Wednesday, November 21, 2007

गिद्ध नजर के साए में किसान



aneeta
krishi क्षेत्र की सब्सिडी घटाने के लिए विकसित देशों के दबाव, विशेषज्ञों के सुझाव और भारतीय खाद एसोसिएशन की मंशाएं हम अक्सर सुनते रहते हैं, लेकिन कोई भी ऐसा पुख्ता विचार या फार्मूला अब तक सामने नहीं आया है कि सब्सिडी खत्म करके भारतीय किसानों की स्थिति बेहतर बनाई जा सकती है। जो भी अभिकरण सब्सिडी खत्म करने की वकालत करते हैं, उनके अपने लक्ष्य हैं, जो उनके मुनाफे का पोषण करते हैं। विकसित देश अपनी सब्सिडी के दम पर अपने कृषि उत्पादों से तीसरी दुनिया के देशों को पाट रहे हैं और वे नहीं चाहते कि गरीब देशों के किसान इस हालत में रह पाएं कि वे सही कीमत का अनाज उपजा सकें। खाद एसोसिएशन भी कहती रही है कि खाद पर सब्सिडी हटा दी जाए, ताकि वे भी खुले बाजार में कीमतों के उतार–चढा़व का स्वाद चख सकें। पर लाख टके की बात यह है कि जब विकसित देश भी अपनी कृषि के लिए बिना सब्सिडी का मैकेनिज्म विकसित नहीं कर पाए हैं और वे संरक्षणवादी नीतियां अपना रहे हैं, तो भारत सहित विकासशील देशों पर सब्सिडी हटाने का जोर क्यों दिया जा रहा है और विकसित देशों की द्विस्तरीय बात विकासशील देश क्यों माने। खेती में काम आने वाला सबसे बड़ा कच्चा माल खाद है, जिसके मैक्सिमम रिटेल प्राइस पर सरकार का नियंत्रण है, ताकि किसान उसे खरीदने की हिम्मत जुटा सकें। किंतु खाद का उत्पादन और वितरण महंगा है, तो खाद निर्माता को सब्सिडी देकर भरपाई की जाती है। एक विचार यह है कि खाद सहित सभी कृषि सब्सिडी पर सरकार नियंत्रण हटा दे। कीमत नियंत्रण भी समाप्त हो जाए और सब्सिडी का फायदा ऐसे किसानों तक सीधे पहुंचाया जाए, जिनको वाकई इसकी जरूरत हो। इससे कृषि क्षेत्र को मजबूत करने का नया रास्ता खुलेगा। कहा जाता है कि खाद पर सब्सिडी का फायदा किसानों के बजाय खाद निर्माताओं को होता है। सरकार सहित देश को पता है कि देश में 65 प्रतिशत लोग खेती–किसानी पर आश्रित हैं और करोड़ों किसानों को सीधे सब्सिडी देना बड़ा खर्चीला और भ्रष्टाचार को आमंत्रण देने वाला काम है। इसीलिए देश में खेती के लिए आवश्यक चीजों पर सब्सिडी का मॉडल अपनाया गया। अति विकसित देशों ने सब्सिडी के दम पर विश्व के कृषि बाजारों पर कब्जा किया हुआ है। इसलिए ही वे नो–सब्सिडी की वकालत करते हुए गरीब देशों से हर हाल में सब्सिडी हटा लेने का दबाव देते हैं। उत्पादन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, समर्थन मूल्य और निर्यात किसी भी स्तर पर दी जाने वाली सब्सिडी को वे हटवाने के लिए कई प्रकार के कूटनीतिक षडयंत्र भी करते हैं, क्योंकि वे विश्व को राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक तौर पर पहले से ही दुनिया पर कब्जा जमाए हुए हैं और अब वे जीवन के लिए नितांत आवश्यक खाघ निर्भरता में सेंध लगाकर दुनिया को ब्लेकमेल करना चाहते हैं, ताकि वे दुनिया के कानून अपने हिसाब से बनाने का कुचक्र जारी रख सकें। अगर विकसित देश अपनी सब्सिडी और आयात नियंत्रण का जंजाल खत्म कर दें, तो दुनिया का खाघ नक्शा रातोरात बदल जाए और दुनिया में ये देश एक दाना भी निर्यात न कर सकें, जो विश्व गेहूं व्यापार पर राज करते हैं। विकसित देशों में किसानों की संख्या कम है। इसलिए वहां की सरकारें इन किसानों को भरपूर सब्सिडी देती हैं। सब्सिडी के कारण इन देशों के किसानों का सस्ता गेहूं और अन्य मुख्य फसलें मुनाफे का सौदा है और वह वहां की सरकारों के कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पीएल 480 के दिनों में खाघ कूटनीति तीसरी दुनिया के लिए अमरीका और यूरोप का प्रमुख हथियार था। भारत के मुकाबले विकसित देशों में कृषि पर कहीं ज्यादा सब्सिडी दी जाती है। 1999 के दौरान एक करोड़ किसानों के लिए अमरीका में 54 अरब डालर, यूरोपीय यूनियन के देशों में 114।5 अरब डालर और जापान में 58।9 अरब डालर की सब्सिडी दी गई, जबकि भारत में 65 करोड़ किसानों के लिए यह केवल 7.2 अरब डालर ही रही, जो कृषि उत्पादन के मुकाबले अमरीका में 24 प्रतिशत, यूरोप में 49 प्रतिशत, जापान में 65 प्रतिशत और भारत में महज 6.5 प्रतिशत थी। उनकी सब्सिडी उनके खाघान्नों की कीमतें विश्व बाजार में 20 प्रतिशत तक कम रखने का काम करती है, जिससे तीसरी दुनिया के किसानों को खेती–किसानी से मुनाफा नहीं मिल पाता है। तिस पर तुर्रा ये कि यही देश खाघान्नों की कीमतें उद्देश्यपरक बनाने की बातें करते हैं। पश्चिमी यूरोप में 1970 के दौर में कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत मुख्य फसलों का समर्थन मूल्य ऊंचा रखा गया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विदेशी जिंस का मूल्य देसज जिंसों के मुकाबले ऊंचा रहे, ताकि विदेशी जिंस वहां के बाजार में कब्जा न कर सकें। इसके बाद वहां निर्यात पर सब्सिडी भी दी जाने लगी, ताकि वे अपना अतिरिक्त भंडार निर्यात कर सकें, जिसे एक्सपोर्ट एन्हांसमेंट प्रोग्राम कहा जाता है। धीरे–धीरे खाघ घाटे के क्षेत्र कृषि अर्थव्यवस्था बन गए। 1970 में यूरोप को खाघान्न आयात करने पडे़, लेकिन सब्सिडी और आयात नियंत्रण के चलते 1980 में वह खाघ स्वालंबी हो गया। 1986 में तो यूरोप का खाघान्न, मांस, चीनी और दुग्ध उत्पादों का निर्यात अमरीका से भी ज्यादा हो गया। पिछले कई सालों से हम देख रहे हैं कि जब से बहुराष्ट्रीय और निजी कंपनियों को गेहूं और अन्य खाघान्न के भंडारण व खरीद की छूट दी गई है, तब से हालत यह हो गई है कि देश का बफर स्टॉक भी पूरा नहीं हो पा रहा है। निजी कंपनियां गेहूं को खरीद रही हैं और सरकारी एजेंसियां मुंह तक रही हैं। नतीजा यह है कि सरकार ने इसी महीने साढे़ तीन लाख टन गेहूं के आयात की घोषणा की है। इसमें किसानों की गलती नहीं है, जो बेहतर कीमत मिलने पर निजी कंपनियों को माल बेच रहे हैं। यह तो सरकार को सोचना पड़ेगा कि वह किसानों को बेहतर मूल्य क्यों नहीं दे पा रही है। अगर विश्व बाजार में गेहूं 1100–1200 रूपये प्रति क्विंटल होगा और देश में उसी समय समर्थन मूल्य 850 रूपये होगा, तो 250–350 रूपये के अंतर को मुनाफे में तब्दील करने के लिए निजी कंपनियां कसरत क्यों नहीं करेंगी। उन्हें ऐसा करने से तभी रोका जा सकता है कि जब किसी भी जिंस की लिवाली के समय विश्व कीमतों और घरेलू कीमतों में 100–150 रूपये से ज्यादा का अंतर न हो। इतना मार्जिन निजी कंपनियों को आकर्षित नहीं करेगा, क्योंकि इतना अंतर तो भंडारण, कमीशन, परिवहन में ही खर्च हो जाएगा। यूरोप ने कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत जो काम 1970 में किया था, उसे सरकार ने अब करने की इच्छा जताई है कि गेहूं का समर्थन अब लगभग 1000 रूपये रहेगा, जो तकरीबन विश्व कीमतों के आस–पास ही होगा और निजी कंपनियों के लिए ज्यादा आकर्षक नहीं होगा। अगले लिवाली सीजन में इस समर्थन मूल्य के बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। यूरोप की तरह भारत को भी बेहतर समर्थन मूल्य ही नहीं, बल्कि सब्सिडी भी जारी रखनी होगी, ताकि सस्ते अनाज से हमारे बाजारों को पाटा न जा सके। उरूग्वे चक्र से अब तक की वार्ताओं में अमरीका और यूरोप की नीतियां पूरी तरह संरक्षणवादी रही हैं। फिर भी विकासशील देशों पर सब्सिडी खत्म करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी से राष्ट्रीय सुरक्षा और खाघ सुरक्षा के सरोकार जन्मे हैं। कृषि की सब्सिडी पर होने वाली अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत को यह बात प्रमुखता से उठानी चाहिए कि किसानों और कृषि को सब्सिडी बंद किए जाने से अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाती है, तो सबसे पहले विकसित देशों के किसानो को सब्सिडी बंद करने का मॉडल पेश करने की पहल करनी चाहिए, ताकि विकासशील देश उसका अनुसरण कर सकें। किंतु ऐसे प्रयोग गरीब देशों की धरती पर करने की कोशिशों को खारिज किया जाना चाहिए, जो हर सूरत में जानलेवा साबित होने वाली हैं। खाद, जल, बिजली, फसली बीमा और ग्रामीण क्षेत्रें में कोई भी निजी कंपनी सक्रिय नहीं होना चाहती, क्योंकि ये घाटे के सौदे हो सकते हैं, जबकि निजी कंपनियों का इंजन मुनाफे से चलता है। लेकिन सरकार के लिए मुनाफा मायने नहीं रखता। उसके लिए गरीबों व किसानों का संरक्षण ही सर्वोपरि होता है।इसलिए सब्सिडी जरूरी हो जाती है, जो सरकार की उच्चतम क्षमता पर निर्भर करती है। खाघ पदार्थ, खाद, बिजली और सिंचाई पर सब्सिडी 80 हजार करोड़ रूपये है। प्रधानमं®ी मनमोहन सिंह ने 11वी योजना के सिलसिले में सब्सिडी की समीक्षा पर भी जोर दिया है, किंतु कृषि की बात करते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कृषि क्षे® की सब्सिडी से सीधा आम और गरीब आदमी का ताल्लुक है। एक आ॓र अमीर मुल्क अपने किसानों और उत्पादों को सब्सिडी दें और उन्हीं उत्पादों का हम खरीदें, क्योंकि वे सस्ते हैं और हम अपने किसानों को बर्बाद कर दें, क्योंकि उनकी लागत या उत्पाद मूल्य ज्यादा है। सस्ते खाघान्न की उलब्धता की मजबूरी की कीमत पर हम अपने किसानों की बर्बादी का नजारा देखना चाहते हैं।


raashtriiy sahaaraa se saabhaar

Monday, November 12, 2007

ज़्यादा घातक है आज का साम्राज्यवाद

ज्यादा घातक है आज का साम्राज्यवाद
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अष्टभुजा शुक्ल

अब डेढ़ सौ साल का कोई आदमी इस दुनिया में सदेह नहीं बचा है जिससे पूछा जाय कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम का आंखों देखा हाल सुनाओ। अब वह मुकम्मल तौर पर इतिहास है जिसके बहुत सारे लिखित-अलिखित बयान पिछली तारीखों में दर्ज हैं। फिर भी वह हिन्दुस्तान का स्वाभिमान वर्ष है जिसमें किसी देश और समाज का मुक्तिकामी तुमुलनाद सुनाई देता है। मुट्ठीभर परजीवी उपनिवेशवादी शक्तियों की अजगरी जकड़न में कोई महादेश किस तरह पिसता चला गया और क्यों चला गया, इसकी शिनाख्त और आत्मालोचन के लिए 2007 भी आने वाले भविष्य में एक इतिहास की ही तरह रेखांकित किया जाएगा। 1857 की राष्ट्रीय क्रांति की हकीकत और फसाने को लेकर आज की तारीख में पुनर्मूल्यांकन या पुनर्पाठ का दौर जारी है तथा विचारकों का बौध्दिक संग्राम छिड़ा हुआ है। इस घमासान में 1857 से 1947 तक की रील का फ्लैशबैक विभिन्न पहलुओं को उजागर कर रहा है जिसे लेकर बुध्दिजीवियों के अपने-अपने पक्ष, तर्क एवं निहितार्थ हैं। एक वर्ग जहां इसे तत्कालीन सामंतवादी शक्तियों की निजी हितरक्षा का विक्षोभ मान रहा है तो दूसरा वर्ग जनसाधारण के राष्ट्रीय प्रतिरोध का उत्कट बलिदान। अन्य प्रकार के बुध्दिजीवी इस मूल्यांकन में ब्रिटिश हुकूमत की वकालत में उस स्तर की सोच तक पहुंच गए हैं जहां 'अंग्रेज देर से आए और पहले ही चले गए', का हाय-हाय और पश्चाताप प्रकट हो रहा है।

जो भी हो अलग-अलग ढपली का एक सामूहिक और सुखद राग यह है कि 1857 पूरी गंभीरता के साथ बहस एवं चर्चा के केंद्र में है। यह स्वाधीनता की कामना और ऊर्जा के साथ किसी भी राष्ट्र की संजीदा धड़कन का जीवंत प्रमाण है। इसके सापेक्ष 1947 की 50वीं स्वर्ण जयंती की बहसें सिर्फ इश्तिहार और चूं-चूं मुरब्बा साबित हुईं। इसके कारण सुस्पष्ट हैं। जो सत्ता की आजादी होती है, वही जनता की आजादी नहीं होती एवं जो सत्ताओं के संग्राम हैं, वहीं जनसंग्राम नहीं होते। संदेहास्पद आजादी को पाकर भी जनसाधारण उतना उल्लसित नहीं हो सकता जितना कि मुक्ति संग्राम के स्मरण मात्र से वह रोमांचित हो उठता है। इस विमर्श में जहां गदर के गद्दारों को भी याद रखने पर बल दिया जा रहा है वहीं राजनैतिक गुलामी के चोले में निहित सामाजिक गुलामी को भी उधेड़कर प्रतिगामी ताकतों को चिन्हित किया जा रहा है। नायकों और खलनायकों की पहचान के क्रम में 1857 का इतिहास सचमुच हमारी पिछली आंख का काम कर रहा है।
इसमें रत्ती भर संदेह नहीं कि भारत का विपुल जन समुदाय दोहरी गुलामी की प्रतारणा झेल रहा ता। ब्रिटिश गुलामी की भीतरी पर्तों में वर्ण व्यवस्था की व्याधि भी कम यातनाप्रद नहीं रही। मनुष्य की सामाजिक हिकारत और घृणा किसी कोढ़ से कम न थी। इसके फलस्वरूप जो लोक जीवन के जनविद्रोह और बलिदान रहे, वे वर्चस्वशाली वर्ग की प्रभुता के आगे ठीक से रेखांकित ही नहीं हो सके। फिर भी 1857 की ज्वाला और राष्ट्रीय स्वाभिमान को साहित्य में जो सबसे जोरदार और लोकप्रिय स्वर मिला वह 'चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' वाला ही था। यह हो सकता है कि अंग्रेजी उपनिवेश का प्रतिरोध समाज की फुटकर अस्मिताओं द्वारा अपने-अपने स्वार्थों के नाते ही हुआ हो किंतु भिन्न मन्तव्यों एवं स्थानों से उठी हुईं चिनगारियां संपूर्ण राष्ट्रीय विप्लव की शक्ल में घटित हो सकीं। इस ऐतिहासिक राज्य क्रांति में स्त्री, दलित, सामंत, सवर्ण, हिन्दू , मुस्लिम 'एक प्रान, दुई गात' थे। 1957 में ही जन्में हिन्दी साहित्य के एक ऐतिहासिक व्यक्ति बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री का भी जन्म हुआ जिन्होंने गद्य-पद्य (खड़ी बोली और ब्रजभाषा) की एक भाषा अर्थात खड़ी बोली करने का आह्वान किया था। जिसका ग्रियर्सन के साथ भारतेन्दु मंडल के अनेक लेखकों ने प्रतिवाद किया तो फ्रेडरिक पिन्काट ने समर्थन। इस दृष्टि से यह भाषा, धर्म, जाति, राज्य आदि क्षेत्रीयताओं के सामूहिक उद्धोष का नवजागरण था 1857। लेकिन लक्ष्मीबाई के मर्दाने व्यक्तित्व के पीछे ऊदा देवी, झलकारी बाई आदि वंचित समूहों की क्रांति नेत्रियों का अवदान काफी बाद में आंकने की बाध्यता तभी हुई जब अवर्णों के भीतर अपनी अस्मिता का तीव्र राजनैतिक, सामाजिक और शैक्षणिक बोध हुआ। उपनिवेशवाद के विरूध्द मुक्ति संग्राम में उनकी जितनी बढ़-चढ़कर भागीदारी थी उससे कम लोहा उन्हें अपने समाज की वर्ण व्यवस्था से भी नहीं लेना पड़ा। पूर्व में पेरियार के सामाजिक विद्रोह को आत्मसात करके बेशक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस वैचारिक चेतना का सूत्रपात किया उससे भारतीय समाज के दलित और वंचित वर्ग में एक नई जागृति आई। किंतु इसका सामाजिक सत्यापन एवं क्रियान्वयन स्व. कांशीराम की प्रेरणा, सूझबूझ और राजनीतिक सक्रियता से ही संभव हो सका। आरंभ में उन्होंने सवर्ण मानसिकता के विरूध्द आवश्यक आक्रोश पैदा करके दलितों का जैसा ध्रुवीकरण किया, उसके अतिरिक्त इस चिर-रूढ़ समाज को आंदोलित करने का कोई दूसरा चारा ही न था।

विधिक रूप से स्वाधीन हो जाने के बावजूद दलितों और दलितों में भी दलित स्त्रियों की सामाजिक स्थिति भारतीय वर्ण-व्यवस्था की शिकार रही। किंतु तेजी से घटित हो रहे परिवर्तनों ने न केवल इन समूहों को मुखर बनाया बल्कि उनके भीतर अपनी अस्मिता के प्रति ऐसी अदमनीय कामना उत्पन्न की कि संदेहास्पद आजादी बहुत कुछ चरितार्थ होने लगी। कांशीराम की उसी प्रेरणा से लैस होकर अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता और आत्मबल की बदौलत मायावती ने तताम पुरूष-सत्ताओं के सिंहनाद को फुस्स कर दिया और पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता पर आरूढ़ होकर तमाम अटकलों को 2007 में नकार दिया। 2007 में ही आजाद भारत राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी उल्लेखनीय हो गया। महामहिम पद के लिए पहली बार ऐसी गर्दिश मची। यहां यह भी ध्यातव्य है कि पिछले राष्ट्रपति चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक कमांडर कैप्टन लक्ष्मी सहगल का भी नाम तेजी के साथ उभरा था, तथापि डॉ. कलाम एक सम्मानित और लोकप्रिय राष्ट्रपति सिध्द हुए। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में मल्ल-प्रतिमल्ल जैसे आरोप-प्रत्यारोप तो खूब हुए लेकिन युगल प्रत्याशियों के सपनों को गौर से नहीं देखा गया। संप्रति महामहिम प्रतिभा पाटिल ने चुनाव पूर्व जिक्र किया था कि स्वामी लेखराज ने उनसे सपने में कहा था कि 'तुम्हें आने वाले समय में देश के लिए महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाना है।' आश्चर्य कि उनके ऐसे इलहाम पर तत्वदर्शी वामपंथियों को भी कोई एतराज नहीं हुआ। फिलहाल, प्रतिभा जी का सपना पूरा हो गया है। उन्हें यह भी जानना चाहिए कि देश की हर स्त्री का सपना राष्ट्रपति बनने का ही नहीं होता। अत: उनके छोटे-छोटे सपने यदि टूटने, रौंदने और बिखरने से बच सकें तो महिला राष्ट्रपति का पद और गौरवान्वित होगा। इसके बरक्स स्त्री-चेतना का विस्फोट इस कदर भी हो रहा है कि कुछ तथाकथित महिला संगठनों ने 'राष्ट्रपति' शब्द को पुरूष मानसिकता की देन बताते हुए इसे बदलने के लिए हल्ला मचाया है। दरअसल ये महिलाएं खुद पति-परंपरा से उपजी जान पड़ती हैं अन्यथा कोई भी पद लिंग, जाति अथवा धर्म वाहक नहीं होता।

उदारीकरण, बाजारीकरण और प्रचारीकरण की महालीला के बीच कन्या भू्रण हत्या, दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, शोषण, आत्महत्या जैसी शर्मनाक घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। तो दूसरी ओर नई पीढ़ी के बीच शिल्पा शेट्टियां, सहस्राब्दि के महानायकों, मास्टर ब्लास्टरों आदि की दीवानगी ने मुक्ति संग्राम के नायकों और योध्दाओं के त्याग और बलिदान को लगभग नजरअंदाज कर दिया है। अपने इतिहास की यह आत्महंता विस्मृति चिंताजनक है। स्वतंत्र हिन्दुस्तान के 2007 में हमें 1857 का एक नया चश्मा मिला है। देखने, परखने, पुनर्विचारने और प्रगतिशील भारत के निर्माण में हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। यह देखते हुए कि 1857 के एकांगी साम्राज्यवाद की तुलना में आज का साम्राज्यवाद बहुआयामी और ज्यादा घातक है।
मीडिया विमर्श से साभार

Wednesday, November 7, 2007

धान की जीन संशोधित क़िस्म पर चेतावनी



रामदत्त त्रिपाठी , लखनऊ
ग़ैरसरकारी संगठन ग्रीनपीस ने धान की जीन संशोधित क़िस्म का प्रयोग भारत में किए जाने के ख़तरों के प्रति गंभीर चेतावनी दी है.
पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठन ग्रीनपीस की भारत शाखा ने आगाह किया है कि अगर लोगों ने जैनेटिकली इंजीनियर्ड यानी जीन में संशोधन करके बनाए गए धान की क़िस्म को अपने खेतों में आज़माया तो उन्हें भी अमरीका के चावल उद्योग की ही तरह अरबों रुपए के नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है.
ग्रीनपीस का कहना है कि अमरीका में साल 2006 में इसी तरह के धान की क़िस्म आज़माई गई थी जिसने चावल उद्योग को एक अरब 20 करोड़ डॉलर का नुक़सान उठाना पड़ा था. ऐसे आरोप थे कि बेयर्स कंपनी के खेतों में आज़माई गई यह क़िस्म दूषित हो गई थी.
ग्रीनपीस ने 'रिस्की बिज़नेस-1' यानी 'जोखिमभरा कारोबार-1' नामक रिपोर्ट मंगलवार को लखनऊ में जारी की है जिसमें आगाह किया गया है कि उस क़िस्म को लखनऊ से क़रीब 25 किलोमीटर दूर महूरा कलाँ गाँव में बोया गया है जिसके ख़तरनाक परिणाम हो सकते हैं.
ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं और भारतीय किसान यूनियन के किसानों ने उस गाँव में लगभग 7500 वर्गफुट धान खेत को एक वैनर से ढक दिया जिस पर लिखा था, "धान बचाओ". उस बैनर पर बीच में जीई लिखा हुआ है जिसे लाल घेरे से काटा गया है जिसका मतलब लगाया जाता है कि उसका इस्तेमाल न करें.
ग्रीनपीस ने आहवान किया है कि भारत में जीई की चावल क़िस्म को बिल्कुल नहीं आज़माया जाना चाहिए.
ग्रीनपीस ने चावल की खेती को इस तरह की जीई क़िस्म से होने वाले ख़तरे के प्रति ख़बरदार करने के लिए यह रिपोर्ट तैयार की है और जागरूकता अभियान चलाया है.
एलएल601
वर्ष 2006 में अमरीका में बेयर्स की जीई चावल क़िस्म - एलएल601 के कुछ निशान चावलों में पाए गए थे और वह क़िस्म दूषित थी. दरअसल इस क़िस्म को प्रयोग के तौर पर 2001 में कुछ खेतों में बोया गया था और वहीं से यह दूषण फैल गया था.
इस दूषण की वजह से अमरीका के चावल उद्योग के इतिहास में सबसे बड़ा संकट आ गया था और उस दूषित क़िस्म की वजह से कम से कम तीस देशों पर इसका असर पड़ा था. बहुत से देशों ने अमरीकी चावल के लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिए थे जिनमें यूरोपीय संघ, जापान और फ़िलीपींस जैसे बड़े आयातक भी शामिल थे.
ग्रीनपीस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी राजेश कृष्णन - जीई मुक्त भारत - नामक अभियान की देखरेख कर रहे हैं. उनका कहना है, "यह भारत सरकार के लिए आँख खोलने वाली एक चेतावनी है जिसने जीई क़िस्मों को अपने यहाँ आने देने के लिए सारे दरवाज़े खुले छोड़ दिए हैं."
राजेश कृष्णन का कहना है, "चावल की उस जीई क़िस्म के एक छोटे से प्रयोग की वजह से अमरीका के चावल उद्योग में इतना बड़ा भूचाल आ गया था और उसकी वजह से बहुत से अमरीकी किसान फिर से संभल नहीं सके. भारत में इस तरह के संकट से बचने का बस यही एक रास्ता है कि इस तरह के फ़सल प्रयोग या उनकी पैदावार नहीं होने दी जाए."
जोखिम
ग्रीनपीस की इस रिपोर्ट में अमरीका के उस चावल उद्योग संकट का ज़िक्र किया गया है जिसमें अमरीका भर में चावल की आपूर्ति प्रभावित हुई थी और धान उगाने वाले किसानों, मिलों, कारोबारियों और दुकानों पर चावल बेचने वाले सभी कारोबारियों को बड़ा नुक़सान हुआ था.
इस संकट से अमरीका का लगभग 63 प्रतिशत चावल निर्यात प्रभावित हुआ था और चावल उद्योग को लगभग एक अरब बीस करोड़ डॉलर का नुक़सान होने का अनुमान लगाया गया था.
भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत का कहना था, "भारत में बासमती चावल के उत्पादक जीई तकनीक से मुक्त रहना चाहते हैं लेकिन जीई क़िस्मों का प्रयोग तो उन्हीं खेतों में होगा जिनके पास वाले खेतों में बासमती क़िस्म उगाई जाती है जिससे बासमती की क़िस्में दूषित होने का ख़तरा है और अगर ऐसा होता है तो देश का लगभग 7035 करोड़ रुपए का निर्यात बाज़ार प्रभावित हो सकते हैं और अंततः नुक़सान हमारे किसानों को भुगतना पड़ेगा."
भारत सरकार ने साल 2007 में देश में 12 स्थानों पर धान की जीई क़िस्मों का प्रयोग करने की इजाज़त दी है जिनमें से एक ऑउत्तर प्रदेश के लखनऊ के पास का एक गाँव भी है.
उस इलाक़े को हालाँकि बासमती के लिए मशहूर माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट के एक अंतरिम आदेश की वजह से उस क़िस्म की रोपाई करने में ज़रा देरी हुई है लेकिन वह अगले महीने तक भी हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी से साभार