Monday, October 15, 2007

साम्राज्यवाद सबसे बड़ा संकट


आजादी निरंतर संघर्ष का नाम है -आलोक धन्वा

आज़ादी का जो रास्ता है, वह मेहनतकश जनता के खून और पसीने से, उसके आंसुओं से भरा हुआ रास्ता है। मैं और मुझ जैसे हजारों हिंदुस्तानी जो कार्यकर्ता हैं, लोकतंत्र के और समाजवाद के, वे इस बेहद जटिल रास्ते पर चल रहे हैं.1947 में हमने जो आजादी पाई थी, वो हमेशा के लिए प्राप्त की गई कोई मंजिल नहीं है. आज़ादी एक निरंतर संघर्ष द्वारा हासिल करते रहने की संघर्ष प्रक्रिया है. जिसको हम आज़ादी कहते हैं, उसकी एक मंजिल हमको हासिल होती है. हम ये देखते हैं कि जिसको हम मंजिल कह रहे थे वहां भी ऐसे विकार, ऐसी विकृतियां पैदा हो सकती हैं, जो शोषण का एक अंग प्रवृत करती हैं.ताकत और स्वतंत्रता की जो खतरनाक लड़ाई है उसको भी समझने की जरुरत है क्योंकि ताकत हमेशा जो है स्वाधीनता के रास्ते को बाधित करने की कोशिश करती है. ताकत जब भी बहुमत जनता के बजाय व्यक्ति या किसी छोटे समूह के हाथ में होगी तो वो शोषण करने लग जाएगी. ताकत के एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के द्वारा तय की जानी चाहिए.ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम सबसे ज्यादा योग्य़ हैं इसलिए हम शासन करेंगे. ये बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जिसको हम योग्यता कहते हैं वह किसी एक समूह के द्वारा संपन्न नहीं होती. इसकी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. ये जो ज्ञान है, भौतिकता है ये सामाजिक प्रक्रिया है, ये एक सामूहिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक अच्छी कविता लिखते हैं. ये सिर्फ निजी नहीं है, मैं एक अच्छी कविता अकेले नहीं लिखता हूं, उसमें ऐसे हज़ारों बुद्धिजीवी शामिल हैं जो प्रक्रिया को संभव बनाते हैं, होने को संभव बनाते हैं. रचना की जो प्रक्रिया है, वह सामाजिक तौर पर संपन्न होती है.आज हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट है, वह है साम्राज्यवाद. सम्राज्यवाद ने पूरी दुनिया को जो चुनौती दी है और जो दमनचक्र उसने चलाया है, उसके सामने सब नतमस्तक हो गए हैं. इसके खिलाफ एक राष्टीय सोच बननी चाहिए, एक ऐसी राष्टीय सोच, जिसमें तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और बहुमत जनता के पक्षधर लोग शामिल हों. जो सम्राज्यवादी शोषण है, उसके प्रभुत्व से हम अपने उस राष्ट्र को आज़ाद करें, जिस राष्ट्र के लिए भगत सिंह और उसके साथी लड़े, जिस राष्ट्र के लिए गांधी और नेहरु लड़े. मैं गांधी जी का उल्लेख किसी भावावेश में नहीं कर रहा हूं. गांधी एक साधारण आदमी नहीं थे, आप एक मुहल्ले में यात्रा करते हैं और सफल नहीं हो पाते और गांधी जी नमक के लिए चले और पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो गया. ये कोई जादू नहीं है. गांधी से मेरी वैचारिक असहमति है लेकिन मैं गांधी को छोड़कर चलने के लिए तैयार नहीं हूं.देश में जो सबसे बड़ा आंदोलन हुआ, जिसमें जनता की व्यापक भागीदारी रही, वह था गैरकांग्रेसवाद का आंदोलन. देश में 1966 में पहली बार गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बनी. इसकी एक परिणति बिहार आंदोलन में देख सकते हैं, जिसके नेतृत्व में जयप्रकाश जी आते हैं और दूसरे सारे नेता उसमें शामिल होते हैं. ये एक बहुत बड़ा पोलराइजेशन था.साल भर बाद एक और महत्वपूर्ण आंदोलन शुरु हुआ और वो था नक्सलबाड़ी का आंदोलन. नक्सलबाड़ी के आंदोलन से किसी की असहमति हो सकती है लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन के पीछे एक बहुत बड़ा स्वप्न था. उस आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे आतंकवाद से जोड़ा जाए, बल्कि उसके पीछे मुक्ति का एक बहुत बड़ा स्वप्न था. नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पूरे राष्ट्र को सोचने के लिए एक चुनौती दी कि 1947 में जो आज़ादी मिली, वो जनता की आज़ादी है या सिर्फ एक प्रभुतासंपन्न वर्ग के हाथो की आज़ादी है. उस आंदोलन ने लोकतंत्र के बारे में, जनता की मुक्ति के बारे में, समाजवाद के बारे में, उसने बहुत ही नये सवालों से देश के बुद्घिजीवियों को प्रभावित किया.यहां मैं साफ करना चाहूंगा कि देश की जो बहुमत मेहनतकश भारतीय जनता है उसकी व्यापक हिस्सेदारी के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता और लोकतांत्रिक नहीं हो सकता. भारत की जो मेहनतकश जनता है, उसकी व्यापक हिस्सेदारी जरुरी है. अगर वो व्यापक हिस्सेदारी नहीं होगी तो वह रास्ता कभी सफल नहीं होगा.अभी का जो नक्सल आंदोलन है, उसके स्वरुप को लेकर, उसके रास्ते को लेकर बुद्धिजीवियों में बहुत विवाद है. उसमें ऐसी भी ताकतें हैं, जो समाजवाद को लाना चाहती हैं और ऐसी भी ताकतें हैं जिनका रास्ता बहुत ज्यादा आतंकवाद की ओर जाता है. नक्सल आंदोलन के इस स्वरुप को लेकर व्यापक बहस की जरुरत है.

कालाहांडी का एक और सच


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी सरकारी लूट
परशुराम राय

आजादी के 6 दशक बाद भी भूख और गरीबी देश के एजेंडा पर ऊपर नहीं आ सके हैं. बेशक एक जमाने में गरीबी हटाओं का एक नारा चला और अब राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना इस दिशा में एक बड़ा कदम है. लेकिन जिस मकसद को लेकर यह योजना लागू की गई, वह पूरा नहीं हो सका है. और कहीं नहीं, पलायन और भूखमरी का पर्याय बन गए कालाहांडी में यह योजना सबसे बड़ा छलावा साबित हुई है. इसकी आड़ में करोड़ों रुपए की हेराफेरी का मामला सामने आया है. इस मद की 90 फीसदी से ज्यादा रकम गरीबों ओर जरुरतमंदों तक पहुंची ही नहीं. पेश है, सेंटर फार एन्वायरमेंट एंड फुड सिक्योरिटी के निदेशक परशुराम राय की एक खास रिपोर्टराष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरइजीए) को स्वतंत्र भारत के इतिहास में गरीबों के सबसे अनुकूल, ग्रामीणों के हक में और सबसे स्वाभाविक अधिनियम बताया जा रहा है. यदि इस ऐतिहासिक अधिनियम को ईमानदारी से शब्दशः लागू किया जाता तो यह ग्रामीण भारत का भविष्य और किस्मत बदल सकता था. एनआरइजीए ने देश के ग्रामीण गरीबों को भारत के देहात में जीवन यापन की सुरक्षा और पर्यावरणीय संतुलन कायम करने में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने का मौका उपलब्ध कराया है. ग्रामीण रोजगार योजना के लाभार्थी न तो कल्याणकारी राज्य द्वारा दिए जाने वाला दान ग्रहण कर रहे हैं और न ही वे राष्ट्रीय कोष पर किसी तरह का वित्तीय बोझ हैं. वास्तव में वे संपत्ति के निर्माण, पारिस्थितिक के पुनर्निर्माण के सक्रिय कारक के साथ ही राष्ट्रीय विकास में सक्रिय भागीदारी करने वाले मानवीय इंजन है. लेकिन इन सभी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए जरूरी है कि इस अधिनियम पर ईमानदारी से अमल हो. लेकिन यह एक महान त्रासदी साबित होगी यदि एनआरइजीए सरकारी बाबूओं के लिए पैसा उगाहने की मशीन बन जाए. उड़ीसा देश का सबसे गरीब राज्य है, जहां घोर गरीबी और भुखमरी के साथ जीवन यापन करने वाले गरीबों का प्रतिशत में आंकड़ा सबसे ज्यादा है. लिहाजा कोष के आवंटन के मामले में इस राज्य को सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए. एनआरइजीए के तहत वर्ष 2006-07 में उड़ीसा को कुल 890 करोड़ रु की राशि आवंटित की गई, जिसमें से उसने 733 करोड़ रु खर्च भी कर डाले. उड़ीसा सरकार के आंकड़ों के मुताबिक उसने 2006-07 के दौरान 13,94,169 परिवारों के लिए 7.99 करोड़ श्रम दिवसों का सृजन किया था. दूसरे शब्दों में प्रत्येक जरूरतमंद और इच्छुक परिवारों को इस साल औसतन 57 दिन काम उपलब्ध कराया गया और एनआरइजीए के दायरे में आने वाले 19 जिलों में से एक भी जरूरतमंद परिवार को काम देने से इंकार नहीं किया गया. उड़ीसा सरकार का यह भी दावा है कि वर्ष 2006-07 के दौरान 1,54,118 परिवारों ने सौ दिन रोजगार हासिल किया. दुर्भाग्य से उड़ीसा के 100 गांवों में किए गए एक सर्वेक्षण से यह सनसनीखेज जानकारी सामने आई है कि सरकार के ये सभी दावे झूठे हैं और एनआरइजीए के कोष के धन की हेराफेरा के लिए सरकारी रिकॉर्डों में फर्जी तरीके से दर्ज किए गए हैं. उड़ीसा के छह सबसे गरीब जिलों में किए गए एक सर्वेक्षण में यह जानकारी सामने आ रही है कि एनआरइजीए के तहत जो 733 करोड़ रु खर्च किए गए थे, उसमें से 500 करोड़ से भी ज्यादा की राशि सरकारी अधिकारियों ने हड़प ली या इसका दुरुपयोग किया. यह सर्वेक्षण दिल्ली के सेंटर फार एन्वायरमेंट एंड फुड सिक्योरिटी (सीईएफएस) द्वारा केबीके यानी कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट क्षेत्र के छह जिलों बोलांगीर, नुआपाड़ा, कालाहांडी, कोरापुट नबरंगपुर और रायगड़ा के 100 गांवों में किया गया.फर्जी काम, फर्जी भुगतानहमारा आकलन बताता है कि जमीन पर 2 करोड़ से भी कम श्रम दिवसों के रोजगार का सृजन किया गया, जबकि 6 करोड़ से भी अधिक के श्रम दिवसों के रोजगार फर्जी जॉब कार्ड और फर्जी मस्टर रोल के जरिए कागजों में दिखाए गए. सीइएफएस के सर्वेक्षण ने खुलासा किया कि वास्तव में एनआरइजीए के दायरे में आने वाले राज्य के 19 जिलों में जरूरतमंद परिवारों को औसतन पांच दिन से अधिक का रोजगार उपलब्ध नहीं कराया गया और बड़ी संख्या में जरूरतमंद परिवारों को रोजगार देने से इंकार कर दिया गया.इन 100 गांवों में हम एक भी ऐसा परिवार नहीं तलाश पाए जिसे 100 दिन का रोजगार मिला हो. हमें बहुत कम ऐसे परिवार मिले, जिन्हें वास्तव में 40 से 60 दिन का रोजगार मिल पाया था. और बाकी के परिवारों का हाल यह था कि यदि उन्हें रोजगार मिला भी था तो बस 5 से 21 दिन के लिए. हालांकि इन सभी परिवारों का ऑनलाइन जॉब कार्ड फर्जी था या उससे छेड़छाड़ की गई थी और उनमें 111 दिन, 108 दिन, 104 दिन, 102 दिन, 100 दिन, 96 दिन, 84 दिन, 72 दिन, 65 दिन, 60 दिन, 52 दिन और इसी तरह की प्रविशिष्टियां दर्ज थीं. उड़ीसा ने इस तरह से 733 करोड़ रु खर्च किए और 8 करोड़ श्रम दिवसों का सृजन किया. यों भी उड़ीसा के कालाहांडी जिले को देश की भूख की राजधानी के रूप में जाना जाता है. 2006-07 के दौरान इस जिले को एनआरइजीए पर अमल के लिए 111 करोड़ रु का आवंटन किया गया था. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक जिले ने 72 करोड़ रु खर्च कर जिले के 121517 परिवारों के लिए 61.76 लाख श्रम दिवसों के रोजगार का सृजन किया. दूसरे शब्दों में इन 121517 परिवारों को औसतन 50 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया. सरकारी दावों के मुताबिक इस वर्ष जिले में 100 दिन का रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या 9074 थी. लेकिन जिले के 18 गांवों के हमारे सर्वेक्षण से यह जानकारी सामने आ रही है कि ये सारे दावे फर्जी हैं और यह सिर्फ सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हैं न कि कालाहांडी के गांवों में.कालाहांडी जिले के भवानीपटना ब्लाक के तालबेलगांव पंचायत में आने वाला पाल्सीपाड़ा घोर आदिवासी गांव है. यह गांव कालाहांडी जिले के मुख्यालय भवानीपटना से बमुश्किल 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस गांव का हरेक परिवार घोर गरीबी और भुखमरी के साथ जीने को अभिशप्त है. बच्चों के बेतरतीबी से फूले पेट, सूखी आंखें और पिचके हुए गाल वाकई रोंगटे खड़े कर देते हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत इस गांव के अधिकांश घरों को जॉब कार्ड और काम मिल चुके है. लेकिन इनमें से ज्यादातर रोजगार सिर्फ ऑनलाइन जॉब कार्ड और फर्जी मस्टर रोल में ही दर्ज हैं हकीकत में उन्हें कोई काम नहीं मिला है.किस्से सैकड़ों हैंपाल्सीपाड़ा गांव के गरीब आदिवासी रूपा मांझी को 2006-07 के दौरान वास्तव में 21 दिन का रोजगार दिया गया और उसे इसके एवज में 600 रुपए का भुगतान किया गया. रूपा मांझी को यह काम गरीबी उन्मूलन के बहुचर्चित एनआरइजीएस के अंतर्गत सड़क निर्माण की एक परियोजना के तहत उपलब्ध कराया गया. लेकिन उसके जॉब कार्ड में गलत तरीके से दर्ज किया गया कि उसने 336 दिनों तक काम किया. जबकि एनआरइजीएस की वेबसाइट में रूपा मांझी के ऑन लाइन जॉब कार्ड में दावा किया गया है कि उसे 102 दिनों का रोजगार दिया गया और 6310 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन इस 6310 रुपए में से वास्तव में सिर्फ 600 रुपए ही रूपा मांझी के हाथ में आए. रूपा मांझी के नाम के बाकी के 5710 रुपए जो कि कुल पारिश्रमिक के 90 फीसदी से भी ज्यादा है, को सरकारी अधिकारी हड़प गए. रूपा मांझी का मामला पाल्सीपाड़ा में एनआरइजीएस के फंड की हेराफेरी से जुड़ा अकेला मामला नहीं है. कालाहांडी के इस गरीब आदिवासी गांव में रूपा मांझी जैसे और लोग भी मौजूद है. इसी गांव के चंद्रा मांझी को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. लेकिन उसके जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से 126 दिन का रोजगार दर्ज है. इसी तरह एनआरइजीएस की वेबसाइट में फर्जी तरीके से चंद्रा मांझी के नाम पर 108 दिनों का रोजगार और 5940 रुपए का भुगतान दर्ज है. इस मामले में तो सरकारी अधिकारी पारिश्रमिक की 100 फीसदी राशि हड़प गए. पाल्सीपाड़ा के एक और गरीब आदिवासी सुकला मांझी ने वास्तव में सड़क मरम्मत का 21 दिन का काम किया था और उसे इसके एवज में 600 रुपए का भुगतान किया गया था. लेकिन उसके जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से दर्ज है कि उसे 126 दिन का रोजगार दिया गया. और जब हमने एनआरइजीएस की वेबसाइट पर सुकला मांझी के काम और भुगतान की पड़ताल की तो हमें इस गोरखधंधे का एक और ही संस्करण देखने को मिला. एनआरइजीएस में दर्ज फर्जी प्रविष्टि के मुताबिक सुकला मांझी को 104 दिनों तक काम दिया गया और 55 रुपए रोज की दर से 5720 रुपए का भुगतान किया गया. यानी सुकला मांझी के मामले में बाकी के 5120 रुपए सीधे तालबेलगांव पंचायत के विलेज लेवल वर्कर (ग्रामीण स्तर के कार्यकर्त) की जेब में चला गए. एनआरइजीएस की वेबसाइट में जनकिया मांझी के नाम पर 108 दिन का रोजगार और 5940 रुपए का भुगतान दर्ज है. लेकिन वास्तव में जनकिया मांझी ने सिर्फ 15 दिन काम किया और उसे सिर्फ 450 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में पारिश्रमिक की 92 फीसदी राशि अधिकारियों के जेब में चले गए और लाभार्थी को सिर्फ 8 फीसदी राशि ही मिल पाई.दुर्योधन मुंड का ऑन लाइन जॉब कार्ड बताता है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया और इसके एवज में 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन वास्तव में उसके परिवार को सिर्फ 21 दिन काम मिला और इसके बदले 650 रुपए का भुगतान किया गया. सरकारी अधिकारियों ने दुर्योधन मुंड को दो बार लूटा. इसी तरह जगत मांझी के जॉब और भुगतान संबंधी ऑन लाइन ब्यौरे के मुताबिक उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन वास्तव में उसके परिवार को 15 दिन ही काम मिला और 700 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में 5240 रुपए सीधे अधिकारियों की जेब में चले गए.लूट, लूट और लूटये तो पाल्सीपाड़ा के कुछ परिवारों के ही ब्यौरे है. इस गरीब आदिवासी गांव के और कई परिवारों को इसी तरह से छला गया. हमने इसी गांव के 18 और परिवारों का पता लगाया जिनके जॉब कार्ड में 108 दिन, 96 दिन और 72 दिन का रोजगार दर्ज है लेकिन इनमें से किसी भी परिवार को बमुश्किल 15 से 20 दिन का ही रोजगार उपलब्ध कराया गया. हमारा आकलन बताता है कि पाल्सीपाड़ा में एनआरइजीएस के तहत खर्च की गई 90 फीसदी राशि सरकारी अधिकारियों ने हड़प ली. घोर गरीबी और भुखमरी के बावजूद इस वंचित गांव के आधे से अधिक परिवारों को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. कालाहांडी जिले में पोखरी घाट एक और गांव है जहां ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू है लेकिन आवंटित राशि के 95 फीसदी से भी अधिक का हिस्सा इस योजना को लागू करने वाले अधिकारियों की जेबों में चला गया. भवानीपटना के चांचेर पंचायत के इस गरीब गांव में 100 घर हैं, जिनमें 60 गोंड आदिवासी और 40 दलित हैं. घोर गरीबी और भुखमरी इस गांव में सहज ही देखी जा सकती है. मानव विकास सूचकांक में यह गांव निश्चित रूप से सबसे नीचे होगा. पोखरी घाट गांव के सिर्फ आधे परिवारों को ही जॉब कार्ड मिले हैं. इस गांव में 2006-07 के दौरान सिर्फ दो काम हुए. पहला है 3 लाख की लागत से बना नया तालाब और दूसरा है 4 लाख की लागत से तालपिपली से उप्परपिपली तक की सड़क का निर्माण. पोखरी घाट में ग्रामीण रोजगार योजना से संबंधित हर दस्तावेज फर्जी मिला. यहां एक भी जॉब कार्ड में दर्ज काम और उसके बदले किया गया भुगतान हकीकत में किए काम और किए गए भुगतान से मेल नहीं खाता. यहां तक कि जॉब कार्ड में दर्ज काम और भुगतान ऑन लाइन जॉब कार्ड में दर्ज प्रविशिष्टियों से मेल नहीं खाते. और जब हमने ग्रामीणों को बताया कि जाब कार्ड के मुताबिक उन्होंने दो से तीन महीने तक काम किया है, तो वे आवाक रह गए !चाबी मांझी पोखरी घाट का एक गोंड आदिवासी है और उसके परिवार को ग्रामीण रोजगार योजना के तहत एक भी दिन काम नहीं मिला. लेकिन चाबी मांझी के ऑन लाइन जॉब कार्ड में गलत तरीके से दर्शाया गया है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. यानी चाबी मांझी के नाम की 5940 रुपए की पूरी राशि सरकारी अधिकारी डकार गए.बेदा मांझी पोखर घाट का एक और गोंड आदिवासी है जिसके परिवार को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत कोई काम नहीं मिला. लेकिन बेदा मांझी का ऑन लाइन जॉब कार्ड बताता है कि उसके परिवार को 102 दिन का काम मिला और इसके बदले 5610 रुपए का भुगतान किया गया. यानी इस मामले में भी सौ फीसदी राशि प्रभारी अधिकारी डकार गए.काम नहीं, फिर भी ऑन लाइन भुगतानसीतापति पुजारी ने भी एनआरइजीएस के तहत कोई काम नहीं किया. लेकिन उसके ऑन लाइन जॉब कार्ड में दिखाया गया है कि उसे 72 दिन का काम उपलब्ध कराया गया और 3960 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में भी सौ फीसदी राशि अधिकारी हड़प गए. अर्खिता पुजारी का ऑन लाइन जॉब कार्ड दिखाता है कि उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और इसके बदले 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन हकीकत में उसके परिवार को सिर्फ 8 दिन काम मिला और सिर्फ 500 रुपए का भुगतान किया गया. यानी अर्खिता पुजारी के नाम पर 92 फीसदी की राशि हड़प ली गई.इलामा नाइक के ऑन लाइन जॉब कार्ड में भी वही कहानी दोहराई गई है. इसके मुताबिक उसके परिवार को 108 दिन का रोजगार दिया गया और 5940 रुपए का भुगतान किया गया. लेकिन हकीकत में उसके परिवार को सिर्फ 20 दिन का काम और 500 रुपए का भुगतान किया गया. वास्तव में इलिमा को दो तरह से ठगा गया. पहला यह कि 55 रुपए रोज के हिसाब से 108 दिन के 1100 रुपए होते हैं लेकिन उसे सिर्फ 600 रु दिए गए. दूसरा यह कि अधिकारी उसके नाम का 90 फीसदी पारिश्रमिक खा गए.बुदु नाइक पोखरी घाट गांव का एक और गरीब आदिवासी है जिसके काम के अधिकार को संबंधित अधिकारियों ने छीन लिया. उसके परिवार ने वास्तव में 10 दिन ही काम किया और उसे 500 रुपए दिए गए लेकिन ऑन लाइन जॉब कार्ड में दिखाया गया है कि उसके परिवार को 108 दिन काम दिया गया और 5940 रुपए का भुगतान किया गया. इस मामले में भी 90 फीसदी राशि हड़प ली गई.इदाइ पुजारी के परिवार ने वास्तव में 8 दिन काम किया और उसे 400 रुपए दिए गए लेकिन उसके ऑन लाइन जॉब कार्ड की प्रविशिष्टियां बताती हैं कि उसके परिवार को 36 दिनों का काम उपलब्ध कराया गया और 1980 रुपए का भुगतान किया गया. यानी उसके नाम की 80 फीसदी राशि हड़प ली गई.पोखरी घाट में मची खुली लूट के ये कुछ उदाहरण हैं. वास्तव में इस गांव के किसी भी परिवार को 15-20 दिनों से ज्यादा काम नहीं मिला और 500-600 रुपए से ज्यादा का भुगतान नहीं किया गया. इसी गांव के 26 परिवारों के रोजगार और भुगतान की प्रविशिष्टियां बताती हैं कि उन्हें 2-3 महीने का काम दिया गया. इसके अलावा 12 से अधिक जॉब कार्ड में फर्जी तरीके से दर्शाया गया है कि संबंधित परिवारों को 108 दिन का रोजगार दिया गया. तीन कॉर्ड में 102 दिन और 4 कॉर्ड में 96 दिन के रोजगार की प्रविशिष्टि दर्ज हैं. कालाहांडी जिले के पाल्सीपाड़ा और पोखरी घाट गांवों की कहानी भ्रष्टाचार और वित्तीय गड़बड़ियों की अनूठी मिसाल नहीं हैं. यह कहानी है उड़ीसा के 5000 गांवों की जहां एनआरइजीएस लागू है. आप इसे क्या कहेंगे भ्रष्टाचार और वित्तीय गड़बड़ी या सरकारी बाबूओं की खुली लूट? और क्या एनआरइजीएस फंड का यह घोटाला राज्य की सरकारी मशीनरी के बिना संभव है?
www.raviwar.com से साभार