के आगे ठीक से रेखांकित ही नहीं हो सके। फिर भी 1857 की ज्वाला और राष्ट्रीय स्वाभिमान को साहित्य में जो सबसे जोरदार और लोकप्रिय स्वर मिला वह 'चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' वाला ही था। यह हो सकता है कि अंग्रेजी उपनिवेश का प्रतिरोध समाज की फुटकर अस्मिताओं द्वारा अपने-अपने स्वार्थों के नाते ही हुआ हो किंतु भिन्न मन्तव्यों एवं स्थानों से उठी हुईं चिनगारियां संपूर्ण राष्ट्रीय विप्लव की शक्ल में घटित हो सकीं। इस ऐतिहासिक राज्य क्रांति में स्त्री, दलित, सामंत, सवर्ण, हिन्दू , मुस्लिम 'एक प्रान, दुई गात' थे। 1957 में ही जन्में हिन्दी साहित्य के एक ऐतिहासिक व्यक्ति बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री का भी जन्म हुआ जिन्होंने गद्य-पद्य (खड़ी बोली और ब्रजभाषा) की एक भाषा अर्थात खड़ी बोली करने का आह्वान किया था। जिसका ग्रियर्सन के साथ भारतेन्दु मंडल के अनेक लेखकों ने प्रतिवाद किया तो फ्रेडरिक पिन्काट ने समर्थन। इस दृष्टि से यह भाषा, धर्म, जाति, राज्य आदि क्षेत्रीयताओं के सामूहिक उद्धोष का नवजागरण था 1857। लेकिन लक्ष्मीबाई के मर्दाने व्यक्तित्व के पीछे ऊदा देवी, झलकारी बाई आदि वंचित समूहों की क्रांति नेत्रियों का अवदान काफी बाद में आंकने की बाध्यता तभी हुई जब अवर्णों के भीतर अपनी अस्मिता का तीव्र राजनैतिक, सामाजिक और शैक्षणिक बोध हुआ। उपनिवेशवाद के विरूध्द मुक्ति संग्राम में उनकी जितनी बढ़-चढ़कर भागीदारी थी उससे कम लोहा उन्हें अपने समाज की वर्ण व्यवस्था से भी नहीं लेना पड़ा। पूर्व में पेरियार के सामाजिक विद्रोह को आत्मसात करके बेशक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस वैचारिक चेतना का सूत्रपात किया उससे भारतीय समाज के दलित और वंचित वर्ग में एक नई जागृति आई। किंतु इसका सामाजिक सत्यापन एवं क्रियान्वयन स्व. कांशीराम की प्रेरणा, सूझबूझ और राजनीतिक सक्रियता से ही संभव हो सका। आरंभ में उन्होंने सवर्ण मानसिकता के विरूध्द आवश्यक आक्रोश पैदा करके दलितों का जैसा ध्रुवीकरण किया, उसके अतिरिक्त इस चिर-रूढ़ समाज को आंदोलित करने का कोई दूसरा चारा ही न था।

विधिक रूप से स्वाधीन हो जाने के बावजूद दलितों और दलितों में भी दलित स्त्रियों की सामाजिक स्थिति भारतीय वर्ण-व्यवस्था की शिकार रही। किंतु तेजी से घटित हो रहे परिवर्तनों ने न केवल इन समूहों को मुखर बनाया बल्कि उनके भीतर अपनी अस्मिता के प्रति ऐसी अदमनीय कामना उत्पन्न की कि संदेहास्पद आजादी बहुत कुछ चरितार्थ होने लगी। कांशीराम की उसी प्रेरणा से लैस होकर अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता और आत्मबल की बदौलत मायावती ने तताम पुरूष-सत्ताओं के सिंहनाद को फुस्स कर दिया और पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता पर आरूढ़ होकर तमाम अटकलों को 2007 में नकार दिया। 2007 में ही आजाद भारत राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी उल्लेखनीय हो गया। महामहिम पद के लिए पहली बार ऐसी गर्दिश मची। यहां यह भी ध्यातव्य है कि पिछले राष्ट्रपति चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक कमांडर कैप्टन लक्ष्मी सहगल का भी नाम तेजी के साथ उभरा था, तथापि डॉ. कलाम एक सम्मानित और लोकप्रिय राष्ट्रपति सिध्द हुए। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में मल्ल-प्रतिमल्ल जैसे आरोप-प्रत्यारोप तो खूब हुए लेकिन युगल प्रत्याशियों के सपनों को गौर से नहीं देखा गया। संप्रति महामहिम प्रतिभा पाटिल ने चुनाव पूर्व जिक्र किया था कि स्वामी लेखराज ने उनसे सपने में कहा था कि 'तुम्हें आने वाले समय में देश के लिए महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाना है।' आश्चर्य कि उनके ऐसे इलहाम पर तत्वदर्शी वामपंथियों को भी कोई एतराज नहीं हुआ। फिलहाल, प्रतिभा जी का सपना पूरा हो गया है। उन्हें यह भी जानना चाहिए कि देश की हर स्त्री का सपना राष्ट्रपति बनने का ही नहीं होता। अत: उनके छोटे-छोटे सपने यदि टूटने, रौंदने और बिखरने से बच सकें तो महिला राष्ट्रपति का पद और गौरवान्वित होगा। इसके बरक्स स्त्री-चेतना का विस्फोट इस कदर भी हो रहा है कि कुछ तथाकथित महिला संगठनों ने 'राष्ट्रपति' शब्द को पुरूष मानसिकता की देन बताते हुए इसे बदलने के लिए हल्ला मचाया है। दरअसल ये महिलाएं खुद पति-परंपरा से उपजी जान पड़ती हैं अन्यथा कोई भी पद लिंग, जाति अथवा धर्म वाहक नहीं होता।

उदारीकरण, बाजारीकरण और प्रचारीकरण की महालीला के बीच कन्या भू्रण हत्या, दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, शोषण, आत्महत्या जैसी शर्मनाक घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। तो दूसरी ओर नई पीढ़ी के बीच शिल्पा शेट्टियां, सहस्राब्दि के महानायकों, मास्टर ब्लास्टरों आदि की दीवानगी ने मुक्ति संग्राम के नायकों और योध्दाओं के त्याग और बलिदान को लगभग नजरअंदाज कर दिया है। अपने इतिहास की यह आत्महंता विस्मृति चिंताजनक है। स्वतंत्र हिन्दुस्तान के 2007 में हमें 1857 का एक नया चश्मा मिला है। देखने, परखने, पुनर्विचारने और प्रगतिशील भारत के निर्माण में हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। यह देखते हुए कि 1857 के एकांगी साम्राज्यवाद की तुलना में आज का साम्राज्यवाद बहुआयामी और ज्यादा घातक है।
मीडिया विमर्श से साभार

Wednesday, November 7, 2007

धान की जीन संशोधित क़िस्म पर चेतावनी



रामदत्त त्रिपाठी , लखनऊ
ग़ैरसरकारी संगठन ग्रीनपीस ने धान की जीन संशोधित क़िस्म का प्रयोग भारत में किए जाने के ख़तरों के प्रति गंभीर चेतावनी दी है.
पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठन ग्रीनपीस की भारत शाखा ने आगाह किया है कि अगर लोगों ने जैनेटिकली इंजीनियर्ड यानी जीन में संशोधन करके बनाए गए धान की क़िस्म को अपने खेतों में आज़माया तो उन्हें भी अमरीका के चावल उद्योग की ही तरह अरबों रुपए के नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है.
ग्रीनपीस का कहना है कि अमरीका में साल 2006 में इसी तरह के धान की क़िस्म आज़माई गई थी जिसने चावल उद्योग को एक अरब 20 करोड़ डॉलर का नुक़सान उठाना पड़ा था. ऐसे आरोप थे कि बेयर्स कंपनी के खेतों में आज़माई गई यह क़िस्म दूषित हो गई थी.
ग्रीनपीस ने 'रिस्की बिज़नेस-1' यानी 'जोखिमभरा कारोबार-1' नामक रिपोर्ट मंगलवार को लखनऊ में जारी की है जिसमें आगाह किया गया है कि उस क़िस्म को लखनऊ से क़रीब 25 किलोमीटर दूर महूरा कलाँ गाँव में बोया गया है जिसके ख़तरनाक परिणाम हो सकते हैं.
ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं और भारतीय किसान यूनियन के किसानों ने उस गाँव में लगभग 7500 वर्गफुट धान खेत को एक वैनर से ढक दिया जिस पर लिखा था, "धान बचाओ". उस बैनर पर बीच में जीई लिखा हुआ है जिसे लाल घेरे से काटा गया है जिसका मतलब लगाया जाता है कि उसका इस्तेमाल न करें.
ग्रीनपीस ने आहवान किया है कि भारत में जीई की चावल क़िस्म को बिल्कुल नहीं आज़माया जाना चाहिए.
ग्रीनपीस ने चावल की खेती को इस तरह की जीई क़िस्म से होने वाले ख़तरे के प्रति ख़बरदार करने के लिए यह रिपोर्ट तैयार की है और जागरूकता अभियान चलाया है.
एलएल601
वर्ष 2006 में अमरीका में बेयर्स की जीई चावल क़िस्म - एलएल601 के कुछ निशान चावलों में पाए गए थे और वह क़िस्म दूषित थी. दरअसल इस क़िस्म को प्रयोग के तौर पर 2001 में कुछ खेतों में बोया गया था और वहीं से यह दूषण फैल गया था.
इस दूषण की वजह से अमरीका के चावल उद्योग के इतिहास में सबसे बड़ा संकट आ गया था और उस दूषित क़िस्म की वजह से कम से कम तीस देशों पर इसका असर पड़ा था. बहुत से देशों ने अमरीकी चावल के लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिए थे जिनमें यूरोपीय संघ, जापान और फ़िलीपींस जैसे बड़े आयातक भी शामिल थे.
ग्रीनपीस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी राजेश कृष्णन - जीई मुक्त भारत - नामक अभियान की देखरेख कर रहे हैं. उनका कहना है, "यह भारत सरकार के लिए आँख खोलने वाली एक चेतावनी है जिसने जीई क़िस्मों को अपने यहाँ आने देने के लिए सारे दरवाज़े खुले छोड़ दिए हैं."
राजेश कृष्णन का कहना है, "चावल की उस जीई क़िस्म के एक छोटे से प्रयोग की वजह से अमरीका के चावल उद्योग में इतना बड़ा भूचाल आ गया था और उसकी वजह से बहुत से अमरीकी किसान फिर से संभल नहीं सके. भारत में इस तरह के संकट से बचने का बस यही एक रास्ता है कि इस तरह के फ़सल प्रयोग या उनकी पैदावार नहीं होने दी जाए."
जोखिम
ग्रीनपीस की इस रिपोर्ट में अमरीका के उस चावल उद्योग संकट का ज़िक्र किया गया है जिसमें अमरीका भर में चावल की आपूर्ति प्रभावित हुई थी और धान उगाने वाले किसानों, मिलों, कारोबारियों और दुकानों पर चावल बेचने वाले सभी कारोबारियों को बड़ा नुक़सान हुआ था.
इस संकट से अमरीका का लगभग 63 प्रतिशत चावल निर्यात प्रभावित हुआ था और चावल उद्योग को लगभग एक अरब बीस करोड़ डॉलर का नुक़सान होने का अनुमान लगाया गया था.
भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत का कहना था, "भारत में बासमती चावल के उत्पादक जीई तकनीक से मुक्त रहना चाहते हैं लेकिन जीई क़िस्मों का प्रयोग तो उन्हीं खेतों में होगा जिनके पास वाले खेतों में बासमती क़िस्म उगाई जाती है जिससे बासमती की क़िस्में दूषित होने का ख़तरा है और अगर ऐसा होता है तो देश का लगभग 7035 करोड़ रुपए का निर्यात बाज़ार प्रभावित हो सकते हैं और अंततः नुक़सान हमारे किसानों को भुगतना पड़ेगा."
भारत सरकार ने साल 2007 में देश में 12 स्थानों पर धान की जीई क़िस्मों का प्रयोग करने की इजाज़त दी है जिनमें से एक ऑउत्तर प्रदेश के लखनऊ के पास का एक गाँव भी है.
उस इलाक़े को हालाँकि बासमती के लिए मशहूर माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट के एक अंतरिम आदेश की वजह से उस क़िस्म की रोपाई करने में ज़रा देरी हुई है लेकिन वह अगले महीने तक भी हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी से साभार

Monday, October 15, 2007

साम्राज्यवाद सबसे बड़ा संकट


आजादी निरंतर संघर्ष का नाम है -आलोक धन्वा

आज़ादी का जो रास्ता है, वह मेहनतकश जनता के खून और पसीने से, उसके आंसुओं से भरा हुआ रास्ता है। मैं और मुझ जैसे हजारों हिंदुस्तानी जो कार्यकर्ता हैं, लोकतंत्र के और समाजवाद के, वे इस बेहद जटिल रास्ते पर चल रहे हैं.1947 में हमने जो आजादी पाई थी, वो हमेशा के लिए प्राप्त की गई कोई मंजिल नहीं है. आज़ादी एक निरंतर संघर्ष द्वारा हासिल करते रहने की संघर्ष प्रक्रिया है. जिसको हम आज़ादी कहते हैं, उसकी एक मंजिल हमको हासिल होती है. हम ये देखते हैं कि जिसको हम मंजिल कह रहे थे वहां भी ऐसे विकार, ऐसी विकृतियां पैदा हो सकती हैं, जो शोषण का एक अंग प्रवृत करती हैं.ताकत और स्वतंत्रता की जो खतरनाक लड़ाई है उसको भी समझने की जरुरत है क्योंकि ताकत हमेशा जो है स्वाधीनता के रास्ते को बाधित करने की कोशिश करती है. ताकत जब भी बहुमत जनता के बजाय व्यक्ति या किसी छोटे समूह के हाथ में होगी तो वो शोषण करने लग जाएगी. ताकत के एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के द्वारा तय की जानी चाहिए.ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम सबसे ज्यादा योग्य़ हैं इसलिए हम शासन करेंगे. ये बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जिसको हम योग्यता कहते हैं वह किसी एक समूह के द्वारा संपन्न नहीं होती. इसकी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. ये जो ज्ञान है, भौतिकता है ये सामाजिक प्रक्रिया है, ये एक सामूहिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक अच्छी कविता लिखते हैं. ये सिर्फ निजी नहीं है, मैं एक अच्छी कविता अकेले नहीं लिखता हूं, उसमें ऐसे हज़ारों बुद्धिजीवी शामिल हैं जो प्रक्रिया को संभव बनाते हैं, होने को संभव बनाते हैं. रचना की जो प्रक्रिया है, वह सामाजिक तौर पर संपन्न होती है.आज हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट है, वह है साम्राज्यवाद. सम्राज्यवाद ने पूरी दुनिया को जो चुनौती दी है और जो दमनचक्र उसने चलाया है, उसके सामने सब नतमस्तक हो गए हैं. इसके खिलाफ एक राष्टीय सोच बननी चाहिए, एक ऐसी राष्टीय सोच, जिसमें तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और बहुमत जनता के पक्षधर लोग शामिल हों. जो सम्राज्यवादी शोषण है, उसके प्रभुत्व से हम अपने उस राष्ट्र को आज़ाद करें, जिस राष्ट्र के लिए भगत सिंह और उसके साथी लड़े, जिस राष्ट्र के लिए गांधी और नेहरु लड़े. मैं गांधी जी का उल्लेख किसी भावावेश में नहीं कर रहा हूं. गांधी एक साधारण आदमी नहीं थे, आप एक मुहल्ले में यात्रा करते हैं और सफल नहीं हो पाते और गांधी जी नमक के लिए चले और पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो गया. ये कोई जादू नहीं है. गांधी से मेरी वैचारिक असहमति है लेकिन मैं गांधी को छोड़कर चलने के लिए तैयार नहीं हूं.देश में जो सबसे बड़ा आंदोलन हुआ, जिसमें जनता की व्यापक भागीदारी रही, वह था गैरकांग्रेसवाद का आंदोलन. देश में 1966 में पहली बार गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बनी. इसकी एक परिणति बिहार आंदोलन में देख सकते हैं, जिसके नेतृत्व में जयप्रकाश जी आते हैं और दूसरे सारे नेता उसमें शामिल होते हैं. ये एक बहुत बड़ा पोलराइजेशन था.साल भर बाद एक और महत्वपूर्ण आंदोलन शुरु हुआ और वो था नक्सलबाड़ी का आंदोलन. नक्सलबाड़ी के आंदोलन से किसी की असहमति हो सकती है लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन के पीछे एक बहुत बड़ा स्वप्न था. उस आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे आतंकवाद से जोड़ा जाए, बल्कि उसके पीछे मुक्ति का एक बहुत बड़ा स्वप्न था. नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पूरे राष्ट्र को सोचने के लिए एक चुनौती दी कि 1947 में जो आज़ादी मिली, वो जनता की आज़ादी है या सिर्फ एक प्रभुतासंपन्न वर्ग के हाथो की आज़ादी है. उस आंदोलन ने लोकतंत्र के बारे में, जनता की मुक्ति के बारे में, समाजवाद के बारे में, उसने बहुत ही नये सवालों से देश के बुद्घिजीवियों को प्रभावित किया.यहां मैं साफ करना चाहूंगा कि देश की जो बहुमत मेहनतकश भारतीय जनता है उसकी व्यापक हिस्सेदारी के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता और लोकतांत्रिक नहीं हो सकता. भारत की जो मेहनतकश जनता है, उसकी व्यापक हिस्सेदारी जरुरी है. अगर वो व्यापक हिस्सेदारी नहीं होगी तो वह रास्ता कभी सफल नहीं होगा.अभी का जो नक्सल आंदोलन है, उसके स्वरुप को लेकर, उसके रास्ते को लेकर बुद्धिजीवियों में बहुत विवाद है. उसमें ऐसी भी ताकतें हैं, जो समाजवाद को लाना चाहती हैं और ऐसी भी ताकतें हैं जिनका रास्ता बहुत ज्यादा आतंकवाद की ओर जाता है. नक्सल आंदोलन के इस स्वरुप को लेकर व्यापक बहस की जरुरत है.

कालाहांडी का एक और सच


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी सरकारी लूट
परशुराम राय

आजादी के 6 दशक बाद भी भूख और गरीबी देश के एजेंडा पर ऊपर नहीं आ सके हैं. बेशक एक जमाने में गरीबी हटाओं का एक नारा चला और अब राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना इस दिशा में एक बड़ा कदम है. लेकिन जिस मकसद को लेकर यह योजना लागू की गई, वह पूरा नहीं हो सका है. और कहीं नहीं, पलायन और भूखमरी का पर्याय बन गए कालाहांडी में यह योजना सबसे बड़ा छलावा साबित हुई है. इसकी आड़ में करोड़ों रुपए की हेराफेरी का मामला सामने आया है. इस मद की 90 फीसदी से ज्यादा रकम गरीबों ओर जरुरतमंदों तक पहुंची ही नहीं. पेश है, सेंटर फार एन्वायरमेंट एंड फुड सिक्योरिटी के निदेशक परशुराम राय की एक खास रिपोर्टराष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरइजीए) को स्वतंत्र भारत के इतिहास में गरीबों के सबसे अनुकूल, ग्रामीणों के हक में और सबसे स्वाभाविक अधिनियम बताया जा रहा है. यदि इस ऐतिहासिक अधिनियम को ईमानदारी से शब्दशः लागू किया जाता तो यह ग्रामीण भारत का भविष्य और किस्मत बदल सकता था. एनआरइजीए ने देश के ग्रामीण गरीबों को भारत के देहात में जीवन यापन की सुरक्षा और पर्यावरणीय संतुलन कायम करने में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने का मौका उपलब्ध कराया है. ग्रामीण रोजगार योजना के लाभार्थी न तो कल्याणकारी राज्य द्वारा दिए जाने वाला दान ग्रहण कर रहे हैं और न ही वे राष्ट्रीय कोष पर किसी तरह का वित्तीय बोझ हैं. वास्तव में वे संपत्ति के निर्माण, पारिस्थितिक के पुनर्निर्माण के सक्रिय कारक के साथ ही राष्ट्रीय विकास में सक्रिय भागीदारी करने वाले मानवीय इंजन है. लेकिन इन सभी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए जरूरी है कि इस अधिनियम पर ईमानदारी से अमल हो. लेकिन यह एक महान त्रासदी साबित होगी यदि एनआरइजीए सरकारी बाबूओं के लिए पैसा उगाहने की मशीन बन जाए. उड़ीसा देश का सबसे गरीब राज्य है, जहां घोर गरीबी और भुखमरी के साथ जीवन यापन करने वाले गरीबों का प्रतिशत में आंकड़ा सबसे ज्यादा है. लिहाजा कोष के आवंटन के मामले में इस राज्य को सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए. एनआरइजीए के तहत वर्ष 2006-07 में उड़ीसा को कुल 890 करोड़ रु की राशि आवंटित की गई, जिसमें से उसने 733 करोड़ रु खर्च भी कर डाले. उड़ीसा सरकार के आंकड़ों के मुताबिक उसने 2006-07 के दौरान 13,94,169 परिवारों के लिए 7.99 करोड़ श्रम दिवसों का सृजन किया था. दूसरे शब्दों में प्रत्येक जरूरतमंद और इच्छुक परिवारों को इस साल औसतन 57 दिन काम उपलब्ध कराया गया और एनआरइजीए के दायरे में आने वाले 19 जिलों में से एक भी जरूरतमंद परिवार को काम देने से इंकार नहीं किया गया. उड़ीसा सरकार का यह भी दावा है कि वर्ष 2006-07 के दौरान 1,54,118 परिवारों ने सौ दिन रोजगार हासिल किया. दुर्भाग्य से उड़ीसा के 100 गांवों में किए गए एक सर्वेक्षण से यह सनसनीखेज जानकारी सामने आई है कि सरकार के ये सभी दावे झूठे हैं और एनआरइजीए के कोष के धन की हेराफेरा के लिए सरकारी रिकॉर्डों में फर्जी तरीके से दर्ज किए गए हैं. उड़ीसा के छह सबसे गरीब जिलों में किए गए एक सर्वेक्षण में यह जानकारी सामने आ रही है कि एनआरइजीए के तहत जो 733 करोड़ रु खर्च किए गए थे, उसमें से 500 करोड़ से भी ज्यादा की राशि सरकारी अधिकारियों ने हड़प ली या इसका दुरुपयोग किया. यह सर्वेक्षण दिल्ली के सेंटर फार एन्वायरमेंट एंड फुड सिक्योरिटी (सीईएफएस) द्वारा केबीके यानी कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट क्षेत्र के छह जिलों बोलांगीर, नुआपाड़ा, कालाहांडी, कोरापुट नबरंगपुर और रायगड़ा के 100 गांवों में किया गया.फर्जी काम, फर्जी भुगतानहमारा आकलन बताता है कि जमीन पर 2 करोड़ से भी कम श्रम दिवसों के रोजगार का सृजन किया गया, जबकि 6 करोड़ से भी अधिक के श्रम दिवसों के रोजगार फर्जी जॉब कार्ड और फर्जी मस्टर रोल के जरिए कागजों में दिखाए गए. सीइएफएस के सर्वेक्षण ने खुलासा किया कि वास्तव में एनआरइजीए के दायरे में आने वाले राज्य के 19 जिलों में जरूरतमंद परिवारों को औसतन पांच दिन से अधिक का रोजगार उपलब्ध नहीं कराया गया और बड़ी संख्या में जरूरतमंद परिवारों को रोजगार देने से इंकार कर दिया गया.इन 100 गांवों में हम एक भी ऐसा परिवार नहीं तलाश पाए जिसे 100 दिन का रोजगार मिला हो. हमें बहुत कम ऐसे परिवार मिले, जिन्हें वास्तव में 40 से 60 दिन का रोजगार मिल पाया था. और बाकी के परिवारों का हाल यह था कि यदि उन्हें रोजगार मिला भी था तो बस 5 से 21 दिन के लिए. हालांकि इन सभी परिवारों का ऑनलाइन जॉब कार्ड फर्जी था या उससे छेड़छाड़ की गई थी और उनमें 111 दिन, 108 दिन, 104 दिन, 102 दिन, 100 दिन, 96 दिन, 84 दिन, 72 दिन, 65 दिन, 60 दिन, 52 दिन और इसी तरह की प्रविशिष्टियां दर्ज थीं. उड़ीसा ने इस तरह से 733 करोड़ रु खर्च किए और 8 करोड़ श्रम दिवसों का सृजन किया. यों भी उड़ीसा के कालाहांडी जिले को देश की भूख की राजधानी के रूप में जाना जाता है. 2006-07 के दौरान इस जिले को एनआरइजीए पर अमल के लिए 111 करोड़ रु का आवंटन किया गया था. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक जिले ने 72 करोड़ रु खर्च कर जिले के 121517 परिवारों के लिए 61.76 लाख श्रम दिवसों के रोजगार का सृजन किया. दूसरे शब्दों में इन 121517 परिवारों को औसतन 50 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया. सरकारी दावों के मुताबिक इस वर्ष जिले में 100 दिन का रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या 9074 थी. लेकिन जिले के 18 गांवों के हमारे सर्वेक्षण से यह जानकारी सामने आ रही है कि ये सारे दावे फर्जी हैं और यह सिर्फ सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हैं न कि कालाहांडी के गांवों में.कालाहांडी जिले के भवानीपटना ब्लाक के तालबेलगांव पंचायत में आने वाला पाल्सीपाड़ा घोर आदिवासी गांव है. यह गांव कालाहांडी जिले के मुख्यालय भवानीपटना से बमुश्किल 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस गांव का हरेक परिवार घोर गरीबी और भुखमरी के साथ जीने को अभिशप्त है. बच्चों के बेतरतीबी से फूले पेट, सूखी आंखें और पिचके हुए गाल वाकई रोंगटे खड़े कर देते हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत इस गांव के अधिकांश घरों को जॉब कार्ड और काम मिल चुके है. लेकिन इनमें से ज्यादातर रोजगार सिर्फ ऑनलाइन जॉब कार्ड और फर्जी मस्टर रोल में ही दर्ज हैं हकीकत में उन्हें कोई काम नहीं मिला है.किस्से सैकड़ों हैंपाल्सीपाड़ा गांव के गरीब आदिवासी रूपा मांझी को 2006-07 के दौरान वास्तव में 21 दिन का रोजगार दिया गया और उसे इसके एवज में 600 रुपए का भुगतान किया गया. रूपा मांझी को यह काम गरीबी उन्मूलन के बहुचर्चित एनआरइजीएस के अंतर्गत सड़क निर्माण की एक परियोजना के तहत उपलब्ध कराया गया. लेकिन उसके जॉब कार्ड में गलत तरीके से दर्ज किया गया कि उसने 336 दिनों तक काम किया. जबकि एनआरइजीएस की वेबसाइट में रूपा मांझी के ऑन लाइन जॉब कार्ड में दावा किया गया है कि उसे 102 दिनों का रोजगार दिया गया और 6310 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन इस 6310 रुपए में से वास्तव में सिर्फ 600 रुपए ही रूपा मांझी के हाथ में आए. रूपा मांझी के नाम के बाकी के 5710 रुपए जो कि कुल पारिश्रमिक के 90 फीसदी से भी ज्यादा है, को सरकारी अधिकारी हड़प गए. रूपा मांझी का मामला पाल्सीपाड़ा में एनआरइजीएस के फंड की हेराफेरी से जुड़ा अकेला मामला नहीं है. कालाहांडी के इस गरीब आदिवासी गांव में रूपा मांझी जैसे और लोग भी मौजूद है. इसी गांव के चंद्रा मांझी को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. लेकिन उसके जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से 126 दिन का रोजगार दर्ज है. इसी तरह एनआरइजीएस की वेबसाइट में फर्जी तरीके से चंद्रा मांझी के नाम पर 108 दिनों का रोजगार और 5940 रुपए का भुगतान दर्ज है. इस मामले में तो सरकारी अधिकारी पारिश्रमिक की 100 फीसदी राशि हड़प गए. पाल्सीपाड़ा के एक और गरीब आदिवासी सुकला मांझी ने वास्तव में सड़क मरम्मत का 21 दिन का काम किया था और उसे इसके एवज में 600 रुपए का भुगतान किया गया था. लेकिन उसके जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से दर्ज है कि उसे 126 दिन का रोजगार दिया गया. और जब हमने एनआरइजीएस की वेबसाइट पर सुकला मांझी के काम और भुगतान की पड़ताल की तो हमें इस गोरखधंधे का एक और ही संस्करण देखने को मिला. एनआरइजीएस में दर्ज फर्जी प्रविष्टि के मुताबिक सुकला मांझी को 104 दिनों तक काम दिया गया और 55 रुपए रोज की दर से 5720 रुपए का भुगतान किया गया. यानी सुकला मांझी के मामले में बाकी के 5120 रुपए सीधे तालबेलगांव पंचायत के विलेज लेवल वर्कर (ग्रामीण स्तर के कार्यकर्त) की जेब में चला गए. एनआरइजीएस की वेबसाइट में जनकिया मांझी के नाम पर 108 दिन का रोजगार और 5940 रुपए का भुगतान दर्ज है. लेकिन वास्तव में जनकिया मांझी ने सिर्फ 15 दिन काम किया और उसे सिर्फ 450 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में पारिश्रमिक की 92 फीसदी राशि अधिकारियों के जेब में चले गए और लाभार्थी को सिर्फ 8 फीसदी राशि ही मिल पाई.दुर्योधन मुंड का ऑन लाइन जॉब कार्ड बताता है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया और इसके एवज में 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन वास्तव में उसके परिवार को सिर्फ 21 दिन काम मिला और इसके बदले 650 रुपए का भुगतान किया गया. सरकारी अधिकारियों ने दुर्योधन मुंड को दो बार लूटा. इसी तरह जगत मांझी के जॉब और भुगतान संबंधी ऑन लाइन ब्यौरे के मुताबिक उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन वास्तव में उसके परिवार को 15 दिन ही काम मिला और 700 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में 5240 रुपए सीधे अधिकारियों की जेब में चले गए.लूट, लूट और लूटये तो पाल्सीपाड़ा के कुछ परिवारों के ही ब्यौरे है. इस गरीब आदिवासी गांव के और कई परिवारों को इसी तरह से छला गया. हमने इसी गांव के 18 और परिवारों का पता लगाया जिनके जॉब कार्ड में 108 दिन, 96 दिन और 72 दिन का रोजगार दर्ज है लेकिन इनमें से किसी भी परिवार को बमुश्किल 15 से 20 दिन का ही रोजगार उपलब्ध कराया गया. हमारा आकलन बताता है कि पाल्सीपाड़ा में एनआरइजीएस के तहत खर्च की गई 90 फीसदी राशि सरकारी अधिकारियों ने हड़प ली. घोर गरीबी और भुखमरी के बावजूद इस वंचित गांव के आधे से अधिक परिवारों को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. कालाहांडी जिले में पोखरी घाट एक और गांव है जहां ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू है लेकिन आवंटित राशि के 95 फीसदी से भी अधिक का हिस्सा इस योजना को लागू करने वाले अधिकारियों की जेबों में चला गया. भवानीपटना के चांचेर पंचायत के इस गरीब गांव में 100 घर हैं, जिनमें 60 गोंड आदिवासी और 40 दलित हैं. घोर गरीबी और भुखमरी इस गांव में सहज ही देखी जा सकती है. मानव विकास सूचकांक में यह गांव निश्चित रूप से सबसे नीचे होगा. पोखरी घाट गांव के सिर्फ आधे परिवारों को ही जॉब कार्ड मिले हैं. इस गांव में 2006-07 के दौरान सिर्फ दो काम हुए. पहला है 3 लाख की लागत से बना नया तालाब और दूसरा है 4 लाख की लागत से तालपिपली से उप्परपिपली तक की सड़क का निर्माण. पोखरी घाट में ग्रामीण रोजगार योजना से संबंधित हर दस्तावेज फर्जी मिला. यहां एक भी जॉब कार्ड में दर्ज काम और उसके बदले किया गया भुगतान हकीकत में किए काम और किए गए भुगतान से मेल नहीं खाता. यहां तक कि जॉब कार्ड में दर्ज काम और भुगतान ऑन लाइन जॉब कार्ड में दर्ज प्रविशिष्टियों से मेल नहीं खाते. और जब हमने ग्रामीणों को बताया कि जाब कार्ड के मुताबिक उन्होंने दो से तीन महीने तक काम किया है, तो वे आवाक रह गए !चाबी मांझी पोखरी घाट का एक गोंड आदिवासी है और उसके परिवार को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत एक भी दिन काम नहीं मिला. लेकिन चाबी मांझी के ऑन लाइन जॉब कार्ड में गलत तरीके से दर्शाया गया है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. यानी चाबी मांझी के नाम की 5940 रुपए की पूरी राशि सरकारी अधिकारी डकार गए.बेदा मांझी पोखर घाट का एक और गोंड आदिवासी है जिसके परिवार को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. लेकिन बेदा मांझी का ऑन लाइन जॉब कार्ड बताता है कि उसके परिवार को 102 दिन का काम मिला और इसके बदले 5610 रुपए का भुगतान किया गया. यानी इस मामले में भी सौ फीसदी राशि प्रभारी अधिकारी डकार गए.काम नहीं, फिर भी ऑन लाइन भुगतानसीतापति पुजारी ने भी एनआरइजीएस के तहत कोई काम नहीं किया. लेकिन उसके ऑन लाइन जॉब कार्ड में दिखाया गया है कि उसे 72 दिन का काम उपलब्ध कराया गया और 3960 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में भी सौ फीसदी राशि अधिकारी हड़प गए. अर्खिता पुजारी का ऑन लाइन जॉब कार्ड दिखाता है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन हकीकत में उसके परिवार को सिर्फ 8 दिन काम मिला और सिर्फ 500 रुपए का भुगतान किया गया. यानी अर्खिता पुजारी के नाम पर 92 फीसदी की राशि हड़प ली गई.इलामा नाइक के ऑन लाइन जॉब कार्ड में भी वही कहानी दोहराई गई है. इसके मुताबिक उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन हकीकत में उसके परिवार को सिर्फ 20 दिन का काम और 500 रुपए का भुगतान किया गया. वास्तव में इलिमा को दो तरह से ठगा गया. पहला यह कि 55 रुपए रोज के हिसाब से 108 दिन के 1100 रुपए होते हैं लेकिन उसे सिर्फ 600 रु दिए गए. दूसरा यह कि अधिकारी उसके नाम का 90 फीसदी पारिश्रमिक खा गए.बुदु नाइक पोखरी घाट गांव का एक और गरीब आदिवासी है जिसके काम के अधिकार को संबंधित अधिकारियों ने छीन लिया. उसके परिवार ने वास्तव में 10 दिन ही काम किया और उसे 500 रुपए दिए गए लेकिन ऑन लाइन जॉब कार्ड में दिखाया गया है कि उसके परिवार को 108 दिन काम दिया गया और 5940 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में भी 90 फीसदी राशि हड़प ली गई.इदाइ पुजारी के परिवार ने वास्तव में 8 दिन काम किया और उसे 400 रुपए दिए गए लेकिन उसके ऑन लाइन जॉब कार्ड की प्रविशिष्टियां बताती हैं कि उसके परिवार को 36 दिनों का काम उपलब्ध कराया गया और 1980 रुपए का भुगतान किया गया. यानी उसके नाम की 80 फीसदी राशि हड़प ली गई.पोखरी घाट में मची खुली लूट के ये कुछ उदाहरण हैं. वास्तव में इस गांव के किसी भी परिवार को 15-20 दिनों से ज्यादा काम नहीं मिला और 500-600 रुपए से ज्यादा का भुगतान नहीं किया गया. इसी गांव के 26 परिवारों के रोजगार और भुगतान की प्रविशिष्टियां बताती हैं कि उन्हें 2-3 महीने का काम दिया गया. इसके अलावा 12 से अधिक जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से दर्शाया गया है कि संबंधित परिवारों को 108 दिन का रोजगार दिया गया. तीन कॉर्ड में 102 दिन और 4 कॉर्ड में 96 दिन के रोजगार की प्रविशिष्टि दर्ज हैं. कालाहांडी जिले के पाल्सीपाड़ा और पोखरी घाट गांवों की कहानी भ्रष्टाचार और वित्तीय गड़बड़ियों की अनूठी मिसाल नहीं हैं. यह कहानी है उड़ीसा के 5000 गांवों की जहां एनआरइजीएस लागू है. आप इसे क्या कहेंगे भ्रष्टाचार और वित्तीय गड़बड़ी या सरकारी बाबूओं की खुली लूट? और क्या एनआरइजीएस फंड का यह घोटाला राज्य की सरकारी मशीनरी के बिना संभव है?
www.raviwar.com से साभार

Saturday, September 15, 2007

चूहे कर रहे हैं अंतरिक्ष की सैर


मास्को (भाषा), शनिवार, 15 सितंबर 2007
एक के बाद एक पिंजड़े, उनमें बंद चूहों की प्रजाति के 10 जर्बिल और साथ में अनाज, बादाम, काजू एवं सूखे अंगूर। जी हाँ, रेगिस्तानों में पाए जाने वाले चूहों की यह प्रजाति अंतरिक्ष में सैर सपाटे के लिए जो जा रहे हैं।

अभियान अधिकारी अनफिसा काजकोवा ने बताया कि दस जर्बिलों का यह दल शुक्रवार को कजाखिस्तान के बैकानूर अंतरिक्ष केन्द्र से फोटोन एम अंतरिक्ष यान से रवाना हुआ। जर्बिलों का यह दल दस दिन तक सैर करेगा।

दर असल दीर्घकालीन अंतरिक्ष यात्रा के शरीरक्रिया वैज्ञानिक और जीववैज्ञानिक प्रभावों के आकलन के लिए जर्बिलों के इस दल को शामिल किया गया है। यह मंगल यात्रा की तैयारी है।

अंतरिक्ष यात्रा के दौरान दिन और रात की कृत्रिम स्थितियाँ तैयार की जाएँगी और तापमान को नियंत्रित किया जाएगा। इन स्थितियों में जर्बिलों की फिल्म तैयार की जाएगी।

(स्रोत - वेबदुनिया)

सोमालिया में हजारों बच्चों पर मौत का खतरा



सोमालिया में हजारों बच्चों पर मौत का खतरा
न्यूयॉर्क (भाषा), शुक्रवार, 14 सितंबर 2007
संयुक्त राष्ट्र के एक नए सर्वेक्षण के अनुसार संघर्ष एवं सूखा प्रभावित मध्य और दक्षिणी सोमालिया में करीब 13500 बच्चे इस कदर कुपोषण के शिकार हैं कि उनके सम्मुख मृत्यु का खतरा पैदा हो गया है जबकि करीब 70 हजार अन्य कुपोषित हैं।

संयुक्त राष्ट्र की बाल एजेंसी के सोमालिया में प्रतिनिधि क्रिश्चियन बालस्लेव ओलेसेन ने कहा इन बच्चों पर तत्काल ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि उनका बचना सुनिश्चित किया जा सके।

उन्होंने कहा कि यूनीसेफ इस बात से बहुत चिंतित है कि नागरिक संघर्ष जारी रहने इन इलाकों में सीमित मानवीय पहुँच खाद्यान्न असुरक्षा और जर्जर अर्थव्यवस्था के कारण उनकी संख्या बढ़ सकती है।

सोमालिया में कुपोषण की समस्या नई नहीं है। यह देश गुटीय संघर्ष के कारण तार तार हो चुका है और 1991 में मुहम्मद सियाद बारे के शासन को समाप्त किये जाने के बाद से कोई केंद्रीय सरकार काम नहीं कर रही है।

वास्तव में मई में राजधानी मोगादिशु की सीमा से लगे मध्य और निचले शेबेले क्षेत्र में कराए गए व्यापक पोषण सर्वेक्षण में पहले ही संकेत मिल चुका है कि पांच साल से कम उम्र के 17 प्रतिशत बच्चे जबर्दस्त कुपोषण के शिकार हैं और यह स्तर संयुक्त राष्ट्र विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की आपात सीमा से ऊपर है।

(स्रोत - वेबदुनिया)

Friday, September 14, 2007

पिता

आकाशगंगा से पथभ्रष्ट पुच्छलतारा कोई
जब गुज़रता है पृथ्वी के वायुमंडल से
ज्योतित पर वशीभूत
कितना लुभाती है उसकी आतिशी पूंछ
जो कि मीलों लम्बी हो सकती है
जितनी भी कोशिश कर लो
पकड़ में नहीं आती उसकी पूरी शख्सियत
कुल जमा हासिल राख और कंकड़ !
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पिता असहायता कब उतनी बुरी होती है
जितना कि झूठ
जैसे यही बात कि तुम्हारे सभी बच्चे
तुम्हारी नज़र में बराबर हैं -
पचने लायक है क्या तुम्हीं सोचो
तुमने और भी चार चार बच्चों को जन्म दिया
साजिश की बड़े बेटे के खिलाफ
यों तमाम उम्र तुमने भूल सुधार में गुज़ार दी
फिर भी दोषमुक्त नहीं हो सके ।
उस साजिश की पूरी एवजी वसूलते
शराब और गांजा और गाड़ी और फोन में
मस्त और तृप्त वह
सबको धकियाता कुचलता
आज भी अपने बच्चों के साथ
तुम्हारे ही कन्धों पर सवार होकर एंड लगा रहा है
और तुम उसके सैकड़ों अपराधों पर पर्दा
डालने की आज भी निरर्थक कोशिश कर रहे हो ।
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अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा ऐसा कहते हो तुम
जब नहीं होता कहने को कुछ भी ।
जानता हूँ
असाध्य संकटों से घिरी हुई है दुनिया
और मैं भी उन्हीं में शामिल हूँ
जो भूख से बिलबिला रहे हैं
मर रहे हैं मार रहे हैं
हवा में मुट्ठियां लहरा रहे हैं
पर ना भूख मिट रही है
और ना मौसम बदल रहा है ।
इन बड़ी लडाइयों के दरम्यान
एक और छोटी- सी लडाई है
जिसे लड़ रहा हूँ मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ
उस आदमखोर शहर में
जो जीवित बचे रहने की
पूरी गिज़ा वसूल करता है।
दस बाई दस की मेरी दुनियां का एक मालिक है
जिसने दस महीनों के लम्बे इंतजार के बाद
ज़ब्त कर ली है मेरी दुनियां
ज़ब्त कर ली है
मेरी गृहस्थी, मेरी किताबें, मेरे कागजात
मेरी कवितायेँ , मेरा सारा अतीत, मेरे सपने
मेरा संघर्ष, मेरे होने के सारे सबूत
और यह सब कुछ उसके लिए
दस महीनों के किराए से ज़्यादा अहमियत नही रखता
अहमियत तो तुम्हारे लिए भी नही रखता
मेरे पिता
क्योंकि तुम्हें साबित करनी है अपनी वफादारी
उस बेटे के सामने
जिसे दूसरों की तबाही में नज़र आता है अपना रास्ता ।
घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलता हुआ महीनों से
आगे- पीछे टकरा रहा हूँ सिर
यह तुम्हारा ही घर है जहाँ बुलाया था तुमने हमे
भूख, जलालत, साजिशें और
कातिलाना हमलों को झेलते हुए भी
अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा
जब तुम कहते हो तो सच ही होगा
सचमुच जल्दबाजी कर रहा हूँ मैं
दस महीने होते ही कितने हैं,
आत्महत्या से पहले यों भी
सबकुछ सामान्य ही लगता है।
-------------------------------------------------------------------------
पिता मेरी ही भूल थी
मैंने तुम्हारा सम्मान लौटाना चाहा
तुमने मुझे सज़ा दीं
मैंने तुम्हारी मुक्ति चाही-
तुमने मुझे ही जकड दिया।
हर बार मुझे बहलाकर तुम लौटाते रहे
तुमने कहा कि तुम समर्थ हो
सब कुछ तुम्हारी इच्छा से होता है
और फिर मैं मेरी पत्नी और बच्ची के साथ
भूख से और बीमारी से और लान्छ्नाओं से
तिल-तिल कर मरता रहा
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे ।
मेरी भूखी मरणासन्न बच्ची
बूँद-बूँद दूध को तरसती रही
चार दिनों तक
तेज बुखार में बड़बडाती उस बच्ची के लिए
दवा तक नही खरीद सका मैं
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे
क्योंकि तुम्हारा एक अदद बेटा था
और थे उसके तीन अदद
बड़े कोमल और कुलीन बच्चे
जिनके लिए दूध की नदियाँ बहाईं थीं तुमने
आज भी कहते हैं बिना दूध के
एक दिन में मुरझा जाते हैं जो
आदत होती ही है बड़ी खराब चीज़ !
भूख और यातना से तोड़ कर मेरा वजूद
तुमने रखी रिहाई की एक घिनौनी शर्त
कि मैं कबूल कर लूं वे सब गुनाह
जो मैंने किये ही नहीं
तुमने शर्त रखी कि मैं
क्षमा याचना करूँ
उस बर्बर हिंस्र पशु से
जिसे शायद यह भी पता ना हो कि
सच का जूनून क्या बला है
और कि
यह दुनियां रोज़ बनती है
उसके घुच्ची दिमाग से परे ।
तुमने यही भूल की मुझे पहचानने मेँ
तुम नही जानते कि
एक अदना कम्युनिस्ट भी कितना मजबूत होता है
तुम भले ही भूल सको,
मैं कैसे भूल सकता हूँ यह सब मेरे पिता
जैसे करता रहा हूँ
आगे भी करता ही रहूँगा मूलोच्छेद
तुम्हारे जडीभूत सामंतवाद का
खोल डालूँगा तुम्हारे इस अन्धगह्वर के
दरवाज़े खिड़कियाँ
रोशनी आएगी पूरी की पूरी बेरोकटोक
और बाहर भाग जाएगी
सारी सीलन और सड़ान्ध !
पाखी.... मेरी नन्हीं बच्ची
तुमने और तुम सबने जिससे केवल नफरत की
एक दिन लौटेगी
वह जान रही होगी तुम सबकी असलियत
कैसे कर पाओगे उसका सामना
अपने-अपने चेहरों पर अपना घिनौना अतीत लिये
तुम सब दबे होगे जब
अपने ही असाध्य पापों के ब्याज से ।

राजेश चंद्र
--२३-२५ सितम्बर २००५ ( वीरपुर, सुपौल) ।

भूगोल

पन्ने पर एक तरफ
कभी लिखी थी एक कविता समय सत्य
और उसमे लिखा था
सबसे अहम सवालों के बारे में।
पन्ने पर दूसरी तरफ
पत्नी ने लिखी एक और ज़रूरी कविता-
धनियाँ का पत्ता, मिर्च, अदरक,
लहसुन, जीरा, प्याज और एक किलो आलू ।

अब जबकि समय भी बदल गया है और उसका सत्य भी
और तमाम ज़रूरी सवाल
हाशियों पर चुटकुला बन रहे हैं,
ऊब और अनास्था के बीच
छिपाते हुए थोडी-सी आंच
और गढ़ते हुए जीने का कोई माकूल तर्क
दोनों कविताओं के बीच का भूगोल
हाँफते हुए नाप रहा हूँ।


राजेश चन्द्र

Friday, September 7, 2007

फिर लौटेंगे तालिबान


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

यह मानसून फिर से
बीजों के बंद कपाट खोलेगानवांकुर फूटेंगे
धीरे-धीरे पसर जायेगी सांस की धूप
झमाझम बारिश की तर्ज़ पर झूमते हुए
इन्द्रधनुषी अलंकारों से सुसज्जित
दिशाओं से उतरेंगे
केसर के रंग के ध्वजारोही
और आतंकित होने का अवकाश दिए बिना ही
वामन डग भरते नांप लेंगे
ज़्यादा से ज़्यादा उजास ।
साँसों को पहली अचरज से ताकतीं अबोध आँखें
जान भी नहीं पाएंगी
कि कब उनके सामने खडी हो गयी
एक दुर्भेद्य दीवार और जब तन्द्रा टूटेगी
उन अनभ्यस्त हाथों मेँ होगी
अनुशासन की कोई प्रावेशिक किताब
धीरे-धीरे जो उन्हें भूलभुलैयों की तरफ ले जायेगी
पहले उन्हें सड़क की बाईं या दाईं तरफ चलना सिखाया जायेगा
फिर रंगों की सुरक्षित परिभाषा दी जायेगी
इस तरह जब तैयार कर लेंगे वे अपनी चारदीवारियां
और गले मिलते हुए हरियाली गायेंगे
दबे पाँव , चौकन्ने
संसद, विधानसभाओं ,मठों, मंदिरों
अकादमियों, सम्मेलनों, परिषदों और सभा भवनों की
आरामदेह कुर्सियों से कूदेंगे
कई-कई १०८,१००८ प्रख्यात, सुकीर्त
मार्त्तंड , प्रचंड
स्वामी,आचार्य ,जोशी , मोदी और वाजपेयी
और लीलते -चरते सारी हरियाली को
प्रमुदित मन से आप्त वाक्यों मेँ डकारेंगे-
जो अमरीका के साथ नहीं है-आतंकवादी है
जो भाजपा के साथ नहीं है-देशद्रोही है
जो हिंदू नहीं है-विदेशी जासूस है
फिर वे स्त्रियों से कहेंगे-घर के अन्दर जाओ
घरों से फौरन हटा ली जायेंगी खिड़कियाँ
और दरवाजे बाहर से बंद रहेंगे
फिर वे शूद्रों के गले मेँ ढोल बांधकर कहेंगे
गाँव से बाहर जाओ
और तब मौत की तरह के ख़ुफ़िया सन्नाटे को तोड़ता
तेजोमय चिर-प्रतीक्षित अटल रामराज्य आएगा
दुंदुभी बजाता, शंखनाद करता, जयघोष कराता
और तब एक गौरवमय अतीत वाले
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्र की
कटी हुई जीभ वाली भूखी भीड़
या तो पूंछ हिलायेगी, या फिर झंडी
और लाउडस्पीकर की गगनभेदी चिल्लाहट
"जय श्री राम " के साथ
पीठ पर कोड़े खाता
एक पूरा का पूरा देश सुर मिलाएगा-
गों-गों-गों ।

राजेश चन्द्र
१७-०१-२००२

Monday, August 20, 2007

WHO WAS CHE GUEVARA?




CompañeroDeLibertad
You've probably seen his face on t-shirts, hats, or some other piece of merchandise, but what do you really know about Che Guevara? What did he accomplish that made him the hero of oppressed people all around the world?The Russian revolutionary Vladamir Lenin once pointed out the tendency of the ruling class to “co-opt” revolutionaries after their deaths, turning them into mere “logos” which they attempt to render meaningless by separating the individual from what it is they stood for. It is in an effort to combat this that we offer this article.Of course, it is not within the scope of this article to completely detail the life of Che Guevara– that has already been attempted to varying degrees of success in numerous Che Guevara biographies – rather, we hope to to provide a general outline to those unfamiliar with the man, Che Guevara, in hopes that it will lead them to dig deeper into the story of his life, his theories, and most importantly what he fought for: the liberation of humankind.Early YearsErnesto Guevara (the 'Che' part wouldn't come until much later) was born in Rosario, Argentina, in 1928. His mother and father could be described as middle-class, with liberal inclinations.Even as a young boy, Guevara was known for his often radical perspective, but they wouldn't develop fully until later in life.He suffered from crippling asthma from birth, so much so that his family had to relocate because of it, but it didn't stop him from becoming an excellent athlete. Rugby was one of the sports that he enjoyed most. His aggressive style of play earned him the nickname 'Fuser'.In 1948, he enrolled in the University of Buenos Aires to study medicine. He was an excellent student who excelled at his studies.The Journey BeginsIn 1951, on the suggestion of his older friend, Alberto Granado, a biochemist, he decided to take a year off from school to embark on trip across South America that they had dreamed of taking for years. Guevara and his 29-year-old friend set off from their hometown of Alta Gracia on a 1939 Norton 500 cc motorcycle they called La Poderosa II (literally, “the mighty one”). As a part of their trip, they planned to spend a few weeks volunteering at the San Pablo leper colony in Peru. Guevara documented the trip in The Motorcycle Diaries, which was translated into English in 1996, and turned into a motion picture of the same name in 2004.During the trip, Ernesto witnessed first hand many things that he hadn't had much experience with before, such as the widespread poverty and oppression faced by the masses of people throughout the Latin America (and the world) under capitalism. It was through this, as well as studies of the writings of revolutionaries like Karl Marx, that he began to understand that the only remedy to these ills lay in socialist revolution.Through his trip he also began to see Latin America not as a grouping of separate nations divided by invisible, often imposed borders, but rather as a single cultural and economic entity. It was from this foundation that he began to formulate his concept of a united Ibero-America, united “from Mexico to the Magellan straits”, and bound together by a “single mestizo” culture.Upon his return to Argentina, Guevara was anxious to continuing traveling throughout Latin America, and so he completed his medical studies as quickly as possible, finishing in March of 1953.Imperialism in GuatemalaFollowing his graduation, Guevara again set out on the road, this time planning to travel through Central America. After much traveling, he finally ended up in Guatemala, where the popular reformist Jacobo Arbenz Guzman had been elected president. Arbenz was attempting to bring about a social change through various reforms – particularly land reform.It was at this time that Guevara acquired the nickname that would follow him for the rest of his life. Friends in Guatemala began to refer to him as “Che” (pronounced “chay”), after an interjection (often used to get attention, such as “hey” or “wow”, but also used like “friend” or “pal”) commonly used by Argentinians such as himself.At the time, 2% of the population of Guatemala controlled 74% of the land suitable to farming, and only used 12% of it. Arbenz planned to redistribute some of the unused land to the poor farmers of the country who made up the majority of its population, a plan that they greatly supported.The U.S.-based United Fruit Company (UFC), the largest landowner in Guatemala, fully opposed the plan, even though it was paid $600,000 (based on land values it declared for tax purposes) for unused land that was seized as the plan began to be implemented.The UFC had close ties with the U.S. government, and lobbied the CIA and the Eisenhower administration to take action. In 1954, the administration commissioned the CIA to overthrow democratically elected president Arbenz in a plan called Operation PBSUCCESS. The plan was a success and Arbenz was forced to flee the country on June 27th.Following the overthrow, Che offered to fight, but Arbenz instructed his foreign supporters to leave the country. After spending some time in the Argentine consulate, Che headed to Mexico.Witnessing the events that took place in Guatemala enabled Che to understand more than ever that the U.S. was an imperialist power that would always oppose any movements that attempted to solve problems like inequality and poverty that are endemic to Latin America and the rest of the third world. His understanding of socialism as the only answer to these problems grew even stronger.Incidentally, the U.S. sponsored military dictatorship that replaced Arbenz turned out to be one of the most brutal regimes in world history.The Cuban RevolutionIt was in Mexico City that Che would meet brothers Raul and Fidel Castro. The two were in exile from Cuba after being freed – by popular demand – from a Cuban prison to which they were sentenced after leading a failed attack on a military garrison as a part of a larger plan to overthrow U.S. sponsored dictator Fulgencio Batista. The Castro brothers and others Cubans were planning to return to Cuba as a guerrilla force named the “26th of July Movement” (after the date of the original attack on the garrison). Che immediately hit it off with Fidel and agreed to join the expedition as a medic on the first night.After a period of training, and even imprisonment by the Mexican authorities, Fidel, Che, and 80 others departed from Tuxpan, Veracruz, aboard the cabin cruiser Granma in November 1956. Che was the only non-Cuban on board.Bad weather, and other problems, delayed their arrival by two days, and so an armed uprising in Santiago, which was aimed at drawing away the attention of Batista's troops, ended up only serving to put them on alert. They finally landed, 30 miles away from the point where weapons and reinforcements awaited them.Almost immediately after pulling themselves ashore they were ambushed by the dictator's army. All but a handful of the guerrillas were killed. It was during this battle that Che made a crucial decision when, while retreating, he chose to pick up a box of ammunition instead of his medical bag. He later described the situation, “Perhaps this was the first time I was confronted with the real-life dilemma of having to choose between my devotion to medicine and my duty as a revolutionary soldier. Lying at my feet were a knapsack full of medicine and a box of ammunition. They were too heavy for me to carry both of them. I grabbed the box of ammunition, leaving the medicine behind.”Fidel, Raul, and Che were among the survivors who then made their way undetected into the rugged Sierra Maestra mountains. From here they built a strong support base amongst the region's poor farmers which would soon spread to working people across the country. The numbers of the Rebel Army grew as they continued to carry out successful attacks.Throughout the revolution, Che continually exhibited great courage, combat and leadership skills, self-discipline, and boldness. He soon rose to the highest rank in the Rebel Army, Comandante (Major). In Late 1958, he lead his column through a long and arduous march to the city of Santa Clara, where they would soon take over after derailing an armored train filled with Batista's henchmen. This proved to be the final straw and the dictator was forced to flee the country. Guevara later recorded his memories of the two year struggle in a series of articles that would later be published as a book entitled Reminiscences of the Cuban Revolutionary War.Revolutionary GovernmentOn January 1st, 1959, the 26th of July Movement called for a general strike – to serve as a final blow – which lead to the victory of the revolution. For his part in the fighting Che was declared a “Cuban citizen by birth” and was appointed Commander of the La Cabaña Fortress prison. Soon after he divorced his Peruvian wife, Hilda Gadea, the mother of his first child whom he married while in Guatemala. Later he would marry Aleida March, another fighter in the Rebel Army, with whom he would have 4 children.During his six months at the prison, Che oversaw people's courts in which the Cuban people dished out revolutionary justice to brutal killers, rapists, and other war criminals that served Batista during the war.Later, Che would become an official of INRA (the National Institute of Agrarian Reform), that carried out one of the most extensive land reforms ever seen. Large plantations were seized from big (often foreign owned) businesses and given to the poor farmers that actually worked them. An Urban Reform was also carried out in which all rents were lowered so that no renter would have to spend more than 10% of their income on housing, and, after a few years, would receive ownership of it. The mansions of the rich were turned over to the servants that worked in them and the government bought up homes which weren't being used (usually because the owners had several homes) and redistributed them to people in need of housing. U.S. owned casinos and houses of prostitution (so many in fact that Cuba was referred to as 'the whore house of the Caribbean) were closed.Che would go on to become President of the National Bank of Cuba and Minister of Industries, positions from which he headed the major challenge of transforming Cuba's backwards, colonial, capitalist plantation economy into a socialist industrial economy. The U.S. government, angry that the socialist revolution had taken up the cause of the people over the interests of foreign-owned business, drastically cut back the amount of sugar that they purchased from Cuba (eventually imposing a full economic embargo, which stands to this day, even though it has been repeatedly condemned by all but 2 nations and deemed illegal by the United Nations), in an attempt to damage the Cuban economy. They also sabotaged buildings, farms, and factories, flew planes over the island dropping bombs, and attempted to assassinate Cuban leaders. Cuba however, would not be intimidated. Che negotiated a trade agreement with the Soviet Union in 1960 in which they agreed to buy all Cuban sugar at a price above the going rate. He also represented Cuba on many trade missions to nations – socialist or otherwise – in Europe, Africa, and Asia.Che played a major part in the reorganization of the Cuban economy along a socialist path, which enabled the country to eliminate homelessness, illiteracy, and unemployment in only a few years. He became well known as a hero of many for his fiery attacks on the United States imperialists' foreign policy in Africa, Asia, and Latin America.It was during this time that Che made many important theoretical contributions in his speeches, articles, letters, and essays. His book Guerrilla Warfare became highly influential, and was used as a guide by guerrilla movements throughout Latin America (unfortunately, many of the fighters, though very courageous, oversimplified the theories put forth in the book, eventually leading to their defeat). Groups like the FARC-EP, waging a decades long revolutionary struggle in Colombia, utilize many methods laid out in the book to this day. El socialismo y el hombre en Cuba (Man and Socialism in Cuba), put forth many of Che, and Cuba's, greatest contributions. In it Che pointed out that liberation of humankind could only come about after the people first evolved into 'new people', concerned with the welfare of everyone as a whole over the welfare of themselves as individuals. This 'evolution' could only occur when the material conditions for it existed, namely, under socialism. Later, when the continuing world revolution, and the economic crises inherent to capitalism destabilized it, the need for the socialist state would disappear and full liberation would finally exist in a society of equals without states or governments.Che portrayed this 'new man' in his daily life. He spent his weekends and evenings volunteering in shipyards and textile factories or cutting sugarcane. He was known for his simple lifestyle, an example of which was when he refused a pay raise when he became a member of government, choosing instead to continue receiving the much lower salary he drew as a Comandante in the Rebel Army. In another famous example, when Che was served food on expensive china while dining with high-ranking officials from the Communist Party of the Soviet Union during a trip to Russia, he asked the officials, “Is this how the working class lives in Russia?”An attempted U.S. invasion, commonly known as 'the Bay of Pigs', and which was defeated in less than 72 hours, took place during Che's time in the revolutionary government. The event lead Cuba to acquire nuclear missiles from the USSR in its own defense, which resulted in the “Cuban missile crisis” in 1962.The DisappearanceAfter returning from a three-month tour of the People's Republic of China, United Arab Republic, Algeria, Ghana, Mali, Dahomey, Congo-Brazzaville, and Tanzania in March of 1965, Che dropped out of public life and was not seen for some time.Che's whereabouts were the main question in Cuba throughout the year, and many rumors began to spread – including one started by enemies of the revolution that Che and Fidel had some sort of a split. This of course was not true at all, as would be proven later.In an interview with foreign correspondents on November 1st, Castro said that he knew where Guevara was but could not disclose the location. He said that Che was “in the best of health”. Speculation however continued at the end of the year, and Che's movements would have to be kept secret for the next two years.During this time, an article written by Che was published in Tricontinental Magazine in which he called for complete support of the heroic Vietnamese people who were fighting against U.S. imperialist invaders, and urged comrades around the world to create “one, two, many Vietnams”In The CongoIn March of 1965 the decision was made that Che would lead a rebel force in support of the Marxist Simba movement in the former Belgian Congo (later Zaire and currently the Democratic Republic of the Congo) in Africa.Guevara worked with guerrilla leader Laurent-Desire Kabila, who had earlier helped supporters of the murdered prime minister Patrice Lumumba lead a revolt that was suppressed by the Congolese army and a large group of white mercenaries.CIA advisors working with the Congolese army monitored Guevara's communications, arranged ambushes against the rebels and the Cubans, and interrupted their supply lines. Che had planned to teach the local Simba fighters communist ideology and the strategies and tactics of guerrilla warfare; but, due to their incompetence, superstition, and internal feuds, he was unable to, and the revolt eventually failed. After seven months, Che, who was ill and suffering from debilitating bouts of asthma, finally left the Congo with the surviving members of his Cuban column (six had died in battle). Originally, Che refused to give up and planned to send the wounded back to Cuba and then stand alone, fighting to the end as a revolutionary example; but after much debating with his comrades in arms, and Fidel, he was finally persuaded to return. Guevara documented his experiences in his Congo Diaries (later published as The African Dream).During his time in the Congo, Fidel had made public a farewell letter written to him in which Che officially severed his ties with Cuba in order to devote himself to revolutionary activities in other parts of the world. "I feel that I have fulfilled the part of my duty that tied me to the Cuban revolution in its territory," the letter says, "And I say goodbye to you, the comrades, your people, who are already mine ... Other nations of the world call for my modest efforts. I can do that which is denied you because of your responsibility as the head of Cuba, and the time has come for us to part."After spending six months living underground in Dar-es-Salaam, Prague, and the GDR, Che returned to Cuba, but only on a temporary basis for the few months needed to prepare another revolutionary effort, this time in Latin America.BoliviaThroughout 1966 and 1967 people continued to wonder where exactly Che was. Finally, in a speech at the 1967 May Day rally in Havana, Major Juan Almeida announced that Guevara was “serving the revolution somewhere in Latin America.” It would turn out that Che was leading a guerrilla army in Bolivia.Che chose Bolivia after a 1964 coup triggered an outbreak in demonstrations, protests, strike by miners, and repression against leaders of leftist and other popular movements. When he and his comrades analyzed the situation, they saw that there was an opening for a guerrilla column made up of Bolivians, some Peruvians, and a group of well trained Cubans, to launch a revolutionary offensive. The plan was to create an international rebel army, that, after achieving victory in Bolivia, would spread the struggle to the rest of Latin America.A piece of land was purchased in the jungles of the Nancahuazu by the Bolivian Communist party and turned over to Che for use as a training area. The Party originally pledged its full support and participation of its membership, but its leader, Mario Monjae, later decided against it after the struggle had already begun.The rebel army, named the Ejercito de Liberacion Nacional de Bolivia (National Liberation Army of Bolivia), was made up of about 50 well equipped guerrillas. They were able to launch a number of successful attacks against the Bolivian army in the mountainous Camiri region, despite the fact that it was being trained in jungle warfare and aided by U.S. Army Special Forces.But problems, such as the refusal of the Communist Party of Bolivia to deliver expected assistance, materials, and reinforcements (the Party leadership went as far as to refuse to tell would-be volunteers how and where to join the guerrillas), eventually lead to some defeats. In September the Bolivian Army managed to eliminate two small groups of guerrillas.Additionally, with full CIA backing, counter-revolutionary Cuban exiles set up interrogation houses in which they tortured 300,000 Bolivians in search of supporters of Che and the guerrillas.Capture and AssassinationTo make matters worse a deserter betrayed the guerrillas and lead Bolivian Special Forces directly to them. On October 8th, their encampment was encircled and a shoot out took place. Che refused to surrender and was captured only after being shot in both knees and having his gun destroyed by a bullet.Che was taken to a old schoolhouse where he was held overnight. On the next afternoon he was murdered by a sergeant in the Bolivian army while he was tied by his hands to a board. Before he was executed, Che said these last words: “I know you are here to kill me. Shoot coward! You are only going to kill a man.”After a military doctor cut off Che's hands, Bolivian army officers moved his body to an undisclosed location and refused to reveal if his remains had been buried or cremated.CIA agent Felix Rodriguez, who also took part in the failed invasions of Cuba and Vietnam, took Che's watch and still displays it to this day.On October 15 Fidel Castro gave an emotional speech in which informed the world of Che's death and proclaimed three days of public mourning in Cuba. The death was considered a severe blow to the revolutionary movement and deeply saddened oppressed people around the world.The diary Che kept in Bolivia was removed when he was captured. In it, he documented the events of the guerrilla campaign. He wrote of how the guerrillas were forced to begin operation much earlier than they had planned due to discovery by the Bolivian Army. He also recorded the rift between the Bolivian Communist Party and himself, which resulted in the rebel army having far fewer soldiers than was originally expected. Che also wrote of his increasing illness towards the end of the campaign. His asthma was getting worse, and most of his last offensives were made simply in an attempt to obtain medicine which he should have been able to acquire through the Bolivian Communist Party.In 1997, Che's skeletal remains were exhumed from beneath an air strip near Vallegrande, Bolivia, positively identified by DNA matching, and returned to Cuba. On October 17, 1997, his remains were laid to rest with full military honors in a specially built mausoleum, the Plaza Comandante Ernesto Guevara, in the city of Santa Clara, where he won the decisive battle of the Cuban Revolution thirty-nine years earlier.Legacy of a Revolutionary HeroWhen Che's murder was announced protests broke out throughout the world, and articles, books, poems and songs were written about his life, death, and message. Che is especially revered because of his spirit of self-sacrifice, illustrated by his choice to reject a comfortable life and instead join, and take up the cause of the worlds poor, oppressed majority. He never gave up that cause, continuing to give his all to the revolutionary struggle until his death.The famous photo taken of Che by photographer Alberto Korda in 1960, which became one of the 20th centuries most recognizable images, has become a symbol of liberation – through socialist revolution – for millions of people.French philosopher Jean-Paul Sarte called Che “the most complete human being of our age,” and he was correct in doing so. Ernesto “Che” Guevara was one of the most important, and most dedicated revolutionaries we have ever known. But his struggle is far from over. The oppressed masses of the world must continue to fight for freedom, justice, and equality through socialist revolution – the only way it can be achieved – as Che said, “Hasta la victoria, siempre!” [Always, until the victory!] The article originally appeared in the Autumn 2005 issue of Rebel Yell!.
The original article, with links and pictures, is available at http://www.freepeoplesmovement.org/ry/rya5a.html
COURTESY-Che-Lives .com.




Saturday, August 18, 2007

History as a site of struggle

K.N. PANIKKAR
Historiography is a terrain of contest, reflective of different conceptions of society and ways of realising them .

The two defining features of modern Indian history can be identified in the two interrelated processes: the making of India as a nation and the evolution of modernity. All historiographies — be it the colonial, nationalist, Marxist, or post-modernist — in some way or the other, either implicitly or explicitly, address these two issues, although their reasons for doing so are vastly different. Their differences reflect the ideological struggles within the discip line, rooted in different intellectual persuasions, theoretical assumptions, political perspectives, and social commitments. These ideological struggles in a way form a force behind the changes in the nature of historiography. As such, historiography is a terrain of contest, reflective of different conceptions of society and ways of realising them. The history of ‘modern’ India is no exception, as it evolved during the last two hundred years through different thematic choices and methodological innovations, influenced as they were by different ideological considerations.
The origin and development of modernity in India was not through any organic evolution. Indians were introduced to modernity through the agency of colonialism, as a part of their subjection to the colonial power. One of the channels through which the ideas of modernity were conveyed was colonial historiography, which graphically drew the contrast between the western-modern and the traditional-feudal. Modernity was attributed to whatever the East India Company’s administration undertook in the social, economic, and political life, suggesting thereby the transformative power of the colonial rule. The colonial institutions were actively engaged in propagating these notions, which the liberal intelligentsia internalised and in turn disseminated.
The impression conveyed was that colonial history was the beginning of modernity and the source of progress. Consequently, the traditional order was rejected as obscurantist in favour of the colonial-modern. At the same time, the limitations of this modernity, which had no roots in the ‘native’ soil, could not escape notice. For, colonial modernity was essentially an importation of the ideas and practices that had originated in the west and had no connection whatsoever with the ‘indigenous’ social and intellectual experience and therefore could not be part of the larger social consciousness. Even universal ideas like humanism and rationalism did not succeed in establishing indigenous lineage.
As a result, colonialism as an agency of modernity soon came into question. However, certain aspects of colonial modernity exercised a very powerful ideological influence over the intelligentsia, which coloured its view of the past. The colonial influence continues to persist, albeit in different forms of articulation. Some recent historiographical tendencies, in their effort to focus on the fragment, underplay if not overlook altogether the devastating role that colonialism played in the country’s history. The post-colonial histories, which are engaged in redefining the impact of the colonial subjection, on the other hand, try to valorise the contribution of colonialism to social progress and economic development. That such explanations are gaining academic respectability, political legitimacy, and ‘radical’ acceptance is perhaps an indication of the new climate of intellectual domination.
A religious communitarian view of Indian society as well as of the nation is central to the colonial interpretation of history. The colonial historians conceived India as a country of communities in conflict to which a sense of unity was imparted by the operation of colonial administrative institutions. The neo-colonial historians have suggested that the formation of the nation and the emergence of nationalism were a sequel to it.
This aroused two different responses. The first put forward a concept of nation based upon a sense of modernity devoid of the colonial presence. The second was a religious- communitarian view of the nation that sought to resurrect the past uncritically. While the first view worked within the parameters of modernity, the second was essentially anti- modernist with emphasis on indigenous institutions. The advocates of the first became the champions of secular nationalism and the advocates of the second stood for religious communal identity of the nation. The conflict between these two conceptualisations is a major area of ideological struggle within the discipline.
The departures from colonial history were enmeshed in the quest for a modernity different from the one valorised by colonialism. This was mainly articulated in the nationalist and Marxist historical writings, which became influential during the post-colonial period. The liberation from colonialism was a necessary prerequisite for the construction of real modernity in the understanding of both nationalist and Marxist historiography. The nationalist, however, took a homogenous view of the nation, exclusively emphasising in the process the primary contradiction between the nation and colonialism.
The Marxist, on the other hand, conceptualised the nation as an aggregate of internally differentiated classes and underlined the contradictions between them. Consequently, the Marxist historiography drew attention to the democratic aspirations of hitherto marginalised classes like the peasants and workers, even if the importance of integrating the social categories such as Dalits, Adivasis, and women with the class analysis was not adequately realised. The nationalist and Marxist historical investigations, despite their different ideological moorings, reflected the struggle against colonial ideology, which even after the success of the national liberation movement continued to be quite influential. The ideological struggles implicit in the nationalist and Marxist historiography is conspicuous by their absence in the new tendencies like subaltern and post-modern history.
The nationalist and Marxist histories also conceptualised the nation on the basis of its secular character and explored its strengths and weaknesses as evolved during the colonial and post-colonial periods. In fact, the secular character became a defining feature of these histories. However, during the colonial and post-colonial periods, the nation was increasingly interpreted on religious-communal lines. Such a view was officially sponsored when the Hindu fundamentalist forces gained access to state power. Being based on misrepresentations and misinterpretations, communal history, however, met with strong resistance from the professional practitioners of the discipline. As a result, a discernible retreat of the communal influence is evident in historical writing, at least as of now.Broader struggles
The above tendencies in modern Indian historiography are symptomatic of broader ideological struggles within the discipline. The first is the yet incomplete struggle against the legacy of colonialism, which seems to reappear with different forms of interpretation, attempting in the process to legitimise the colonial past. Such efforts have contemporary relevance in the context of the new forms of imperialist penetration, and their ongoing rationalisation, particularly in the intellectual and cultural domains. The emergence of global history as an alternative to national histories is an indication of the power the forces of globalisation exercise. The second is the struggle against communal influence in historical interpretation. The communal interpretation has not only gained considerable adherents in the discipline but also commands legitimacy in several quarters, including some ‘radical’ schools of thought that share at least some common ground with the communal interpretation, particularly in the analysis of community, tradition, and culture.
At the same time, the influence of post-modernism of which some of these radical sections claim to be the practitioners, tends to rob history of much of its strength as a distinct discipline. It has created the doubt whether history can be written at all. The critique of post-modernism in the field of history is hence an attempt to preserve the essential character of the discipline.
Modern history is a site of ideological struggles. The shape of its future depends upon the course and content of these struggles.
Dr. K.N. Panikkar, former Professor of Modern History at Jawaharlal Nehru University, is currently Vice-Chairman of the Kerala Higher Education Council.

Courtesy-THE HINDU.