Monday, December 10, 2007

श्मशान में लाल झंडा

यह शांति का लाल सूरज नहीं है _ मेधा पाटकर
पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार ने बार-बार सवाल उठाया कि मेधा पाटकर नंदीग्राम क्यों गईं? मेरा कहना है कि जहां भी अन्याय होगा, मानवीय मूल्यों पर हमला होगा, वहां जाने का हमारा हक़ बनता है. नंदीग्राम पश्चिम बंगाल में ज़रुर है पर भारत में भी है. एक भारतीय नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. ऐसा ही सवाल हमसे सिंगूर की राह में भी पूछा गया था और कोलकाता हाईकोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया था.नंदीग्राम में हम पर हमला करने वाले आम आदमी नहीं थे, वे किसी खास पार्टी के कैडर थे. वे किस पार्टी के कैडर थे, यह दुनिया को मालूम हो चुका है. 12 नवंबर को जब दूसरी बार हम नंदीग्राम प्रवेश की राह में सीपीएम कैडरों के एक-एक अवरोधक से जूझ रहे थे तो उनके स्टेट चेयरमैन का मीडिया में बयान आ रहा था-हम मेधा पाटकर को किसी भी कीमत पर घुसने नहीं देंगे. किसी संगठन के कैडर और चेयरमैन के बीच इस तरह का संवाद , अनुशासन आप पश्चिम बंगाल में ही देख सकते हैं. 8 नवंबर को हमला सिर्फ हमारे ऊपर हुआ, यह सही नहीं है. पश्चिम बंगाल के वयोवृद्ध बुद्धीजीवी तरुण सान्याल, मशहूर शिक्षाविद सुनंद सान्याल, जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. मैहर इंजीनियर और अनुराधा तलवार जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस हमले के शिकार हुए. हमारे साथ-साथ सफर कर रहे मीडिया के साथियों पर भी हमला हुआ और मुझे अपने से अधिक मीडिया पर हुए हमले का दुख है. हमारे साथ मार खाने वाले मीडियाकर्मी भी हमारी ही तरह निर्दोष थे.नंदीग्राम में मीडिया को लगातार रोकने की कोशिश की गई. देश में पहली बार ऐसा नहीं हुआ है. गुजरात में भी मीडिया का प्रवेश कुछ समय के लिए रोक दिया गया था. पहले प्रवेश बंद करना, फिर निषेध हटा लेना, एक मक़सद से ही ऐसा किया गया होगा. मीडिया को इस तरह प्रवेश से रोकना, देश की आंख पर परदा डालना है. क़ानून को अपने हाथ में लेकर प्रवेश रोकना औऱ प्रवेश करने की कोशिश करने पर हमले करना, इमरजेंसी घोषित न करते हुए भी अघोषित राजनीतिक आपातकाल मैंने देश में पहली बार देखा है. कुछ दृश्य तो गुजरात से भी ज्यादा भयानक, ज्यादा खतरनाक दिखे.सीपीएम की योजनाबद्ध हिंसाविमान बोस बार-बार हमें रोकने की वजह, नंदीग्राम में हमारे जाने से, उन्माद फैलने की आशंका बता रहे था. जबकि गांव में सीपीएम समर्थकों ने कहा- आप पहले क्यों नहीं आईं, पहले आने से नंदीग्राम जलने से बच जाता. विमान बोस उन्माद के बारे में ज्यादा जानते हैं. हमारे पास तो सत्य, शांति और अहिंसा का हथियार ही है. हिंसात्मक तरीके से दखल कब्जा अभियान को वे शांति स्थापना कह रहे हैं. शांति और हिंसा की परिभाषा पश्चिम बंगाल में बदल नहीं सकती. वे कह रहे हैं- 11 माह बाद नंदीग्राम में शांति का लाल सूरज उगा है. ध्वस्त, बर्बाद, जले हुए घरों पर लहराते हुए लाल झंडे की श्मशानी सूरज को हम शांति का लाल सूरज तो नहीं कह सकते.नवंबर में नंदीग्राम में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है. इस बार पुलिस की भूमिका हमले से अलग रखने की रही. सब कुछ राज्यसत्ता ने और साफ-साफ कहें, पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा ने नहीं, सीपीएम ने योजनाबद्ध तरीके से पूरा किया है. हम सरकार से ज़्यादा उन पर यकीन करते हैं, जिन हजारों-हजार लोगों के घर-बार, चास-बास सब बर्बाद हो गये हैं. अपनी ज़िंदगी से उजड़े-बर्बाद हुए लोग झूठ बोल रहे हैं और सरकार सच बोल रही है, इसकी जांच सीबीआई ही कर सकती है.कोलकाता हाईकोर्ट ने 14 मार्च के हमले को असंवैधानिक कहा है लेकिन नवंबर महीने का दखल-कब्जा भी उतना ही असंवैधानिक और अमानवीय है. नंदीग्राम में सेज की परियोजना रद्द होने के बाद सीपीएम सरकार के खिलाफ संग्राम करने वाले गांव-समाज को खत्म कर बदला लेना, यह राजनीतिक अपराधीकरण और अमानवीयता की हद है. निहत्थे लोगों पर हो रहे हमले की फोन से पल-पल की सूचना, बहनों पर अत्याचार के किस्से, लापता और मृतकों के बारे में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के अपुष्ट दावे, यह सब जनसंहार का साक्ष्य ही तो है.पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति शासन लगाने और सरकार को गिराने की मांग की है. हमने पहले भी धारा 355 का विरोध किया था लेकिन सरकार गिराने की मांग हम बेहतर विकल्प के आधार पर ही कर सकते हैं. राष्ट्रपति शासन या धारा 355 की मांग एक तरह से प्रदेश की जनता पर आपातकाल थोपना है. आपातकाल लगा कर नागरिक अधिकारों को कुचलने की मांग हमें पसंद नहीं है.बगदाद बचाने जैसी गुहार और बुश की इच्छाभूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति ने नवंबर महीने के हमले की पूर्व सूचना देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सोनिया गांधी को दी थी. फिर भी नंदीग्राम की हिफाजत नहीं हुई. देश के सर्वोच्च सत्ता का समाज के सबसे कमजोर वर्ग की हिफाजत के प्रति असंवेदनहीनता लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है. इससे नंदीग्राम के आहत, बर्बाद ग्रामेर मानुष की लोकतांत्रिक आस्था कमजोर पड़ी है. कोलकाता से देर रात सोनिया गांधी से लेकर मंत्रियों तक, मै, इस तरह फोन करती रही, जैसे बगदाद को बचा लेने की यह आख़री रात है. लेकिन हुआ वही, जैसा बुश ने चाहा.बुद्धदेव ने कहा-जैसे को तैसा. नंदीग्राम बर्बाद हो गया. यूपीए गठबंधन की भूमिका भी नंदीग्राम के सवाल पर संदिग्ध रही. किसी प्रदेश में राज्य-पोषित हिंसा को रोकने में नकारा साबित होना, यूपीए गठबंधन की नियत पर सवाल उठाता है.नंदीग्राम, न्यूक्लियर डील और माओवादीनंदीग्राम ने परमाणु डील को प्रभावित किया है और किसी तरह का आंतरिक समझौता कांग्रेस और वाम के बीच हुआ है, ऐसा कहा जा रहा है. लेकिन इसके कोई मज़बूत आधार नहीं हैं. परमाणु समझौते के सवाल पर हम नंदीग्राम से ज्यादा भाजपा को सत्ता से रोकने की जिद को महत्वपूर्ण मानते हैं. हमें सीपीएम की पश्चिम बंगाल की भूमिका से ज़रुर ऐतराज है पर इसी सीपीएम की परमाणु समझौते के सवाल पर मजबूती के साथ अकड़ने से साम्राज्यवादी ताक़तों को कड़ी चुनौती मिली है. परमाणु के मुद्दे पर डटे रहने से देश ही नहीं, दुनिया भर में परमाणु के खिलाफ एक तरह की हवा बनी और बहस शुरु हुई. सीपीएम की इस भूमिका की तारीफ़ होनी चाहिए.नंदीग्राम में मार्च से लेकर अब तक माओवादियों की उपस्थिति के हमें कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़े. भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति में शामिल तृणमूल कांग्रेस, एसयूसीआई, जमायत-उलाम-ए-हिंद सहित सभी घटक दल माओवादी राजनीति के धुर विरोधी हैं. फिर माओवादियों का प्रवेश किस तरह हो सकता है?मार्च से नवंबर तक निहत्थे किसान-मज़दूरों पर हमला हुआ, सशस्त्र माओवादियों पर नहीं. माओवादियों ने 14 मार्च और 10-11 नवंबर को ज़रुर सशस्त्र संघर्ष किया होता, अगर वे वहां उपस्थित होते.नंदीग्राम में हथियारों की राजनीति को थोड़ी और गंभीरता से देखने की जरुरत है. नंदीग्राम में सेज का विरोध करने वाले भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थक भी 11 महीने पहले सीपीएम के ही समर्थक थे. सेज की किसान विरोधी नीति ने गांव के किसानों को संग्राम के लिए प्रेरित किया. पहले लोगों को टुकड़े में बांटिए, फिर हथियार बांटकर हिंसक माहौल तैयार करिये. 14 मार्च के जनसंहार के बाद भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थकों ने भी बदले के भाव में हिंसा का सहारा लिया था, जिसे हम उचित नहीं ठहरा सकते. हिंसा हर हाल में बुरी है, चाहे इधर की हो या उधर की. लेकिन हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हिंसा को बढ़ावा किसने दिया! गांव के भोले-भाले किसानों को हथियारों से लैस करना, यह लोकतांत्रिक राजनीति नहीं है तो वामपंथी भी नहीं हो सकती. राजनीति को अपराधीकरण से बचाने के लिए सबसे ज्यादा ज़रुरी है कि राजनीतिक दलों का निःशस्त्रीकरण किया जाये. हथियार सिर्फ पश्चिम बंगाल में सीपीएम के पास ही नहीं है, देश में दूसरे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास भी सशस्त्र दस्ते हैं. चुनाव लड़ने वाली किसी भी राजनीतिक दल को सशस्त्र दस्ते रखने का हक़ नहीं होना चाहिए.गांधीवाद से आगे की राजनीतिआलोचक कहते हैं कि मुझे गांधीवाद से आगे की राजनीति का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैं मार्क्सवादी सरकार के खिलाफ खड़ी हुई हूं. हमें लगता है कि मार्क्स और गांधी दोनों ने समाज के सबसे कमज़ोर मेहनतकश को श्रम के उचित दाम और उनके हक़-न्याय की बात की थी. हमें गांधी विरुद्ध अंबेडकर, मार्क्स विरुद्ध गांधी के विवाद से अलग रखा जाए तो अच्छा है. सब जानते हैं, हमारे विश्वास की अवधारणा अपने निजी चिंतन पर नहीं, मार्क्स, गांधी, अंबेडकर की विचारधारा के आधार पर तय होती है. देश के वरिष्ठ वामपंथी, मार्क्सवादी जो हमारे साथ ऐनरॉन से लेकर नर्मदा के मुद्दे पर साथ खड़े हुए, उन्होंने हमें कभी भी मार्क्स विरोधी नहीं माना.नंदीग्राम राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ सत्य, न्याय और शांति के अहिंसात्मक विकल्पों को चुनने का संदेश देता है. हमें सीपीएम से अपेक्षा थी कि सेज के सवाल पर जो भूमिका वे महाराष्ट्र के रायगढ़ में लेते हैं, वही भूमिका नंदीग्राम में लेंगे. पूंजीपति सत्ता और राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं. वामपंथियों को इस गठजोड़ से बचना होगा.सत्ता राजनीति को पहले भ्रष्ट करती है, फिर अपने मूल्यों से गिराती है. आज पूंजीकरण और बाज़ारीकरण ने राजनीति का चित्र औऱ चरित्र ही बदल दिया है. मुनाफे का बाज़ार ही नहीं, मुनाफे की राजनीति, राजनीतिक दलों का उद्देश्य हो गया है. वामपंथी राजनीति भी अगर मुनाफे से प्रभावित हो रही है तो लोकतंत्र के बचाने की ज़िम्मेवारी किसकी है ?धार्मिक संप्रदायवाद की तरह भाषा और प्रदेशवाद भी एक तरह की सांप्रदायिकता है. गुजरात की राज्यसत्ता ने भाषावाद और प्रांतवाद को ख़ूब इस्तेमाल किया है. बंगाल के बुद्धीजीवी नंदीग्राम के सवाल पर किसी भी राजनीतिक दल से ज़्यादा सक्रिय हैं. हमें लगता है कि बंगाल के बुद्धीजीवी संप्रदायवाद के जाल को काटना जानते हैं. हमें बंगाल के एक-एक ग्रामेर मानुष, कलाजीवी, बुद्धीवीजी, शिल्पकार समाज पर पूरा भरोसा है, वे बंगाल को बदलकर दम लेंगे.(प्रस्तुतिः पुष्पराज)

www.raviwar.com से साभार

Friday, December 7, 2007

नंदीग्राम से खुलती मार्क्सवादी भूमिसुधारों की पोल

डरावनी कहानियों का रंग उतरना शुरू हो गया हैं. ऐसे में इस तूफान के पीछे के कारणों को जानना महत्वपूर्ण है.
पहेली जैसा प्रश्न ये है कि सीपीएम ने नंदीग्राम मामले में जो हुआ वो क्यों होने किया? शायद वे उस चीनी नेतृत्व के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे रहे थे, जिसने खुलेआम थिआनानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन का दमन किया था और उसके बाद इतना कड़ा रुख अपनाया गया कि बीजिंग के महाशक्ति के रूप में तेज़ी से उभरने की वजह से अब इस बारे में कोई बात भी नहीं करना चाहता.
हालांकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी विशेष आर्थिक क्षेत्रों की जरूरत के सवाल पर एक मत नहीं हैं. पार्टी के ज्यादातर सदस्य इण्डोनेशियाई भागीदारी को लेकर सशंकित हैं. पार्टी का एक दूसरा बड़ा खेमा किसानों की जमीनें अधिग्रहित करने के मुद्दे पर खुश नहीं है. फिर ऐसा क्या है कि पार्टी नेता भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन को दबाने की कोशिशें कर रहे थे? इसका जवाब साफ है. दरअसल नंदीग्राम में पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार की कई कड़वी सच्चाईयां दफन हैं.
भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं.
इससे अलग दूसरा कारण ये कि पार्टी के बहुत से कैडरों की निगाहें उस सूत्र पर भी गड़ी हुई हैं, जिसके तहत वे करोड़ों की सेज परियोजना में अपने लाभ का गणित हल कर सकते हैं.
पूरा मिदनापुर जिला और खासतौर से नंदीग्राम क्षेत्र मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है. वहां भूमि सुधारों की प्रक्रिया के दौरान बड़ा उत्साह देखा गया क्योंकि ज़मींदारों से अपनी खुन्नस निकालना, उन्हें चिढ़ाना उस समय पार्टी समर्थकों का एक पसंदीदा सिद्धांत बन गया था. दूसरी ओर भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. यानी जमीनों पर कागजी कब्जा एक तरह से सीपीएम के पास है. कागजातों का सीपीएम के पास होना ही वो राज़ है, जिसके कारण सीपीएम अचानक उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत तक वोट झटकने की स्थिति में पहुंच गई. लोग अपनी ज़मीन छिन जाने के डर से सीपीएम का हर हाल में साथ देने के लिए मजबूर थे. जब सेज का प्रस्ताव आया तो इस क्षेत्र को चुना भी इसीलिए गया. सीपीएम नेता इस अतिविश्वास में थे कि यहां के लोग इस मुद्दे पर ज़्यादा विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जमीनों के कागजात तो पार्टी के कब्जे में थे.
लेकिन, जिस बिंदु पर सीपीएम गौर नहीं कर पाई, वो ये कि बिना कागजातों के भी भूमि नंदीग्राम के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी थी. बस पहले से ही पक्षपात के शिकार किसानों ने छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने का निर्णय लिया. उन्होंने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति(बीयूपीसी) के बैनर तले अपने को संगठित किया और राज्य पुलिस, प्रशासन और सीपीएम के अनधिकृत बाहुबलियों से जमकर लोहा लिया. 14 मार्च, 2007 को हुए संघर्ष में 140 से ज्यादा किसान मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए. नतीजा ये निकला कि सीपीएम समर्थकों का उस क्षेत्र के गांवों में रह पाना मुश्किल हो गया. भाग कर सभी ने खेजुरी के शरणार्थी शिविर में शरण ली.
नवम्बर से पहले अधिग्रहण का विरोध कर रहे बिना कागजातों की ज़मीन वाले लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी हो गया. सीपीएम की योजना के मुताबिक अब तक इन किसानों द्वारा जोती जा रही भूमि पर पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा कब्जा किया जाना था. केवल कागजी कब्जे से तो कोई मकसद हासिल होने वाला था नहीं जब जमीन पर असल कब्जा अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का था. और ज्यादा दिन अगर ये सब चलता तो ये बात भी दुनिया के सामने आ जाती कि भूमि सुधारों में दी गयी ज़मीनों के कागजात सीपीएम के ऑफिसों में रखे हुए हैं.
दुख इस बात का है कि कई राज्यों में कांग्रेस भी कुछ ऐसी ही कार्य-प्रणाली अपना रही है. आपात भूमि सुधार के दौरान जिन लोगों ने जमीनें पाईं थीं, उनमें से बहुत-से लोग अब खेती में रुचि नहीं रखते. बहुत सारे जो पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं, आरक्षण के तहत नौकरी पा गए और शहरों में चले गए गए. लिहाजा वे बस नाम के ही भूस्वामी रह गए. स्थानीय दबंग नेता अनपढ़ गरीब किसानों को इन नाममात्र के भूस्वामियों के रूप में दिखा कर पावर ऑफ़ अटॉर्नी अपने किसी आदमी के नाम करवा देते हैं. बाद में इन जमीनों को किसी अनजान अप्रवासी भारतीय को बेच दिया जाता है. ये लोग जमीनों को एक लाभकारी निवेश के रूप में देखते हैं. यानी कि जो काम महाराष्ट्र में कांग्रेस कर रही है वही काम नंदीग्राम में वामपंथी कर रहे हैं.
शरद जोशी
(लेखक राज्य सभा सदस्य और किसानों के मुद्दों से जुड़ी संस्था शेतकरी संगठना के संस्थापक हैं)

तहलका हिन्दी से साभार

किस्सा कैडर का


विचारधारा के लिए लड़ने वाले सिपाही या राजनीतिक गुंडे ? पश्चिम बंगाल में पिछले तीन दशक से सीपीएम के अबाध राज का राज़ कैडर ही रहे हैं. कैसे कैडर सीपीएम की मदद करते हैं और इसमें उनका क्या फायदा है बता रहे हैं शांतनु गुहा रे...
भास्वती सरकार कार्ल मार्क्स के केवल नाम से ही परिचित हैं, मगर मार्क्स के सिद्धांत क्या हैं ये जानने के लिए उन्होंने उनकी किताबों को कभी नहीं खंगाला. 34 वर्षीय ये स्कूल शिक्षिका अपने पति(राज्य परिवहन निगम में क्लर्क) के साथ कोलकाता के दक्षिणी इलाके में रहती हैं. समर्पित सीपीएम कैडरों की तरह ये दोनों पति-पत्नी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) की गढ़िया से निकलने वाली रैलियों का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं. सरकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन पर बात तो करती हैं लेकिन अपनी तस्वीर छपवाने के सवाल पर पीछे हट जाती हैं. हालांकि उनके पड़ोसी बताते हैं कि सरकार को रैलियों में नारे लगाने के बदले पैसे मिलते हैं, लेकिन वो इस बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं.
गौरतलब है कि ये महिला कैडर, पार्टी में और पांच साल बिताने के बाद नेता के रूप में अपनी पदोन्नति का सपना संजोए हुए है. सरकार का पार्टी से जुड़ाव छात्र जीवन में ही हो गया था. तब वो स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया(एसएफआई) की एक सामान्य सदस्य थीं और उसी दौरान उन्होंने पहली बार सीपीएम की रैली में भी हिस्सा लिया था. कैडर सत्ता का उतना आनंद नहीं ले पाते. लिहाजा सरकार सहित राज्य के लाखों कैडर राज्य के शीर्ष पार्टी नेताओं के संपर्क में आने की अपनी बारी के इंतजार में हैं. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के लिए नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.
पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.
अब जरा ये देखें कि पार्टी के प्रति इस अंधभक्ति के फलस्वरूप सरकार जैसे लोगों को मिलता क्या है.
पहले राज्य में सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया राज्य सरकार के हाथ में होती थी और इनमें से 90 प्रतिशत तक नौकरियां प. बंगाल में सीपीएम कैडरों की झोली में ही जाती थीं. नौकरियों से योग्यता का कोई लेना-देना नहीं था और वामपंथ से थोड़ा-सा जुड़ाव ही पर्याप्त योग्यता मानी जाती थी. कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया को कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) के जिम्मे कर दिया मगर अब भी सैकड़ों अस्थाई नियुक्तियां स्थानीय नेताओं के निर्देशों पर ही होती हैं. चाहे सरकारी नौकरी हो, नगर परिषद् की या फिर किसी निजी संस्थान की - पार्टी का संदेश स्पष्ट हैः यदि आप हमारे साथ हैं, तो हम भी आपका ध्यान रखेंगे.
बहरहाल, कैडर के सवाल पर सरकार कहती हैं, “मैं एक कैडर हूं और पार्टी के लिए काम करती हूं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कोई गुंडा-बदमाश हूं.” वो एक सीधा-सा सिद्धांत जानती हैं - पार्टी के प्रति अंधभक्ति कैडर के जीवन और उसकी प्रगति की अनिवार्य शर्त है. यानी कैडर को हर हाल में पार्टी के पक्ष में खड़ा होना है, पार्टी के बचाव का रास्ता तलाशना है. वह इसे पलटवार का सिद्धांत कहती हैं. उनका मानना है कि विरोधी हर कदम पर पार्टी पर कीचड़ उछालते रहते हैं, लिहाजा कैडरों को उसके जवाब के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है.
उदाहरण के तौर पर जिस दिन फिल्मकार अपर्णा सेन ने नंदीग्राम विरोधी रैली में हिस्सा लेने का निर्णय किया, कैडर पहले से तैयार थे कि मीडिया में उन्हें क्या कहना है. सेन के इस कदम पर कैडरों ने ये प्रचारित करना शुरू किया कि कोलकाता में हाल में संपन्न हुए फिल्म समारोह में अध्यक्ष न बनाए जाने को लेकर वो सरकार से नाराज थीं. जिन तक ये कहानी नहीं पहुंच पाई थी, उन्होंने दूसरा कारण गढ़ा: सेन इसलिए नाराज थीं क्योंकि राज्य सरकार ने सेन की अगली फिल्म को वित्तीय सहायता देने से इनकार कर दिया था.
पश्चिम बंगाल में यदि आप एक कैडर हैं, तो आपको न केवल इस सिद्धांत में विश्वास करना होगा, बल्कि इसे प्रचारित-प्रसारित भी करना होगा. यानी जमीनी स्तर पर व्यावहारिक मार्क्सवादी सिद्धांत यही है.
स्थानीय न्यूज चैनल तारा बंगला की संपादक सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है. गली के नुक्कड़ पर होने वाली सभा में वक्ता के रूप में कोई प्राध्यापक भी हो सकता है. किसी सार्वजनिक सभा में भीड़ जुटाने वाला संयोजक हो सकता है. पास-पड़ोस के तलाक, किराएदारी, असफल प्रेम प्रसंग जैसे मामलों को सुलझाने के प्रयास करता कोई कार्यकर्ता भी हो सकता है और विरोधियों के खिलाफ क्रूर कार्रवाई करने वाला कोई क्षेत्रीय गुंडा भी हो सकता है, जिसे सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त होता है.”
चट्टोपाध्याय अपने स्टूडियो में घटी एक घटना का उदाहरण देती हैं. एक प्राइमटाइम शो के खत्म होने के बाद उन्होंने स्टूडियो में मौजूद और सत्ताधारी पार्टी से निकटता रखने वाले गार्डन रीच इलाके के डॉन झुनू अंसारी से पूछा कि क्या उन्होंने अपने आदमियों को नंदीग्राम में जवाबी कार्रवाई के लिए भेजा था. अंसारी ने ऐसा करने से तो इनकार किया लेकिन ये जरूर बताया कि ज्यादातर कैडर बंगाल के बाहर से आए थे.
सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है.
जानकार बताते हैं कि ज्यादातर माकपाई कैडर बेरोजगार हैं और सीपीएम से उनके जुड़ाव के कई कारण हैं. एक तो इससे उनकी कुछ आमदनी की गारंटी हो जाती है, दूसरे, उनका एक सामाजिक स्तर बन जाता है और साथ ही प्रसिद्धि की राह पर पहला कदम भी पड़ जाता है.
सीपीआई(एमएल) के वरिष्ठ नेता अरिंदम पाल स्वीकारते हैं कि “पार्टी के कई कार्यकर्ता मुश्किलें खड़ी कर देने वाले हैं. शीर्ष कामरेड इसे महसूस भी करते हैं लेकिन उन्हें पता है कि राजनीति में आपको बुद्धिजीवियों की नहीं, ऐसे ही तत्वों की जरूरत पड़ती है.” उन्होंने हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर घटी घटना का हवाला दिया, जहां कैडरों ने एयरपोर्ट यूनियन के चुनाव प्रचार के दौरान एक तरह से इस पर कब्जा कर लिया था. इस उपद्रव के कारण एयरपोर्ट्स अथॉरिटी के लगभग 55 प्रतिशत कर्मचारी काम पर आए ही नहीं. हॉवड़ा स्टेशन पर होने वाले रेलवे इम्प्लाइज यूनियन के चुनाव में भी इसी नजारे की उम्मीदें लगाई जा रही है. “ये तो राष्ट्रीय चुनाव है, और मुंबई व दिल्ली के मतदाता भी वोट देने आएंगे. लेकिन मुंबई में विक्टोरिया टर्मिनस के पोस्टरों से पटे होने और कामकाज ठप्प होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दरअसल, ये सब सिर्फ बंगाल में ही संभव है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी इस तरह के चुनावों को अपने जनाधार से जुड़ाव का आदर्श रास्ता मानती है. यही दरअसल कैडर हैं”, कहते हैं सीपीआई(एमएल) के ही कार्तिक सेन.
शहर के जादवपुर विश्वविद्यालय में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान छात्रा सोहिनी मजुमदार कहती हैं, “सभी पार्टियों की तरह वाम मोर्चे में और सीपीएम में भी इस तरह के लोग इसलिए हैं, क्योंकि आप खुद इस तरह के लोगों का समर्थन चाहते हैं. लेकिन उनके बारे में नकारात्मक सोच इसलिए बन गई है क्योंकि ज्यादातर घटनाओं में उनके बुरे पक्ष को ही सामने लाया जाता है.” इस तरह की शुरुआती घटनाओं में से एक 1990 में उत्तरी कोलकाता के विधानसभा चुनाव में हुई थी जहां स्थानीय डॉन नंदा के नेतृत्व में अपराधियों ने सुबह 10 बजे ही बूथ पर कब्जा कर लिया था. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया से सक्रिय रूप से जुड़ी मजुमदार स्वीकारती हैं, “वहां नंदा का खुलेआम रिवाल्वर लहराना निश्चितरूप से परेशान करने वाली बात थी.” लेकिन वो ये भी कहती हैं कि अब परिस्थिति बदल रही है और हाल ही में पार्टी ने इस तरह के 12 हजार लोगों को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया है.
प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य अमाल मुखर्जी कहते हैं, “कैडर ब्रिगेड, कार्यकर्ता बनने के लिए मौका देख कर सुविधानुसार अपने रंग बदलता है. चूंकि उनके पास आरएसएस की शाखा की तरह कोई नियमित अड्डा नहीं होता और उन्हें रोज सुबह परेड नहीं करनी पड़ती, लिहाजा उन्हें पहचानना मुश्किल होता है.”
पास के ही सरकारी स्कूल में पार्टी की स्थानीय शाखा की एक बैठक चल रही है जहां कार्ल मार्क्स, लेनिन, प्रमोद दासगुप्ता व ज्योति बसु जैसे नेताओं के कटआउट लगे हुए हैं. पूछे जाने पर सभा के आयोजक अनिरबन रॉय चौधरी कहते हैं, “यहां ऐसी कोई गलत चीजें नहीं है. किसी के पास कोई गोली-बंदूक नहीं होती. ये तो पश्चिम बंगाल के बारे में मीडिया की अपनी कपोल कल्पना है. कैडर तो अनुशासित कार्यकर्ता मात्र होते हैं जो पार्टी हित में जमीनी जनाधार जुटाने का काम करते हैं.”
वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक, केंद्रीय कर्मचारी उत्पल मित्रा कहते हैं, “कोई राजनीतिक पार्टी किसी राज्य में तीन दशक तक सिर्फ इस वजह से सत्ता में नहीं रह सकती, क्योंकि उसके पास कैडर के रूप में असामाजिक तत्व हैं.” मित्रा नंदीग्राम के प्रेत को दफन करने के लिए शहर भर में निकाली जा रही रैलियों का नियमित हिस्सा होते हैं.
वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है.
अब सवाल ये उठता है कि राज्य भर में कैडरों की वृद्धि को आखिर प्रोत्साहित किसने किया है और उनकी संख्या इतनी कैसे हो गई जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है? विश्लेषक कहते हैं कि शुरुआत 1977 में सीपीएम के सत्ता में आने के साथ हुई. पश्चिम बंगाल में रीयल एस्टेट कारोबार में तेजी की शुरुआत ही हुई थी. इससे जुड़े हर तरह के फायदे पार्टी से जुड़े लोगों को दिए जाने लगे. देखादेखी और लोग भी बहती गंगा में हाथ धोने को सीपीएम से जुड़ने लगे. भूमि सुधारों ने भी लोगों की पार्टी के प्रति अंधस्वामिभक्ति सुनिश्चित की.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निरबेद रे कहते हैं, “वास्तव में सीपीएम में कैडरों की भीड़ 1990 में आनी शुरू हुई और ये आज तक जारी है.” रे आगे जोड़ते हैं, “इन कैडरों ने राज्य के मतदाताओं का विस्तृत डाटाबेस तैयार किया, जो चुनावों के दौरान पार्टी के काम आया और क्षेत्र पर पकड़ बनाने में उनकी मदद की. कैडरों के पास अपने पास-पड़ोस के बारे में जो सूक्ष्म जानकारी होती है, वो अन्य पार्टियों के पास नहीं होती और ये जानकारी उन्हें बड़ी मदद पहुंचाती है.” रे की मानें तो वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है. “लेकिन आज अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों व नव उदारवादी नीतियों का समर्थन, बाहुबलियों पर भरोसा और अपने सहयोगियों के प्रति उपेक्षापूर्ण बरताव वामपंथी राजनीति का शगल बन गया है.” रे आगे कहते हैं, “आज तो कैडर नंदीग्राम में लोगों को धमकाने, उन्हें वहां से बेदखल करने या फिर उन्हें अपने प्रभाव में लेने संबंधी पार्टी के अभियान का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.”
कैडरों की क्रूरता की पहली घटना 1978 में तब सामने आई थी जब उन्होंने बीरभूमि जिले के मारिचझापी में असहाय बांग्लादेशी शरणार्थियों पर फायरिंग में पुलिस का साथ दिया था. रे कहते हैं कि “उसके बाद तो इस तरह की घटनाओं का सिलसिला सा चल पड़ा. शहर के एक पुल से गुजर रहे 17 आनंदमार्गियों की सरेआम हत्या इसी तरह की एक जघन्य घटना थी, लेकिन नंदीग्राम आज इन सभी घटनाओं को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष पर पहुंच गया है क्योंकि सभी को ऐसा लग रहा है कि हथियारबंद कैडरों की वहां उपस्थिति व उनके द्वारा की गई हिंसा को पार्टी खुद ही जायज ठहरा रही है.”
वरिष्ट स्तंभकार प्रभाष जोशी भी सच की पड़ताल में एक दल के साथ नंदीग्राम गए थे. उनका कहना है कि कैडर नजर न आने वाली ऐसी इकाई है जिसमें अनवरत बढ़ोतरी हो रही है. “ये तो आप भाग्यशाली थे जो नंदीग्राम में इनमें से कुछ को देख पाए, वरना ग्रामीण इलाकों में जिन कैडरों को बाइक वाहिनी के रूप में जाना जाता है, उनके बारे में तो शायद ही किसी को पता हो.”
राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एस.एन. भार्गव कहते हैं कि कैडर एक ऐसी विध्वंशक सेना हैं जिसकी ताकत पुलिस की मिलीभगत से बनती है. भार्गव कहते हैं, “नंदीग्राम के कैडर पश्चिमी मिदनापुर, बांकुरा व 24-परगना जिलों से आए थे और वे स्वचालित आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल में पूर्ण प्रशिक्षित थे.”
कुछ भी हो कैडर तो इन सब चर्चाओं से बेखबर अपनी प्राथमिकता वाले कामों में आज भी व्यस्त हैं. और ये काम हैं--नंदीग्राम की हिंसा की लीपापोती और सरकारी तंत्र के पार्टी हितों के आगे घुटने टेकने के आरोपों को खारिज करना.
तहलका हिन्दी से साभार