Monday, June 30, 2008

दलित मुक्ति और धर्म परिवर्तन की राह

मुद्राराक्षस
पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में एक कट्टरपंथी हिन्दू संगठन का एक उत्तेजक सम्मेलन हुआ जिसका सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि केन्द्र सरकार को सख्त कानून बनाकर भारत में धर्मान्तरण पर रोक लगानी चाहिए। हमारे संविधान के अनुसार यह देश धर्मनिरपेक्ष है यानी सरकार किसी खास धर्म के पक्ष में या किसी धर्म के विरोध में कोई काम न करने को प्रतिबद्ध है। इसी के अनुसार इस देश में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद के किसी भी धर्म को स्वीकार करने या उस धर्म को छोड़ने की आजादी मिली हुई है जिसे वह नापसंद करता हो। पिछली आधी सदी में स्थिति कुछ बदल गयी है वरना अमरीका में साठ के दशक में अपनी अस्मिता और सामाजिक बराबरी के लिए आन्दोलनकारी अश्वेतों ने बड़ी संख्या में ईसाइयत छोड़कर इस्लाम धर्म स्वीकार किया था जिसमें विख्यात मुक्केबाज कैसियस क्ले ने अपना नाम मुहम्मद अली रख लिया था। हमें ध्यान देना चाहिए कि बड़ी संख्या में हुए इन धर्म परिवर्तनों पर न तो अमरीकी सरकार को कोई असुविधा हुई और न ही ईसाई समुदाय ने इस धर्म परिवर्तन को लेकर कोई नाराजगी जाहिर की। कोई भी सभ्य देश और सभ्य समाज अपने सदस्यों को इस बात की आजादी खुशी से देता है कि वह अपनी पसंद के धर्म को चुन ले या जिस धर्म में वह असुविधा महसूस कर रहा हो उसे छोड़ भी दे। भारत इतना पिछड़ा तो नहीं ही है कि वह किसी के द्वारा धर्म परिवर्तन को सहन न करे।धर्म परिवर्तन के दो कारण हमें समझ लेने चाहिए। कोई व्यक्ति धर्म तब छोड़ता है जब उसे उस धर्म में तकलीफ हो रही है जिससे वह जन्म से जुड़ा रहा हो। या कोई व्यक्ति तब धर्म छोड़ता है जब उसे कोई दूसरा धर्म अपने से बेहतर लग रहा हो। पिछली सहस्राब्दि में भारत के करोड़ों दलितों, पिछड़ों ने इस्लाम धर्म अपनाया था क्योंकि हिन्दू धर्म व्यवस्था में हो रहे भेदभाव और अत्याचारों से वे तंग आ चुके थे। वे सवर्णोें के खुले और शर्मनाक अत्याचारों से मुक्त होने के लिए हिन्दुत्व छोड़कर इस्लाम की शरण में गये थे। यह उनकी मजबूरी थी कि या तो जिन्दा जलें या मुसलमान बनें। यही युक्ति दलितों-पिछड़ों को ईसाइयत में भी दिखाई दी थी इसलिए बहुतों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। लड़कियों को शिक्षित करने की कोशिश में ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी का कड़ा विरोध ही नहीं किया गया था बल्कि हिंसक अत्याचार भी किये गये थे। अगर अंग्रेज की मदद न मिली होती तो न वे खुद शिक्षित हो पाते न शिक्षा के अपने अभियान को चला पाते। डा। अम्बेडकर ने बहुत दिन बर्दाश्त किया। आखिर में उन्हें भी हिन्दुत्व छोड़ना पड़ा और उन्होंने धर्म परिवर्तन का देशव्यापी अभियान चलाया। उत्तर प्रदेश और बिहार में राम स्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव ने बड़े पैमाने पर हिन्दुत्व से मुक्ति का लम्बा अभियान चलाया था। यह उन्हीं का प्रभाव था कि दलितों-पिछड़ों की सभाओं में नारे लगाए जाते रहे हैं - मारेंगे मर जाएंगे हिंदू नहीं कहाएंगे। मेरे परम मित्र उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष अपनी हर जनसभा में यह नारा लगवाते रहे हैं। आखिर क्यों? कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों को यह सोचना चाहिए था कि जिन्हें हजारों बरस से वे बांध कर रहते रहे हैं वे क्यों मुक्ति के लिए छटपटाने लगे? आखिर आज भी तो दुलीना झज्जर जैसी दर्दनाक हिंसक घटनाएं होती ही जा रही हैं। दलित पिछड़े इसीलिए दूसरे धर्म की शरण लेते रहे हैं।हमने देखा पिछले कुछ दिनों से हिन्दू संगठन भगत सिंह का नाम भी लेने लगे हैं। भगत सिंह का सम्मान अगर नेकनीयत से किया जा रहा है तो भगत सिंह ने जो लिखा है उसे भी पढ़ा जाना चाहिए। धर्म परिवर्तन को भगत सिंह ने दलितों की मुक्ति का रास्ता माना था-तुम्हारी कुछ हानि न होगी, बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी।भगत सिंह यह मानते थे- जब उन्हें तुम इस तरह पशुओं से भी गया बीता समझोगे तो वे जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे। अंग्रेजों ने जिस कम्युनल एवार्ड और सेपरेट इलेक्टोरेट द्वारा दलितों को हिन्दुओं से अलग संप्रदाय बनाना चाहा था और जिसे गांधी ने आमरण अनशन करके रूकवाया था, भगत सिंह तो उसी के पक्ष में थे- या तो साम्प्रदायिक भेद का झंझट ही खत्म करो या फिर उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो।धर्म परिवर्तन का मुद्दा यूं भी बहुत उलझा हुआ है। धर्म परिवर्तन करने कराने वालों का हिंसक विरोध कट्टरपंथी हिन्दू संगठन तो करते ही रहे हैं, देश की पुलिस भी कम पक्षपाती रवैया नहीं अपनाती। अक्सर वह यह आरोप लगाकर धर्म परिवर्तन कराने वालों को ही गिरफ्तार करती है कि वे जबरन या लालच देकर धर्म परिवर्तन करा रहे थे। जबरन धर्म परिवर्तन एक असंभव काम है। जबरन किसी को धर्म परिवर्तन करने से रोकने की घटनाएं ही ज्यादा देखी जाती रही हैं। जबरदस्ती धर्म परिवर्तन किया जाय तो आज के लोकतांत्रिक समाज में वह ठहर नहीं सकता। मुसलमानों या अंग्रेजों ने अपने राज में अगर जोर जबरदस्ती की होती तो आज कोई हिन्दू बाकी नहीं होता। संस्कृत काव्यशास्त्री पंडितराज जगन्नाथ तो औरंगजेब का दरबारी था और मुस्लिम शहजादी से उसने प्रेम किया था। उसका धर्म तो औरंगजेब ने नहीं बदला था। जरूरत धर्म परिवर्तन रोकने के कानून बनाने की नहीं है। धर्म परिवर्तन कैसे आसान और बिना बाधा और रोकटोक के हो सके इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार

समाज : भ्रष्टाचार और भारत

विभांशु दिव्याल
एक अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र एजेंसी है ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल। यह एजेंसी अपने सर्वेक्षण के आधार पर प्रतिवर्ष समूचे विश्व का भ्रष्टाचार सूचकांक जारी करती है। इस बार इसने अभ्रष्ट, भ्रष्ट, अतिभ्रष्ट 180 देशों की सूची जारी की है। इनमें यूरोप, अमेरिका, एशिया, अफ्रीका सभी महाद्वीपों के देश शामिल हैं। महाद्वीपों के हिसाब से यूरोप सबसे कम भ्रष्ट है तो एशिया, अफ्रीका सबसे अधिक भ्रष्ट। अधिक समृद्ध देश कम भ्रष्ट हैं तो समृद्धि विहीन देश सर्वाधिक भ्रष्ट। यानी गरीबी और भ्रष्टाचार प्रतिबद्ध पति-पत्नी की तरह दिखाई देते हैं जो एक-दूसरे को जिंदा रखने के लिए एक-दूसरे को कस कर पकड़े रहते हैं। डेनमार्क, फिनलैंड, न्यूजीलैंड, सिंगापुर और स्वीडन जैसे देश सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लगभग भ्रष्टाचार रहित देशों में हैं तो अफ्रीका का सोमालिया और एशिया का म्यांमार सबसे निचली पायदान पर आकर भ्रष्टतम देशों में से हंै।इस सूची में भारत और चीन जैसी एशिया की महाशक्तियां लगभग मध्य में हैं- क्रमश: 74वें और 71वें स्थान पर। पिछले वर्ष दोनों 72वें स्थान पर थे। यानी चीन ने एक स्थान ऊपर चढ़कर सुधार दर्ज किया है तो भारत ने दो स्थान नीचे उतर कर गिरावट दर्ज की है। भारत के अन्य पड़ोसियों की स्थिति भी किसी भी तरह संतोषजनक नहीं है। केवल भूटान अपवाद है जो 41वें स्थान पर है, अन्यथा मालदीव 90वें, श्रीलंका 96वें, नेपाल 135वें स्थान पर है और पाकिस्तान इन सबसे आगे जाकर 140वें स्थान पर हैं। पाकिस्तान को पछाड़ने वाले देशों में रूस भी है जो 145वें स्थान पर है जबकि उसका शीतयुद्ध कालीन प्रबल प्रतिद्वंद्वी अमेरिका 20वें स्तान पर है।भ्रष्टाचार मापने के सामान्य पैमानों में राजनेताओं, सैन्य और नागर अधिकारियों, प्रशासनिक अभिकरणों, सार्वजनिक विभागों, जनसंस्थानों, निकायों और निजी प्रतिष्ठानों के कार्य-व्यवहार के तौर तरीके तथा जनता के प्रति उनके दायित्व के निर्वाह को नियंत्रित करने वाले कारक आदि आते हैं। जाहिर है कि भ्रष्टाचार सार्वजनिक या सामान्य व्यक्ति के हित और अधिकार की कीमत पर निजी हित, स्वार्थ या लिप्सा की पूर्ति के लिए की गई कुचेष्टा है जो समूचे एशिया और अफ्रीका में गहराई तक परिव्याप्त है। भ्रष्टाचार सर्वाधिक उन देशों में है जहां सार्वजनिक हित स्पष्टत: परिभाषित नहीं है या उन्हें सत्ता समूहों के हितों का पर्याय मान लिया गया है। यानी जहां नियामक शक्तियां सत्ता समूहों की सनकों से संचालित होती हैं। दरअसल, ऐसी व्यवस्थाओं में सत्ता और संपत्ति पर कब्जे की लड़ाई ही व्यक्ति के मूल व्यवहार को नियंत्रित करती है। और क्योंकि इनके पास सार्वस्वीकृत तथा व्यक्ति के अधिकार और कर्त्तव्यों को निर्धारित करने वाले सामाजिक तौर पर स्थापित मूल्य नहीं होते इसलिए व्यक्ति या हित समूह किसी भी नियम-कानून को धता बताने या फिर उसका मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते।अब अगर देशों के भ्रष्टाचार सूचकांक का सरसरी तौर पर विश्लेषण करें तो इस स्थिति को पैदा करने वाले या बनाए रखने वाले कारकों को देखा-समझा जा सकता है। इनमें से कुछ हैं राजनीतिक तौर पर वैचारिक अस्पष्टता या वैचारिक संक्रमण, धर्म का आधुनिक राज्य व्यवस्था में दखल, कबीलाई सांस्कृतिक समूहों के आपसी टकराव, पारंपरिक व्यवस्थाओं की आधुनिक सांस्कृतिक-आर्थिक परिवर्तनों से तालमेल बिठाने में असफलता आदि और सर्वोपरि दुनिया की कथित आर्थिक महाशक्तियों द्वारा अपने हित में ऐसी सभी परिस्थितियों का दोहन। दुनिया के एक बड़े हिस्से की गरीबी और उससे सीधा जुड़ा भ्रष्टाचार आर्थिक महाशक्तियों के क्रूर सैन्य और आर्थिक शोषण की पैदाइश है।सोवियत संघ वाला रूस एक राज शैली से दूसरी कथित पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त शैली में संक्रमित होने के दंश से अभी तक नहीं उबर पाया है। वहां अचानक लागू हुए खुलेपन ने जहां एक आ॓र व्यवस्थाबद्ध सामान्य जन को हतप्रभ किया तो दूसरी आ॓र दबे-ढके हित समूहों को खुलकर खेलने का औचक-अवसर उपलब्ध कर दिया। आज ये हित समूह इतने धृष्ट हो गये हैं कि इन पर लगाम लगाने में सरकारी तंत्र के हाथ पैर फूल रहे हैं। वैचारिक संक्रमण के कारण इन पर लगाम लगाए रखने वाला जन प्रतिरोध ठंडा पड़ गया है। इसी तरह पाकिस्तान, ईरान जैसे देशों में अत्यधिक भ्रष्टाचार इस्लामी और इस्लाम प्रेरित सैनिक या असैनिक सत्ताओं में आधुनिक जीवन की मांगों के प्रति एक स्पष्ट वैचारिक अवधारणा के न होने के कारण हैं। यहां भी विभिन्न हित समूह अपने-अपने हितों के अनुसार राज्य शक्ति की व्याख्या करते हैं और उसी के अनुसार अपने संघर्ष की दिशा तय करते हैं जो अंतत: भ्रष्टाचार को उनके जीवन का हिस्सा बना देता है और भ्रष्टाचार नियंत्रक शक्ति का स्खलन कर देता है।भारत के संदर्भ में रिपोर्ट में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा की गई है जो संविधान के मूलभूत ढांचे को बनाये रखने तथा इस ढांचे के विरूद्ध कार्य करने वाली किसी भी भ्रष्टाचार पोषक ताकत को दंडित करने का काम बखूबी कर रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की पैठ भ्रष्टाचार नियंत्रण में बहुत सीमित है और दूसरी आ॓र लोकतांत्रिक व्यवस्था दिनोंदिन भ्रष्ट स्वार्थ समूहों की गिरफ्त में आ रही है। भारत में भ्रष्टाचार अगर पाकिस्तान से कम प्रतीत होता है तो उसका एक कारण यह है कि भारत की साठ प्रतिशत जनता को भ्रष्टाचार में शामिल होने का अवसर ही उपलब्ध नहीं है। यह जनता केवल भ्रष्टाचार की शिकार है। सूरत यही रही तो आगामी वर्षों में गिरावट और तेज होगी। भारत डेनमार्क के करीब नहीं, पाकिस्तान के करीब किसकेगा।
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Friday, June 20, 2008

विश्लेषण : हमारे लोकतंत्र की क्वालिटी पर सवालिया निशान

अभय कुमार दुबे
ठीक जिस समय भारत नई सहस्राब्दी में अपने दूसरे आम चुनाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है, उसी समय दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के बीच यह बहस छिड़ गई है कि क्या भारतीय लोकतंत्र भूमंडलीकरण के नए दबावों को झेल पाएगा? इसी प्रश्न को इस तरह से भी पेश किया जा सकता है कि क्या भारत लोकतंत्र, विकास और भूमंडलीकरण की त्रिकोणीय जटिलता को सुलझाता हुआ नई सदी में नए मुकामों को हासिल करने में कामयाब होगा? इस बहस में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं। उनके साथ अन्य विकासशील देशों के बौद्धिक प्रतिनिधियों का भी योगदान है। खास बात यह है कि बहस लोकतंत्र की विश्वव्यापी मौजूदगी और निरंतर हो रहे प्रसार की पृष्ठभूमि में हो रही है। भारतीय लोकतंत्र तो कसौटी पर कसा ही जा रहा है। साथ ही लोकतंत्र के संस्थागत स्वरूप और उसके दार्शनिक विचार की भी जांच-पड़ताल हो रही है। बहस की इस विशेषता ने भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को सारी दुनिया में लोकतंत्र के भविष्य से जोड़ दिया है। बहस में दी गई दलीलों से लगता है कि अगर भूमंडलीकरण के दबावों के कारण भारत में लोकतंत्र नई मंजिलों की तरफ सफर जारी करने में नाकाम रहा, तो सारी दुनिया में लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्थाओं की उपयोगिता पर सवालिया निशान लग सकता है।
ऐसी बहस गुजरी सदी में पचास और साठ के दशक के दौरान भी चली थी। 1947 में एक आजाद देश के रूप में अपनी यात्रा शुरू करते समय सिद्धांत और व्यवहार की दृष्टि से भारत के सामने केवल लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था और विकासमूलक प्रतिमान का ही समीकरण था। यह एक सीधा-सादा समीकरण था, जिसके इर्द-गिर्द होने वाले तर्क-वितर्क में केवल दो ही कोण हुआ करते थे। विशेषज्ञों की मान्यता थी कि अगर अंतरराष्ट्रीय माहौल अनुकूल रहा और परंपरागत समाज के आधुनिकीकरण और सेकुलरीकरण की प्रक्रिया ठीक से चली, तो यह नवोदित राष्ट्र उत्तरोत्तर प्रगति करता चला जाएगा। कुल मिलाकर समझा जाता था कि लोकतंत्र के सफल या विफल होने में भारतीय समाज की आत्मगत स्थिति बहुत अहम भूमिका निभाएगी। चूंकि पश्चिमी विचारकों को भारतीय समाज के लोकतांत्रिक मिजाज के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी, और उनके बौद्धिक मानस पर मार्क्स द्वारा प्रवर्तित ‘एशियाई मोड ऑफ प्रोडक्शन’ की थियरी हावी थी, इसलिए उनमें से ज्यादातर भारत में लोकतंत्र की कामयाबी की संभावनाओं को शक की निगाह से देखते थे। इसी संशय के चलते साठ के दशक के अंत तक सारी दुनिया में बार-बार भारतीय लोकतंत्र का शोक-गीत गाया गया। इनमें सबसे ज्यादा खरजदार आवाज अमेरिकी थिंक टैंक के सदस्य सेलिग हैरिसन की थी, जिन्होंने तो यह तक घोषित कर दिया था कि 1967 का चुनाव भारत का अंतिम लोकतांत्रिक चुनाव होगा। इसके बाद ‘अपकेंद्रीय’ अर्थात फूटपरस्त शक्तियां हावी हो जाएंगी और देश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। सैलिग हैरिसन आज भी बौद्धिक रूप से सक्रिय हैं और उनकी राय अमेरिकी हलकों में महत्वपूर्ण मानी जाती है। पता नहीं, वे अपनी उस भविष्यवाणी को किस निगाह से देखते होंगे, पर मौजूदा बहस में उनकी अनुपस्थिति इस बात का सबूत है कि एशियाई समाजों और खासतौर से भारत के बारे में उनसे कोई राय देने की अपेक्षा नहीं की जाती।
जाहिर है, बहस का परिप्रेक्ष्य बदल चुका है। अब बातचीत लोकतंत्र के रहने या न रहने पर केंद्रित न होकर लोकतंत्र की क्वालिटी पर हो रही है। नब्बे के दशक के शुरूआती बरसों में अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर भूमंडलीकरण का आगमन हुआ, जिसके कारण विकास और लोकतंत्र का पहले से चला आ रहा संबंध बदल दिया। इससे पहले पूरी बीसवीं सदी में लोकतंत्र को एक सर्वश्रेष्ठ मानवीय विचार के रूप में पेश करके एक जीवन-शैली के रूप में ग्रहण किया जाता रहा था। माना जाता था कि विकास जरूरी है, पर वह लोकतांत्रिक आग्रहों की जगह नहीं ले सकता। निरंकुश राज्य व्यवस्थाओं द्वारा किए जाने वाले विकास को नीची निगाह से देखने की प्रवृत्ति थी। लेकिन, भूमंडलीकरण के आगमन ने आर्थिक समृद्धि की धारणा को एक नई अहमियत प्रदान कर दी और एक विचार के रूप में लोकतंत्र अपनी अपरिहार्यताओं से बेदखल होता हुआ लगा।
इससे पहले लोकतंत्र की क्वालिटी अधिकतर राजनीतिक अधिकारों की अक्षुण्णता, राजनीतिकरण की प्रक्रिया की गहराई, संस्थाओं के शासन और शांतिपूर्ण नेतृत्व परिवर्तन की क्षमता के आधार पर आंकी जाती थी। अर्थशास्त्री अपनी तरफ से विकास दर की बात बोलते रहते थे, लेकिन अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से राजनीति के हाथों में थी। जब भी यह बात चलती थी कि नीति निर्माण की प्रक्रिया किसके हाथ में होनी चाहिए, तो विशेषज्ञों की दावेदारियां खारिज कर नीतियों के सूत्रीकरण की जिम्मेदारी राजनेताओं के हाथों देने पर ही मतैक्य बनता था।
भूमंडलीकरण के आगमन ने इस स्थिति को बदल दिया है। पूंजी के उन्मुक्त प्रवाह ने राष्ट्रीय सीमाओं और सम्प्रभुता के महत्व को पहले जैसा नहीं रहने दिया है। तेजी से उभरते और फैलते मध्यवर्ग की मान्यता बनती जा रही है कि लोकतंत्र अपने आप में कोई ऐसी नियामत नहीं है, जिसके ऊपर आर्थिक समृद्धि के आग्रह कुर्बान किए जा सकें। राजनीतिक अधिकार और राजनीतिकरण, संस्थाओं के शासन आदि बातें धीरे-धीरे किताबी ज्ञान की परिधि में सिमटती जा रही हैं। लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की गुणवत्ता का फैसला करने का केवल एक ही मानक बनता जा रहा है, और वह है विकास दर का आंकड़ा। अगर नागरिक समाज कोई बाजार के हंगामे के बीच अपना कोई स्थापित अधिकार खो देता है, तो उसकी ज्यादा परवाह नहीं की जाती। इस रवैये का परिणाम यह हुआ है कि नीतियों के निर्माण में विशेषज्ञों (टेक्नोक्रेटों और अन्य नौकरशाहों) की भूमिका प्रधान होती जा रही है और विधायिकाओं में सक्रिय नेतागणों से अपेक्षा की जाती है कि वे उन नीतियों पर बहस की खानापूरी करने के बाद मुहर लगवा देंगे। यह स्थिति केवल भारत की नहीं है। दरअसल, आर्थिक विकास का स्तर जिस देश में जितना ज्यादा है, लोकतंत्र को एक जीवन-शैली मानने का आग्रह वहां उतना ही कमजोर हो गया है। अमेरिकी लोकतंत्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां के नागरिक समाज के हाथों से प्रत्येक वर्ष कोई न कोई अधिकार खिसक जाता है। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र की क्वालिटी के मानक बदलने के इस सिलसिले का मुकाबला किया जा सकता है; इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में है। और, यह कोई कमजोर नहीं बल्कि एक मजबूत ‘हां’ है। इसके पीछे दलील यह है कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने अभी तक ऐसी कोई विधिसम्मत संरचना नहीं बना पाई है, जो राष्ट्र-राज्य जैैसी संरचना को प्रतिस्थापित कर सके। एक छोटे से छोटा राष्ट्र-राज्य अपनी जटिलताओं के लिहाज से किसी भी बड़े से बड़े मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन से अधिक मुश्किल संरचना है। नागरिक और उसके होने का विचार आज भी राष्ट्र और उसके होने की सीमाओं में स्थित है। भूमंडलीकरण के नाम पर जो कुछ है, उसकी गढं़त राष्ट्र की जमीन पर ही हो रही है। भूमंडलीकरण राष्ट्र के अस्तित्व की सर्वोच्चता को प्रश्नांकित तो कर सकता है, पर उसकी जगह लेने की क्षमता विकसित करने से वह अभी बहुत दूर है। सारी दुनिया में आज तक एक ही भूमंडलीय संगठन है और वह है विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीआ॓)। बाकी सभी राष्ट्रीय हैं या अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रेतर (भूमंडलीय नहीं) हैं। इसलिए पहलकदमी अब भी राष्ट्र के हाथों में है। आज भले ही लगता रहे कि भूमंडलीकरण राष्ट्र की सीमाएं नए सिरे से निर्धारित कर रहा है, पर ज्यादा से ज्यादा दो दशक बाद अंतिम रूप से राष्ट्र ही तय करता नजर आएगा कि भूमंडलीकरण की सीमाएं क्या होनी चाहिए।
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम के संपादक है)
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Monday, June 16, 2008

पाखंड से उबरें विकसित देश

वंदना शिवा
पर्यावरणविद् एवं सामाजिक कार्यकर्ता
ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा अभी भी आम लोगों के बीच अपनी जगह नहीं बना पाया है। इसे लेकर आम लोगों में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मंचों से सचमुच कुछ करने की जरूरत है। अभी तक पर्यावरण चिंतन के लिए जो भी बैठकें हुई हैं उनमें ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम की भयावहता पर ही अधिक चर्चा होती है। सुधार के प्रयास कम किए जाते हैं। क्योटो एग्रीमेंट जैसे प्रयास विकसित देशों और विश्व बैंक का ढ़कोसला मात्र बन कर रह गई है। इस समझौते पर दस्तखत करने वाले देशों के लिए एक खास समय सीमा में प्रदूषण के स्तर को कम करने की शर्त है लेकिन विकसित देशों ने कार्बन ट्रेडिंग के नाम पर इससे बचने का रास्ता निकाल लिया है। विकसित देश कार्बन ट्रेडिंग के नाम पर विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ावा देने में जुटे हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश पेट्रोलियम और शेल जैसी कंपनियां भारत में आकर जैट्रोफा के बायोडीजल प्लांट लगा रही हैं। मैं ग्लोबल वार्मिग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार विकसित देशों की दोमुंही नीतियों को ही मानती हूं। देखने वाली बात है कि वे अपने हित में विकासशील व गरीब देशों में ऑटो व थर्मल प्लांट लगाने तथा अन्य ऐसे कई उघोगों को बढ़ावा देने में जुटे रहते है। इनसे काफी प्रदूषण फैलता है। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी ऐसी कई योजनाओं के लिए पैसे उपलब्ध करा रही हैं जिनसे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा है।
मौसम में आ रहे बदलावों की जानकारी, प्रभाव और उससे निबटने को लेकर किसी भी तरह के रिपोर्ट को हमें गंभीरता से लेने की आदत बनानी चाहिए। रिपोर्टों पर चाहे वे संयुक्त राष्ट्र की हो या किसी अन्य संस्था की, गहन विचार विमर्श होने चाहिए। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हमारी जानकारियां तो विगत दिनों में काफी बढ़ी है, फिर भी अपेक्षित जागरूकता न तो शासकीय स्तर पर बना है और न ही आम लोगों में सचेतता आर्ई है। देशों के शीर्ष राजनीतिक स्तर पर तो इसे लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति सी बनी रहती है। होना तो यह चाहिए कि वहां से पर्यावरण को बचाने के लिए आदर्श माहौल की व्यवस्था के सूत्न निकले। अभी तो देखने में यही आता है कि राजनीतिक नेतृत्व ही सुधार प्रक्रिया में रोड़े अटकाने में जुटा है। अमेरिका को ही लें, बुश प्रशासन क्योटो संधि पर हस्ताक्षर करने से बचता है। उनकी दलील है कि इससे अमेरिका के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। जाहिर है बुश के जाने के बाद नीतियों में परिवर्तन हो सकता है, इसलिए हमें आशान्वित रहना चाहिए। आखिर बुश की ही पार्टी के अर्नाल्ड श्वार्जनेगर जो अभी कैलीफोर्निया के गवर्नर हैं, ने अपने स्टेट में पर्यावरण रक्षण की शानदार नीतियां बनाई हैं, जिनसे अर्थव्यवस्था को भी कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा।
दरअसल मौसम में आ रहा बदलाव आज की सबसे बड़ी समस्या है। निर्विवाद तौर पर धरती का तापमान बढ़ रहा है। मौसम तंत्र के तीव्र गति से गड़बड़ाने के अंदेशे हैं। रिपोर्ट बताती है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो अगली सदी तक तापमान में औसतन 3 दशमलव 5 डिग्री सेल्शियस की बढा़ेत्तरी हो सकती है। इससे ग्लेशियर पिघलेंगे और समुद्र तटीय शहरों के अस्तित्व पर खतरा हो जाएगा। प्रशांत महासागर के तो कई द्वीप पूरी तरह से डूब जाएंगे। फिर पेयजल में करीब 10 प्रतिशत की कमी हो जाएगी और 20 से 30 फीसदी पशु–पौधों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएगी। खाघ उत्पादन में भी भारी कमी आएगी और बाढ़, तूफान, सूखे तथा बीमारियों में वृद्धि होगी। कुल मिला कर पूरा तंत्र चौपट हो जाएगा और हम क्रमश: विलुप्तता की आ॓र बढ़ेंगे। खैर इन आशंकाओं को हकीकत बनने से रोकने की जुगत हमारे हाथों में है बशर्ते कि खतरे को हम शिद्दत से समझें। विकसित, विकासशील व पिछड़े देशों को एक दूसरे पर दोषारोपण करने से बचते हुए मिलजुल कर गंभीर प्रयास करना होगा। जाहिर है जहां एनर्जी कंजम्शन अधिक हैं प्रयास भी उन्हें ही अधिक करने होंगे। भारत हो भी चाहिए कि वो आपने कार्बन उत्सर्जन में हर हालत में 2050 तक 4 प्रतिशत की कटौती लाए। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही आज सबसे बड़ी चुनौती है। क्योटो प्रोटॉकाल से लेकर पर्यावरण को लेकर जितने भी सम्मेलन हुए हैं सब में यही बात उभर सामने आई है कि ऊर्जा की खपत पर लगाम लगाया जाए और ऐसे तकनीकों का विकास हो जो ऊर्जा संरक्षण पर जोर देता हो। इसके लिए कम बिजली खपत करने वाले लाइटिंग उपकरण और कम ईंधन वाली गाड़ियों का निर्माण होना चाहिए। कंप्यूटर, एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर जैसे 20 सर्वाधिक बिजली खाने वाले उपकरणों की जगह कम खपत वाले विकल्पों को अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाए जाएं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस का विकल्प हाइड्रोजन को ईंधन स्रोत के रूप में बढ़ावा देना हो सकता है। हमें फॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल पर तुरंत रोक लगाकर ऊर्जा के दूसरे विकल्पों पर गौर करना होगा। निसंदेह इस मुद्दे पर जरा सी भी ढ़िलसिलाई अपनी तबाही को निमंत्रण देने जैसा ही साबित होगा। भारत जैसे जैव विविधता वाले देश को तो ग्लोबल वार्मिंग से काफी खतरे हैं। गंगा, हिमालय, सुंदरवन, तटीय शहर कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अगर हम नहीं चेते तो दिन प्रतिदिन विनाश की आ॓र ही बढ़ेंगे।प्रस्तुति: प्रेम चंद यादव

36 साल में कितने कोस

* 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहाम में संयुक्त राष्ट्र का पहला जलवायु सम्मेलन आयोजित किया गया। इसके बाद ही पर्यावरण प्रदूषण अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना। सम्मेलन में सरकारों से मानव के क्रियाकलापों से हो रहे परिवर्तन को रोकने की अपील की गई। सम्मेलन के बाद विश्व मौसम संगठन और वैज्ञानिक संघों के संयुक्त तत्वावधान में विश्व जलवायु कार्यक्रम की शुरूआत की गई।
* 1988 में वैश्विक पर्यावरण में हो रहे परिवर्तन के अध्ययन के उद्देश्य से आईपीसीसी (इंटर गवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज)का गठन किया गया।
* आइपीसीसी ने अपनी पहली रिपोर्ट 1990 में दी। इसमें वैज्ञानिक सबूतों के आधार पर जलवायु परिवर्तन की बात स्वीकार की गई।
* 1990 में ही द्वितीय विश्व सम्मेलन हुआ। जलवायु परिवर्तनों पर एक मसौदे का ढ़ांचा तैयार करने की बात की गई। विभिन्न देशों के लिए विकास प्रक्रिया के अलग स्तरों पर जिम्मेदारी निश्चित की गई।
* 1992 में रियो डी जिनेरो में संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण और विकास सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) हुआ। शिखर वार्ता में 154 देशों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर हस्ताक्षर किया। एजेंडा–21 को लागू करने संबंधी कार्यक्रम पर आम सहमति बनी। एजेंडे के अनुसार 2000 तक ग्रीन हाउस गैसों को 90 के स्तर पर लाने की बात की गई।
* 1995 में आईपीसीसी ने 2000 वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई दूसरी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन पर लगाम कसने पर खासा जोर दिया गया।* 1997 में जलवायु समस्या पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र आम सभा का विशेष सत्र बुलाया गया और रियो डी जिनेरो सम्मेलन के बाद की स्थिति की समीक्षा भी की गई।
* 1987 में ही क्योटो में विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हुआ। इसमें ग्रीन हाउस उत्सर्जन के संबंध में बनाए गए अंतरराष्ट्रीय मापदंडों को कानूनी रूप से बांधने हेतु समझौता हुआ। संधि के अनुसार औघोगिक देशों को 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 5 प्रतिशत कम करना था। विश्व के 55 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार 55 देशों से औपचारिक स्वीकृति देने को कहा गया। संधि पूरी तरह से 16 फरवरी 2005 से लागू हुई। इसमें 141 देशों के हस्ताक्षर हैं। अस्ट्रेलिया व अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है। भारत और चीन संधि से अलग हैं।
* आईपीसीसी ने 2001 में तिसरी रिपोर्ट पेश की।
* 2001 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 5 क्षेत्रीय बैठकें हुईं। इसमें संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने एक महती आकलन रिपोर्ट जारी की जिसमें पिछले 10 सालों के दौरान टिकाऊ विकास को प्राप्त करने की दिशा में हुई प्रगति और अड़चनों की समीक्षा की गई थी।
* 2002 में जोहांसबर्ग सम्मेलन हुआ (दूसरा पृथ्वी सम्मेलन) यह अब तक के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में सबसे महत्वपूर्ण था। आयोजन अब तक के विभिन्न सम्मेलनों में निर्धारित लक्ष्यों को फलीभूत करने हेतु कार्य पद्धति बनाने के लिए किया गया था। किंतु विकसित और विकासशील देशों के बीच के टकराव के कारण सम्मेलन का लक्ष्य पूरा न हो सका।
* 2003 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के सदस्य देशों की बैठक जर्मनी के बॉन में हुई। इसमें ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के बारे में विस्तार से योजना बनी तथा क्योटो समझौते में आ रही अड़चनों पर विचार किया गया।
* 2004 में ब्यूनस आयर्स में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन। गलोबल वार्मिंग के विषय पर दीर्घावधि योजनाओं को लेकर अमरीका और यूरोपीय संघ के बीच गहरे मतभेद।
* अप्रैल 2007 में बैंकॉक में जलवायु परिवर्तन पर एक अहम सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में 120 देशों के 400 वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया। अस्ट्रेलिया व अमेरिका ने सम्मेलन में भारत और चीन के लिए कार्बन उत्सर्जन के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की बात कही। प्रस्ताव के प्रारूप को लेकर धनी और गरीब देशों में खींचतान।
* वर्ष 2007 में ही आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट जारी।
* 2007 के दिसंबर में जलवायु परिवर्तन पर बाली सम्मेलन। इसमें 2012 के बाद का रोडमैप तैयार करना था। सम्मेलन में अमेरिका द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए लक्ष्य निर्धारित करने का विरोध। पूर्व अमरीकी उप राष्ट्रपति अल गोर ने बुश प्रशासन की आलोचना की। भारत और चीन ने मसौदे पर आपत्ति की।
* अप्रैल 2008 में बैंकॉक में सम्मेलन। अंतरराष्ट्रीय समझौते की दीर्घकालिक योजना के साथ बैठक संपन्न। इस कार्ययोजना को अंतिम रूप 2009 में कोपेनहेगेन में होने वाली बैठक में दिया जाएगा।
प्रस्तुति: प्रवीण कुमार
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गर्म ग्रह का अभिशाप

चंद्रभूषण
देश में खाद्यान्नों की पैदावार इस साल औसत से ज्यादा होने की पुष्टि की जा चुकी है, फिर भी गेहूं, चावल, दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों की कीमतें काबू में नहीं आ रही हैं। अन्य बातों के अलावा इसकी एक बड़ी वजह पूरी दुनिया पर मंडरा रहा खाद्यान्न संकट है। दक्षिण अमेरिकी देश हैती और अफ्रीकी देश सेनेगल के बाजारों में खाने के लिए भड़के दंगों में कई लोगों की जानें जा चुकी हैं। कई और छोटे देशों में भयंकर तनाव की स्थिति बनी हुई है। विश्व बैंक ने एक आधिकारिक बयान जारी करके कहा है कि खाद्यान्न संकट के चलते लगभग 50 देशों में इस साल दंगे-फसाद की स्थिति पैदा हो सकती है।
अपनी जरूरत से ज्यादा चावल उपजाने वाले फिलीपीन्स, म्यांमार और विएतनाम जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने संभावित खाद्य संकट को ध्यान में रखते हुए चावल निर्यात करने से मना कर दिया है। चावल के निर्यातकों में गिने जाने वाले भारत ने निर्यात पर औपचारिक रोक भले न लगाई हो लेकिन निर्यात शुल्क बढ़ाकर और 50 रूपये किलो से कम कीमत वाले चावल के निर्यात को प्रतिबंधित करके इसे बहुत मामूली स्तर पर ला दिया है। उधर गेहूं के अंतरराष्ट्रीय व्यापार की हालत भी अच्छी नहीं है। यूरोपीय देशों में गेहूं की उपज गिर जाने के कारण वहां से इसका निर्यात पिछले कई वर्षों से अत्यंत निचले स्तर पर चल रहा है।
सचमुच आश्चर्यजनक है कि जिस ग्लोबल वार्मिंग को हम अभी तक बौद्धिक हलकों में बहसियाई जाने वाली एक अकादमिक समस्या मानते आए हैं, वह अचानक लाखों लोगों का जीना-मरना निर्धारित करने लगी है। अपने यहां उपजने वाले चावल का 98 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करके कई देशों का पेट भरने वाले ऑस्ट्रेलिया के मरे-डालग बेसिन में पिछले दस वर्षों से पड़ा सूखा अंतरराष्ट्रीय चावल संकट का सबसे बड़ा कारण है। दरअसल, धान काफी ज्यादा पानी की मांग करने वाला एक उष्णकटिबंधीय फसल है, और दुनिया के बहुत कम देश ही अपना चावल बड़ी मात्रा में बेच पाने में सक्षम माने जाते हैं। सरप्लस चावल उपजाने वालों में ऑस्ट्रेलिया की जगह अव्वल मानी जाती रही है, लेकिन उसके धनहर खेतों में तो पिछले कई वर्षों से धूल उड़ रही है।
सन् 2003 में यूरोप में 48 डिग्री सेल्सियस तक चले गए तापमान और अगस्त के महीने में लगातार एक हफ्ते चली जबर्दस्त लू में 35 हजार लोगों की जान जाने की खबर हम सभी को होगी, लेकिन इस असाधारण स्थिति को एक तरफ रख दें तो भी 1990 के दशक से वहां लगातार बढ़े तापमान ने यूरोपीय खेती का क्या हाल किया है, इस तथ्य से शायद ज्यादा लोगों की वाकफियत नहीं है। गेहूं और अंगूर यूरोप के ज्यादातर इलाकों की बुनियादी फसलें मानी जाती हैं और इन दोनों का उत्पादन वहां तेजी से गिरा है।
अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति और पिछले साल के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अल गोर की बनाई फिल्म ‘डे आफ्टर टुमारो’ में अंटार्कटिका के लार्सन बी आइस शेल्फ के पिघल जाने से गल्फ स्ट्रीम धारा का बहना बंद हो जाते दिखाया गया है। इसके चलते इधर इंग्लैंड के तटीय शहरों में तबाही आ जाती है तो उधर न्यूयॉर्क स्थायी रूप से बर्फ में जमकर रह जाता है। फिल्म के माध्यम के मुताबिक चुनी गई ये कुछ आश्चर्यजनक आशंकाएं हैं, जिन्हें फिल्म में सच होते दिखाया गया है। ये इतनी आश्चर्यजनक हैं कि इनके कभी सचमुच सही साबित हो जाने पर एकबारगी यकीन नहीं होता। लेकिन जैसी कहावत है, हकीकत हमेशा कल्पना से ज्यादा आश्चर्यजनक होती है।
दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया में लंबा सुखाड़ हो जाने से दसियों हजार किलोमीटर दूर हैती और सेनेगल में दंगे भड़क उठना, या यहां भारत में ही अपनी कार्यकुशलता का ढोल पीट रही केंद्र सरकार का अचानक संकटग्रस्त दिखने लगना हकीकत का सिर्फ एक पहलू है। बहुत सारी अन्य छोटी-छोटी चीजें भी हैं, जिनका महत्व पहली बार महसूस किया जा रहा है। ब्रिटिश जीवविज्ञानी रोनाल्ड रॉस ने सौ साल पहले भारत में मलेरिया पर अपना ऐतिहासिक काम इसे एक पराई बीमारी मानकर किया था। यूरोप में मच्छरों के होने की कल्पना ही नहीं की जाती थी, लिहाजा मलेरिया से वहां के डॉक्टरों या जीवविज्ञानियों का सीधे कोई साबका पड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। लेकिन आज गर्म होते यूरोप और उत्तारी अमेरिका में न सिर्फ मच्छर और पिस्सू हैं बल्कि मलेरिया, हैजा, प्लेग और कई अन्य उष्ण-कटिबंधीय बीमारियों के मरीज वहां दर्ज किए जाने लगे हैं।
जितनी हिकारत अमेरिकी हुक्मरानों ने ग्लोबल वार्मिंग से मुकाबले के लिए तय किए गए क्योटो प्रोटोकॉल के प्रति बरती थी, वैसी पिछले साल पेरिस में हुए आईपीसीसी सम्मेलन के प्रति उनसे नहीं बरती गई। बल्कि आईपीसीसी के निष्कर्षों पर अपनी मोहर लगाते हुए ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ कमर कसकर उतर पड़ने का जुबानी जमाखर्च भी उन्होंने किया तो इसकी अकेली वजह यही थी कि सन् 2005 में वहां आए असाधारण चक्रवातीय तूफानों ने न सिर्फ एक समूचे शहर न्यू र्ऑिलएंस को नेस्तनाबूद कर दिया था बल्कि ग्लोबल वामग की प्रस्थापना को अमेरिका विरोधी साजिश बताते आए रिपब्लिक नेतृत्व की कमर तोड़कर रख दी थी।
बीच-बीच में तेल कंपनियों और वाहन निर्माताओं के पे-रोल पर काम करने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविद आज भी ऐसे सुर्रे छोड़ते रहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से ज्यादा चितित होने की जरूरत नहीं है। ऐसा ही सुर्रा इन दिनों यह छूटा हुआ है कि अगले दस वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चितित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तरी ध्रुव की एक पर्यावरणिक परिघटना अगले कुछ समय तक धरती के बढ़ते तापमान की लगाम थामे रहेगी। कुछ-कुछ ऐसी ही प्रस्थापनाएं टाइटनिक जहाज के डूबने से ऐन पहले तक उसके इंजीनियर और मैनेजर वगैरह भी देते रहे होंगे।
एक तरफ तेल, गैस और कोयले के दिनोंदिन रीतते भंडार इन सारी चीजों की कीमतें आसमान पर चढ़ाए जा रहे हैं, दूसरी आ॓र धरती का दम घोंट रहा इनका धुआं हजार तरीकों से इस ग्रह की जान लेने पर आमादा है। फिर भी विद्वज्जन न जाने किस अदालत से ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ दस वर्षों का ‘स्टे-ऑर्डर’ लेते आए हैं। समय आ गया है कि ऐसे खयाली उपायों के जरिए वास्तविक समस्याओं से निपट लेने का मोह हम छोड़ दें। पहली बार हमारी संसद में अगले बीस-बाइस वर्षों में गंगा नदी के सूख जाने की आशंका को लेकर चर्चा हुई है। यह मामला सिर्फ चर्चा तक ही सिमटकर न रह जाए, इसके लिए हमें बहस इस बात पर करनी होगी कि राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ कुछ सार्थक करने के लिए हम क्या-क्या कदम उठाने के लिए, ठोस तौर पर कहें तो किस हद तक माली नुकसान बर्दाश्त करने के लिए तैयार हैं।
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असमय : समाजवाद की टपकन

मुद्राराक्षस
पूंजीवादी अर्थतंत्र का एक दिलचस्प सिद्धान्त है कि जब उत्पादन और समृद्धि का घड़ा लबालब भर जाता है, तब उसमें थोड़ी सी टपकन शुरू हो जाती है। टपकने वाली बूंदें उन लोगों पर गिरती हैं जो अभाव की नारकीय जिंदगी गुजार रहे होते हैं यानी भूखे तक नेवाला पहुंचने की शर्त यह है कि सुखासीन समाज का पेट भरे, तिजोरी भरे और भंडार भरे। जब गोदामों में अनाज भरा जाता है तो सड़क पर भी कुछ दाने बिखरते हैं। यह एक आर्थिक विद्रूप ही है कि पूंजीवादी अर्थतंत्र का यह अमानवीय सिद्धांत उस भारत का प्रिय मंत्र है जिसने संविधान के अनुसार समाजवाद की हलफ उठायी हुई है। यानी भारत में समाजवाद पूंजी से भरे घड़े से टपकती बूंदों से बनेगा।
जिस आर्थिक गैर बराबरी से संघर्ष के लिए दुनिया के बड़े बुद्धिजीवियों ने समाजशास्त्र नाम की एक नयी विधा ही तैयार की थी उस गैर बराबरी को अब समाजवादी संविधान वाले भारत में राजकीय संरक्षण मिल गया है। वर्तमान व्यवस्था ने मान लिया है कि देश में ऊपर रहेंगे समृद्धि की टंकियां भरने में कामयाब होने वाले सुखासीन, और नीचे के नरक में रहेंगे वे तमाम अभावग्रस्त लोग जो इंतजार करेंगे कि ऊपर से बूंद टपकें। भारत में समाजवाद टपकने के लिए देश की तीन चौथाई से ज्यादा गरीब आबादी को इंतजार करना होगा कि ऊपर वाले सुखासीनों का घड़ा खूब भर जाय। यह स्थिति बेहद दर्दनाक है लेकिन सत्ता के लिए सुखद।
सुखासीन समुदाय के लिए हाल में चिंता के समाचार आये। दो समाचार। एक समाचार यह कि जनता ने पानी लूट लिया और दूसरा यह कि अनाज लूटा गया। भुखमरी और प्यास से बेहाल इसी बुंदेलखंड के एक मित्र से मुलाकात हुई। वे बुंदेलखंड के उस बांदा शहर के हैं जो देश के अद्वितीय वाघ सारंगी की जमीन है। मित्र खुद भी सारंगीवादन में नाम कमा चुके हैं और मुम्बई में रहने लगे हैं। मैने पूछा- क्या बांदा अपने शहर की याद ताजा करने गये थे ? खासे खुश मिजाज मित्र यकायक चुप हो गये। उनका चेहरा एक बेरंग खाल के पुतले जैसा हो गया। सिंथेसाइजर आ जाने के बाद से मुम्बई में सारंगी के लिए काम भी लगभग टपकन में ही तब्दील हो चुका है। अपने घर के नाम पर उनका दर्द समझा जा सकता है जहां अब एक लंबे अरसे से संसाधनों की एक बूंद भी नहीं टपकी थी। इस घटना पर वे न हंस सकते थे न रो सकते थे कि मुम्बई में रहने की वजह से वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बोतलबंद पानी पीने लगे थे। घर पहुंचे तो उनकी बोतल में मुश्किल से कुछ घूंट पानी बचा था। उनके बच्चों ने उस एक चुल्लू पानी का जिस तरह सावधानी से बटवारा किया वह दहलाने वाला दृश्य था। जिस भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसकी टपकन पर देश को जिंदा रखा जा सकता है, वहां घर में परिवार के सदस्य अब एक दूसरे से पानी का एक गिलास लूट लें तो हैरानी क्या है ?
हाल में मेरे मित्र डा. वी. के. सिंह ने ट्रेड यूनियनों के एक संयुक्त अभियान की चन्द बुलेटिनें दी। ट्रेड यूनियनों ने, खासतौर से बैंकों की यूनियनों ने फैसला लिया है कि वे 4 अगस्त को प्रदर्शन करके हड़ताल का नोटिस देंगे और बैंक भी 20 अगस्त 2008 की आम हड़ताल में शिरकत करेंगे। यह हड़ताल भी निश्चित रूप से भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ी घटना होनी है। एक बार फिर आर्थिक टपकन से बेहाल देश सामूहिक असंतोष और गुस्से का इजहार करने जा रहा है। यहां हमें याद करना चाहिए कि अमरीका में नेशनल एसोसिएशन आफ मैन्युफैक्चरर्स के अध्यक्ष कोला पार्कर ने 1956 में अपने भाषण में कहा था कि देश को ट्रेड यूनियनों के संगठनों की दासता से छुटकारा लेना चाहिए और सरकार के प्रभुत्व को खत्म करना चाहिए। बाद में हम देखते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सार्थकता और सरकार के अधिकारों को बाकायदगी के साथ समाप्त या सीमित किया और इस काम को पूरा करने में विश्वबैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने बड़ी भूमिका निभायी। यहां यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि एक समय जब हम मनकापुर के कारखाने के कामगारों की यूनियन के सम्मेलन के लिए जा रहे थे तो रास्ते में जार्ज फर्नाण्डिस ने बताया कि जब वे भारत सरकार की आ॓र से विश्वबैंक से वार्ता करने पहुंचे तो किसी भी बातचीत से पहले बैंक के अधिकारियों ने कटुता के साथ सवाल किया कि जार्ज ने एक अमरीकी शीतल पेय कम्पनी पर प्रतिबंध क्यों लगाया ? यह इस बात का सुबूत है कि विश्वबैंक जैसे अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन किस तरह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पोषण करते हैं।
हमारे देश में तमाम प्रतिरोधों के बावजूद हमारी सरकारें 1990 के बाद से लगातार व्यवस्थित रूप से कोला जी पार्कर की इच्छा के अनुसार सरकार की स्वायत्तता लगातार घटाती रही है और देश जानता है कि ट्रेड यूनियन संगठनों के अधिकार निरर्थक बनाये हंै। अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को हर तरफ से पीछे के दरवाजे से भी देश के सामान्य जन की कीमत पर लाभ पहुंचाए जा रहे हैं। आल इंडिया बैंक इम्प्लाइज एसोसिएशन की जो बुलेटिन हमने देखी उसके कुछ तथ्य आश्चर्यजनक है। राष्ट्रीयकृत बैंकों में अब भी न चुकाये गये बड़े उधार बढ़ते जा रहे हैं। 2006-07 में ही यह रकम उन्नीस हजार छह सौ करोड़ और हो गयी जबकि छोटे कर्ज के लिए गुण्डे भेजे जाते हैं। ऐसी हाईकास्ट जमा राशियां बैंक ले रहे हैं जिन पर 12 फीसदी तक ब्याज दिया जा रहा है, जबकि आम जमाकर्ता न्यूनतम ब्याज से निराश किया जा रहा है। जाहिर है कि जहां समृद्धि का घड़ा भरपूर भरा जा रहा है वहीं आम के धीरज का घड़ा भी भर चुका है और आने वाला समय बताएगा कि देश कौन चलाएगा कोला जी। पार्कर की संतानें या देश की जनता।
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Friday, June 13, 2008

आतंक की खिलाफत का आतंक

सलिल त्रिपाठी
आतंकवाद के खिलाफ विश्व स्तर पर जारी जंग में निर्दोषों को प्रताड़ित करने के कई खौफनाक उदाहरण देखने को मिले हैं। इन घटनाओं से साबित हुआ है कि कई देशों के अधिकारी आतंकवाद के खिलाफ जंग में अपनी उपयोगिता साबित करने के लिए कितने उतावले है। 2002 में अमेरिकी अधिकारियों ने न्यूयॉर्क के जॉन एफ केनेडी हवाई अड्डे से एक टेलीकॉम इंजीनियर माहेर अरार को अल-कायदा से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया और उसे उसके घर कनाडा की बजाय सीरिया भेज दिया(अरार का जन्म सीरिया में हुआ था और वो कनाडियाई नागरिक है)। सीरिया में उन्हें कठोर यातनाएं दी गई। बाद में अरार को कनाडियन सरकार से मुआवज़े के रूप में एक करोड़ डॉलर की रकम मिली क्योंकि कनाडा के अधिकारियों ने अमेरिका को इस मामले में सही जानकारियां नहीं दी थीं। अरार ने अब अमेरिकी सरकार के खिलाफ दावा किया है जो कि उसे लगातार वांछितों की सूची में रखे हुए है।
अधिकारियों के इस तरह के अति उत्साह और उससे जाने-अनजाने में हुई गलतियों के पीड़ितों की सूची में भारतीय डॉक्टर मोहम्मद हनीफ भी शामिल है जिसे साल भर पहले ऑस्ट्रेलिया में गिरफ्तार किया गया था। इसकी वजह थी उसके कुछ रिश्तेदारों द्वारा इंग्लैंड में एक असफल आत्मघाती हमला। डॉ. हनीफ के खिलाफ आरोप की वजह बना था उनका वो सिम कार्ड जो धमाकों के एक संदिग्ध के पास से बरामद हुआ था और हनीफ द्वारा बुक करवाया गया भारत की यात्रा का एक तरफ का टिकट। उसके पास हर बात का सही जवाब था लेकिन पूर्व ऑस्ट्रेलियन प्रधानमंत्री जॉन हावर्ड के प्रशासन के राजनेता ये दिखाने के लिए बहुत उत्सुक थे कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने में उनकी भूमिका सबसे बड़ी है। इसकी परिणति निर्दोष डॉक्टर के खिलाफ अदालती कार्रवाई के रूप में हुई।
आंकड़ो ने ऑस्ट्रेलियाई राजनेताओं के बारे में चौंकाने वाले तथ्यों को उजागर कर दिया। ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन द्वारा अपने सैनिकों की विदेश में तैनाती के खिलाफ देश में लगातार बढ़ रहे विरोध को खत्म करने और इसके लिए समर्थन हासिल करने के लिए हताशा में ये चाल चली गई थी।
हावर्ड की हार के बाद अधिकारियों ने सूचना के अधिकार के तहत किए गए आवेदन पर हनीफ मामले से जुड़े आंकड़ों का जखीरा जारी किया। इन आंकड़ो ने ऑस्ट्रेलियाई राजनेताओं के बारे में चौंकाने वाले तथ्यों को उजागर कर दिया। ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन द्वारा अपने सैनिकों की विदेश में तैनाती के खिलाफ देश में लगातार बढ़ रहे विरोध को खत्म करने और इसके लिए समर्थन हासिल करने के लिए हताशा में ये चाल चली गई थी। सरकारी अधिकारियों ने अभियोजन और नौकरशाहों पर कानून के साथ खिलवाड़ करने के लिए दबाव डाला। मंशा ये थी कि यदि वो डॉ. हनीफ के ऊपर आतंकवाद के आरोप साबित कर देंगे तो इससे हॉवर्ड की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मज़बूती साबित होगी जिसका फायदा उन्हें आगामी चुनावों में हो सकता था।
डॉ. हनीफ को ब्रिस्बेन हवाई अड्डे पर 2 जुलाई 2007 को गिरफ्तार किया गया था। ऑस्ट्रेलियाई क़ानूनों के तहत अगर ऑस्ट्रेलियाई फेडरल पुलिस (एएफपी) किसी को जेल में रखने के पर्याप्त कारण न दिखा सके तो 72 घंटे के बाद उसे रिहा करना पड़ता है। जज को संतुष्ट कर सकने वाले पुख्ता प्रमाणों के अभाव में एएफपी ने प्रिवेंटिव डिटेंशन ऑर्डर (पीडीओ) की संभावना तलाशी। हावर्ड प्रशासन द्वारा पारित किए गए आतंकवाद विरोधी कानूनों ने इसे संभव बनाया मगर ये कानून काफी विवादित हैं और मानवाधिकारवादियों ने इसका जमकर विरोध किया था। पीडीओ के तहत किसी व्यक्ति को भी हिरासत में लिया जा सकता है भले ही उसके खिलाफ कोई मामला दर्ज न हो।
जारी कागज़ातों, जो अब इंटरनेट पर भी मौजूद हैं, से साफ पता चलता है कि एएफपी को 3 जुलाई को ही पता चल गया था कि उसे किसी तरह के सबूतों और सबूतों की सुरक्षा के लिए हनीफ को गिरफ्तार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मगर एक सप्ताह बाद भी डॉ. हनीफ सलाखों के पीछे थे।
11 जुलाई को एक फेडरल पुलिस अधिकारी ने दावा किया कि डॉ. हनीफ को अभी भी नज़रबंद रखने की जरूरत है क्योंकि ये सबूतों को सुरक्षित रखने, हासिल करने और जांच पूरी करने के लिए जरूरी है। 14 जुलाई को एक दूसरे अधिकारी ने दावा किया कि अगर हनीफ को आजा़द कर दिया गया तो वो खुद को अपराधी साबित कर सकने वाले प्रमाणों को नष्ट कर देगा, जिसे पुलिस अभी तक नहीं हासिल कर पायी है। कुछ दिनों के भीतर ही ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन अप्रवासी मामलों के मंत्री केविन एंड्र्यूज़ ने पुलिस द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों का "बारीक विश्लेषण" कर हनीफ का वीसा रद्द कर दिया। ताज़ा जारी हुए दस्तावेजों से साफ हुआ है कि पुलिस ने उस वक्त हनीफ का वीसा रद्द करने की कोई राय ही नहीं दी थी।
हनीफ के खिलाफ लगातार कमज़ोर पड़ते जा रहे मामले के बाद न्यायपालिका ने उन्हें छोड़ने का हुक्म दे दिया जिससे सरकार की खासी किरकिरी हुई--डॉ. हनीफ का सिमकार्ड ग्लासगो की बजाय लिवरपूल में मिला था और वो वन-वे टिकट पर भारत अपने नवजात बच्चे को देखने के लिए आ रहा था। सीधी-साधी सफाई अक्सर सबसे सही तरीका होता है, लेकिन उन लोगों के लिए नहीं जो षडयंत्र खोजने पर ही तुले हों।
अति तो तब हो गई जब एएफपी ने डॉ. हनीफ के मामले की जांच में 600 अधिकारियों को तैनात कर दिया। सरकार को इसमें 75 लाख डॉलर की चपत लगी। उन्होंने 300 गवाहों के बयान लिए, 349 नमूने इकट्ठे किए। इस अभियान में 249 संघीय अधिकारी शामिल थे, 22 जांच वारंट जारी किए गए, टेलीफोन कॉल्स टेप की गई, इलेक्ट्रॉनिक निगरानी मशीनें स्थापित की गई और साथ ही सैंकड़ो गीगाबाइट आंकड़े कंप्यूटर पर इकट्ठा किए गए। ऑस्ट्रेलिया की खुफिया सेवा से लेकर तमाम शीर्षस्थ विभाग इस काम में लगे रहे।
एएफपी ने डॉ. हनीफ के मामले की जांच में 600 अधिकारियों को तैनात कर दिया। सरकार को इसमें 75 लाख डॉलर की चपत लगी। उन्होंने 300 गवाहों के बयान लिए, 349 नमूने इकट्ठे किए।
इसके बावजूद अधिकारियों के हाथ, हनीफ को सूली पर टांगने का कोई सबूत नहीं लग सका। उनका वीसा निरस्त किए जाने के पीछे भी एक कुटिल सोच छिपी थी- ये प्रशासन को उसे अवैध प्रवास के लिए हिरासत में लेने की छूट दे देता। (2002 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन के उच्चायुक्त की तरफ से जस्टिस भगवती को ऑस्ट्रेलिया के बंदीगृहों की जांच के लिए नियुक्त किया गया था और उन्होंने इन्हें अपमानजनक और अमानवीय करार दिया था।)
किस चीज़ ने हावर्ड प्रशासन को इस तरह से बर्ताव करने के लिए प्रेरित किया? उन्हें कठिन चुनावों का सामना करना था (इसमें उन्हें बुरी तरह मात खानी पड़ी) और अगर एक भारतीय मुस्लिम डॉक्टर को जेल में रख कर चुनाव जीता जा सकता है तो फिर इसमें बुराई ही क्या है? वैसे भी हावर्ड सालों से बुश समर्थक रहे हैं तो उनका कुछ तो असर उन पर होगा ही। 11 सितंबर 2001 को वो वाशिंगटन में थे और जॉर्ज बुश के साथ आतंकवाद से टक्कर लेने की खबरों में जगह पा गए जिसने एकाएक ही उन्हें आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका का एक मुख्य समर्थक बना दिया था। अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में हावर्ड, बुश प्रशासन के विदेशों में सैनिक अभियानों के पक्ष में सिर्फ दृढ़ता से खड़े ही नहीं रहे बल्कि पर्यावरण से जुड़े जलवायु परिवर्तन, क्योटो प्रोटोकॉल जैसे मुद्दों पर भी बुश प्रशासन की नीतियों के अंध समर्थक बने रहे।
उनको अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों से भी कोई खास लगाव नहीं रहा है। न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में हमलों से पहले भी हॉवर्ड इन्हें तोड़ने मरोडने की कोशिशें करते रहे हैं। 2001 में नार्वे के एक जहाज जिसका नाम ताम्पा था, ने एक इंडोनेशियन नौका मिली जिसमें 400 अफगानी शरणार्थी सवार थे। ये घटना ऑस्ट्रेलियाई तट के पास की थी। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ऑस्ट्रेलिया इन शरणार्थियों के लिए जिम्मेदार था। लेकिन हॉवर्ड ने उन्हें प्रवेश करने से ही रोक दिया। नॉर्वे के अधिकारियों के दबाव के बावजूद उन्होंने ऐसा किया।
ऑस्ट्रेलिया औसतन साल भर में 10,000 शरणार्थियों को शरण देता है, लेकिन कुछ नेताओं को ये बात पसंद नहीं है। वन नेशन पार्टी की नेता पॉलिन हैन्सन का कहना है कि अप्रवास से जुड़े मुद्दों पर ऑस्ट्रेलिया का रुख लंबे समय से बहुत नर्म रहा है। पूर्व में फिश-एंड-चिप्स की दुकान चलाने वाली हैन्सन को 1990 में उस समय कुख्याति मिली जब उन्होंने एशिया से आने वाले विस्थापितों के खिलाफ एक अभियान छेड़ा। हालांकि वो अपने अभियान में असफल रहीं लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया के चतुर नेताओं ने उनके कथनों का उपयोग ऑस्ट्रेलिया को एक नस्लवादी देश साबित करने के लिए किया।
केविन रूड ने देश की कमान संभालने के बाद इसमें बदलाव का वादा किया था। लेकिन हनीफ के मामले में शर्मिंदगी उठाने के बाद भी फेडरल पुलिस का अभी भी यही मानना है कि इस तरह के मामलों से निपटने के लिए उन्हें किसी बुनियादी बदलाव की कोई जरूरत नहीं है। शुरुआती संकेत भी उत्साहजनक नहीं है- रूड की लेबर पार्टी ने इलेक्शन से ठीक पहले कहा था कि वह हनीफ मामले की दुबारा से जांच कराएगी। लेकिन अब अटॉर्नी जनरल ने हनीफ को किसी भी तरह का मुआवजा दिए जाने से इनकार किया है।
हनीफ के पीछे पड़ने की वजह बिल्कुल साफ थीं- किसी को फंसाओं, उसके खिलाफ केस बनाओ फिर सबूतों का ढेर लगाकर ऐसा माहौल तैयार करो जिससे राज्य की निगरानी, नज़रबंदी, पूछताछ और धमकाने की ताकतों में बढ़ोत्तरी संभव हो सके। लेकिन भारत इस मामले में खुद कुछ भी कैसे कह सकता है जब इसका अपना रिकॉर्ड भी कुछ अलग नहीं है। बिनायक सेन का उदाहरण हम सबके सामने ही है।
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लोकतांत्रीकरण का पूरक है शहरीकरण

इम्तियाज अहमद
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से शहर और संस्कृति का गहरा संबंध रहा है। ऐसी अवधारणा रही है की शहर की संस्कृति उच्च स्तर की होती है और गांव की संस्कृति सामान्य होती है। यदि इस दृष्टिकोण से देखें तो निश्चय ही शहर का संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसी कारण शहर को संस्कृति का स्रोत माना जाता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति के विकास में गांवों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन दोनों सभ्यताओं ने गांवों के प्रभाव को समाहित कर उनको नया रूप दिया जो धीरे–धीरे वापस गांव पहुंचा। आधुनिक दौर में शहरीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने के कारण आज गांव की संस्कृति आसानी से शहर में पहुंच पाई है और उसी के साथ शहरों का प्रभाव गांवों पर भी उसी तेजी से बढ़ा है। आर्थिक विकास का प्रक्रिया और उदारीकरण के बाद रफ्तार और ज्यादा तेज हुई है जिसका नतीजा यह हुआ है कि शहरों की वस्तुएं और फैशन भी तेजी से गांवों तक पहुंच रही है। आज गांव के सामान्य युवा और युवतियां शहर से इतने प्रभावित हैं कि लेकमे जैसी सौन्दर्य के साधन बनाने वाली कंपनियां गांवों में अपना बाजार तलाश रही है। शहरीकरण के कुछ दुष्प्रभाव भी नजर आने लगे हैं। संयुक्त परिवार की व्यवस्था का पतन हुआ है। इसके कारण सामाजिक सुरक्षा का आधार टूटा है। इसका सबसे गहरा प्रभाव वृद्धावस्था के लोगों पर पड़ा है। एकाकी परिवार के कारण उन्हें सामाजिक असुरक्षा और अकेलेपन का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि गांव में कत्ल या डकैती की वारदातें नहीं होती है। लेकिन शहर में अपराधीकरण की प्रक्रिया व्यापक होने के कारण प्रौढ़ अवस्था के लोगों को खास तौर से निशाना बनना पड़ता हैं शहरीकरण की प्रक्रिया प्रबल होने के कारण सामाजिक रिश्तों में घोर परिवर्तन आया है। पारंपरिक सामाज में व्यक्ति को सामाजिक रिश्तों से सहारा ही नहीं बल्कि प्रतिकूल परिस्थितयों का सामना करने में मदद भी मिलती थी। शहरीकरण के कारण रिश्तों में परिवर्तन के कारण आज व्यक्ति सामाजिक सहारा घर में नहीं ढूंढ पाता है। ऐसे में व्यक्ति दोस्तों का सहारा तलाश करता है या फिर संस्थानों के पास जाता है। जिसका कि सामाज में अभाव है। कुल मिला के नतीजा यह हुआ है की शहर आकर्षण का केन्द्र तो बना है लेकिन अकेलेपन के स्रोत के रूप में भी सामने आया है। शहरीकरण के संस्कृति पर प्रभाव को समझने के लिए दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पारंपरिक रूप से लोग गांव से छोटे शहरों या कस्बों में पलायन करते थे और बाद में बड़े शहरों की आ॓र रूख किया जाता था। लेकिन उदारीकरण के कारण जिस तरह से जीवन साधन कमजोर हुए हैं, लोगों को सीधे बड़े शहरों की आ॓र पलायन करना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज बड़े शहरों में जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा पहचानहीन हो गया है। इसी कारण यदि एक तरफ शहरी जिन्दगी में अराजकता बढ़ी है तो दूसरी आ॓र धार्मिकता प्रबल हुई है। अपनी पहचानहीनता और अकेलेपन पर काबू पाने के लिए आदमी धार्मिक संस्थाओं से अपने को जोड़ लेता है।
दूसरी आ॓र शहर की संस्कृति का गांव और छोटे–छोटे कस्बों में पहुंचने के कारण गांव और कस्बे के लोग भी उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। जहां पहले शहरियों का दबदबा था। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण क्रिकेट की दुनिया में मिलता है। पहले मुम्बई, दिल्ली या दूसरे शहरों से ही क्रिकेट की दुनिया में लोग आते थे। यह परिस्थिति बदल गयी है। इसमें कितनी भूमिका राजनीति की है और कितनी शहरीकरण की, कहना संभव नहीं है। लेकिन यह इस बात का प्रतीक जरूर है कि शहरों की संस्कृति सार्वजनिक हो रही है। लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया को इससे मदद ही मिलेगी।
प्रस्तुति :कुमार विजय
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जारी है शहर का संघर्ष

अभय कुमार दुबे
आज़ादी के बाद से ही भारतीय समाज को अपने जिस शहर की तलाश थी, उसका एक अंश अब उसे मिल गया है। समाज के केंद्र पर नजर डालने से यह बात और अधिक साफ हो सकती है। इससे पहले ही नहीं बल्कि हमेशा से भारत गांवों का देश था और शहर के साथ उसका संवाद ज्यादा से ज्यादा दोयम दर्जे पर चला करता था। अपेक्षाकृत स्वायत्त और एक-दूसरे से कटी हुई जातिगत इकाइयों में बंटे ग्रामीण समाज का भारतीय शहरों से केवल कामकाजी रिश्ता ही हो सकता था। इसी सामाजिक हकीकत के कारण हमारी आधुनिकता के गांधी और अन्य वाहकों ने नए गांव की स्थापना और विकास को राष्ट्र-निर्माण की परियोजना का मुख्य कार्यभार निर्धारित किया। जाहिर है कि नया गांव बनाने के लिए जाति और धर्म की संस्थागत अभिव्यक्तियों का आधुनिकीकरण बहुत जरूरी था। यह भी आवश्यक था कि जाति-धर्म के साथ-साथ संयुक्त परिवार भी छोटे और एकक परिवारों में टूट जाए। आज उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की पीढ़ी के राष्ट्र-निर्माता अगर होते तो उन्हें दिखाई देता कि वे जैसा चाहते थे वैसा होने का सिलसिला शुरू हो चुका है, लेकिन समाज का यह परिवर्तन गांव नहीं बल्कि शहर की जमीन पर घटित हो रहा है। बजाय इसके कि गांव हमारे शहरों की औपनिवेशिक आधुनिकता को बदलते, आजादी के बाद परवान चढ़ी हमारी अपनी औघोगिक आधुनिकता ने धीरे-धीरे ही सही पर निश्चित रूप से राष्ट्रीय और सामाजिक कल्पनाशीलता के केंद्र से गांव को प्रतिस्थापित करके उसकी जगह शहर को बिठा दिया। बजाय इसके कि गांव शहर का स्वप्न बनता, शहर ने गांव के सपने की जगह ले ली। नया गांव उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन इस प्रक्रिया में नया शहर उपलब्ध होने लगा जिसकी सार्वदेशिकता के आग्रह जाति, धर्म और परिवार को पहले जैसा नहीं रहने दे रहे हैं। जिस तरह गांव कभी शहर को अपने ढंग से छू कर नागरिकता के आधुनिक रूपों को अपने मुकाबले नाकाफी साबित कर देता था, उसी तरह शहर अब न केवल गांव को अपनी आ॓र खींच रहे हैं बल्कि खुद गांव की तरफ हाथ बढ़ाते हुए दिखने लगे हैं।
कहना न होगा कि शहर ने इस मुकाम तक आने के लिए बहुत संघर्ष भी किया है। उसका यह संक्रमण आसान नहीं रहा है। आजादी के बाद के पहले तीन दशकों में तो ऐसा लग रहा था कि भारतीय शहर गांवों को एक अधिक बेरहम और कंक्रीट का संस्करण बन कर रह जाएंगे। चूंकि शहर औघोगिक आधुनिकता की दावेदारियों के केंद्र थे, इसलिए गांव से रोजगार या शिक्षा की तलाश में आए निचली और अछूत जातियों के पुत्नों ने यहां की पक्की सड़कें नापते हुए कोशिश की कि उत्पीड़नकारी जातिगत अनुभव से उनका पीछा छूट जाए। इस प्रयास के पहले दौर के नतीजे बहुत तकलीफदेह निकले। बाबूराव बागुल के आम्बेडकरवादी दलित नायक ने जब बंबई की जमीन पर राष्ट्रीय नागरिकता का दावा करते हुए उसकी आड़ में अपनी जाति छिपाने की कोशिश की तो उसे बेभाव की खानी पड़ी। ऐसा लगा कि मनुपुत्नों ने शहरों में भी अपनी चौकियां गांव जैसी मजबूती से ही स्थापित कर रखी हैं। इसी तरह कम से कम अस्सी के दशक की शुरूआत तक शहरी आबादी और बसावट धार्मिक आधार पर विकसित बस्तियों में ही अपनी सामुदायिकता प्राप्त करती रही। चाहे अहमदाबाद का अपेक्षाकृत देशी स्थापत्य हो, या कलकत्ता का औपनिवेशिक विन्यास हो, हर जगह मुसलमानों के घेटो अपने अंधेरों में अलग रहे, और उनकी निगाहों ने हिंदू बस्तियों और मुहल्लों को राष्ट्रीय विकास के ज्यादा बड़े हिस्सों का उपभोग करते देखा। इन दोनों मुख्तलिफ सामाजिक वजूदों एक लगभग तयशुदा बारंबारता के साथ आपस में टकरा कर सांप्रदायिकता की राजनीति को खूब पानी दिया। परिवार की संस्था ने शहरी प्रभावों से बेअसर रहने के लिए एक अनूठा हथकंडा अपनाया। वह सिर्फ दिखावे के लिए छोटी-छोटी न्यूक्लियर इकाइयों में टूटा, और बड़ी चालाकी से संयुक्त परिवार के सरअंजाम ने एक विस्तारित परिवार की शक्ल ले ली। नातेदारियों की कौटुम्बिक व्यवस्था की जकड़ कायम रही।
यह पूरा दौर शहर पर गांव की विकृतियों के बोलबाले का दौर था। इस अफसोसनाक हालात में बदलाव की शुरूआत तब हुई जब नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण की आहटें सुनाई दीं और वैश्विक पूंजी के दबाव में ग्रामीण समाज की शहरी अभिव्यक्तियों को भारतीय औघोगिक आधुनिकता के नए चरण का साक्षात्कार करने के लिए मजबूर होना पडा़। औघोगिक विकास में आए जबरदस्त उछाल ने शहरों को पहली बार वास्तव में नए अवसरों का केंद्र बनाया और जीवन-स्थितियों के लिहाज से गांव और शहर के बीच बहुत बड़ा फर्क लगने लगा। औघोगिक विकास को अपना भौगोलिक प्रसार करने के लिए गांवों की जमीनों की जरूरत हुई। कांट्रेक्ट फार्मिंग, लीज़ फार्मिंग से लेकर एसईज़ेड तक तरह-तरह के नए रूपों के तहत औघोगिक प्रबंधन ने हाथ बढ़ा कर गांव को छूना प्रारंभ कर दिया। ग्रामीण समाज का खेती की जमीन से पारंपरिक रिश्ता टूटने लगा।
शहर में आए इस परिवर्तन से जाति, धर्म और परिवार की संरचनाएं अछूती नहीं रह सकती थीं। आम्बेडकर के मूक नायक ने महसूस किया कि अब उसके लिए अपनी जाति छिपाना जरूरी नहीं है, क्योंकि जातिसूचकता के कारण उसे उस तरह के नुकसान नहीं हैं जिनका अंदेशा उसे गांव में या गांव से प्रभावित शहर में दिखाई महसूस होता था। यही वह दौर था जब हिंदी फिल्मों में पहली बार दलित जातिसूचक नामों के नायक की उपस्थिति दर्ज हुई। यह नायक बागुल के नायक की तरह नागरिकता की तलाश में शहर नहीं आया था, बल्कि वह नए बनते हुए शहर में नागरिकता का स्वाभाविक धारक था। यही वह समय था जब अहमदाबाद जैसे शहर के मुसलमान घेटो ने मुद्दतों बाद अपनी चारदीवारियों के पार झांकने की कोशिश की। यही वह समय था जब भारतीय परिवार ने पहली बार सच्चे न्यूक्लियर परिवार की आहटें सुनी, क्योंकि विस्तारित परिवार की परंपरा का वाहक बनी हुई स्त्नी भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने के लिए पहले के मुकाबले कहीं बड़ी मात्ना में बाजार की तरफ निकल गई थी। मोबाइल क्रांति, ऑटोमोबाइल क्रांति और मनोरंजन क्रांति के संचारी पहलुओं ने परिवार के बाहर इतने प्राइवेट स्पेस बना दिए कि रिश्तों की बुनियादी संरचनाओं को भी परिवर्तन के दौर से गुजरने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अभी भारत को उसके हिस्से के शहर का एक हिस्सा ही मिला है। अभी शहर का बहुत बड़ा, तकरीबन दो तिहाई हिस्सा उपलब्ध होना बाकी है। आज के शहर में परिवर्तन है तो उसके खिलाफ ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता और बहुसंख्यकवादी राजनीति के विकृत रूपों की हिंसक प्रतिक्रिया भी बार-बार अपना सिर उठती है। सामुदायिकता के परंपरागत रूपों को ऐसे समुदाय से प्रतिस्थापित करने का कार्यभार सम्पूर्ण नहीं हुआ है जो आधुनिक और सेकुलर होने के साथ-साथ जेंडर लोकतंत्न की अभिव्यक्तियों से सम्पन्न होंगे। इस सामुदायिकता की उपलब्धि के लिए शहर का संघर्ष अभी जारी है। वह नए चरण में पहुंचने की तैयारी कर रहा है।
लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम में सम्पादक हैं।
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Wednesday, June 11, 2008

विश्लेषण : साम्प्रदायिक हमलों के नए पहलू

अनिल चमड़िया
सत्ता से न्याय के लिए न्यायाधीश होसबेट सुरेश, न्यायाधीश कोलसे पाटिल, गुजरात में हाल तक पुलिस प्रमुख रहे आर। बी. श्रीकुमार, पत्रकार जॉन दयाल एवं तिस्ता सितलवाड़ 13 से 17 मई तक उड़ीसा के कंधमाल में लोगों की आपबीती सुनते रहे जिन्हें दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कई दिनों तक लगातार मारा-पीटा गया, लूटा गया। उनके घर-द्वार उजाड़े गए। भारतीय लोकतंत्र के सामने एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या देश में अल्पसंख्यकों को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा न्याय नहीं मिल सकेगा और जिनके खिलाफ उन पर हमले के आरोप हैं क्या उन्हें सजा नहीं मिल सकेगी? पिछले साठ वषा में ऐसे हमलों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। पहले चरण में यह देखा गया कि अल्पसंख्यकों के न्याय के लिए लोगों ने सत्ता की न्यायिक व्यवस्था से उम्मीदें बांधे रखीं। प्रशासन पर भरोसा किया। लेकिन जब प्रशासन और न्यायपालिका से उम्मीदें लगातार कम होती चली गई तो अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले की जांच और न्याय के लिए स्वतंत्र समितियां बनने लगी। इधर हाल के दौर में तो लगभग ऐसी हर घटना के बाद स्वतंत्र समितियों की जांच होती है। कारण स्पष्ट है कि ऐसी घटनाओं में प्रशासन की संलिप्तता आम होती जा रही है। न्यायपालिका की भूमिका न्यायिक दायरे से बाहर निकलती प्रतीत होती है।साम्प्रदायिक हमलों के संदर्भ में गुजरात के मुसलमान और उड़ीसा के ईसाइयों में एक जैसी स्थिति है। गुजरात में हिन्दुत्ववादियों ने मुसलमानों के खिलाफ अपनी प्रयोगशाला बनाई तो उडीसा में ईसाइयों के खिलाफ यह प्रयोगशाला बनी हुई है। 22 जनवरी 1999 को ग्राहम स्टुअर्स और उनके बच्चों को जिदा जलाया गया। देश में सर्वाधिक आदिवासी आबादी वाले इस राज्य में ईसाई बने आदिवासियों के साथ जिस नृशंसता से साम्प्रदायिक गुंडे पेश आए हैं वह भी कम दिल दहला देने वाला नहीं है। मंजूक्ता कांदी और ऐसी दर्जनों महिलाएं मिल जाएंगी जिनके जबरन बाल काटे गए और उन्हें ईसाई के बदले हिन्दू धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया गया। यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। 24 दिसंबर 2007 से लगातार कई दिनों तक कंधमाल में ईसाइयों पर न तो हमलों को रोका गया और न ही अब तक पीडितों को न्याय मिल सका है। यह एक स्थिति बनी हुई है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले की तैयारी की जानकारी सरकार को दी जाती है लेकिन हमले रूक नहीं पाते हैं। हमले इस तरह से होते हैं जैसे लगता है कि उसे सरकारी मशीनरी का समर्थन हासिल है। इसीलिए हमले जल्दी खत्म नहीं होते हैं। कंधमाल में यही हुआ था। आर्श्चजनक है कि इतने महीनों के बाद भी पीडितों के पास उनके लिए जरूरी सामान अब तक नहीं पहुंच पाया है। न्यायाधीश कोलसे पाटिल ने ट्रिब्यूनल की तरफ से बताया कि गिरजा घर, हॉस्टल और अस्पताल जैसे बर्बाद किए गए थे, वे अब भी वैसे ही हैं। सैकड़ों के पास मकान नहीं है। वे कैंपों में रह रहे हैं या फिर अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले रखी है। उनका मानना है कि यदि पन्द्रह दिनों के अंदर यहां कोई सहायता नहीं पहुंची तो मानसून के दौरान कुछ भी पहुंचाना संभव नहीं होगा। कंधमाल में प्रशासन खुद यह मान रहा है कि बाराखामा में ही केवल दो सौ मकान बनाए जाने की जरूरत है। और सबसे पहले उसने छतों के लिए एस्बेस्ट्स की खरीदकारी की प्रक्रिया शुरू की है।प्रशासन और सरकार द्वारा हमलों के बाद पीडितों के पक्ष में मदद का फैसला तो राजनीतिक होता है। लेकिन न्यायालय ने पीडितों को मदद पहुंचाने से ईसाई संगठनों को क्यों रोका? पहले 11 जनवरी 2008 को कंधमाल के कलक्टर ने ईसाई संगठनों को पीडितों की मदद करने से रोका। कलक्टर के इस आदेश के खिलाफ जब कटक स्थित उच्च न्यायालय में गुहार लगायी गई तो वहां से भी कहा गया कि कलक्टर ने ठीक किया है। बाद में यह मामला दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस पर घटना के लगभग तीन महीने के बाद सुनवाई हो सकी और कलक्टर के आदेश को उचित नहीं माना गया। ईसाइयों के संगठनों को ईसाइयों के बीच ही मदद से नहीं रोका गया बल्कि जब उड़ीसा में चक्रवात आया था तब भी ईसाई संगठनों को मदद करने से रोका गया। कहा गया कि वे सहायता की आड़ में धर्म परिवर्तन कराते हैं। लेकिन ये बात हिन्दुत्ववादी संगठनों पर लागू नहीं होती है। एक पहलू न्यायाधीश कोलसे बताते हैं। उडीसा में ये जो समस्या है वह केवल धर्म से नहीं जुड़ी है। यह र्आिथक क्रियाकलापों से ज्यादा जुड़ी है। जो समुदाय संसाधनों और सम्पदा के मामले में अमीर हंै उसका तरह-तरह से दोहन किया जाता है। हर छह महीने और साल भर में दंगे या हमले की वजह यहां आदिवासियों के पास अपार प्राकृतिक संपदा का होना है। दूसरे पहलू को तिस्ता बताती हैं। इस ट्रिब्यूनल के सामने कई महिलाएं पेश हुई। उनके अनुसार उडीसा में 1970 से पहले वे पूरी तरह से आजाद थी। अपनी परंपराएं थी। अपनी संस्कृति थी और उसमें भरपूर आजादी का अहसास था। लेकिन र्धािमक, राजनीतिक और उघोग धंधों में लगी ताकतों ने उनकी खुशियों को धीरे-धीरे खत्म कर दिया। तीसरा पहलू यह है कि इस इलाके में मिलजुल कर रहने और शांति बनाए रखने की क्षमता है। 1994 में विभिा आदिवासी जातियों की महिलाओं के नेतृत्व में ये देखा भी गया। लेकिन सरकार और उसकी मशीनरी अब इसमें जरा भी ध्यान देने को तैयार नहीं। हिन्दुत्ववादियों की संस्कृति को बढ़ने का पूरा मौका दिया जाता है। अब सवाल है कि हमलों के खिलाफ न्याय पाने के लिए अल्पसंख्यक क्या करें? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्थाओं को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। उड़ीसा में हुए हमले की रिपोर्ट तैयार की गई लेकिन राज्य और केन्द्र में बंटी सरकारों ने कुछ नहीं किया। अपने समाज में कई स्तरों पर अंर्तिवरोधी और विरोधाभासी स्थिति देखी जाती है। जैसे धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने वाले हिन्दुत्व की दो छाया तैयार कर लेते हैं। एक को कर बता देते हंै और दूसरे को नरम। लेकिन जब सवर्णवाद पर बात होती है तो उसमें नरम और कर दो छाया नहीं दिखती हंै। इसी तरह वामपंथियों और समाजवादियों से पूछें कि उनकी सक्रियता वाले राज्यों में जातिवाद की क्या भूमिका है तो वे अपने राज्यों को बिल्कुल भिा बताते हैं। प. बंगाल के बारे में वामपंथी कहते हंै तो उड़ीसा के बारे में रवि राय जैसे समाजवादी भी यही कहते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि वहां जातिवाद पर जब चोट की जाती है तो साम्प्रदायिकता का घाव निकल आता है।
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Tuesday, June 10, 2008

पश्चिमी देशों ने बोये विनाश के बीज

अवधेश कुमार
पर्यावरण अब गोष्ठियों , सेमिनारों से बाहर निकलकर अगर व्यावहारिक चिंता का विषय बना है तो यह स्वाभाविक है। वास्तव में अब दुनिया के सामने पूरी पृथ्वी के साथ इससे जुड़े वायुमंडल को बचाने की चुनौती खड़ी है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य यह है कि खतरे को समझने एवं उसके समाधान की ईमानदार चिंता के बावजूद मूल कारणों को समझने की कोशिश ही नहीं हो रही है। जब मूल कारणों की ही अनदेखी होगी तो फिर वास्तविक समाधान हो ही नहीं सकता। धरती के बढ़ते बुखार को दूर करने के लिए जितने आयोजन हुए हैं उनमें धीरे–धीरे शिरकत करने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है और वातावरण में परिलक्षित हो रहे भयानक परिवर्तनों के लक्षण के प्रति सामूहिक भय एवं इससे बचने की सर्वसम्मत इच्छा भी अभिव्यक्त हुई है। कुछ समय पहले तक यह स्थिति नहीं थी। पिछले वर्ष दिसंबर में इंडोनेशिया की राजधानी बाली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के पूर्व अनेक प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की गईं थीं। किंतु 190 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा करीब दो सप्ताह तक तपती धरती पर विचार करके सर्वसम्मत निष्कर्ष तक पहुंचना ही दुनिया के लिए महत्वपूर्ण परिघटना है। सबसे बड़ी बात अमेरिका का बाली कार्ययोजना पर राजी होना था। जो अमेरिका पहले नाक पर मक्खी नहीं बैठने दे रहा था वह 190 देशों की कतार में खड़ा हो गया यह साधारण परिवर्तन नहीं है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पर्यावरण के उग्र स्वरूप के विनाशकारी प्रभावों को सभी ने समझा है एवं इसे दूर करने या कम करने के प्रति आम सहमति जैसी बन चुकी है।लेकिन क्या इससे दुनिया के मंडराते भयावह पर्यावरण संकट के खतरे से मुक्त होने की संभावना भी बन रही है? धरती के बढ़ते बुखार के लिए कार्बन सहित अन्य हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को मुख्य खलनायक माना गया है। अभी तक न इसके स्तर को निश्चित सीमा तक कम करने के प्रति सहमति बनी है और न इसके लिए समय सीमा ही निर्धारित हुई है। 2009 के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की आ॓र सबकी नजर लगी हुई है। किंतु वहां से किसी प्रकार की चमत्कार की उम्मीद बेमानी है। इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक विश्लेषणों में भविष्य की जैसी भयानक तस्वीर प्रस्तुत की गई है उसके बाद किसी भी देश द्वारा वातावरण में आ रहे खतरनाक परिवर्तनों को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं है, पर मूल बात इससे अलग है। आखिर ये विषैले गैस उत्सर्जित क्यों हो रहे हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इनके लिए जिम्मेवार वही बातें हैं जिन्हें हम विकास का मानक बना चुके हैं। विकास के इन मानकों को दोषी मानने को कोई तैयार नहीं है। जब विकास के लिए चारों आ॓र उद्योग लगेंगे तो उनसे धुंआ, अवशिष्ट ,कचरा आदि तो बाहर आएगा ही। जब नदियों पर बड़े–बड़े बांध बनेंगे, जब चमचमाती चौड़ी पक्की सड़कों के जाल बिछेंगे, जब हवाई अड्डों का संजाल खड़ा होगा, जब रेलवे का विस्तार होता रहेगा, जब अत्यधिक फसल के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग होगा तब तक कोई पर्यावरण को समस्त जीव मंडल के बिल्कुल अनुकूल बनाने की सोच भी नहीं सकता। भारत एवं चीन में बढ़ता ऊर्जा खपत एवं कार्बन उत्सर्जन दुनिया भर के लिए मुद्दा बना हुआ है लेकिन इन दोनों का तर्क है कि पश्चिमी देशों ने लंबे समय से आर्थिक विकास के नाम पर उत्सर्जन किया है, इसलिए वे ज्यादा कटौती करें एवं उन्हें समय दिया जाए। भारत एवं चीन की जगह दूसरा विकासशील देश होता तो उसका तर्क भी यही होता एवं दुनिया के लिए उसे बिल्कुल अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं हो सकता है। आखिर विकास का हक सबको है। आपने विकास कर लिया और दूसरे को नसीहत दीजिए कि पर्यावरण के लिए आप विकास की गति पर विराम लगा दो तो कैान इसे स्वीकार करेगा! बाली कार्ययोजना में कहा गया है कि आर्थिक एवं सामाजिक विकास तथा गरीबी में कमी विश्व की प्राथमिकतायें हैं। लेकिन वहां गठित कार्यसमूह इसके लिए विकास का कोई नया ढांचा लाएंगे जिसमें वातवारण बिल्कुल प्रकृति के हवाले रहेगा एवं मनुष्य के द्वारा उसके साथ छेड़छाड़ नहीं होगी ऐसी आशा नहीं की जा सकती है। 1992 के वायुमंडल परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ढ़ांचे (युनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज) में ग्रीनहाउस गैसों को स्थिरांक पर लाने का निर्णय हुआ था।कहा गया था कि इससे वायुमंडल प्रणाली में मनुष्य के अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप का अंत होगा। आज तक यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका। दुनिया के लिए विकास एवं संपन्नता का मानक निर्धारित करने वाले पश्चिमी देश यह स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वर्तमान आर्थिक विकास एवं वातावरण को प्रकृति निर्धारित अवस्था में लाने का लक्ष्य एक साथ पाया ही नहीं जा सकता है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि विकास एवं सुविधाओं की वर्तमान तकनीकों की जगह नई तकनीकों एवं सामग्रियां लाने से यह हो सकता है। यह नितांत ही अनैतिक एवं अव्यावहारिक दलील है। पृथ्वी एवं इससे जुड़े पूरे वायुमंडल को बचाने के लिए प्रमुख चुनौती तेल, प्राकृतिक गैस एवं कोयले से निकलने वाले कार्बन डाईऑक्साइड का अंत करना है। वर्तमान विकास प्रणाली इन ईंधनों पर ही टिकी है। आज विश्व की कुल वाणिज्यिक ऊर्जा खपत में इनका अंशदान 80 प्रतिशत है। इनकी बजाए वैकल्पिक ऊर्जा प्रयोग करने की बात हम सालों से सुन रहे हैं। बिजली पैदा करने या बिजली प्रतिष्ठानों में ताप पैदा करने में, मोटरगाड़ी एवं उघोगों में इस ऊर्जा का 75 प्रतिशत खपत हो जाता है। दूसरी तकनीकों का प्रयोग करके या कम ईंधन पर चलने वाली मोटरगाड़ियों का निर्माण करके हम कार्बन उत्सर्जन में थोड़ी बहुत कमी ला सकते हेंैं सम्पूर्ण पर्यावरण को बचा नहीं सकते।वास्तव में संकट की जड़ तो पश्चिमी देशों द्वारा निर्धारित विकास मानकों एवं उन पर आधारित जीवन प्रणाली मे निहित है। मनुष्य के संदर्भ में पश्चिम की पूरी विचारधारा उसके शरीर सुख के इर्द–गिर्द ही घूमती है। इसी से औघोगिक क्रांति की उत्पत्ति हुई और उसके बाद पूंजीवाद एवं बाजार पैदा हुआ। इसने जीवन शैली के रूप में अत्यधिक भोग साधन एकत्रित करने और उसका प्रयोग करने का सूत्र दिया। पूरी विकास प्रक्रिया इसी दुष्चक्र का शिकार है। अगर पृथ्वी एवं पूरे पर्यावरण को बचाना है तो फिर इस जीवन शैली को अस्वीकार करना होगा। उसकी जगह मनुष्य के तौर पर जो लक्ष्य भारतीय सभ्यता ने लंबी चिंतन प्रक्रिया के बाद निर्धारित किए उनको पुनर्स्थापित करना होगा। दुर्भाग्य यह है कि जीवन को शरीर तक सीमित न मानने वाली भारतीय सभ्यता के मानक इसकी चकाचौंध में हाशिए पर चले गए हैं। भारतीय सभ्यता ने शरीर को नश्वर मानकर केवल उसके सुख को त्याज्य करार दिया है। इसमें मनुष्य के लिए ऐसी जीवन प्रणाली अपनाने की स्थापित परंपरा थी जिसमें उसका प्रकृति के साथ पूर्ण साहचर्य कायम रहे। प्रकृति के तांडव से लटकते विनाश खतरे के अंत का सूत्र तो इस जीवन प्रणाली में निहित है किंतु जब भारत के नीति निर्माता ही अपनी महान सभ्यता से आत्मग्लानिबोध से ग्रस्त इन विनाशकारी पश्चिमी मानकों को स्वीकार कर पूरा विकास ढ़ांचा उसी दिशा में सशक्त करने की कोशिश कर रहे हैं तो फिर इसकी आ॓र किसी का ध्यान जाएगा तो कैसे?


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खाद्य असुरक्षा का आयात

देविंदर शर्मा

बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए भारत सरकार ने खाद्य तेलों और चावल के आयात शुल्क में भारी कटौती कर दी है. चावल पर आयात शुल्क पूरी तरह खत्म कर दिया गया है, जबकि क्रूड पाम आयल का आयात शुल्क 45 फीसदी से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है. क्रूड पाम आयल में क्रूड पामोलीन भी शामिल है.

पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा कि हम कृषि के क्षेत्र में बड़ी रियायतें देना चाहते हैं, किंतु दूसरे राष्ट्रों को भी अपने बाजार खोलने होंगे. दरअसल बुश का यह बयान इस परिप्रेक्ष्य में सामने आया कि अमेरिका और यूरोप पर कृषि अनुदान में बड़ी कटौती का दबाव पड़ रहा था. इसके बदले में वे चाहते हैं कि भारत और ब्राजील जैसे देश अपने बाजार खोलें. इस दिशा में भारत ने पहला कदम बढ़ा दिया है. भारत सरकार ने शुल्कों में कमी कर दी है और ऐसा करके राष्ट्रपति बुश को सकारात्मक संकेत दे दिया गया है. अपना वचन पूरा करने की बारी अब बुश की है.
आप अब भी सोच रहे होंगे कि विश्व व्यापार संघ की दोहा वार्ता सात वर्ष बीत जाने के बाद भी जहां कीतहां क्यों खड़ी है? इस संबंध में हाल-फिलहाल किसी प्रगति की उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि दोहा वार्ता इसलिए जहां की तहां पड़ी है, क्योंकि हम समझौता वार्ता का पालन सावधानी के साथ नहीं कर रहे हैं. मध्य मार्च में ब्राजील के मुख्य वार्ताकार राबर्ट एजेवेडो ने कहा कि दोहा वार्ता समझौते के जितने करीब है वैसी स्थिति पहले कभी नहीं रही.

भारत ने आयात शुल्क में जो कटौती की है वह काफी ज्यादा है. क्रूड पाम तेल के अलावा सरकार ने रिफाइंड पाम तेल की आयात दरों में भी कटौती कर दी है. यह 52.5 प्रतिशत से घटकर 27.5 पर आ गई है. सरसों के कच्चे तेल पर आयात शुल्क 75 फीसदी के बजाय 20 फीसदी और सरसों के रिफाइंड तेल पर 75 के स्थान पर 27.5 फीसदी कर दिया है. दूसरे शब्दों में कहें तो खाद्य तेलों पर सीमाबद्ध आयात शुल्क 300 प्रतिशत से घटकर प्रभावी रूप में 20 प्रतिशत हो गया है. अब विश्व व्यापार संगठन आयात शुल्क बढ़ाने के भारत के अधिकार को छीन लेगा, जिसका मतलब यह हुआ कि भविष्य में भारत को आयात शुल्क की दरों को 20 फीसदी तक ही रखना होगा.

विश्व व्यापार संगठन से जारी वार्ता के अनुसार बाधित शुल्क और लागू शुल्क के बीच का अंतर घटाने के प्रयास चल रहे हैं. यद्यपि भारत के पास खाद्य तेलों पर आयात शुल्क 300 प्रतिशत तक करने का अधिकार है, किंतु विश्व व्यापार संगठन इन्हें फिर से वर्तमान दरों पर स्थिर करना चाहता है. इसका मतलब यह कि आयात शुल्क की दरों को 20 फीसदी के स्तर से ऊपर नहीं उठाया जा सकता.
चावल पर आयात शुल्क समाप्त करने और खाद्य तेलों पर शुल्क में कमी लाने का फैसला ऐसे समय आया है जब गेहूं और दालों के आयात पर पहले ही शुल्क समाप्त किया गया है. इन चार प्रमुख जींसों, जिनमें तीन सबसे महत्वपूर्ण जींस शामिल हैं, को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के सागर में डूबने के लिए छोड़ दिया गया है. किसी भी सूरत में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में चावल और गेहूं के दाम आसमान छू रहे हों तो आयात शुल्क को शून्य करने का कोई तुक नहीं है.

यह हैरत की बात है कि चावल, गेहूं और दालों से आयात शुल्क समाप्त करने और खाद्य तेलों पर इसमें भारी छूट देने का फैसला उस समय आया है जब 8 हजार करोड़ रुपये की लागत से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान शुरू किया गया है. इसका उद्देश्य इन चार जींसों की उत्पादकता बढ़ाना है. 11वीं योजना के अंत तक चावल का उत्पादन एक करोड़ टन, गेहूं का 80 लाख टन और दालों का 20 लाख टन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि जब आयात के लिए दरवाजे खोल दिए गए हों तो अगले पांच साल में इतनी उत्पादकता बढ़ाना कैसे संभव है? आयात बढ़ाने का निर्णय निश्चित तौर पर उत्पादकता विरोधी कदम है.

यह विचित्र है कि चावल, गेहूं, दालों और खाद्य तेलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए समयबद्ध खाद्य सुरक्षा मिशन और सस्ते आयात के लिए आयात शुल्क में कटौती साथ-साथ कैसे चल सकते हैं? जहां तक खाद्य तेलों का संबंध है 1993-94 में इनके उत्पादन में भारत करीब-करीब आत्मनिर्भर था. इसके बाद जैसे-जैसे सरकार ने आयात शुल्क में कटौती करनी शुरू की, खाद्य तेलों का आयात कई गुना बढ़ गया और देखते ही देखते भारत खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक बन गया. सस्ते आयात के कारण भारत तिलहन की फसल बढ़ा पाने में नाकामयाब रहा. जो छोटे किसान बरसाती पानी से सिंचित जमीन पर तिलहन की फसल बो रहे थे, सस्ते आयात के कारण उन्होंने यह फसल बोनी बंद कर दी. सस्ते आयात से जीवीकोपार्जन का खतरा उत्पन्न हो जाता है. खाद्य तेलों का उदाहरण सामने है. 1997-98 में दस लाख टन खाद्य तेलों के आयात की तुलना में अब इनका आयात 59.8 लाख टन पर पहुंच गया है. इस प्रकार भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन गया है.

अगर हम इस रुझान को उलटना चाहते हैं तो सस्ते आयात को बंद करने और फिर तिलहन के किसानों के लिए उचित वातावरण तैयार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं है. देश के नीति-नियंता यदि इसे समझने से इनकार करेगे तो तिलहन का उत्पादन इसी प्रकार घटता रहेगा. आगामी वर्षो में खाद्य तेलों पर बचा हुआ आयात शुल्क भी समाप्त कर दिया जाएगा. आसियान देशों को भारत पहले ही वचन दे चुका है कि मुक्त व्यापार समझौते के तहत वह खाद्य तेलों पर आयात शुल्क समाप्त कर देगा. खाद्य सुरक्षा के लिए अति आवश्यक समझे जाने वाले गेहूं, चावल और दालों के लिए भारत पहले ही आयात शुल्क शून्य कर चुका है. इसका मतलब है कि मुक्त व्यापार के लिए चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण फसलों का बलिदान कर दिया गया है. आखिर हम किस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं? इन स्थितियों में क्या हम खाद्य सुरक्षा का सपना देख सकते हैं? सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि सस्ता आयात खाद्य सुरक्षा पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव डालता है. ऐसे समय जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की स्थापना की गई है, आयात शुल्क समाप्त करने से उत्पादन बढ़ने के बजाय घट जाएगा. इस नीति के पीछे कोई समझदारी दिखाई नहीं देती. अगर हम घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ाते तो बढ़ती मुद्रास्फीति के लिए खाद्य पदार्र्थो की आपूर्ति में बाधा खड़ी होने की बात करना बेइमानी है.

तात्पर्य यह है कि हम महंगाई के लिए यह दलील नहीं दे सकते कि मांग के अनुरूप खाद्य पदार्थों का उत्पादन नहीं हो पा रहा. भारत अगर खाद्य पदार्र्थो में आत्मनिर्भरता हासिल करना चाहता है तो उसे इन चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्र्थो पर फिर से पुरानी दर से आयात शुल्क लगाना होगा. यदि ऐसा नहीं किया जाता तो फिर यह कहने में कोई बुराई नहीं कि सरकार खाद्य असुरक्षा का आयात करने की इच्छुक है.
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धर्म परिवर्तनः एक राजनैतिक हथियार


राम पुनियानी

इन दिनों ईसाई मिश्नरियों द्वारा कराए जा रहे तथाकथित धर्मपरिवर्तनों की चर्चा देशभर के मीडिया में हो रही है. ऐसा कहा जा रहा है कि आदिवासियों द्वारा एक ''विदेशी धर्म'' को अपनाए जाने से हिंदू राष्ट्र को खतरा है. इस आधारहीन आशंका की सामाजिक स्वीकार्यता में भारी वृध्दि हुई है. महाराष्ट्र के अलीबाग में मार्च महीने में ननों पर हमला और गत 27 अप्रैल को मुबई में बडे पैमाने पर हुआ शुध्दि यज्ञ भी धर्मपरिवर्तन की राजनीति का हिस्सा है. शुध्दि यज्ञ में बड़ी संख्या में ईसाई आदिवासियों को हिंदू बनाया गया.

ननो पर हमले और शुध्दि यज्ञ के पीछे एक ही व्यक्ति था. ननों पर हमले के लिए रामानंदाचार्य पीठ के सद्गुरू नरेन्द्र महाराज के शिष्य जिम्मेदार थे और शुध्दि यज्ञ का नेतृत्व स्वयं नरेन्द्र महाराज ने किया. इस अवसर पर बोलते हुए नरेन्द्र महाराज ने कहा कि ईसाई मिश्नरियों की गतिविधियों के कारण हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनने की ओर बढ़ रहे हैं. उन्होंने केन्द्र सरकार की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की कि उसने धर्मपरिवर्तन पर रोक लगाने वाला कानून अब तक नहीं बनाया है और महाराष्ट्र सरकार के अंधविश्वास- विरोधी कानून की निंदा की. उनके अनुसार ये दोनों ही कदम हिंदू विरोधी हैं.
नरेन्द्र महाराज का यह दावा कि हिंदू इस देश में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं, हास्यास्पद और तथ्यहीन है. सच यह है कि भारत की कुल जनसंख्या में हिंदुओं का प्रतिशत लगभग स्थिर बना हुआ है. कई राज्यों में जो धर्मपरिवर्तन-विरोधी विधेयक पास किए गए हैं, वे हमारे संविधान की अनेक धाराओं के खिलाफ हैं. हमारा संविधान तार्किक सोच को प्रोत्साहन देने की बात करता है और इस सिलसिले में महाराष्ट्र सरकार द्वारा पारित अंधविश्वास-विरोधी विधेयक एक प्रशंसनीय कदम है.

इस विधेयक का विरोध करने वाले शायद यह चाहते हैं कि समाज में अंधविश्वास बने रहें और उनका सामाजिक और राजनैतिक वर्चस्व कायम रहे. गुरूजी ने यह बात स्पष्ट शब्दों में कही. इन्हीं गुरूजी के समर्थक हिंसा करने से नहीं चूकते. अलीबाग में ननों पर हमला उस दौरान किया गया जब एड्स पर एक लेक्चर सुनने के लिए लोग इकट्ठा थे.
आदिवासी इलाकों में ईसाईयों पर हमले की घटनाओं में वृध्दि का कारण समझना मुश्किल नहीं है. पिछले साल क्रिसमस के आसपास उड़ीसा के कंधारमल और फूलबनी जिलों में व्यापक हिंसा हुई थी. गुजरात के डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ और उड़ीसा के अनेक जिलों सहित आदिवासी इलाकों में हिंसा का एक अंतहीन सिलसिला चल रहा है. ये वे इलाके हैं जहां आदिवासियों के ''हिंदूकरण'' का अभियान भी चलाया जा रहे हैं. यहां यह स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा कि आदिवासी मूलत: प्रकृति-पूजक हैं. वे न तो ईसाई हैं और न ही हिंदू.

कुछ आदिवासी समय-समय पर ईसाई धर्म को अपनाते रहे हैं परंतु यह कोई नई बात नहीं है. आदिवासियों का ईसाई धर्म से परिचय सदियो पुराना है. पिछले कुछ दशकों में भारत की ईसाई आबादी में हल्की गिरावट दर्ज की गई है. सन् 1971 में ईसाईयों का आबादी में प्रतिशत 2.60 था जो 1981 में घटकर 2.44 प्रतिशत और 1991 में 2.34 प्रतिशत रह गया. सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में ईसाई, आबादी का 2.30 प्रतिशत हैं. यह भी सच है कि कुछ ईशाई मिश्नरियां धर्मपरिवर्तन कराने में विश्वास करती हैं और उन्होंने आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन कराया भी है.
आदिवासी इलाकों में आर.एस.एस. की घुसपैठ लगभग दो दशक पहले शुरू हुई जब वनवासी कल्याण आश्रम ने इन इलाकों में अपनी गतिविधियां चलाना शुरू कीं. इन इलाकों में ईसाईयों और ईसाई धर्म के खिलाफ जहरीला प्रचार किया गया जिससे हिंसा भड़की. चूंकि ये घटनाएं दूरदराज के इलाकों में होती हैं इसलिए अपराधी अक्सर बच निकलते हैं. सांप्रदायिक हो चुका शासकीय तंत्र भी इस मामलें में कुछ खास नहीं करता. आदिवासी इलाके में आर.एस.एस. से सीधे या अपरोक्ष रूप से जुडे धर्मगुरू अपने आश्रम स्थापित कर रहे है और अपनी गतिविधियां बढ़ा रहे हैं. डांग क्षेत्र में असीमानंद, उडीसा में लखानंद, झाबुआ में आसाराम बापू और महाराष्ट्र में नरेन्द्र महाराज इनमें प्रमुख हैं.
ईसाई मिशनरियों को आतंकित करने के अलावा आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से हिंदू बनाने की कोशिशें भी जारी हैं. इसके लिए हिंदू संगम और शबरी कुंभ आयोजित किए जाते हैं. दिलीप सिंह जूदेव मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में लंबे समय से आदिवासियों को हिंदू बनाने के अभियान में लगे हुए हैं. इस अभियान को घरवापसी और शुध्दिकरण कहा जाता है. स्पष्ट है कि आदिवासियों को हिंदू मानकर चला जा रहा है. यह इस तथ्य के बावजूद की आदिवासी प्रकृति-पूजक हैं और हिंदू धर्म, इस्लाम या ईसाई धर्म से उनका कोई वास्ता नहीं है.
आदिवासी इस देश के सबसे वंचित समूहों में से एक हैं और उनका लंबे समय से राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए शोषण किया जाता रहा है. सन् 1920 के दशक की शुरूआत में ''तन्जीम'' (मुस्लिम सांप्रदायिक) अभियान के प्रतिउत्तर में ''शुध्दि'' (हिंदू सांप्रदायिक) अभियान चलाया गया था. अब शुध्दि अभियान एक बार फिर लौट आया है. इस अभियान को घरवापसी का नाम देने के पीछे की मंशा स्पष्ट है. जहां ईसाई मिश्नरियों को धर्मपरिवर्तन के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, वहीं संघ परिवार की संस्थाओं द्वारा कराए जा रहे धर्मपरिवर्तन को घरवापसी का नाम दे दिया गया है. प्रचार यह किया जाता है कि आदिवासी वे हिन्दू हैं जो मुस्लिम राजाओं द्वारा जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने के डर से जंगलों में भाग गए थे. कई सदियों तक जंगलों में रहने के कारण उनका हिंदू सामाजिक मुख्यधारा से संपर्क कट गया.

इस मिथक को फैलाए जाने के दो फायदे हैं. पहला तो यह कि इससे इस गलतफहमी को बढ़ावा मिलता है कि इस्लाम को तलवार की नोंक पर फैलाया गया था. दूसरे, इससे आदिवासियों का यह दावा गलत सिध्द होता है कि वे इस देश के मूल निवासी हैं. इस प्रकार भारत के हिंदू राष्ट्र होने की परिकल्पना को मजबूती मिलती है क्योंकि उसके मूल रहवासी भी हिंदू हैं.
सांप्रदायिक ताकतें यह अच्छी तरह से जानती हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए चुनावों में सफलता जरूरी है. इसके लिए आदिवासियों का हिंदूकरण करना फायदेमंद है. आदिवासी देश की आबादी का लगभग 8 प्रतिशत हैं और अगर दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों को उनका समर्थन मिल जाता है तो इन दलों के जनाधार में भारी वृध्दि होगी. दूसरा फायदा यह है कि आदिवासियों का हिंदूकरण करने के बाद उनका उपयोग हिंदू राष्ट्र के अन्य शत्रुओं, जैसे मुसलमानों के खिलाफ भी किया जा सकता है. गुजरात में हमने देखा था कि किस तरह आदिवासियों का उपयोग हिंदू राष्ट्र के सैनिकों की तरह किया गया था.
चाहे वह रामकृष्ण मिशन हो या ईसाई मिशनरियां- शांतिपूर्वक आदिवासी क्षेत्रों में इनके काम करने से किसी को कोई परेशानी नहीं है. परंतु धर्म के नाम पर अंधविश्वास और दूसरे धर्मो के प्रति घृणा फैलाना निश्चित रूप से राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा है.

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