आजादी निरंतर संघर्ष का नाम है -आलोक धन्वा
आज़ादी का जो रास्ता है, वह मेहनतकश जनता के खून और पसीने से, उसके आंसुओं से भरा हुआ रास्ता है। मैं और मुझ जैसे हजारों हिंदुस्तानी जो कार्यकर्ता हैं, लोकतंत्र के और समाजवाद के, वे इस बेहद जटिल रास्ते पर चल रहे हैं.1947 में हमने जो आजादी पाई थी, वो हमेशा के लिए प्राप्त की गई कोई मंजिल नहीं है. आज़ादी एक निरंतर संघर्ष द्वारा हासिल करते रहने की संघर्ष प्रक्रिया है. जिसको हम आज़ादी कहते हैं, उसकी एक मंजिल हमको हासिल होती है. हम ये देखते हैं कि जिसको हम मंजिल कह रहे थे वहां भी ऐसे विकार, ऐसी विकृतियां पैदा हो सकती हैं, जो शोषण का एक अंग प्रवृत करती हैं.ताकत और स्वतंत्रता की जो खतरनाक लड़ाई है उसको भी समझने की जरुरत है क्योंकि ताकत हमेशा जो है स्वाधीनता के रास्ते को बाधित करने की कोशिश करती है. ताकत जब भी बहुमत जनता के बजाय व्यक्ति या किसी छोटे समूह के हाथ में होगी तो वो शोषण करने लग जाएगी. ताकत के एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के द्वारा तय की जानी चाहिए.ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम सबसे ज्यादा योग्य़ हैं इसलिए हम शासन करेंगे. ये बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जिसको हम योग्यता कहते हैं वह किसी एक समूह के द्वारा संपन्न नहीं होती. इसकी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. ये जो ज्ञान है, भौतिकता है ये सामाजिक प्रक्रिया है, ये एक सामूहिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक अच्छी कविता लिखते हैं. ये सिर्फ निजी नहीं है, मैं एक अच्छी कविता अकेले नहीं लिखता हूं, उसमें ऐसे हज़ारों बुद्धिजीवी शामिल हैं जो प्रक्रिया को संभव बनाते हैं, होने को संभव बनाते हैं. रचना की जो प्रक्रिया है, वह सामाजिक तौर पर संपन्न होती है.आज हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट है, वह है साम्राज्यवाद. सम्राज्यवाद ने पूरी दुनिया को जो चुनौती दी है और जो दमनचक्र उसने चलाया है, उसके सामने सब नतमस्तक हो गए हैं. इसके खिलाफ एक राष्टीय सोच बननी चाहिए, एक ऐसी राष्टीय सोच, जिसमें तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और बहुमत जनता के पक्षधर लोग शामिल हों. जो सम्राज्यवादी शोषण है, उसके प्रभुत्व से हम अपने उस राष्ट्र को आज़ाद करें, जिस राष्ट्र के लिए भगत सिंह और उसके साथी लड़े, जिस राष्ट्र के लिए गांधी और नेहरु लड़े. मैं गांधी जी का उल्लेख किसी भावावेश में नहीं कर रहा हूं. गांधी एक साधारण आदमी नहीं थे, आप एक मुहल्ले में यात्रा करते हैं और सफल नहीं हो पाते और गांधी जी नमक के लिए चले और पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो गया. ये कोई जादू नहीं है. गांधी से मेरी वैचारिक असहमति है लेकिन मैं गांधी को छोड़कर चलने के लिए तैयार नहीं हूं.देश में जो सबसे बड़ा आंदोलन हुआ, जिसमें जनता की व्यापक भागीदारी रही, वह था गैरकांग्रेसवाद का आंदोलन. देश में 1966 में पहली बार गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बनी. इसकी एक परिणति बिहार आंदोलन में देख सकते हैं, जिसके नेतृत्व में जयप्रकाश जी आते हैं और दूसरे सारे नेता उसमें शामिल होते हैं. ये एक बहुत बड़ा पोलराइजेशन था.साल भर बाद एक और महत्वपूर्ण आंदोलन शुरु हुआ और वो था नक्सलबाड़ी का आंदोलन. नक्सलबाड़ी के आंदोलन से किसी की असहमति हो सकती है लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन के पीछे एक बहुत बड़ा स्वप्न था. उस आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे आतंकवाद से जोड़ा जाए, बल्कि उसके पीछे मुक्ति का एक बहुत बड़ा स्वप्न था. नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पूरे राष्ट्र को सोचने के लिए एक चुनौती दी कि 1947 में जो आज़ादी मिली, वो जनता की आज़ादी है या सिर्फ एक प्रभुतासंपन्न वर्ग के हाथो की आज़ादी है. उस आंदोलन ने लोकतंत्र के बारे में, जनता की मुक्ति के बारे में, समाजवाद के बारे में, उसने बहुत ही नये सवालों से देश के बुद्घिजीवियों को प्रभावित किया.यहां मैं साफ करना चाहूंगा कि देश की जो बहुमत मेहनतकश भारतीय जनता है उसकी व्यापक हिस्सेदारी के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता और लोकतांत्रिक नहीं हो सकता. भारत की जो मेहनतकश जनता है, उसकी व्यापक हिस्सेदारी जरुरी है. अगर वो व्यापक हिस्सेदारी नहीं होगी तो वह रास्ता कभी सफल नहीं होगा.अभी का जो नक्सल आंदोलन है, उसके स्वरुप को लेकर, उसके रास्ते को लेकर बुद्धिजीवियों में बहुत विवाद है. उसमें ऐसी भी ताकतें हैं, जो समाजवाद को लाना चाहती हैं और ऐसी भी ताकतें हैं जिनका रास्ता बहुत ज्यादा आतंकवाद की ओर जाता है. नक्सल आंदोलन के इस स्वरुप को लेकर व्यापक बहस की जरुरत है.