Friday, October 31, 2008

हमारा मंत्र लोकतंत्र

अभय कुमार दुबे

अगर लोकतांत्निक राजनीति का उद्देश्य जनता को अधिकारसंपन्न करना और अधिकार-चेतना से लैस करना है तो भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया ने वास्तव में कुछ ऐसी उपलब्धियां हासिल की हैं, जिन्हें इतिहास सकारात्मक लहजे में याद किए बिना रह नहीं सकता। इस मामले में हमारी राजनीति को सौ में से साठ-पैंसठ नंबर तो दिए ही जा सकते हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि 15 अगस्त, 1947 को जिस तरह का भारतीय समाज हमारे नवोदित आधुनिक राज्य को मिला था, उसके बारे में लगभग सभी विद्वानों और प्रेक्षकों की राय थी कि उसकी जमीन पर किसी एकताबद्ध राष्ट्र की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के लिहाज से माना जाता था कि द्वितीय विश्व यद्ध के बाद स्वतंत्न हुए एशिया और अफ्रीका के अन्य राष्ट्र भारत के मुकाबले ज्यादा सफल हो सकते हैं। एक तो वे राष्ट्र आकार में छोटे थे, दूसरे उनका सामाजिक ढांचा काफी-कुछ समरूप था। इसके उलट भारत अपने महाद्वीपीय आकार और असंख्य विविधताओं के कारण राष्ट्र निर्माण के किसी भी खांचे में फिट होने से इनकार कर रहा था। इसीलिए सत्तर के दशक की शुरूआत तक दुनिया में किसी को यकीन ही नहीं हुआ कि भारतीय लोकतंत्न टिक भी सकता है। 1967 के आम चुनाव के बारे में तो अमेरिकी विद्वान सेलिग हैरिसन ने अपनी किताब ‘इंडिया : दि मोस्ट डेंजरस डिकेड’ में लिख ही दिया था कि यह भारत का आखिरी लोकतांत्निक चुनाव होने जा रहा है। हैरिसन अब भी बौद्धिक रूप से सक्रिय हैं और अमेरिकी प्रशासन अब भी उनसे भारत के बारे में राय-मश्विरा लेता रहता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस समय राष्ट्रपति बुश ने भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर दस्तखत किए होंगे, उस समय हैरिसन को अपनी वह भविष्यवाणी याद करके कैसा लग रहा होगा। आज भारतीय राज्य और राष्ट्र को अगर कहीं से चुनौती मिल रही है तो वह केवल नक्सलवाद की तरफ से ही है। आतंकवाद हमें सता जरूर रहा है, पर वह भारतीय राष्ट्र की एकता को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। उसका भारतीय जनता में कोई आधार नहीं है।

दरअसल, आधुनिक भारतीय राजनीति का इतिहास 1947 से शुरू न होकर बीसवीं सदी के दूसरे दशक से शुरू होता है, जब गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा किए गए प्रशासनिक विभाजन को खारिज करके भाषाई आधार पर अपने संगठन और आंदोलन का गठन करने का निश्चय किया। इस प्रयोजन में अभूतपूर्व सफलता मिली और फिर एक पचास साल लंबी उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति का सूत्नपात हुआ। आजादी का आंदोलन एक लंबे वोकेशनल स्कूल की तरह था जिसमें भारतीय समाज ने पश्चिमी राजनीतिक सिद्धांतों का अपने समाज की भाषा में अनुवाद करने का पहला पाठ पढा़। राष्ट्रवाद कहता था कि भाषा एक होनी चाहिए, धर्म एक होना चाहिए, जातीयता एक होनी चाहिए और संस्कृति एक होनी चाहिए। भारत ने हर जगह इस ‘एक’ के स्थान पर ‘अनेक’ रखकर प्रयोग किए। विदेशी प्रेक्षकों को लगा कि इससे विकृतियां पैदा होंगीं, पर इसी के साथ हमारे लोकतांित्नक अभिजनों ने जनता के विवेक पर भरोसा करके उसे संविधानसम्मत अधिकार देने शुरू किए, यह मानते हुए कि समय के साथ इन अधिकारों की चेतना भी आ जाएगी। एक बड़ी हद तक ऐसा हुआ भी। संविधान पारित होने की पूर्वसंध्या पर भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि कल राजनीतिक लिहाज से हर व्यक्ति के पास एक वोट होगा, पर सामाजिक लिहाज से ऊंच-नीच की मानसिकता जारी रहेगी। हमें जल्द से जल्द इस अंतर्विरोध को हल कर लेना चाहिए। सवाल यह है कि भारत यह अंतर्विरोध किस सीमा तक हल कर पाया और अगर कर पाया तो उसके लिए क्या तरकीबें अपनाईं। इस अंतर्विरोध को हल करने में सबसे बड़ा योगदान आरक्षण की तरकीब का रहा जिसके कारण भारतीय समाज जातियुद्ध से बच गया। इसके जरिए पहले अनुसूचित जातियां और बाद में पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक जातियां राजनीतिक-सामाजिक मुख्यधारा में आ पाए। भारतीय अभिजनों के आकार और संरचना में रेडिकल परिवर्तन हुआ। आज आरक्षण की इसी तरकीब के जरिए स्ति्नयों को भी राजनीतिक अभिजनों के दायरे में लाने का उपक्रम हो रहा है। आरक्षण विरोधियों को केवल यह दिखता है कि उन्हें नौकरियां मिलने में दिक्कत हो रही है, पर वे राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से इसके महत्व को समझने में नाकाम रहते हैं। लोकतंत्न केवल वहीं कामयाब हो सकता है, जिसके अभिजनों का दायरा लगातार बढ़ता रहे। भारतीय लोकतंत्न ने यह कर दिखाया है। इसी से जुड़ी हुई भारतीय राजनीति की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि है समाज की सामुदायिक संरचना का आधुनिकीकरण। यह अनूठी उपलब्धि केवल लोकतांत्निक राजनीति के जरिए ही संभव हो सकती थी। लोकतांित्नक राजनीति के स्पर्धामूलक चरित्न की यह विशेषता है कि वह सामाजिक समूहों को एक-दूसरे के साथ एकताबद्ध होने के लिए बाध्य कर देती है। अपने आप में डूबे हुए ग्राम समुदायों में बंटे भारतीय समाज ने जब लोकतांत्निक राजनीति में भाग लेना शुरू किया तो जिस चीज को हम सब लोग ‘राजनीति का जातिवाद’ कहते हैं, वह दरअसल ‘जातियों के राजनीतिकरण’ के रूप में प्रकट हुआ। राजनीति में बढो़तरी हासिल करने के स्वार्थ ने जातियों को दूसरी जातियों के साथ गठजोड़ करने की तरफ धकेला, जिसके कारण जो सामाजिक ढांचा नीचे से ऊपर की तरफ जाता था, उसका विन्यास धीरे-धीरे दाएं से बाएं की तरफ होने लगा। इस प्रक्रिया में केवल राजनीति ने ही नहीं, बल्कि सेकुलरीकरण, आधुनिकीकरण, शहरीकरण और उघोगीकरण ने भी अपनी भूमिका निभाई है। लेकिन इन सारी प्रक्रियाओं की चालक शक्ति की भूमिका राजनीति के हाथ में ही है। पूछा जा सकता है कि फिर भारतीय राजनीति केवल 60-65 नंबर लेकर ही कैसे रह सकती है। इसका उत्तर यह है कि अभी बहुत से काम अधूरे पड़े हुए हैं। गठजोड़ राजनीति की मजबूरियों ने सांप्रदायिक राजनीति के नख-दंत काफी भोथरे किए हैं, पर गठजोड़ संस्कृति अभी अपरिपक्व ही है। उसकी स्थायी कसौटियां बननी अभी बाकी है। दूसरे, भारतीय राजनीति का अधिकांश समय अभी तक केवल समुदाय की जमी हुई सत्ता से निबटने में खर्च होता रहा है। नागरिकता और उसके बोध के विकास का चरण अभी तक आ ही नहीं पाया है। लोकतंत्न केवल तभी परिपक्व हो सकता है जब हमारे यहां नागरिक समाज की शक्तियां पूरी तरह से पुिष्पत-पल्लवित हों। भारतीय राजनीति जिस दिन परिवार और राज्य की संस्था के बीच के दायरे में सिविल सोसाइटी को खड़ा कर देगी, उस दिन उसे सौ में सौ नंबर मिलेंगे। (लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम का संपादक है)

Friday, October 3, 2008

अलविदा कटवारिया के गधो

कटवारिया के गधे मुझे विशेष प्रिय हैं क्योंकि वे मेरी जानकारी में इतनी तादाद में दिल्ली में शायद कहीं और नहीं देखे जाते। पिछले लगभग दो सालों से मेरा इनसे साबका पड़ता रहा है, और अब जब मैं इनसे दूर जा रहा हूँ तो मुझे अपनी ज़िन्दगी में इनकी अहमियत का पता चला है। वास्तव में हमारी नस्ल एक है यह मुझे बहुत बाद में जाकर अहसास हुआ और इतने करीब रहकर भी हम सुख-दुख की दो-चार बातें नहीं कर सके। वक़्त मिला तो कभी इत्मीनान से इस पर एक संस्मरण ज़रूर लिखूँगा। अभी तो ग़मे-रोज़गार से ही निजात पाने की कोशिश कर रहा हूँ।

अपने व्यालोक भाई और अभिषेक भाई कई महीनों से चकित थे कि ऐसा कैसे सम्भव है कि मैं पिछले लगभग दो सालों से एक ही नौकरी में हूँ। चकित तो मैं भी था व्यालोक भाई और लीजिये हाज़िर हो गया हूँ फिर से अपने सनमखाने में। ऐसा क्यों है कि कुछ दूर चलने के बाद सारे रास्ते कहीं अंधी गली में मुड़ जाते हैं ? कोई कह सकता है कि तुम्हें चलना नहीं आता पर ७-८ सालों के अनुभव ने इतना तो पका ही दिया है कि नारों और दावों के मर्म समझ सकूँ। फिर ज़रूर अपने सोचने के तरीके में ही वह कारण छिपा है जो कहीं भी ज़्यादा दिनों तक अपना पाँव ही नहीं टिकने देता। सफलता की चक्करदार सीढियों पर चढ़ने, चढ़ते चले जाने के लिए जिस हुनर, जिस कौशल की दरकार होती है उसका तो नितांत अभाव हमेशा से अपने पास रहा ही। अपने बॉस को खुश रखना कोई आसान काम नहीं होता होगा और जो लोग यह हुनर साध लेते हैं सुखी रहते हैं। हम तो भाई गधे ही रहे ! शहर में बसना नहीं ही आया।


जब तक कहीं भी, कैसी भी नौकरी नहीं मिल जाती, तब तक के लिए देशकाल पर आने वाले तमाम दोस्तों से माफी चाहता हूँ क्योंकि यहाँ आप भले ही आयेंगे मैं चाहकर भी नहीं आ सकूँगा। सायबर कैफ़े में बैठकर तो ब्लॉगिंग होगी नहीं और घर में कम्प्यूटर नहीं है। सो सबको ईद, दशहरा और दीवाली की इकट्ठा शुभकामनाएँ......

आपका,
राजेश चन्द्र