Monday, December 28, 2009

शशि की मौत: घेरे में एनएसडी


  • मनोज कृष्ण
चार नवम्बर को हुई मशहूर रंगकर्मी शशिभूषण की अप्रत्याशित मौत ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा यानी कि एनएसडी को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। हालांकि, ये कोई पहला मौका नहीं है जब रंग क्षेत्र में देश की इस सबसे बड़ी आटोनामस बॉडी पर सवाल उठ रहे हैं। इससे पहले भी कई सवाल उठते रहे हैं मगर उनका सरोकार सिर्फ भ्रष्टाचार, अस्तित्व और कारगुज़ारियों तक ही सीमित रहा। मसलन थिएटर के नाम पर मिलने वाला फंड कुछ दलाल टाइप संस्कृतकर्मियों या एनएसडिएंस के नाम जारी होने, एनएसडी की वर्कशाप और कार्यक्रमों में गैर एनएसडियन को बिल्कुल ही तवज्जो न देने, फेलोशिप और प्रोडक्शन ग्रांट में बंदरबांट, प्रोफेसरों के क्लास लेने के बजाय बाहर ज्यादा व्यस्त रहने, पास आउट स्नातकों के सक्रिय नाटक छोड़कर फिल्म, टीवी या दूसरे व्यवसायों की ओर उन्मुख होने, नए प्रयोगों की कमी जैसे आरोप अक्सर एनएसडी पर लगते रहे हैं। मगर इस बार अपने ही एक स्नातक छात्र शशि की मौत से उठे सवाल बाकी मसलों से कहीं ज्यादा पेंचीदा हैं। जाहिरा तौर पर इसके जवाब में एनएसडी की कलई के भी खुलकर सामने आने की संभावना है इसीलिए स्कूल प्रशासन ने जानबूझकर एक खास तरह की अप्रत्याशित चुप्पी साध ली है। बिहार के मध्यम निम्नवर्गीय परिवार से आने वाले शशि भूषण की पहचान एनएसडी कभी नहीं रही। यहां आने से पहले ही वो देशभर में अपनी साहित्यिक रंग प्रस्तुतियों के लिए मशहूर हो चुके थे। थिएटर तो जैसे उनके रग-रग में बसा था। अभिनय, निर्देशन, गायन, स्टेज सज्जा से लेकर वो म्यूजिक तक का काम बखूबी निभाते थे। बाइस साल से रंगकर्म के विभिन्न क्षेत्र से जुड़े शशि जितनी अच्छी नाल बजाते थे उतने ही अच्छे गायक भी थे। ढोलक की थाप के साथ गोरख पांडेय के जनगीत समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई... पर छेड़ा गया उनका आलाप शायद ही चाहने वाले कभी भूल पाएं। पटना की वामपंथी रंग संस्था हिरावल से कैरियर की शुरुआत करने वाले शशि ने बाइस साल से ज्यादा की रंगयात्रा के बाद इसी साल जब एनएसडी में एडमिशन लेने की बात दोस्तों को बताई तो बड़ा ताज्जुब हुआ। एतराज जताने पर उस समय शशि ने अपने अंदाज में जवाब दिया - ‘‘बहुत भागदौड़ कर ली है। फिलहाल तो यहां थोड़ा आराम करने आया हूं।‘‘ मगर काल के क्रूर हाथों ने उसे ये मौका नहीं दिया। संदेह इस बात पर होता है कि इलाज से ठीक होने वाली एक मामूली बीमारी ने कैसे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी रंगकर्मी की जान ले ली। घटना के अनुसार मृत्यु से कुछ रोज पहले ही शशि की तबियत खराब हुई। शिकायत महज शारीरिक कमजोरी और हल्के बुखार को लेकर थी। नियमों के मुताबिक एनएसडी अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों का स्वास्थ्य बीमा कराता है। इसके तहत कुछ चुनिंदा अस्पतालों के पैनल होते हैं जहां जाकर इलाज कराया जा सकता है। इसी पैनल के तहत शशि को इलाज के लिए एनएमसी, नोएडा ले जाया गया। सबसे पहला सवाल यहीं खड़ा हो जाता है कि दिल्ली में कई चुनिंदा अस्पतालों के होते हुए भी नोएडा के उस अस्पताल को क्यों पैनल में शामिल किया गया जबकि वो पहले से ही किडनी रैकेट और निठारीकांड जैसे जघन्य आरोपों में शामिल रहा है। क्या एनएसडी के बाकी स्टाफ मसलन लेक्चरर, प्रोफेसर, आफिशियल स्टाफ भी इस सुविधा के तहत नोएडा के एनएससी में ही अपना और परिजनों का इलाज कराते हैं? अगर नहीं तो छात्रों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ क्यों? अस्पताल की घोर लापरवाही इस रूप में सामने आती है कि एडमिट होने के बाद से हर दूसरे दिन शशि को डॉक्टरों ने अलग-अलग बीमारी बताई। यही नहीं कुछ दिनों बाद उसे सिर्फ स्वास्थ्य लाभ की जरूरत बताते हुए डिस्चार्ज भी कर दिया गया। मगर इसी दौरान अस्पताल परिसर में ही शशि बेहोश होकर गिर पड़े। डॉक्टरों ने दोबारा जांच में बताया कि डेंगू है। इसके बाद तो शशि सिर्फ पन्द्रह घंटे ही और जीवित रह सके। अंतिम तौर पर डाॅक्टरी रिपोर्ट में मौत की वजह हार्ट अटैक बताई गई। इस पूरे प्रकरण में एनएसडी किस हद तक असंवेदनशील बना रहा कहने की जरूरत नहीं। शशि की मौत के तत्काल बाद संस्था ने एयर टिकट की व्यवस्था कर आनन-फानन में अगली सुबह ही लाश पटना भेजने की व्यवस्था कर दी। यही नहीं अस्पताल प्रशासन से उसने सवाल जवाब करने तक की जहमत भी नहीं उठाई। बिना किसी पुख्ता सबूत के एनएसडी ने इस मौत को स्वाभाविक मान लिया जबकि लापरवाही नंगी आंखों से साफ दिखाई दे रही थी। स्कूल प्रशासन के मुताबिक डायरेक्टर अनुराधा कपूर खुद अस्पताल में इलाज के दौरान गई थीं। मगर इतने भर से तो ये नहीं साबित हो जाता कि लापरवाही नहीं हुई। शशि से जुड़े जब कुछ रंगकर्मी मित्रों ने जब इस मुद्दे पर सवाल उठाया तो स्कूल प्रशासन ने खुद को इससे एकदम अलग करते हुए कोई सहयोग नहीं करने की बात कही। इससे संस्था का दोहरा चरित्र खुलकर सामने आ जाता है कि वो अपने ही छात्र की मौत जैसे मुद्दे पर भी कितने असंवेदनशील तरीके से पेश आ सकता है। और तो और शशि की लाश को स्कूल परिसर में लाकर रखने तक की इजाजत नहीं दी गई। डायरेक्टर अनुराधा कपूर ने मृतक के बदहवास परिजनों से सीधे न मुलाकात करके आॅफिस में बुलाकर बात की। आरोप तो ये भी है कि अस्पताल और एनएसडी ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए पोस्टमार्टम की कार्रवाई रोकने की भरसक कोशिश की। इसे तभी शुरू कराया जा सका जब रंगकर्मी विजय कुमार बेंगलूर से दिल्ली आकर व्यापक राजनीतिक दबाव बना सके। उधर अगले दिन पटना पहुंचे शशि को देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा। मशहूर रंग निर्देशक राॅबिन दास और शशि के कुछ सहपाठी भी शव के साथ थे। इन्हें लोगों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। अपनी माटी से जुड़े शशि की याद में लोगों ने एनएसडी के दलालो वापस जाओ के नारे लगाए। हर किसी की आंखों में उमड़ते आंसुओं के साथ एक ही सवाल था कि ऐसा कैसे हो गया? पूरे प्रकरण में सबसे ताज्जुब की बात एनएसडी प्रशासन की गम्भीर चुप्पी है। बार-बार सम्पर्क करने पर भी कोई इस बारे में कुछ बोलने को तैयार नहीं। गौरतलब है कि साल 2001 में एक और स्नातक विद्याभूषण की भी अस्वाभाविक मौत हो गई थी। उस समय मामले को महज दुर्घटना मानकर रफा-दफा कर दिया गया था। कहा ये गया कि क्लास रूम में गिर जाने से सिर में आई गम्भीर चोट की वजह से मौत हुई। पूरे प्रकरण को लेकर रंगकर्मी आंदोलन की राह पर हैं। पटना में शशि से जुड़े रंगकर्मियों ने उनकी याद में पिछले दिनों एक शोक सभा की। इस तरह की एक और शोक सभा 12 नवम्बर को दिल्ली के ललित कला अकादमी में भी हुई। इन सभाओं में शशि की मौत की बावत अस्पताल की भूमिका की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से कराने, स्कूल प्रबंधन की संदिग्ध भूमिका को जांचने, पीड़ित निर्धन परिवार को तत्काल मुआवजा देने के साथ ही पटना में होने वाले भारत रंग महोत्सव को शशि को समर्पित करने की मांग की गई है। जाहिर सी बात है ये कोई राजनीतिक मांगे नहीं हैं। एनएसडी को अपनी विश्वसनीयता पर खरे उतरने के लिए भी इन मांगों पर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। एनएसडी प्रशासन की शुरुआती भूमिका जिस तरह की रही उससे शशि की मौत से जुड़े सवाल इतने गहरे हो चुके हैं कि अब इसे महज सदमा बताकर विभागीय जांच कमेटी गठित करने भर से काम नहीं चलने वाला।
पता - मनोज कृष्ण, द्वारा -श्री आर एस मौर्य, ए-31/१, गली नं. 5 ,पूर्वी विनोद नगर, दिल्ली- 91 मोबाइल: 9868655357.

अधूरी ज़िन्दगी के कुछ अहम पड़ाव
कहने की जरूरत नहीं है, जिस उम्र में लोग अपनी रूमानी ज़िन्दगी के ख्वाब बुनने में जुटे रहते हैं उस उम्र में शशिभूषण समाज में फैली बुराइयां, अव्यवस्था, गरीबी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अनूठे संघर्ष के जरिए एक जाना पहचाना चेहरा बन गए थे। पटना की हिरावल संस्था उनके इस संघर्ष और जज़्बे की गवाह रही। एक ओर जहां साहित्यक कृतियों पर बने नाटकों को अक्सर लोग करने से घबराते हैं वहीं शशि के लिए ये सबसे खास शगल था। उनके चर्चित नाटकों के मूल संदर्भ में ज़्यादातर साहित्यिक कहानियां ही शामिल हैं। फणीष्वर नाथ रेणु, स्वदेष दीपक, भीष्म साहनी, हरिषंकर परसाई और श्री लाल शुक्ल की रचनाओं को शषि ने रंगमंच के जरिए सैकड़ों बार जिया है। रेणु से वो इतने प्रभावित थे कि उनकी रचनाओं पर उन्होंने देषभर में घूम-घूम कर नाट्य मंचन में हिस्सा लिया। उनके रगकर्म का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है- ऽ पैंतीस से ज़्यादा नाटकों में अभिनय ऽ पन्द्रह से ज्यादा नाटकों का निर्देषन ऽ शषि के अभिमंचित प्रमुख नाटक - एक और दुर्घटना(दारियो फो), काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), किस्सा ठलहा राम(राजेष गोनदवाले), नेटुआ(रतन वर्मा), लीला नंदलाल की(भीष्म साहनी), मातादीन चांद पर(हरिषंकर परसाई), एक हसीना पांच दीवाने(हरिषंकर परसाई), रसप्रिया(फणीष्वर नाथ रेणु), पंचलाइट(फणीष्वर नाथ रेणु), ना जाने केहि वेष में(फणीष्वर नाथ रेणु), हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं(हरिषंकर परसाई), राग दरबारी(श्रीलाल शुक्ल), आॅफ माइस एंड मेन(जाॅन स्टीन बैक) इत्यादि। ऽ नुक्कड़ नाटक - खेल तमाषा, सर्कस, जनता पागल हो गई है, मेरा नहीं तेरा नहीं सबकुछ हमारा इत्यादि के जगह-जगह करीब 2000 प्रदर्षन। ऽ निर्देषक के रूप में - काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), ईदगाह(प्रेमचंद) समेत पंद्रह से ज़्यादा नाटक। अन्य उपलब्धियां ऽ मंच आर्ट गुप के सचिव के नाते संस्था की रंगसभाओं में दिल्ली, कोलकाता, जयपुर, बड़ौदा, पुणे, मुम्बई, गुवाहाटी, भोपाल, मैसूर, ग्वालियर, गोपालगंज, उदयपुर, रायगढ़, वनस्थली, नागपुर, हैदराबाद, हरियाणा, मंडी, षिमला, चंडीगढ़, लखनऊ, पानीपत, अमृतसर, गोवा, पुनल्लुर समेत देषभर का भ्रमण। ऽ मषहूर रंगकर्मी ऊषा गांगुली, विजय कुमार, पद्मश्री जोयेलकर अनिरुद्ध पाठक, रंजीत कपूर, के. जा. कृष्णमूर्ति जैसे निर्देषकों के साथ लम्बे समय तक काम किया। ऽ मानव संसाधन विकास मंत्रालय से रंग संगीत में स्कॉलरशिप

आम आदमी के नाटक का त्रासद पटाक्षेप-वर्ष


राजेश चन्द्र
वर्ष 2009 के रंगजगत की सबसे सांघातिक घटना रही - पिछली शताब्दी से वर्तमान शताब्दी तक, यानि साठ वर्षों से अधिक समयावधि तक निरन्तर उद्देश्यपूर्ण रंगमंच करने वाले विश्व रंगमंच के अद्वितीय निर्देशक, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मशहूर रंगकर्मी, भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापकों में एक हबीब तनवीर का 8 जून को पच्चासी वर्ष की अवस्था में गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझते हुए निधन। हबीब तनवीर धर्मनिरपेक्ष, जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता रखने वाले ऐसे महान शख्स थे, जिनके निधन से थियेटर की दुनिया में एक कभी न भरने वाला शून्य पैदा हो गया। एक ऐसे रंग-शख्सियत जो एक ही समय अभिनेता, नाटककार, निर्देशक, गायक, संगीतकार के अतिरिक्त वस्त्रसज्जा, मंचसज्जा में परिपूर्ण, पत्रकार, शायर, आलोचक के साथ-साथ अच्छे सैलानी भी थे। लम्बा चेहरा, गोरा रंग, ऊँचा कद, इकहरा जिस्म, चैड़ा माथा, माथे पर अस्सी-पच्चासी वर्षों के अनुभवों की लकीरें, गहन-गम्भीर आँखों पर काले फ्रेम का बड़ा चश्मा, होंठों के बीच फँसा पाइप, पुरकशिश आवाज़ और हिन्दी-उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी या अंगरेज़ी में बेबाक बात करने के लिये पहचाने जाने वाले हबीब तनवीर ने हिन्दी नाट्य-जगत और भारतीय रंगमंच को जो नयी दिशा दी, वह अविस्मरणीय है। स्वातन्त्र्योत्तर युग अथवा बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक हबीब तनवीर ने हिन्दुस्तानी साहित्य और रंगमंच को करीब दो दर्जन नाट्य कृतियाँ दी हैं जिनमें आगरा बाज़ार (1954), शतरंज के मोहरे (1954), लाला शोहरत राय (1954), मिट्टी की गाड़ी (शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिकम‘ पर आधारित,1977), चरणदास चोर (1975), उत्तररामचरित (1977), बहादुर कलारिन (1978), पोंगा पण्डित (1990), ज़हरीली हवा (2002) और राजरक्त (2006) इत्यादि ख़ासे प्रसिद्ध हैं। बतौर पत्रकार अपना कैरियर शुरू करने वाले हबीब तनवीर ने नाटकों के क्षेत्र में ऐसा मुकाम हासिल किया जो हर दृष्टि से बेमिसाल है। उनके ‘आगरा बाज़ार‘ और ‘चरणदास चोर‘ ने ऐसी धूम मचाई कि हबीब जीते जी एक किंवदन्ती बन गये। चरणदास चोर में छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों - गोविन्द राम, मदनलाल, दीपक तिवारी, फ़िदाबाई, मुल्वाराम, पूनम और स्वयं हबीब ने अभिनय और आपसी तालमेल का एक ऐसा नया, अनूठा और मोहक लोक छन्द रचा कि दुनिया दंग रह गयी और 1982 में एडनबर्ग के इन्टरनेशनल ड्रामा फेस्टिवल में ‘चरणदास चोर‘ को विश्व का सर्वश्रेष्ठ नाटक घोषित किया गया। नज़ीर अकबराबादी की शायरी, शख्सियत और उनके युग पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार‘ को हिन्दुस्तानी रंगमंच की एक अक्षय निधि, एक अनमोल धरोहर माना जाता है। इस नाटक के फ़कीर, ककड़ीवाला, तरबूजवाला, लड्डूवाला, बरफवाला, रीछवाला, पतंगवाला, किताबवाला, मदारी, शायर, हमजोली, दरजी, पनवाड़ी आदि पात्रों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नाटक का एक गीत है - "जितने हैं आज आगरे में कारखाना जात/सब पर पड़ी है आज के रोज़ी की मुश्किलात/किस-किसके दुख को रोइये और किसकी कहिये बात/रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात.................बेवारिसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह/फूटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहरपनाह/पैसे का ही अमीर के दिल में ख़याल है/पैसे का ही फ़कीर भी करता सवाल है/पैसा ही फ़ौज, पैसा ही जाहो जलाल (सत्ता प्रताप) है/पैसे ही का तमाम यह तंगो दवाल (हंगामा) है/पैसा ही रूप रंग है, पैसा ही माल है/पैसा न हो तो आदमी चरखे की माल है।" हबीब तनवीर एक विशिष्ट प्रयोगधर्मी और आम आदमी के नाट्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने नाटक की परम्परा में सर्वथा नये एवं अत्यधिक सफल प्रयोग किये। छत्तीसगढ़ की नाचा शैली उनकी मौलिक एवं विशिष्ट देन है। हबीब तनवीर की प्रतिभा केवल नाटकों तक सीमित नहीं थी। वे थियेटर की दुनिया का बेशकीमती नगीना थे। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय फिल्मों के लिये अभिनय एवं लेखन, शायरी, पत्रकारिता और संगीत के क्षेत्र में अपनी अनूठी सृजनात्मकता के माध्यम से दिया। 1945 में रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स, लन्दन से थियेटर का प्रशिक्षण प्राप्त कर आकाशवाणी मुम्बई की नौकरी करते हुए हबीब तनवीर ने 1953 तक इप्टा के साथ रंगान्दोलन में शिरक़त की और 1959 में दिल्ली में नया थियेटर की स्थापना की। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), शिखर सम्मान (1975), अन्तर्राष्ट्रीय फ्रिज फस्र्ट एवार्ड (1982), पद्मश्री (1982) आदि सम्मानों-पुरस्कारों से नवाज़े गये हबीब तनवीर के बारे में ब॰ व॰ कारन्त ने कहा था कि हबीब तनवीर ने भारतीय संस्कृति को समकालीनता से जोड़ते हुए लोक नाटकों को 20वीं सदी में नयी शक्ति और ऊर्जा प्रदान की। वे रंगधुनी हैं। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा में मनोनीत सदस्य भी रहे थे। एक त्रासद सच्चाई यह भी है कि दुनिया की कला प्रेमी जनता के बीच अत्यन्त सम्मानित हबीब तनवीर को हिन्दुस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत, लोकतन्त्र तथा धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के कारण आजीवन भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं-नेताओं के हाथों बार-बार अपमानित-प्रताड़ित होना पड़ा। उन पर और उनके नाटकों पर कई बार हमले किये गये पर हबीब तनवीर कभी अपने इरादों से टस से मस नहीं हुए और न ही कभी एक आम हिन्दुस्तानी के पक्ष को उन्होंने अपनी आँखों से ओझल होने दिया। देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों, सुदूर गाँवों-कस्बों या विदेशों में भी उनके लगभग सभी नाट्य प्रदर्शनों में दर्शकों की जैसी भीड़ जुटती रही, वह उनके समकालीन या उत्तरवर्ती उन नाट्यकर्मियों-निर्देशकों के लिये या तो एक कौतूहल या फिर एक अबूझ पहेली ही बनी रही जो सोते-जागते रंगमंच में दर्शकों के संकट पर दार्शनिक भंगिमा बनाये रखते हैं पर मौका मिलने पर अक्सर निरर्थक और बहुसंख्यक जनता के दुख-दर्द या उसके उल्लास से परे होकर नाट्यकर्म करते रहते हैं। दरअसल हबीब तनवीर की लोकप्रियता का आधार हिन्दुस्तानी लोक, भाषा एवं शैली का आधुनिक मूल्य बोध के साथ प्रस्तुतीकरण रहा है। मुझे याद है पटना में प्रेरणा द्वारा आयोजित सफदर हाशमी नाट्य महोत्सव में 3 जनवरी 2002 को रखी गयी ‘आधुनिक रंगमंच और लोक संस्कृति‘ विषयक संगोष्ठी में हबीब तनवीर ने कहा था -"यदि हमारे सारे आचार संस्कृति में शामिल नहीं हैं तो वह संस्कृति नहीं है। सत्ता कल्चर को बर्बाद करने में ही आराम का अनुभव करती है - बाज़ार भी। जनता की रचनात्मकता लोक शैली है - लोक परम्परा है। ज़बान भी एक बदलती हुई चीज़ है। वह जो कल थी आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगी। कला भी कोई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, जो बदलती नहीं। संस्कृति भी धीरे-धीरे बदलती है। अगर हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं होगी तो हम हवा में उड़ जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि हमारी परम्परा के अन्दर जो जैसा है, वैसा ठीक है, अथवा परम्परा का पुजारी होना चाहिये - यह बुतपरस्ती है -कबीर की पूजा करने वाले कबीरपन्थी हैं, उन्हें उस आग से मतलब नहीं है जिसकी हमें ज़रूरत है - क्योंकि उस आग से हम दुनिया को बदल सकते हैं, तो लोक की दृष्टि यह होनी चाहिये। संस्कृति को ठीक से समझ लेने से विकास की भी सही समझ आ जायेगी और राजनीति की भी। लोक शैली के भीतर जो सीमाएँ हैं, वह तो हैं ही, पर यदि कोई चीज़ परम्परा के साथ चल कर उसकी सीमाओं को तोड़ती भी है तो वही आधुनिकता है। आधुनिकता खुद पैदा नहीं होती, वह परम्परा से आती है।" परम्परा की इसी आग को आजीवन हबीब तनवीर सुलगाते रहे और उन्होंने आम आदमी को हिन्दुस्तानी रंगमंच के केन्द्र में स्थापित किया। उनके निधन के बाद इस रंगमंच का पटाक्षेप हो गया है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि इस रंगमंच का भविष्य अब क्या होगा।

Thursday, November 19, 2009

तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते कहते

शशिभूषण वर्मा : लील गयी एनएसडी की लापरवाही

याचको इस एक मौत को बख़्श दो

- राजेश चन्द्र
पिछले चार नवम्बर को हिन्दी रंगमंच के प्रशिक्षण के सर्वोच्च संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रथम वर्ष के छात्र रंगकर्मी शशिभूषण की नोएडा के एक तीसरे दर्ज़े के और अपने किडनी रैकेट वाले राष्ट्रीय कारनामे के लिये कुख्यात अस्पताल में मौत हो गयी। बहुत से रंगकर्मियों के लिये अपने बायोडाटा में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की चर्चा गौरव का विषय हो सकती है पर यहाँ हम जिस रंगकर्मी का ज़िक्र कर रहे हैं वह न सिर्फ जनपक्षीयता और जीवन्तता के पटना रंगमंच का अनमोल हीरा था बल्कि बीस-बाइस वर्षों की अपनी जुझारू रंगमंचीय सक्रियता से उसने देश भर के सक्रिय नाट्य समूहों और गाँवों-कस्बों तक फैले रंगकर्मियों के साथ एक अंतरंगता और गर्मजोशी भरी दोस्ती क़ायम की थी। नब्बे के जिस दशक को पटना रंगमंच में चरम और अवसान के दशक के रूप में ज़्यादातर लोग याद करते हैं उस दशक की कुछ नायाब उपलब्धियों में एक शशिभूषण भी था जिसने न सिर्फ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण बल्कि तमाम लोकोन्मुख रंगसंस्थाओं के लिये अपनी ‘अहर्निशं सेवामहे‘ वाली सहज उपलब्धता के कारण भी एक खास जगह बनाई थी। रंगमंच उसके लिये मनोरंजन का उपकरण नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक माध्यम था और इस माध्यम के लिये उसके अन्दर ऐसी जुनूनी मुहब्बत थी जो कभी भी कम नहीं हुई। इतना सब कुछ अर्जित कर लेने के बाद और अपनी ही इस दृढ़ मान्यता को परे रख कर कि ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हिन्दी रंगमंच की क़त्लग़ाह है‘ (जिस पर उस दशक के ज़्यादातर रंगकर्मी लगभग एकमत रहे हैं) विद्यालय में उसके प्रवेश ने हम सभी दोस्तों को हतप्रभ और हताश ही किया था। कई दोस्तों ने चुटकी लेते हुए पूछा था कि तुम क्या यहाँ रंगमंच पढ़ाने आये हो, पर उसने सबको हँसते हुए जवाब दिया था कि ‘‘नहीं फिलहाल तो थोड़ा आराम से पढ़ने आया हूँ, बहुत भाग-दौड़ कर ली है।‘‘ मेरे जैसे कई दोस्तों के लिये शायद यह तय करना कठिन हो कि क्या केवल हिन्दी रंगमंच की विडम्बना ही उसे यहाँ लेकर आई थी या कि उसकी मौत उसे यहाँ खींच लाई थी। जो भी हो पर इस मौत से (हालाँकि यह इस संस्थान में अकेली ऐसी मौत नहीं है) कई ऐसे असुविधाजनक और अप्रिय लगने वाले सवाल फिर से उठ खड़े हुए हैं जिनके जवाब याचकों की भीड़ में खड़े होकर मध्यस्थता, लीपा पोती और दलाली की विनयपत्रिका बाँचने से नहीं मिलने वाले हैं।
यह सही है कि केन्द्र सरकार द्वारा शत प्रतिशत वित्तपोषित यह संस्थान न सिर्फ अपनी संरचना, प्रशासन और गतिविधियों पर हर वर्ष करोड़ों की राशि ख़र्च करता है बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि यह संस्कृति और रंगकर्म के नाम पर करोड़ों की राशि की छीना-झपटी और बँदरबाँट का कुख्यात केन्द्रीय अड्डा भी बन चुका है। आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता के चलते पूर्व में हो चुकी अन्य मौतों और शशि की मौत के ठीक बाद से इस प्रसंग में भी की जा रही ‘ठकुरसुहातियों‘ को उपरोक्त सन्दर्भ में जाँचने की ज़रूरत है। यह अकारण नहीं है कि जहाँ पटना में शशिभूषण की शवयात्रा में रंगकर्मियों, साहित्यकारों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न तबकों के एक हज़ार से अधिक लोग शामिल हुए और अब तक अपनी एकजुटता के साथ रानावि की नृशंस लापरवाही के खि़लाफ अपने तीव्र रोष का इज़हार भी वे कर रहे हैं - दिल्ली में इस मामले में अब तक एक बीस-पच्चीस लोगों की उपस्थिति वाली शोकसभा से ज़्यादा कुछ भी नहीं किया जा सका है और शशि की मौत के बाद दस दिन गुज़र चुके हैं।
‘पता नहीं क्यों खोज रहे थे हत्यारे मुझे‘ कविता में शायद ऐसे ही किसी सांस्कृतिक क्षरण या ‘ख़ामोशी की संस्कृति‘ को लक्ष्य करते हुए कवि अरुण कमल कहते हैं - ‘‘और मैं मारा गया/इसलिए कि मेरी नाभि में कस्तूरी थी/और रोओं से झर रही थी सुगन्ध लगातार/जानता था एक दिन नष्ट ही करेगी पवित्रता/इस जीवन के कारण मरूँगा तै था/मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया/न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा/और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा/सिर्फ इसलिए कि मेरी जाति वो नहीं जो हत्यारों की/मेरा धर्म वो नहीं और कोई जान नहीं पाएगा/सड़क किनारे खन्दक में सड़ेगी मेरी लाश/कोई जान नहीं पाएगा।‘‘ दिल्ली के मुझ जैसे अतीतजीवी प्रवासियों की अगम्भीरता, हृदयहीनता और समझौतापरस्ती के हद से बढ़ जाने का इससे बढ़ कर और क्या प्रमाण होगा कि अपनी नाभि की कस्तूरी को आकांक्षाओं के दलदल में डुबोने का अपराधबोध भी अब हमारे अन्दर लगभग मर चुका है और हमने चुपचाप अपराध के मूल्यों को स्वीकार लिया है वरना अब तक अपनी नाभि में कस्तूरी की पवित्र गन्ध को सुरक्षित रखते आ रहे साथी शशिभूषण को हमने इस तरह कसाई के गँड़ासे के सहारे नहीं छोड़ा होता और न ही अपनी मध्यवर्गीय निस्संगता और निर्लज्ज नपुंसकता के लिये सुविधाजनक तर्क तलाश कर रहे होते। दिल्ली के हम सभी रीढ़विहीन लोग जो शशिभूषण को बहुत क़रीब से जानने का दावा कर रहे थे, पिछले दस दिनों से इस तरह नज़रें चुरा रहे हैं जैसे - ‘‘सबको कुछ न कुछ काम पड़ गया है अचानक!‘‘
उच्च शिक्षा और आभिजात्य के बीच का पूरक सम्बन्ध पिछली एक सदी में और भी प्रगाढ़ हुआ है यानि सीमित आर्थिक साधनों वाले मध्य वर्ग के लिये शिक्षा आज भी एक ऐसी सीढ़ी की तरह है जिसे लगा कर उच्च या अभिजात वर्ग तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। निम्नवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय तबके के लिये इस सीढ़ी का प्रयोग लगभग निषिद्ध समझा गया है इसलिये रानावि जैसे ऐश्वर्यशाली और उच्चभ्रू शहरी संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक संस्थानों में घुसने के रास्तों पर ऐसे अदृश्य, अनकहे पर बेहद मजबूत प्रतिबन्ध लगा कर रखे गये हैं ताकि अवांछनीय तत्त्वों को यहाँ प्रवेश न मिल सके। इस तरह के व्यावहारिक मानदण्ड निर्मित किये गये हैं कि निचले सामाजिक आर्थिक स्तर का कोई पंछी इस संस्थान में पर तक नहीं मार सकता। यदि गलती से निम्नवर्गीय तबके का कोई रंगकर्मी इस संस्थान में आ भी जाता है तो भीतर फैली एलीटिस्ट संस्कृति के चलते उसका वहाँ टिक पाना असम्भव हो जाता है। यहाँ पढ़ने वाले ज़्यादातर विद्यार्थियों की आकांक्षाएँ एवं वर्ग-चिन्ताएँ लगभग एक जैसी होती हैं और किसी भिन्न आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का कोई भी विद्यार्थी अपनी प्राथमिकताओं का चोला बदले बगैर यहाँ से सफलतापूर्वक योग्यता प्राप्त कर बाहर नहीं आ सकता।
यह एक सच्चाई है कि रानावि जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में तकनीकी पाठ्यक्रमों के समानान्तर एक सांस्कृतिक दुनिया भी होती है जिसका हिस्सा बनने के लिये एक न्यूनतम पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि की ज़रूरत पड़ती है। हाॅस्टल जीवन की तमाम अनौपचारिकता और मस्तमौला ज़िन्दगी के बावजूद यहाँ के लगभग हर विद्यार्थी का चरम उद्देश्य होता है तीन वर्षों की मशक्कत और प्रभुताशाली प्रोफेसरों की ‘रिकमंडेशन‘ के ज़रिये किसी ‘स्काॅलरशिप‘ का कोई ‘आॅफ़र‘ हासिल कर लेना या फिर विद्यालय से ‘डिप्लोमे‘ की सीढ़ी लगा कर सीधे मुम्बई के फिल्म उद्योग में जगह बनाना। हिन्दी रंगमंच को मजबूती देने के नाम पर चलाये जा रहे इस संस्थान से प्रतिवर्ष करीब दो दर्जन रंगकर्मी प्रशिक्षित हो कर निकलते हैं और इनमें से पंचानबे प्रतिशत सीधे मुम्बई चले जाते हैं। इनमें से शायद ही कोई अपवादस्वरूप रंगमंच की ओर मुड़ कर देखता है पर जिस किस्म के रंगमंच में वे प्रशिक्षित होते हैं, न तो पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में उसकी स्वीकार्यता है और न ही उसे आकार दे पाने का सामथ्र्य। अन्ततः ऐसे डिप्लोमाधारियों की नियति उन्हें मुम्बई की उस बीहड़ मायानगरी का कच्चा माल बनने पर मजबूर करती है जहाँ वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध तो हो जाते हैं परन्तु प्रोफेशनल स्तर पर उन्हें सफलता नहीं मिलती। रंगकर्म के परित्याग के बदले उन्हें मिल पाता है निचले दर्ज़े का कोई यांत्रिक काम और एक बहुत महीन किस्म की व्यापारिक एवं सांस्कृतिक गुलामी, जहाँ उनसे आधी उम्र का कोई स्टारपुत्र, मंत्रीपुत्र, कुबेरपुत्र या दाऊद का साला उनका मालिक और नायक बना बैठा होता है। ये सवाल बहुत गहरे, व्यापक और जटिल हैं जिन्होंने दशकों से हिन्दी रंगमंच को अपनी चपेट में ले लिया है।
चार नवम्बर को रानावि के छात्र शशिभूषण की मौत रानावि के ही साझीदार और मौत बाँटने के लिये कुख्यात नोएडा के एक अस्पताल में अत्यन्त संदिग्ध परिस्थितियों में हो गयी। इस अस्पताल में उनतीस अक्टूबर को भर्ती हुए शशि का जाॅन्डिस के लक्षण बता कर इलाज शुरू किया गया और छह दिन बाद यानि तीन नवम्बर को उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था, पर दुबारा बेहोशी के बाद जब फिर से उसे भर्ती कराया गया तो डाॅक्टरों ने इस बार उसे डेंगू होने की पुष्टि की। अगले दिन दोपहर तक उसे आई.सी.यू मंे रखा गया जहाँ करीब साढ़े बारह बजे उसकी मौत हो गयी। कोई नहीं जानता इस बीच उसके साथ क्या हुआ, उसे कौन सी दवाइयाँ दी गयीं। तीन नवम्बर को डिस्चार्ज होने के बाद शशि ने कई दोस्तों को फोन कर कहा था कि अब वह पूरी तरह ठीक है और वापस लौट रहा है। किसे पता था यह उसकी आखि़री बातचीत थी। अस्पताल की भूमिका तो इस मौत के मामले में शुरू से अन्त तक कठघरे में है ही पर यहाँ कुछ और भी बातें ग़ौर करने लायक हैं। उनतीस अक्टूबर से चार नवम्बर के बीच यदि शशि के सहपाठियों की बात छोड़ दें, तो क्यों रानावि के प्रशासन का एक भी आदमी अस्पताल में उसका हाल-चाल पूछने नहीं गया। समाज को सुसंस्कृत और संवेदनशील बनाने निकले रानावि के कर्मयोगी प्रशासक प्रोफेसरों ने क्यों उसकी तरफ से आँखें मूँद रखी थीं। चार नवम्बर को शशि की मौत की ख़बर आने के बाद आनन फानन में जो सबसे पहला काम उन्होंने किया वह था लाश को हवाई रास्ते से पटना पहुँचाने का इन्तजाम। एक तो उन्होंने लाश के पोस्टमार्टम की चर्चा तक नहीं की और जब इस बाबत कुछ रंगकर्मियों ने दबाव डाला तो मुख्य प्रशासक ने बेरुखी से कहा कि उनका इससे कोई सरोकार नहीं है। हद तो यह कि उन्होंने अपने ही विद्यालय के एक छात्र की लाश तक को विद्यालय में दर्शन के लिये रखने से मना कर दिया और मजबूरन उसे हाॅस्टल में रखा गया। पिछले दस दिनों के दरम्यान प्रशासन ने न तो आधिकारिक तौर पर इस मौत पर कोई सफाई दी है और न ही उसके बर्तावों से कभी भी ऐसा ज़ाहिर हुआ है कि इस मौत का उसे कोई अफ़सोस भी है। इससे पहले भी करीब आठ साल पहले जब पटना के रंगान्दोलन के नेतृत्वकर्ता युवा रंगकर्मियों में से एक विद्याभूषण की मौत रानावि के अध्ययन कक्ष में घायल होने के बाद अस्पताल में हो गयी थी तो पटना के रंगकर्मियों ने इस मामले में रानावि द्वारा बरती गयी भीषण लापरवाही के खि़लाफ मोर्चा लिया था परन्तु तब भी विद्यालय प्रशासन ने इस मौत की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था और इसे महज एक दुर्घटना कह कर उन सभी सवालों को दरकिनार करने की कोशिश की थी जो रानावि की रहस्यमय प्रशिक्षण पद्धति और प्रशिक्षु रंगकर्मियों के जीवन को तुच्छ समझने वाली उसकी संस्कृति को लेकर उठाये गये थे। उस समय भी रानावि के पास इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं था कि क्यों एक नाटक में निरर्थक प्रदर्शन के लिये वह पचास हज़ार की घास लगाने में कोई कोताही नहीं बरतता पर एक रंगकर्मी जो अपने माता-पिता, अपने संगठन और अपने राज्य की उम्मीदों को अपने साथ लेकर आता है, उसकी ज़ि़न्दगी तक की सुरक्षा को यहाँ कोई महत्व नहीं दिया जाता। रानावि ने शशि के मामले में भी अस्पताल की इस भयावह कारगुज़ारी पर चुप्पी साध रखी है और इस तरह उसे क्लीन चिट देने की कोशिश की है। असल में यह शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ‘अवांछनीय‘ तत्त्वों के प्रति रानावि की चिरकालिक घृणा की ही अभिव्यक्ति है वरना अगर ऐसी घटना किसी उच्चवर्गीय सुकुमार ‘बेटे‘ के साथ हुई होती तो अब तक इस विद्यालय की चूलें हिला दी जातीं और लाखों के मुआवज़े के साथ उच्चस्तरीय जाँच समिति की घोषणा भी हो चुकी होती। पर संस्कृति और रंगमंच के इन चतुर चालबाज़ों को अच्छी तरह पता है कि शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ये रंगकर्मी सामाजिक स्तर पर उस खास परिवेश से ताल्लुक रखते हैं जहाँ वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में अक्षम हैं और इसलिये एक अजनबी उच्च संस्कृति, उच्च भाषा और उच्च ज्ञान के चक्रव्यूह में फँसकर वे अन्ततः अपनी भोली, प्रतिभावान ज़िन्दगी को दाँव पर लगाते ही रहेंगे। ऐसे लोगों से डरने की क्या ज़रूरत है।
ऐसे में उम्मीद केवल पटना जैसी जगहों के संस्कृतिकर्मियों और रंगकर्मियों से ही की जा सकती है कि वे अपने असाधारण रंगकर्मियों की क्रमवार मौतों पर बदलावकारी हस्तक्षेप करेंगे।

Friday, June 12, 2009

हबीब दा की कुछ यादें
















हबीब तनवीर होने का मतलब


अशोक वाजपेयी
जो लोग मध्यप्रदेश की अपनी सांस्कृतिक यात्रा से वाकिफ हैं उनको ये बताने की जरूरत नहीं है कि न सिर्फ इस रंगयात्रा में बल्कि संस्कृति यात्रा में हबीब तनवीर की केन्द्रीय भूमिका रही है.
जब भारत भवन में रंगमंडल बनाने की बात हुई थी तो सबसे पहले निर्देशक का प्रस्ताव लेकर मैं उनके पास गया था। उन दिनों उनके लिए ये संभव नहीं था कि वो अपने छत्तीसगढ़ के रंग कलाकारों को छोड़कर यहां आएं. या हमारे लिए संभव नहीं था कि भारत भवन में सिर्फ छत्तीसगढ़ी के कलाकारों को लेकर एक रंग मंडल बनाएं. बहरहाल वो नहीं आ सके थे. मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ और बाद में सरकारी नौकरी में थोड़े दिन छत्तीसगढ़ में काम करने का भी मौका मिला. लेकिन मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने छत्तीसगढ़ को वैसा जाना था, जैसा हममें से बहुतों ने सबसे पहले छत्तीसगढ़ी कलाकारों को हबीब तनवीर के नाटकों में देखकर जानना शुरू किया. मुझसे कोई सलाह क्यों लेगा. आजकल तो वैसे भी नहीं लेता. लेकिन अगर ले तो इस नए छत्तीसगढ़ राज्य का पहला राज्यपाल हबीब तनवीर को बनाना चाहिए....अगर किसी एक व्यक्ति का नाम लिया जा सकता है पिछले पचास वर्ष में, जिसने छत्तीसगढ़ को उसकी अस्मिता दी है, उसकी पहचान दी है, और छत्तीसगढ़ पर जो जिद करके अड़ा रहा है. और ये जिद सारे संसार में उन्हें ले गई है तो वह हबीब तनवीर हैं.एक तो हिन्दी में ही नाटक करना कठिन है, ऐसे में हम कभी नहीं सोचते थे कि एक बोली और वो भी हिन्दी की एक उपबोली में नाटक करें. और उस नाटक को इस हद तक ले जाएं, इतने बरसों तक ले जाएं. बोली जो निपट स्थानीय है. और प्रभाव और लक्ष्य जो सार्वभौमिक है. हबीब तनवीर ने एक तो पहली बार ये सिद्ध किया कि बोली में भी समकालीन होना न केवल संभव है बल्कि बोली भी समकालीनता का ही एक संस्करण है. आप में से बहुतों को ये याद होगा कि हबीब तनवीर भारत भवन के आरंभिक न्यासियों में से थे. भारत भवन (अब तो भारत भवन का अनौचित्य बताना जरूरी है. लेकिन उस जमाने में हम लोग औचित्य बताते थे.) के मूल में ये परिकल्पना थी कि समकालीन सिर्फ शहर में रहने वाला नहीं है. वो परिकल्पना ये थी कि समकालीन सिर्फ वो नहीं है जो तथाकथित एक नागरिक किस्म की आधुनिकता में फंसा हुआ है. समकालीन वो भी है जो जंगल में रहता है. जो पहाड़ में रहता है. जो शायद किसी तरह की समकालीन अभिप्रायों से बिल्कुल अनजान है.असल में अपने-अपने ढंग से अलग-अलग क्षेत्रों में तीन लोगों ने मध्यप्रदेश में ये काम किया. सबसे क्रांतिकारी काम तो निश्चय ही हबीब तनवीर का है. जिन्होंने छत्तीसगढ़ की बोली को लेकर काम किया. और सिर्फ बोली नहीं, बोली के साथ जो कुछ जुटा होता है, उन सब पर. बोली लेना तो आसान काम है. लोकगीत वोकगीत गाते रहते हैं आकाशवाणी पर. उससे कुछ बात बनती-वनती नहीं है. लेकिन बोली के साथ जो समूची जातीय स्मृति है, जो समूची लोक संपदा है, जो उसके बिंब हैं, जो उसकी मुद्राएं हैं, उन सबको गूंथकर कुछ ऐसा करना जो स्थानीय भी है और जो स्थानीयता से आगे भी जाता है. अधिकांश लोगों को छत्तीसगढ़ी समझ में नहीं आती थी. हिन्दी वालों को भी नहीं आती है तो गैर हिन्दी वालों को क्या आती. लेकिन इससे उनके उनके नाटक के प्रभाव में कभी कोई क्षति नहीं हुई. कोई हानि नहीं हुई. एक काम किया रंगमंच में हबीब तनवीर ने. दूसरा काम किया कुमार गंधर्व ने. मालवी लोकसंगीत को लेकर एक शास्त्रीय संगीत को सबवर्ड करने का काम. ये तीनों काम असल में बहुत ही आधुनिक शब्दावली में कहें तो सबर्वशन के काम हैं. तीनों लोगों के.हबीब तनवीर ने आधुनिक भारतीय रंगमंच को सबवर्ड किया. उसको उसकी तथाकथित यथार्थवादी और एक तरह की पश्चिम की नकल में हो रहे यथार्थवादी आग्रहों से मुक्त किया. सबवर्ड किया, इस अर्थ में भी कि बोली में शास्त्र को भी और आधुनिक को भी, दोनों को अपने में संभव करना शुरू किया. बहुतों ने देखा होगा ‘मिट्टी की गाड़ी’. मैंने पहली बार अपने जीवन में यह देखा था कि शास्त्र को लोक कैसे मुंह चिढ़ाता है. कैसे जब संस्कृत के, मतलब ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘शूद्रक’ अद्भुत नाटक है. या ‘मुद्राराक्षस’ की संस्कृत की पदावली. संस्कृत के वक्तव्य यकायक छत्तीसगढ़ी में जब बोले जाते थे या छत्तीसगढ़ी कलाकार उनको अपने ढंग से बोलते थे. तो वो जो एक बहुत महिमा मंडन था संस्कृत का. एक विराट आभिजात्य था जो अपने आपमें बहुत सुंदर है. मैं उसकी अवमानना नहीं करना चाहता. वो महान है. लेकिन उसको जैसे मुंह चिढ़ाते थे ये लोग. जैसे एक डिप्रेशन होता है शास्त्र का लोक द्वारा. बिना शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन किए. शास्त्र को लोक में ऐसे संभव जैसे हबीब तनवीर ने बनाया. वैसे ही एक दूसरे स्तर पर कुमार गंधर्व ने बनाया. कौन-सा ऐसा शास्त्रीय गायक है जो तीन घंटे का एक मालवा की लोक धुनें कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकता है. थोड़ा कजरी वजरी गा देते थे अंत में. बहुत सारे कलाकार एक थोड़ा क्षेत्रिय, थोड़ा लौकेक छौंक लगाने के लिए आखिर में. लेकिन बड़े-बड़े उस्ताद बड़े-बड़े पंडित ये हिम्मत नहीं कर सकते थे कि लोक संगीत का एक पूरा कार्यक्रम प्रस्तुत कर दें. जो कुमार गंधर्व ने किया. तीसरा काम हमारे मित्र जगदीश स्वामीनाथन ने कला के क्षेत्र में किया. भारत भवन के माध्यम से. जहां लोक और आदिवासी कलाकार को वही समकक्षता दी जो समकालीन कला को हासिल थी. अकबर पदमसी और हुसैन और रजा और मंजीत बावा के साथ-साथ प्रेमा फात्या और जनगण सिंह श्याम और वो सब लोग आए. मिट्टी बाई, भूरी बाई इत्यादि. ये दिलचस्प बात है कि ये तीनों काम मध्यप्रदेश में हुए. ये दिलचस्प बात नहीं है इस अर्थ में कि ये शुद्ध संयोग है. ये कोई भौगोलिक या जैविक संयोग नहीं है कि ऐसा यहां संभव हुआ. दो लोग ऐसे थे जो असल में मध्यप्रदेश के नहीं थे. कुमार गंधर्व मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. स्वामीनाथन भी मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. हबीब तनवीर मूलत: मध्यप्रदेश के हैं. लेकिन ये इसलिए हिन्दुस्तानी आधुनिक कला परिदृश्य में पिछले पचास वर्षों में, मुझे ये कहने की इजाजत दीजिए. कम से कम भोपाल में तो कहा ही जा सकता है; आधुनिकता का जो सबर्वशन तीनों ने किया, उसमें आधुनिकता का जो दृश्य था वो मौलिक रूप से बदल दिया.



http://raviwar.com/ से साभार

Tuesday, January 27, 2009

मानो पढ़ना अभिभावकों को हो

राजकिशोर
पतन का एक लक्षण यह है कि हर चीज अपनी उल्टी स्थिति में दिखाई पड़ती है। किसान किसान नहीं रह जाता, व्यापारी हो जाता है। व्यापारी अपने उत्पादों के लिए कच्चा माल जुटाने के लिए जमीन खरीदता है और खेती करवाने लगता है। कवि-लेखक पैसेवालों का गुणगान करने लगते हैं और पैसेवाले देश को बताने लगते हैं कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए। शासन करनेवाले बुद्धिजीवी को नौकर रखते हैं और बुद्धिजीवी वही कहने लगते हैं जो उन्हें रोजगार देनेवाले सुनना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षा मात्र शिक्षा कैसे रह सकती है? उसकी खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। स्कूल-कॉलेजों में शिक्षक की हैसियत सबसे नीचे चली जाती है और प्रबंधक तय करने लगते हैं कि उनके संस्थान में किसे प्रवेश मिलेगा और किन शर्तों पर मिलेगा।
दिल्ली में आजकल नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश चल रहा है। अनेक स्कूलों ने अपने दरवाजे पर नोटिस टांग दिया है : एडमिशन फुल। जहां प्रवेश चल रहे हैं, वहां जितनी कार्यवाही खुले में हो रही है, उससे ज्यादा कार्यवाही गोपन में । जब से न्यायालय ने आदेश दिया है कि नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश के लिए बच्चों का इंटरव्यू नहीं लिया जाएगा और प्रवेश "पहले आओ पहले पाओ के आधार पर होगा, तब से स्कूल प्रबंधकों ने बच्चों का चयन करने के बदले अभिभावकों का चयन करना शुरू कर दिया है। प्रतिष्ठित स्कूलों में यह पहले भी होता था, पर अब सभी प्रबंधक इस उत्पादक विधि से काम लेने लगे हैं। वे छात्रों को नहीं मापते (पहले भी कहां मापा जाता था -- यह एक ढोंग था, ताकि कम अमीर परिवारों के बच्चों को ठुकराया जा सके), सीधे अभिभावकों को मापते हैं। जिन बच्चों को नर्सरी के लिए लेना है, उनकी प्रतिभा और ज्ञान में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं होता। ईश्वर के कारखाने में इतना ऊंचा-नीचा नहीं है। लेकिन संसार में आ चुकने के बाद बच्चे की सांसारिक हैसियत उसके माता-पिता (ज्यादातर पिता, क्योंकि माता की हैसियत खुद पिता की हैसियत से तय होती है) से निर्धारित होती है।
इसलिए अभिभावक की परीक्षा लेने के लिए एक अंक पत्र बना लिया जाता है -- उसने कितनी पढ़ाई की है, उसका वित्तीय स्तर क्या है, वह किस पेशे में है, उसकी पत्नी की शैक्षणिक स्थिति क्या है, घर में अंग्रेजी बोली जाती है या मातृभाषा, चार चक्के वाला वाहन है या नहीं और है तो कौन-सा वाहन है आदि-आदि पूछा जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लिए अंक निर्धारित कर दिए जाते हैं। जिस अभिभावक को अच्छे अंक मिलते हैं, उसके बच्चे को ले लिया जाता है। इसके द्वारा प्रबंधक का आशय यह होता है कि हम सफल और शिक्षित परिवारों के बच्चों को ही पढ़ाएंगे, ताकि हमारे स्कूल का नाम रोशन हो। इन अभिभावकों से भी अच्छे-खासे पैसे वसूल किए जाते हैं। ये अपने बच्चों के प्रवेश की खुशी में दे भी देते हैं। पचीस-तीस हजार के लिए क्या किसी को दुखी करना। इतना तो एक बर्थडे पर खर्च हो जाता है।
उनका क्या होता है जिनके बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता? यह किस्सा ज्यादा मजेदार है। सही व्यवस्था में हर आदमी का एक भविष्य होता है, गलत व्यवस्था में भविष्य की खरीद-बिक्री की प्रतिद्वंद्विता होती है। जो अभिभावक फेल हो जाता है, वह मुख्य सड़क से निकल कर अंधेरी-बंद गलियों में टहलने लगता है। यहां उसे बताया जाता है कि ढाई लाख रुपए देने से काम बन जाएगा। जिनकी जेब फूली हुई होती है और मुट्ठी खुली हुई, वे ऐसे किसी प्रस्ताव की प्रतीक्षा करते ही होते हैं। चट मंगनी पट ब्याह। उनके बच्चों को दाखिला मिल जाता है। मुश्किल उनके सामने पेश आती है जो इतना खर्च करना नहीं चाहते या जिनकी इतनी सामर्थ्य नहीं है। वे स्कूल-दर-स्कूल भटकते हैं, सोर्स की खोज करते हैं फिर अंतत: किसी ऐसे-तैसे स्कूल में बच्चे को प्रवेश दिला कर भारी मन से घर लौटते हैं। सुना है, तक्षशिला विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक विद्वान बैठता था। जिस विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना होता था, उसकी परीक्षा वह विद्वान ही लेता था। विद्वान द्वारा प्रमाणित विद्यार्थी को प्रवेश मिल जाता था। यह तरीका इसलिए निकाला गया होगा कि सिर्फ उन्हीं छात्रों को लिया जाए जो वाकई पढ़ना चाहते हैं। इसी का आधुनिक रूप है, इंट्रेन्स टेस्ट। मतलब हम तक्षशिला विश्वविद्यालय के दिनों से थोड़ा भी आगे नहीं बढ़े हैं, इसके बावजूद कि तब शिक्षा पर होनेवाला खर्च बहुत नगण्य था और आज लगभग हर देश के पास इतने संसाधन हैं कि वह अपने हर बच्चे को नौनिहाल बना सके। क्या यह बाजिब है कि आगे पढ़ने का अधिकार उन्हें ही दिया जाए जो पहले से ही पढ़ने में आगे हैं? मैं ऐसे कॉलेजों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता जहां सिर्फ होनहार बच्चों को लिया जाता है और उन्हें रगड़-रगड़ कर चमकाया जाता हैं। मैं ऐसे कॉलेजों के खुलने का इंतजार कर रहा हूं जहां सबसे कमजोर विद्यार्थी को सबसे पहले लिया जाएगा और उसे योग्य से योग्य बनाने की कोशिश होगी। हर सोना कीमती है, पर पत्थर होते हुए भी पारस सोने से ज्यादा कीमती है जो लोहे को भी सोना बना देता है। पारस पत्थर एक मिथक है। प्रकृति की सीमा है। वह अपने नियमों को तोड़ नहीं सकती। लेकिन मनुष्य रोज एक नियम बना सकता है और अगले दिन उसमें सुधार कर सकता है। जिस व्याकरण के तहत यह होता है, उसका नाम है संस्कृति। शिक्षा संस्कृति का अंग है।
संस्कृति की मांग यह है कि हर बच्चे को विकसित होने का एक जैसा अधिकार मिले। इसी नीयत से नर्सरी में प्रवेश के लिए बच्चों की परीक्षा लेना बंद कर दिया गया है। लेकिन न्यायालय ने अभिभावकों की परीक्षा लेने पर रोक नहीं लगाई। सो स्कूलों के प्रबंधक इस तरह आचरण कर रहे हैं जैसे इन अभिभावकों का ही प्रवेश होगा और ये ही कक्षा में पढ़ने आएंगे। यह बच्चों के साथ अन्याय है। उन्हें तो किसी ने यह अधिकार नहीं दिया कि वे अपने अभिभावक चुन लें। फिर अभिभावक की किसी कमी के कारण वे क्यों भुगतें?
शिक्षा व्यवस्था के इन अनैतिक हठों के परिणामस्वरूप ही शिक्षा का प्रसार बढ़ने के बावजूद समाज में सचमुच के शिक्षित लोग कम दिखाई देते हैं। जेब में कोई भारी डिग्री होने से ही दिमाग के बंधन नहीं खुल जाते। बल्कि अक्सर देखा जाता है कि शिक्षित लोग अनपढ़ लोगों से ज्यादा संकीर्ण और स्वार्थी होते हैं। गांधी जी ने कहा था कि मुझे सबसे अधिक निराशा भारत के बौद्धिक वर्ग से हुई है। आज का गांधी कहेगा कि इस देश के शिक्षित लोग समाज पर सबसे बड़ा बोझ हैं।
व्व्व.राष्ट्रीयसहारा.कॉम से साभार