विभांशु दिव्याल
उफ सच का यह विकट तूफान
उफ सच का यह विकट तूफान
यह कराल उफान, यह फेनिल सैलाब
यह दहलावक नाद, दिशाओं को गुंजाता चीत्कार
कानों को जमा देने वाला सच का यह हाहाकार
सच का यह असीम अपराजेय वितान
इससे पहले किसने कब बुना
इससे पहले किसने कब देखा-सुना
यहां सब सच बोलते हैं
जब भी जुबान खोलते हैं सच के लिए खोलते हैं
अमर लालू पासवान अचूक सच बोलते हैं
माया, उमा, सुषमा समूह सच बोलते हैं
शाहिद, अतीक प्रतीक सच बोलते हैं
इनके अधिवक्ता,उनके प्रवक्ता सच बोलते हैं
आसमान सच बोलता है जमीन सच बोलती है
सीडी सच बोलती है, प्रति-सीडी सच बोलती है
मीडिया इस सच की जुगाली करता है
टेलीविजन इसी सच को निगलता-उगलता है
अखबार इसी सच से लिपटकर छपता है
युग की निष्पक्षता इसी सच की बगल बच्ची है
सच जिस आ॓र झुकता है उसी आ॓र करवट बदलता है
सच से चौंधियाई आंखों को कुछ गलत दिखाई नहीं देता
सच से आप्लावित कानों को कुछ भी गलत सुनाई नहीं देता
यह महान सच कर्म और दुष्कर्म में भेद नहीं करता
भूखे और भरे पेट में फर्क नहीं करता
यही सच कानून का कवच बनता है
इसी सच से न्याय का चंवर डुलता है
अपराध होते हैं मगर कोई अपराध नहीं करता
बम फूटते हैं मगर कोई बम नहीं फोड़ता
लोग मरते हैं मगर कोई लोगों को नहीं मारता
इस सच के न कोई तूती आड़े आती है
न कोई नक्कारान कोई विचार आड़े आता है
न कोई विचारधारा
किसका कलेजा है जो इस सच की आंखों में आंखें डाले
किसकी हिम्मत है जो इस सच की जड़ों को खंगाले
कौन है जो इस सच के बचकर निकल जाए
कौन है जो इसके महाबाजार से बिना बिके बिला जाए
क्या है जो इसके विराट व्यापार में बिना चले चला जाए
यह सच नसों में घुल रहा है
यह सच लोगों की सांसों में बुझ रहा है
यह इस काल-खंड का सच है, इस समय का सच है
यही जाति, संप्रदाय, धर्म, राजनीति का सच है
परंपरा का सच है, उन्नति-विकास-प्रगति का सच है
व्यवसायों, निकायों, नीतियों का सच है
यही नेतृत्व का सच है यही अनुयाइयों का सच है
यह सच इस देश के वर्तमान का सच है
इसकी व्यवस्था और इसकी पहचान का सच है
यह राज सत्ता और उसके राज का सच है
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक समाज का सच है
यह सच बुरी तरह डराता है
गहरी जुगुप्सा जगाता है
कोई है जो मुझे और मेरे जैसों को
इस सच के गहन गर्त में गिरने से संभाले
जो हमें सच के इस प्रलयंकारी प्रवाह से बाहर निकाले
कोई है जो हमारा आर्तनाद सुने
हमारी प्रार्थना पर कान दे
हमारी विवशता को समझे हमारी मजबूरी पर ध्यान दे
हे ईश्वर, या खुदा तुझे क्या पुकारें
तू तो स्वयं इनका पैरोकार है
इस दौर का यह डरावना सच
तेरा और तेरे कारिंदों का हथियार है
तू इनकी पूजा इनकी इबादत से खुश हो जाएगा
वैसे भी तू करना चाहे तो क्या कर पाएगा
या तो पस्त हो जाएगा
या फिर इस सच के संचालकों का साथ निभाएगा
यहां अकेला मैं हूं जो झूठ देख रहा हूं,
सुन रहा हूं, कह रहा हूं
क्या सचमुच कहीं कोई है जो उम्मीद जगाएगा
जो मुझे और मेरे झूठ को इस डरावने सच से बचाएगा !
www.rashtriyasahara.com से साभार
2 comments:
सच का यह असीम अपराजेय वितान
इससे पहले किसने कब बुना
इससे पहले किसने कब देखा-सुना
यहां सब सच बोलते हैं
बहुत सुन्दर कविता। बधाई स्वीकारें।
सुन्दर कविता..प्रस्तुत करने का आभार.
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