Tuesday, July 13, 2010

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !

(साथी अजय प्रकाश ने अपने ब्लॉग जनज्वार पर साहित्य और संस्कृति की समकालीन अवसरवादिता, वैचारिक दोगलापन और ठकुरसुहाती को लक्ष्य कर एक अत्यंत ज़रूरी बहस छेड़ी है . उनका यह प्रयास स्तुत्य है और उनके समर्थन में जुटते हुए मैं इस पूरी बहस को यहाँ रख रहा हूँ. साथ ही इस प्रकरण पर लोगों ने जो  प्रतिक्रियाएं दी हैं उन्हें भी प्रस्तुत किया जा रहा है -राजेश चन्द्र .)
हत्यारों की गवाहियां अभी बाकी हैं राजेंद्र बाबू?
अजय प्रकाश

देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।


इसे सनसनी माने या सच, मगर कार्यक्रम तय है कि इस बार साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधति राय और सलवा जुडूम अभियान के मुखिया छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन आमने-सामने होंगे। यह जानकारी सबसे पहले हिंदी समाज के जनपक्षधर लोगों में पढ़ी जाने वाली मासिक पत्रिका ‘समयांतर’ के माध्यम से जनज्वार तक पहुंची, जिसकी पुष्टि अब ‘हंस‘ भी कर चुका है। ‘हंस’ से मिली जानकारी के मुताबिक इन दो मुख्य वक्ताओं के अलावा अन्य वक्ता भी होंगे।

तमाशे की फ़िराक में राजेंद्र बाबू
हर वर्ष 31जुलाई को होने वाले इस कार्यक्रम का महत्व इस बार इसलिए भी अधिक है कि ‘हंस’ अपने प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की कोशिश होगी कि धमाकेदार ढंग से पत्रिका की सिल्वर-जुबली का मजा लिया जाये। मजा लेने के शगल में पक्के अपने राजेंद्र बाबू ने माओवाद के मसले पर बहस का विषय रखा है, ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।’

‘हंस’ ऐसे किसी ज्वलंत मसले को लेकर ऐसा संस्कृतनिष्ठ और घुमावदार शीर्षक रखेगा, हतप्रभ करने वाला है। खासकर तब जबकि पत्रिका के तौर पर ‘हंस’ और संपादक के बतौर राजेंद्र यादव खुल्लमखुल्ला, खुलेआमी के हमेशा अंधपक्षधर रहे हों। वैसे में देश के मध्य हिस्से में चल रहे माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का शीर्षक रखने में राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये हैं,जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

हिंदी में प्रतिष्ठित कही जाने वाली इस पत्रिका के संपादक का यह शीर्षक चिंता का विषय है और अनुभव का भी। अनुभव का इसलिए कि एक कार्यक्रम के दौरान एक दूसरे राजनीतिक मसले पर श्रोता उनके इस रूप से रू-ब-रू हुए थे। संसद हमले मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद फांसी की सजा पाये अफजल गुरु को लेकर ‘जनहस्तक्षेप’दिल्ली के  गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम किया था जिसमें अन्य वक्ताओं के साथ राजेंद्र यादव भी आमंत्रित थे।

बोलने की बारी आने पर संचालक ने जब इनका नाम उदघोषित  किया तो अपने राजेंद्र बाबू ने मामले को कानूनी बताते हुए वकील कमलेश जैन को बोलने के लिए कहा। कमलेश जैन ने अफजल गुरु को लेकर वही बातें कहीं जो कि सरकार का पक्ष है। कमलेश सरकारी पक्ष को इस तरह पेश करने लगीं कि मजबूरन श्रोताओं ने हूटिंग की और आयोजकों को शर्मशार होना पड़ा। जबकि हम सब जानते हैं कि अफजल का केस लड़ रहे वकील,सामाजिक कार्यकर्ता और जन पक्षधर बुद्धिजीवी इस मामले में फेयर ट्रायल की मांग करते रहे हैं। कारण कि सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी की सजा ‘कंसेंट आफ नेशन’ के आधार पर मुकर्रर की थी।

अफजल से ही जुड़ा एक दूसरा मसला ‘हंस’ में लेख प्रकाशित करने को लेकर हुआ। जाने माने पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार एवं ‘हंस’ के सहयोगी गौतम नौलखा ने कहा कि, ‘अफजल मामले की सच्चाई हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि ‘हंस’ में इस मसले पर लेख छपे।’ गौतम के इस सुझाव पर राजेंद्र यादव ने लेख आमंत्रित किया। लेख उन तक पहुंचा। उन्होंने तत्काल पढ़ा और लेख के बहुत अच्छा होने का वास्ता देकर अगले अंक में छापने की बात कही। मगर बात आयी-गयी और वह लेख नहीं छपा।

अब सवाल यह है कि पिछले छह वर्षों से सलवा जुडूम अभियान के तमाशबीन बने रहे राजेंद्र यादव कहीं इस तमाशायी उपक्रम के जरिये अपने होने का प्रमाण देने की तो कोशिश में नहीं लगे हैं। तमाशायी कार्यक्रम इसलिए कि लेखिका अरुंधति राय सलवा जुडूम अभियान, माओवादियों और सरकार के रवैये पर क्या सोचती हैं, उनके लेखन के जरिये हम सभी जान चुके हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रिय डीजीपी विश्वरंजन ‘सलवा जुडूम’को एक जन अभियान मानते हैं,यह छुपी हुई बात नहीं है। याद होगा कि पिछले वर्ष दर्जनों जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने रायपुर में विश्वरंजन के इंतजाम से हो रहे ‘प्रमोद वर्मा स्मृति’कार्यक्रम में इसी आधार पर जाने से मना कर दिया था। इस बाबत विरोध में पहला पत्र विश्वरंजन के नाम कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा था। विरोध का मजमून हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘द पब्लिक एजेंडा’में छपे विश्वरंजन के एक साक्षात्कार के आधार पर कवि ने लिखा था जिसमें डीजीपी ने सलवा जुडूम को जनता का अभियान बताया था।

ऐसे में फिर बाकी क्या है जिसके लिए राजेंद्र बाबू अरुंधति-विश्वरंजन मिलाप कराने को लेकर इतने उत्साहित हैं। क्या हजारों आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने, माओवादियों के सफाये के बहाने आदिवासियों को विस्थापित किये जाने की साजिशों से राजेंद्र बाबू वाकिफ नहीं हैं। राजेंद्र बाबू क्या आप माओवाद प्रभावित इलाकों में सैकड़ों हत्याएं,बलात्कार आदि मामलों से अनभिज्ञ हैं जो आपने विश्वरंजन को आत्मस्विकारोक्ति के लिए दिल्ली आने का बुलावा भेज दिया है। रही बात उन भले मानुषों की सोच का जो यह मानते हैं कि इस बहाने माओवाद के मसले पर बहस होगी और राष्ट्रीय मसला बनेगा फिर तो राजेंद्र बाबू आप ऐसे सेमीनारों की झड़ी लगा सकते हैं।

जैसे अभी विश्वरंजन को बुलाने की बजाय भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बुलाइये जिससे राष्ट्र के सामने वह अपना पक्ष रख सके कि उसने त्रासदी बुलायी थी या आयी थी। इसी तरह सिख दंगों के मुख्य आरोपियों और गुजरात मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को भी दंगे,हत्याओं और बलात्कारों की मजबूरियां गिनाने के लिए एक चांस आप ‘ऐवाने गालिब सभागार’में जरूर दीजिए। समय बचे तो निठारी हत्याकांड के सरगना पंधेर और कोली को बुलावा भिजवा दीजिए जिससे कि उसके साथ अन्याय न हो,कोई गलत राय न बनाये। राजेंद्र बाबू आप ऐसा नहीं करेंगे और मुझे अहमक कहेंगे क्योंकि इन सभी पर राज्य ने अपराधी होने या संदेह का ठप्पा लगा दिया है। तब हम पूछते हैं राजेंद्र बाबू आपसे कि जिसको जनता ने अपराधी मुकर्रर किया है,उसकी गवाहियों में मुंसिफ बनने की अनैतिकता आप कैसे कर सकते हैं?

राजेंद्र बाबू अगर आप कुछ बहस की मंशा रखते ही हैं तो गृहमंत्री पी.चिदंबरम को बुलवाने का जुगाड़ लगाइये। मगर शर्त यह रहेगी कि 5 मई को जेएनयू में जिस तरह की डेमोक्रेसी वहां के छात्रों को झेलनी पड़ी, जिसे वहां के छात्रों ने चिदंबरी डेमोक्रेसी कहा, इस बार उनके आगमन पर माहौल वैसा न हो। गर यह संभव नहीं है तो विश्वरंजन से क्या बहस करेंगे, वह कोई कानून बनाते हैं?

राजेंद्र बाबू आप बड़े साहित्यकार हैं। सुना है आपने दलितों-स्त्रियों को साहित्य में जगह दी है। इस भले काम के लिए मैं तहेदिल से आपको बधाई देता हूं। साथ ही सुझाव देता हूं कि साहित्य में पूरा जीवन लगा देने के बावजूद गर आप दण्डकारण्य को एक आदिवासी साहित्यकार नहीं दे सके तो,आदिवासियों के हत्यारों की जमात से आये प्रतिनिधियों को साहित्यकार बनाने का तो पाप मत ही कीजिए।

राजेंद्र बाबू आप भी जानते हैं कि साहित्यकारों की संवेदनशीलता और संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। आज बाजार का रोगन चढ़ा है, मगर ऐसा भी नहीं है सब अपना पिछवाड़ा उघाड़े खडे़ हैं और फिर हमारे युवा मन का तो ख्याल कीजिए। हो सकता है उम्र के इस पड़ाव पर आप डीजीपी कवि की कविताओं को सुनने में ही सक्षम हों,मगर हमारी निगाहें तो उन खून से सने लथपथ हाथों को देखते ही ताड़ जायेंगी। एक बात कहें राजेंद्र बाबू, एक दिन आप अपने नाती-पोतों को वह हाथ दिखाइये, अच्छा ठीक है किस्सों में अहसास ही कराइये। यकीन मानिये आप बुद्धना, मंगरू, शुकू, सोमू, बुद्धिया को अपने घरों में पायेंगे जो पिछले छह वर्षों से दण्डकारण्य क्षेत्र में तबाह-बर्बाद हो रहे हैं। इन जैसे हजारों लोग जो आज मध्य भारत में युद्ध की चपेट में हैं, आपको एक झटके में पड़ोसी लगने लगेंगे और आप साहित्य के वितण्डावादी आयोजन की जगह एक सार्थक पहल को लेकर आगे बढ़ेंगे।

महोदय कवि हैं?
उम्मीद है कि अर्जी पर आप गौर करेंगे। गौर नहीं करने की स्थिति में हमें मजबूरन अरुंधति राय से अपील करनी पड़ेगी। फिर वही बात होगी कि देखो हिंदी से बड़ी अंग्रेजी है और न चाहते हुए भी सारा क्रेडिट अरुंधति के हिस्से जायेगा। हिंदीवालों की पोल खुलेगी सो अलग। इसलिए राजेंद्र बाबू घर की इज्जत घर में ही रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हमारी भाषा में जनपक्षधरता को गहराई मिले। कम-से-कम अपने किये पर समाज के सबसे कमजोर तबके (आदिवासियों)के सामने तो शर्मसार न होना पड़े। खासकर तब जबकि उस तबके ने हमारे समाज और सरकार से सिवाय अपनी आजादी के किसी और चीज की उम्मीद ही न की हो।

मिट्टी में मिलाने में क्यों तुले हैं आप?


दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकार  विश्वदीपक का प्रकाशित कर  रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी.


आदरणीय राजेंद्र जी,

पहले ‘जनज्वार’ से जानकारी मिली और फिर ‘समयांतर’ से इसकी पुष्टि हुई कि आप इस बार ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी में छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को बोलने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। ‘हंस’ अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना रहा है-ये हम सब के लिए खुशी की बात है, लेकिन अपनी पच्चीसवीं सालगिरह पर आप ‘हंस’ को ये तोहफा देंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। अब जबकि ‘हंस’ अपनी भरी जवानी को महसूस कर सकता है इस तरह इसे ‘को-आप्ट’ होने की प्रक्रिया में ले जाने का क्या मतलब?


ऐसा करम करो ना भाई, परछाई ही करण लगे हंसाई.
‘प्रगतिशील चेतना के वाहक’ के तौर पर ‘हंस’ निश्चित रूप से आपका व्यक्तिगत प्रयास है, पर ये इस देश की संघर्षशील जनता की आकाक्षांओं का प्रतिबिंब भी है। इस पत्रिका के जरिए आप उन लाखों के संघर्ष से तादात्मय बिठाने में सफल रहे हैं जिन्हे हर समय की सत्ता ने हाशिए पर धकेल रखा है। यही वो बिंदु है जहां आपकी चेतना एक पहचान पाती हैं, लेकिन इस बार आपने ‘हंस’ की गोष्ठी में विश्वरंजन को आमंत्रित कर खुद को उन्ही लोगों की जमात में शामिल कर दिया है जो ये मानते हैं कि बीच का भी कोई रास्ता होता है, कि माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का मुख्य मुद्दा ‘विकास’ है! सरकार पिछले साठ सालों से उपेक्षित हिस्से का विकास करना चाहती है और माओवादी विकास के खिलाफ हैं!

कमजोरों के खून से सने इन तर्कों के पीछे की मंशा आप नहीं समझते ऐसा नहीं है! फिर राज्य प्रायोजित हिंसा के सबसे बड़े कमांडर को मंच देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं? क्या आपको लगता है कि सरकार के पास अभी भी अपनी सफाई में कुछ कहने को बाकी है? भारतीय राज्य की नेक नीयत पर अगर आपको इतना ही भरोसा है तो फिर आप जो चाहें कर सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या विश्वरंजन जैसे लोगों को मंच देने के बाद आपकी साख यथावत रहेगी? जिस छवि को आपने व्यक्तिगत रिश्तों की कुर्बानी और साहित्य की स्थापित वैचारिक सत्ताओं के खिलाफ संघर्ष करके अर्जित किया है उसको मिट्टी में  मिलाने में क्यों तुले हैं आप?

संभवत: आप मानते हैं कि विश्वरंजन जैसे हत्यारों को मंच देकर आप राज्य प्रायोजित हिंसा के विरोधाभास को उजागर कर पाएंगे- तो ऐसा नहीं है। आप जानते हैं विश्वरंजन बीजेपी की फासीवादी सरकार के चहेते हैं, इसलिए नहीं कि वो बहुत काबिल अधिकारी हैं बल्कि इसलिए कि बीजेपी की नस्लवादी और बुनियादी तौर पर हिंसक सोच को अमल में लाने और वैधता प्रदान करवाने के लिए विश्वरंजन अधिकारी की सीमा से बाहर जाकर व्यक्तिगत प्रयास भी करते हैं। इसी तरह वो कांग्रेस के भी विश्वसनीय हैं। वजह यहां भी साफ हैं। मध्यवर्ग की राजनीति करते-करते कांग्रेस जिस हिंस्र-कॉर्पोरेट-डेमोक्रेसी को एक मॉडल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में है विश्वरंजन उसके लिए मैंदान साफ कर रहे हैं।

 ये अनायास नही है कि अरुंधति भारतीय राज्य को ‘बनाना रिपब्लिक’ की संज्ञा देती है। क्या आप भारतीय लोकतंत्र के क्लप्टोक्रेसी में तब्दील होने को नहीं समझ पा रहे हैं? या जानबूझकर इससे अनजान बने हुए हैं? भारतीय लोकतंत्र की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जिस संख्या बल के आधार पर ये दुनिया के सबसे बड़े और विविध लोकतंत्र होने का दंभ भरता है वही अब इसके निशाने पर है। भारतीय राज्य अब अपने ही आदमियों की हत्या पर आमादा है। और आप हत्यारों के सरदार को मंच देने के लिए बेताब हैं!


यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेन्द्र ठाकुर,  नामवर सिंह,  किताब  विक्रेता अशोक  महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन और आलोक धन्वा : चचा आलोक आप  गाय घाट पर  माला जपते,  तो भी अपने बुजुर्गों  हम शर्मिंदा न होते.

आप जानते हैं कि अमेरिकी कारपोरेट-साम्राज्यवाद के छोटे उस्ताद के तौर पर भारत ने कल्याणकारी राज्य होने की चाहत खो दी है। अब भारतीय राज्य की चिंता ये नहीं है कि हमारे जनगण का जीवन कैसा है, बल्कि उसकी चिंता अब ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लिए कैसे माहौल उपल्ब्ध कराया जाय, कैसे मिशन-चंद्रयान को पूरा किया जाय और कैसे अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाजार को हरम में तब्दील कर दिया जाय!

लेकिन इससे भी शातिराना मंशा ये है कि इस पूरी साजिश को विकास के लुभावने नारे की शक्ल में पेश किया जा रहा है। विश्वरंजन जैसे लोग आज २०१० में वही भूमिका अदा कर रहे हैं जिसकी कल्पना औपनिवेशिक काल में मैकाले ने की थी। अमेरिकी सैन्य साम्राज्यवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार करवाने वाले वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर हम विश्वरंजन को चिन्हित करते हैं। और आप इसे उस बौद्धिक सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में हैं जो कवि है और इसीलिए प्रगतिशील भी है? सही भी है? आपकी भावभंगिमा से लगता है कि आप उस हिंसक और कठोर सामंत के साथ है जिसे कल्याण की मंशा के तहत जनता पर चाबुक चलाने का दैवी अधिकार प्राप्त होता है!

आप ये कह सकते हैं कि ‘लोकतंत्र’ की परंपरा में विरोधी को भी बोलने की आजादी है और विचारों का संघर्ष दरअसल एक स्वस्थ्य परंपरा है। ये तर्क ‘सुअरबाड़े’ (चिदंबरम ने दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद के मसले पर संसद में बयान देते वक्त इस शब्द को कोट किया था) में तब्दील हो चुकी संसद के बारे में भी कहा जाता है, लेकिन आजादी के वर्तमान ढांचे के अंदर सत्ता और विपक्ष जो खेल खेलता है उससे आप अच्छी तरह वाकिफ है।

सर, वक्त कम है और शिकायतें ज्यादा। नुकीली चुभती हड्डियों और आंसुओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं...इसी से हमारा प्रतिरोध खड़ा हो रहा है। मनमोहन और सोनिया के राज में जिस दलाल-हत्यारे वर्ग का उदय हुआ है उसे आप जस्टीफाई कैसे कर सकते हैं? सलवा जुडूम के दौर में हुई हत्याओं, बलात्कारों और मासूमों के कत्ल के बारे में विश्वरंजन की भूमिका को लेकर अगर अभी भी आपके मन में संदेह की गुंजाइश है तो फिर आपसे संवाद की कोई जमीन नहीं बचती है। (In Maoist Country, by Gautan Navlaka and John Myrdal, Economic and political weekly april 17-31, 2010 में गौतम नौलखा ने लिखा है कि सलवा जुडूम के दौर में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव बंदूक की नोंक पर खाली कराए गए, 3 लाख 50 हजार यानि दंतेवाड़ा जिले की आधी जनसंख्या अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हुई है, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बहू बेटियों को मार दिया गया.

आप उन कुछ दुर्गों में  हैं जो अभी तक ढहे नहीं है. फिर भी आप ढहने को  तैयार हैं तो हमारे पास इस विध्वंस को  मंजूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं।


आपका
विश्वदीपक  
अग्रसारित- उन सुधीजनों को जिन्हें मुल्क के बेहतरी की चिंता है. 

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम

प्रिय अजय,

यह मेरी प्रतिक्रिया है ......... नीलाभ

प्रिय अजय प्रकाश और विश्वदीपक,

दोस्तो या तो तुम लोग बहुत भोले हो या फिर सब कुछ जानते-बूझते हुए मामले को व्यर्थ ही उलझा रहे हो.हंस ने अगर इस बार की सालाना गोष्ठी में विश्वरंजन और अरुन्धती राय दोनों को एक ही मंच पर लाने की योजना बनायी है तो इसके निहितार्थ साफ़ हैं. पहली बात तो यह है कि इस बार की गोष्ठी को "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसा शीर्षक दे कर राजेन्द्र जी यह भ्रम देना चाहते हैं कि वे एक गम्भीर बहस का सरंजाम कर रहे हैं. वे यह भ्रम भी पैदा करना चाहते हैं कि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें सबको अपनी बात कहने का  अधिकार है.

दर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी करते रहो और बहस भी चलाते रहो.अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है,लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो,जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है,गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे !अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं.

उधर,हंस के मंच पर और वह भी अरुन्धती राय के साथ आने पर विश्व रंजन को जो विश्वसनीयता हासिल होगी वह नामवर सिंह,आलोक धन्वा,अरुण कमल और खगेन्द्र ठाकुर जैसे महारथियों से अपनी किताब का विमोचन कराने से कहीं ज़्यादा बैठेगी.साथ ही एक जन विरोधी पुलिस अफ़सर की काली छवि को कुछ ऊजर करने का कम भी करेगी. आख़िर हंस "प्रगतिशील चेतना का वाहक" जो ठहरा.

असली मुश्किल अरुन्धती की है.अगर वह शामिल होती है तो राजेन्द्र जी की चाल कामयाब हो जाती है और विश्व रंजन के भी पौ बारह हो जाते हैं. नहीं शामिल होती तो राजेन्द्र जी, विश्व रंजन और उनके होते-सोते हल्ला करेंगे कि देखिये, कितने खेद की बात है, इन लोगों में तो जवाब देने की भी हिम्मत नहीं, भाग गये, भाग गये, हो, हो, हो, हो !

इसलिए प्यारे भाइयो,इस सारे खेल को समझो.यह पूरा आयोजन कुल मिला कर सत्ताधारी वर्ग के हाथ मज़बूत करने की ही कोशिश है.

यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेन्द्र ठाकुर, नामवर सिंह, किताब विक्रेता अशोक महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन और आलोक धन्वा : चचा आलोक आप गाय घाट पर माला जपते, तो भी अपने बुजुर्गों पर हम शर्मिंदा न होते.



अब रहा सवाल हिन्दी साहित्य का --तो दोस्तो विश्व रंजन के कविता संग्रह के विमोचन में जो चेहरे दिख रहे हैं, उनसे हिन्दी साहित्य के गटर की,उसकी ग़लाज़त की,सड़ांध की सारी असलियत खुल कर सामने आ जाती है.वैसे इसकी शुरुआत मौजूदा दौर में करने का सेहरा भी आदरणीय राजेन्द्र जी के सिर बंधा था जब उन्होंने बथानी टोला हत्याकाण्ड के बाद बिहार के सारे लेखकों की बिनती ठुकरा कर लालू प्रसाद यादव से एक लाख का पुरस्कार ले लिया था.उनका पक्ष बिलकुल साफ़ है.यही वजह है कि वे किसी ऐसे स्थान पर नहीं नज़र आते जहां सत्ता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा बनने की आशंका हो.वे किसी पत्रकार के बेटे की शादी की दावत में आई आई सी में " खाने-पीने" का न्योता नहीं ठुकराएंगे,लेकिन फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में जिसे कहते हैं "इन कोल्ड ब्लड"मार दिये गये युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की अन्त्येष्टि में शामिल होने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेंगे.कहां जाना है कहां नहीं जाना इसे ये सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें आप हिन्दी के पुरोधा और सामाजिक परिवर्तन के सूत्रधार बनाये हुए, कातर भाव से उनके कर्तव्यों की याद दिला रहे हैं.

इनमें से कौन नहीं जानता कि बड़े पूंजीपति घरानों के इशारे पर हमारी मौजूदा सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़,उड़ीसा,आन्ध्र और महाराष्ट्र में कैसा ख़ूनी और बेशर्म खेल खेल रही है.लेकिन ये अपने अपने सुरक्षा के घेरे में सुकून से "साहित्य चर्या"में लीन हैं,इसी ख़ूनी सरकार के लोहे के पंजे के कविता संग्रह के क़सीदे पढ़ रहे हैं.क्या इन्हें माफ़ किया जा सकता है ?मत भूलिए कि जो समाज की बड़ी बड़ी बातें करते हैं उनका उतना ही पतन होता है.यह हमारे ही वक़्त की बदनसीबी है कि "गोली दागो पोस्टर" का रचनाकार उसी दारोग़ा के साथ है जिसके उत्पीड़न पर उसने सवाल उठाया था.ये वही अरुण कमल हैं जिन्हों ने लिखा था :"जिनके मुंह मॆं कौर मांस का उनको मगही पान". बाक़ियों की तो बात ही छोड़िए.

तो भी,मैं तुम दोनों को इस बात पर ज़रूर बधाई देना चाहता हूं कि इस चौतरफ़ा ख़ामोशी और गिरावट के माहौल में तुम दोनों ने इस ज़रूरी मुद्दे को उठाया है हालांकि चोट हलकी है साथियो,बहरों को सुनाने के लिए ज़ोरदार धमाका चाहिये.

अन्त में अपने एक प्रिय कवि का कवितांश जिसे हम अब धीरे-धीरे भूल रहे हैं :


ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!



उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,



दु:खों के दाग़ों को तमग़े सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्य किया,
जीवन क्या जिया!!

................

भावना के कर्तव्य त्याग दिये,
हॄदय के मन्तव्य मर डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ ही उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए फंस गये,
अपने ही कीचड़ में धंस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में,
आदर्श खा गये.
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !

comments:


Anonymous said...
शायद ऐसे ही (राजेन्द्र यादव सरीखे) लोगों के लिए किसी ने ठीक ही लिखा है - ऐसी लचीली रीढ़ की हड्डी जो हवा के रुख पर अपनी पीठ बदल ले । शहर में रहने वाले ये बुद्धिवादी दो टांगोँ वाले ऐसे कीड़े - मकोड़े हैं , जो मौसम देखकर ही सैर को निकलते हैं ।
Rangnath Singh said...
बेहतर हो कि आप राजेन्द्र यादव और अरूंधती राय का स्टैण्ड लेकर प्रकाशित करें।
shirish said...
सबसे पहले जब आलोक मेहता के बिकने की खबर आई थी तो हैरत के साथ-साथ यह संदेह भी जताया गया था कि सत्ता द्वारा पूरे खेल में कई और मोहरों को भी आगे किया जा सकता है. मगर यहाँ तो उसके द्वारा बड़े-बड़े महारथियों को मोहरों की तरह खड़ा किया जा रहा है. अच्छे अच्छों के चाल चरित्र में आ रहा अचानक बदलाव किसी गहरी साजिश की तरफ़ संकेत कर रहा है. कहीं सत्ता द्वारा राजनेताओं कि तरह अब बुध्दिजीविओं की भी बड़े पैमाने पर ख़रीद फरोख्त तो नहीं की जा रही है ?
अशोक कुमार पाण्डेय said...
नीलाभ सही कह रहे हैं…आप देखिये न यहां भी स्टैण्ड कौन ले रहा है?
सचिन .......... said...
बढिया। जुबानी जमाखर्च अच्छा है। लेकिन विश्वदीपक, अजय और नीलाभ जी, आप सभी बहुत बेहतर ढंग से जानते हैं कि ऐसे छुटपुट लेखों को राजेन्द्र जी अपने काले चश्मे के कारण ठीक से पढ नहीं पाते। जिस तेज आवाज की आप बात कर रहे हैं वह राजेन्द्र जी को कार्यक्रम स्थल पर ही सुनाई दे पायेगी। सुना है कानों के कच्चे भी हैं। सत्ता ऐसे आयोजन करती रहेगी तो जन को भी उनके विरोध में उठ खडा होना होगा। अपील कीजिए समानधर्मा, समानचेता पत्रकार, लेखकों से कि कार्यक्रम वाले दिन धरना दें और राजेन्द्र जी को इस (कु)कृत्य के लिए माफी मांगने पर विवश करें। यह उनका निजी आयोजन नहीं है, हंस की प्रतिबद्धता भी साबित होनी चाहिए। अगर राजेन्द्र जी अपनी गलती नहीं मानते हैं तो वहीं प्रस्ताव धर लिया जाए। नीलाभ जी, आपके प्रिय कवि को ही याद करते हुए "सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का, वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह, शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा ! .......... .......... इतने में हमीं में से अजीब कराह सा कोई निकल भागा भरे दरबारे-आम में मैं भी सँभल जागा कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार बख्तरबंद समझौते सहमकर, रह गए, दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए, दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे, दढ़ियल सिपहसालार संजीदा सहमकर रह गये !ओ"
Hirawal Morcha said...
sachin ne theek kaha, lekin baat dharne vaghairah se aur aage ki hai. jo kutil jal ve rach rahe use klatne ki aur bhi tarkeeben sochni hongi -- yaad keejiye उधर उस ओर...वह बेनाम.. मुहैय्या कर रह लश्कर. हमारी हार का बद्ला चुकाने आयेगा

comments:

अशोक कुमार पाण्डेय said...
यह हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों का असली चरित्र है मेरे भाई…
अवतन्स said...
बहुत खूब अजय...राजेन्द्र बाबू को शायद खुद की असलियत पता चल हो गई...उनके आगे पीछे पिछवाड़ा खोलने वालों से उम्मीद तो बेईमानी है....
Rangnath Singh said...
यानी इस बार भी हंस का सालाना जलसा हंगामाखेज होगा। राजेन्द्र जी को शायद यही चाहिए था। जबकि इसके बिना भी उनका कार्यक्रम सफल ही रहता।
Anonymous said...
ख़ूब परदाफ़ाश किया है भाई आपने अपने इस लेख में | --अनिल जनविजय
Anonymous said...
ख़ूब परदाफ़ाश किया है भाई आपने अपने इस लेख में | --अनिल जनविजय
चन्दन said...
यह सुविचारित लेख है. यह सही है कि सफाई देने के लिये सबके पास अपने तर्क होते हैं. पर हमें उसके काम से उसका पक्ष तय करना होगा. यह हिन्दी का सामान्य नियम बनता जा रहा है कि काम करने के बाद/अपने विचार रखने के बाद दुबारा अपना पक्ष रखने का मौका माँगा जा रहा है. अपने शब्दो या कार्यों पर लोगो को भरोसा नहीं रहा है यह गलत है. और आश्चर्य की हम सबका पक्ष सुनने को तैयार बैठे रहते हैं.. दुबारा ..तिबारा..
Uday Prakash said...
Wonderfully truthful and straight. Ethics and morality should be restored back in the left and civilian resistance.
pratibha said...
Bahut badhiya Ajay ji. sahi nas pakdi aapne...
दिलीप मंडल said...
विश्वरंजन को हंस का मंच दिया गया तो मैं इस कार्यक्रम का बहिष्कार करूंगा। इससे कितना फर्क पड़ेगा,मुझे नहीं मालूम। लेकिन यह गलत है, इस बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है। विश्वरंजन एक पुलिस अधिकारी के तौर पर कुछ भी कहें, मुझे शिकायत नहीं हैं। इस काम के उन्हें पैसे मिलते हैं। उन्हें पूरी ईमानदारी के ग्रीन हंट का समर्थन करना चाहिए। मैं टीवी पर उनके तर्क सुन लूंगा कि आदिवासियों को मारना क्यों जरूरी है। लेकिन उनकी यही बात मैं हंस के मंच पर सुनने के लिए तैयार नहीं हूं।

comments:


shirish khare said...
राजेंद्र यादव जी अपनी सहूलियत हिस़ाब से तर्क भी निकाल लिया करते हैं. अब देखना है कि इस सवाल पर वह क्या कहते हैं.
अशोक कुमार पाण्डेय said...
उफ़ आलोक धन्वा भी!! वह पोस्टर अब सरकारी सामान बन गया…
Anonymous said...
अबकि बार हम सबसे ख़तरनाक हालातों के बीच खड़े हैं. इमरजेंसी के समय विरोधी पक्ष मजबूत था. मगर आदिवासियों के ख़िलाफ शुरू किए गए इस युद्ध में जिनसे विरोध के लिए आगे आने की उम्मीद थी, वह सत्ता पक्ष की तेल मालिश कर रहे हैं. एक ही सवाल है- सत्ता की चुनौती से इस बार कैसे निपटा जाएगा. क्योंकि इस बार हार जाने का मतलब होगा हमेशा के लिए हार जाना और पूरी तरह से हार जाना.
 
 
 
 

Saturday, February 13, 2010

फैज़ को लाल सलाम


आज  मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ का १०० वाँ जन्म दिवस है. 13 फरवरी 1911 को सियालकोट, पंजाब (अब पाकिस्तान) में इनका जन्म हुआ था. कलम के इस सिपाही को लाल सलाम.
(1)
गुलों में रंग भरे, बादे-नौ-बहार चले 
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो, सबा से कुछ तो कहों
कहीं तो बहरे-खुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह, तेरे कुंजे-लब से हो आगाज़
कभी तो शब, सरे-काकुल से मुश्क्बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकिबत संवार चले
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(2)
कभी-कभी याद में उभरते हैं नक्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की वो कुर्बतें सी, वो फ़ासले से
कभी-कभी आरजू के सेहरा में, आ के रुकते हैं क़ाफले से
वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उन्वां विसाल के से
निगाहों-दिल को क़रार कैसा निशातो-ग़म में कमी कहाँ की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार की है उल्फत नए सिरे से
बहोत गरान है ये ऐशे-तनहा कहीं सुबुकतर कहीं गवारा
वो दर्दे-पिन्हाँ के सारी दुनिया रफीक़ थी जिसके वास्ते से
तुम्हीं कहो रिन्दों-मुह्तसिब में है आज शब कौन फ़र्क ऐसा
ये आके बैठे हैं मैकदे में वो उठके आए हैं मैकदे से
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Saturday, January 30, 2010

आज़ादी के लिए संघर्ष का सन्देश देती हैं गोरख की कविताएँ

‘गोरख पाण्डेय की कविता हमें आज़ादी के लिए संघर्ष का सन्देश देती है। हिन्दी की जो राजनीतिक कविता है उसमें नागार्जुन और गोरख पाण्डेय ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएँ कलात्मकता और लोकप्रियता - दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण हैं। आज जब संस्कृति के क्षेत्र में एक नये धनिक मध्यवर्ग का वर्चस्व हो गया है और जनपक्षधर साहित्य को जानबूझकर हाशिये पर धकेल दिया गया है, तब जनसाहित्य के पक्ष में जो लोग सक्रिय हैं उन्हें गोरख के रचनाकर्म से बहुत कुछ सीखना होगा।’ कनौट प्लेस स्थित इण्डियन काॅफी हाउस में जसम के पहले महासचिव क्रान्तिकारी कवि गोरख पाण्डेय की याद में जन संस्कृति मंच, दिल्ली और नई जमात द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आलोचक प्रो॰ चमनलाल ने ये विचार व्यक्त किए।
जसम की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवि शोभा सिंह ने कहा कि जनता के बीच गहराई से उतरकर और उनके दुख-दर्द, लूट-शोषण की दुनिया और उनके संघर्ष को ठीक से जानकर ही गोरख की काव्य परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है और बेहतर दुनिया के सपने को साकार किया जा सकता है। युवा कवि प्रमोद कुमार तिवारी ने कहा कि भोजपुरी में लिखना गोरख का एक सचेत वैचारिक चुनाव था। आज जो भोजपुरी संस्कृति में अश्लीलता का बोलबाला है उससे निबटने के लिए भी गोरख जैसे कवियों के गीतों को व्यापक समाज के केन्द्र में लाना चाहिए।
कार्यक्रम की शुरुआत हिरावल द्वारा निर्मित आॅडियो कैसेट में संतोष झा द्वारा गाये गये गोरख के प्रसिद्ध गीत ‘एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना’ से हुई। इस मौके पर कवि रन्जीत वर्मा, रोहित प्रकाश, कुमार मुकुल, राजेश चन्द्र, भाषा सिंह, शोभा सिंह, अच्युतानंद मिश्र, रूबल सक्सेना, मुकुल सरल ने क्रमशः गोरख पाण्डेय की स्वर्ग से विदाई, बच्चों के बारे में, कैथर कला की औरतें, फिलिस्तीन, समझदारों का गीत, जानता हूँ, बंद खिड़कियों से टकराकर, कला कला के लिए, रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबन्दी का जादू घटता जाए है, हम कैसे गुनहगार हैं आदि कविताओं और ग़ज़लों का पाठ किया। इस अवसर पर गोरख के निधन के तुरत बाद जनसांस्कृतिक आंदोलन के उनके सहयोद्धा महेश्वर द्वारा लिखे गए बेहद मार्मिक और प्रभावकारी स्मृतिलेख ‘एक नग़मा है पहलू में बजता हुआ’ का पाठ सुधीर सुमन ने किया।
कार्यक्रम में गोरख कीे रचनाओं के बारे में नागार्जुन, शमशेर और अनिल सिन्हा के विचारों को भी पढ़ा गया। बकौल नागार्जुन ‘गोरख की कविताएँ अन्धेरी रात के स्याह सन्नाटे में जुगनुओं की तरह जगमगाएँगी, बियाबान में टाॅर्च का काम करेंगी, टिमटिमाते दीपक की तरह तब तक रोशनी देती रहेंगी जब तक भोर का सूरज नहीं उग जाता।’
शमशेर के अनुसार गोरख माक्र्सवाद के होशमंद अध्येता थे। इतनी सुलझी हुई दृष्टि बहुत कम माक्र्सवादी लेखकों व विचारकों में मिलेगी। गोरख असली, टटके, शुद्ध, एकदम ओरिजिनल - यानी मौलिक रूप से - सच्चे लोककवि थे। अपनी शैली और वैचारिक ईमानदारी के कारण वह पाठकों के हृदय और मस्तिष्क दोनों को अत्यन्त सहजता से गाइड करते चलते हैं। नए लेखकों, कवियों और विचारकों, स्वस्थ साहित्य के प्रेमियों के लिए निश्चय ही वह विशिष्ट कवि, लेखक व विचारक हो जाते हैं। यही चीजें उन्हें मजदूर, किसान, मध्यवर्ग का एकदम अपना कवि व लेखक बनाती हैं।
अनिल सिन्हा ने चिह्नित किया है कि ग़ज़लों की जिस परम्परा को दुश्यन्त कुमार छोड़ गए थे, उसे गोरख ने समृद्ध ही नहीं किया उसके अलंकार भी बदल दिए। दुश्यन्त कुमार की ग़ज़लों के बाद हिन्दी में ग़ज़लों की भरमार हो गयी - ग़ज़लें चुटकुलों की तरह लिखी जाने लगीं और कुछ भी किसी तरह कहने का फैशन सामने आया। गोरख की ग़ज़लें इस गिरती हुई दशा पर एक ब्रेक है। उन्होंने सिद्ध किया कि लोकप्रिय काव्य-विधा को विचारों का वहन करते हुए लोक में जाना चाहिए।
इस अवसर पर पत्रकार अजय प्रकाश, कवयित्री विपिन चैधरी, कवि इरेन्द्र, गीतकार कमल कुमार, इतिहास के शोधार्थी धीरज कुमार नाइट, चित्रकार रोहित जोशी, पत्रकार संजय त्रिपाठी आदि भी मौजूद थे। संचालन भाषा सिंह ने किया तथा अध्यक्षता प्रो. चमनलाल ने की। धन्यवाद ज्ञापन कवि-आलोचक कुमार मुकुल ने किया।  
इस मौके पर जसम की ओर से विश्व पुस्तक मेले में साहित्य के कारपोरेटाइजेशन के खिलाफ पर्चे बाँटने और साहित्यकारों की स्वतन्त्रता एवं साहित्यिक संस्थाओं की स्वायत्तता के पक्ष में अभियान चलाने का प्रस्ताव लिया गया। जसम की ओर से वहाँ पर्चे बाँटे जाएँगे ताकि इस गम्भीर मुद्दे को लेकर साहित्यकार और पाठक विचार मन्थन करें। जनता के साहित्यकार गोरख पाण्डेय के प्रति भी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।  
                                                   भाषा सिंह
                                                   सचिव,
                                        जन संस्कृति मंच, दिल्ली
                                                   

Monday, December 28, 2009

शशि की मौत: घेरे में एनएसडी


  • मनोज कृष्ण
चार नवम्बर को हुई मशहूर रंगकर्मी शशिभूषण की अप्रत्याशित मौत ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा यानी कि एनएसडी को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। हालांकि, ये कोई पहला मौका नहीं है जब रंग क्षेत्र में देश की इस सबसे बड़ी आटोनामस बॉडी पर सवाल उठ रहे हैं। इससे पहले भी कई सवाल उठते रहे हैं मगर उनका सरोकार सिर्फ भ्रष्टाचार, अस्तित्व और कारगुज़ारियों तक ही सीमित रहा। मसलन थिएटर के नाम पर मिलने वाला फंड कुछ दलाल टाइप संस्कृतकर्मियों या एनएसडिएंस के नाम जारी होने, एनएसडी की वर्कशाप और कार्यक्रमों में गैर एनएसडियन को बिल्कुल ही तवज्जो न देने, फेलोशिप और प्रोडक्शन ग्रांट में बंदरबांट, प्रोफेसरों के क्लास लेने के बजाय बाहर ज्यादा व्यस्त रहने, पास आउट स्नातकों के सक्रिय नाटक छोड़कर फिल्म, टीवी या दूसरे व्यवसायों की ओर उन्मुख होने, नए प्रयोगों की कमी जैसे आरोप अक्सर एनएसडी पर लगते रहे हैं। मगर इस बार अपने ही एक स्नातक छात्र शशि की मौत से उठे सवाल बाकी मसलों से कहीं ज्यादा पेंचीदा हैं। जाहिरा तौर पर इसके जवाब में एनएसडी की कलई के भी खुलकर सामने आने की संभावना है इसीलिए स्कूल प्रशासन ने जानबूझकर एक खास तरह की अप्रत्याशित चुप्पी साध ली है। बिहार के मध्यम निम्नवर्गीय परिवार से आने वाले शशि भूषण की पहचान एनएसडी कभी नहीं रही। यहां आने से पहले ही वो देशभर में अपनी साहित्यिक रंग प्रस्तुतियों के लिए मशहूर हो चुके थे। थिएटर तो जैसे उनके रग-रग में बसा था। अभिनय, निर्देशन, गायन, स्टेज सज्जा से लेकर वो म्यूजिक तक का काम बखूबी निभाते थे। बाइस साल से रंगकर्म के विभिन्न क्षेत्र से जुड़े शशि जितनी अच्छी नाल बजाते थे उतने ही अच्छे गायक भी थे। ढोलक की थाप के साथ गोरख पांडेय के जनगीत समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई... पर छेड़ा गया उनका आलाप शायद ही चाहने वाले कभी भूल पाएं। पटना की वामपंथी रंग संस्था हिरावल से कैरियर की शुरुआत करने वाले शशि ने बाइस साल से ज्यादा की रंगयात्रा के बाद इसी साल जब एनएसडी में एडमिशन लेने की बात दोस्तों को बताई तो बड़ा ताज्जुब हुआ। एतराज जताने पर उस समय शशि ने अपने अंदाज में जवाब दिया - ‘‘बहुत भागदौड़ कर ली है। फिलहाल तो यहां थोड़ा आराम करने आया हूं।‘‘ मगर काल के क्रूर हाथों ने उसे ये मौका नहीं दिया। संदेह इस बात पर होता है कि इलाज से ठीक होने वाली एक मामूली बीमारी ने कैसे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी रंगकर्मी की जान ले ली। घटना के अनुसार मृत्यु से कुछ रोज पहले ही शशि की तबियत खराब हुई। शिकायत महज शारीरिक कमजोरी और हल्के बुखार को लेकर थी। नियमों के मुताबिक एनएसडी अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों का स्वास्थ्य बीमा कराता है। इसके तहत कुछ चुनिंदा अस्पतालों के पैनल होते हैं जहां जाकर इलाज कराया जा सकता है। इसी पैनल के तहत शशि को इलाज के लिए एनएमसी, नोएडा ले जाया गया। सबसे पहला सवाल यहीं खड़ा हो जाता है कि दिल्ली में कई चुनिंदा अस्पतालों के होते हुए भी नोएडा के उस अस्पताल को क्यों पैनल में शामिल किया गया जबकि वो पहले से ही किडनी रैकेट और निठारीकांड जैसे जघन्य आरोपों में शामिल रहा है। क्या एनएसडी के बाकी स्टाफ मसलन लेक्चरर, प्रोफेसर, आफिशियल स्टाफ भी इस सुविधा के तहत नोएडा के एनएससी में ही अपना और परिजनों का इलाज कराते हैं? अगर नहीं तो छात्रों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ क्यों? अस्पताल की घोर लापरवाही इस रूप में सामने आती है कि एडमिट होने के बाद से हर दूसरे दिन शशि को डॉक्टरों ने अलग-अलग बीमारी बताई। यही नहीं कुछ दिनों बाद उसे सिर्फ स्वास्थ्य लाभ की जरूरत बताते हुए डिस्चार्ज भी कर दिया गया। मगर इसी दौरान अस्पताल परिसर में ही शशि बेहोश होकर गिर पड़े। डॉक्टरों ने दोबारा जांच में बताया कि डेंगू है। इसके बाद तो शशि सिर्फ पन्द्रह घंटे ही और जीवित रह सके। अंतिम तौर पर डाॅक्टरी रिपोर्ट में मौत की वजह हार्ट अटैक बताई गई। इस पूरे प्रकरण में एनएसडी किस हद तक असंवेदनशील बना रहा कहने की जरूरत नहीं। शशि की मौत के तत्काल बाद संस्था ने एयर टिकट की व्यवस्था कर आनन-फानन में अगली सुबह ही लाश पटना भेजने की व्यवस्था कर दी। यही नहीं अस्पताल प्रशासन से उसने सवाल जवाब करने तक की जहमत भी नहीं उठाई। बिना किसी पुख्ता सबूत के एनएसडी ने इस मौत को स्वाभाविक मान लिया जबकि लापरवाही नंगी आंखों से साफ दिखाई दे रही थी। स्कूल प्रशासन के मुताबिक डायरेक्टर अनुराधा कपूर खुद अस्पताल में इलाज के दौरान गई थीं। मगर इतने भर से तो ये नहीं साबित हो जाता कि लापरवाही नहीं हुई। शशि से जुड़े जब कुछ रंगकर्मी मित्रों ने जब इस मुद्दे पर सवाल उठाया तो स्कूल प्रशासन ने खुद को इससे एकदम अलग करते हुए कोई सहयोग नहीं करने की बात कही। इससे संस्था का दोहरा चरित्र खुलकर सामने आ जाता है कि वो अपने ही छात्र की मौत जैसे मुद्दे पर भी कितने असंवेदनशील तरीके से पेश आ सकता है। और तो और शशि की लाश को स्कूल परिसर में लाकर रखने तक की इजाजत नहीं दी गई। डायरेक्टर अनुराधा कपूर ने मृतक के बदहवास परिजनों से सीधे न मुलाकात करके आॅफिस में बुलाकर बात की। आरोप तो ये भी है कि अस्पताल और एनएसडी ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए पोस्टमार्टम की कार्रवाई रोकने की भरसक कोशिश की। इसे तभी शुरू कराया जा सका जब रंगकर्मी विजय कुमार बेंगलूर से दिल्ली आकर व्यापक राजनीतिक दबाव बना सके। उधर अगले दिन पटना पहुंचे शशि को देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा। मशहूर रंग निर्देशक राॅबिन दास और शशि के कुछ सहपाठी भी शव के साथ थे। इन्हें लोगों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। अपनी माटी से जुड़े शशि की याद में लोगों ने एनएसडी के दलालो वापस जाओ के नारे लगाए। हर किसी की आंखों में उमड़ते आंसुओं के साथ एक ही सवाल था कि ऐसा कैसे हो गया? पूरे प्रकरण में सबसे ताज्जुब की बात एनएसडी प्रशासन की गम्भीर चुप्पी है। बार-बार सम्पर्क करने पर भी कोई इस बारे में कुछ बोलने को तैयार नहीं। गौरतलब है कि साल 2001 में एक और स्नातक विद्याभूषण की भी अस्वाभाविक मौत हो गई थी। उस समय मामले को महज दुर्घटना मानकर रफा-दफा कर दिया गया था। कहा ये गया कि क्लास रूम में गिर जाने से सिर में आई गम्भीर चोट की वजह से मौत हुई। पूरे प्रकरण को लेकर रंगकर्मी आंदोलन की राह पर हैं। पटना में शशि से जुड़े रंगकर्मियों ने उनकी याद में पिछले दिनों एक शोक सभा की। इस तरह की एक और शोक सभा 12 नवम्बर को दिल्ली के ललित कला अकादमी में भी हुई। इन सभाओं में शशि की मौत की बावत अस्पताल की भूमिका की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से कराने, स्कूल प्रबंधन की संदिग्ध भूमिका को जांचने, पीड़ित निर्धन परिवार को तत्काल मुआवजा देने के साथ ही पटना में होने वाले भारत रंग महोत्सव को शशि को समर्पित करने की मांग की गई है। जाहिर सी बात है ये कोई राजनीतिक मांगे नहीं हैं। एनएसडी को अपनी विश्वसनीयता पर खरे उतरने के लिए भी इन मांगों पर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। एनएसडी प्रशासन की शुरुआती भूमिका जिस तरह की रही उससे शशि की मौत से जुड़े सवाल इतने गहरे हो चुके हैं कि अब इसे महज सदमा बताकर विभागीय जांच कमेटी गठित करने भर से काम नहीं चलने वाला।
पता - मनोज कृष्ण, द्वारा -श्री आर एस मौर्य, ए-31/१, गली नं. 5 ,पूर्वी विनोद नगर, दिल्ली- 91 मोबाइल: 9868655357.

अधूरी ज़िन्दगी के कुछ अहम पड़ाव
कहने की जरूरत नहीं है, जिस उम्र में लोग अपनी रूमानी ज़िन्दगी के ख्वाब बुनने में जुटे रहते हैं उस उम्र में शशिभूषण समाज में फैली बुराइयां, अव्यवस्था, गरीबी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अनूठे संघर्ष के जरिए एक जाना पहचाना चेहरा बन गए थे। पटना की हिरावल संस्था उनके इस संघर्ष और जज़्बे की गवाह रही। एक ओर जहां साहित्यक कृतियों पर बने नाटकों को अक्सर लोग करने से घबराते हैं वहीं शशि के लिए ये सबसे खास शगल था। उनके चर्चित नाटकों के मूल संदर्भ में ज़्यादातर साहित्यिक कहानियां ही शामिल हैं। फणीष्वर नाथ रेणु, स्वदेष दीपक, भीष्म साहनी, हरिषंकर परसाई और श्री लाल शुक्ल की रचनाओं को शषि ने रंगमंच के जरिए सैकड़ों बार जिया है। रेणु से वो इतने प्रभावित थे कि उनकी रचनाओं पर उन्होंने देषभर में घूम-घूम कर नाट्य मंचन में हिस्सा लिया। उनके रगकर्म का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है- ऽ पैंतीस से ज़्यादा नाटकों में अभिनय ऽ पन्द्रह से ज्यादा नाटकों का निर्देषन ऽ शषि के अभिमंचित प्रमुख नाटक - एक और दुर्घटना(दारियो फो), काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), किस्सा ठलहा राम(राजेष गोनदवाले), नेटुआ(रतन वर्मा), लीला नंदलाल की(भीष्म साहनी), मातादीन चांद पर(हरिषंकर परसाई), एक हसीना पांच दीवाने(हरिषंकर परसाई), रसप्रिया(फणीष्वर नाथ रेणु), पंचलाइट(फणीष्वर नाथ रेणु), ना जाने केहि वेष में(फणीष्वर नाथ रेणु), हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं(हरिषंकर परसाई), राग दरबारी(श्रीलाल शुक्ल), आॅफ माइस एंड मेन(जाॅन स्टीन बैक) इत्यादि। ऽ नुक्कड़ नाटक - खेल तमाषा, सर्कस, जनता पागल हो गई है, मेरा नहीं तेरा नहीं सबकुछ हमारा इत्यादि के जगह-जगह करीब 2000 प्रदर्षन। ऽ निर्देषक के रूप में - काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), ईदगाह(प्रेमचंद) समेत पंद्रह से ज़्यादा नाटक। अन्य उपलब्धियां ऽ मंच आर्ट गुप के सचिव के नाते संस्था की रंगसभाओं में दिल्ली, कोलकाता, जयपुर, बड़ौदा, पुणे, मुम्बई, गुवाहाटी, भोपाल, मैसूर, ग्वालियर, गोपालगंज, उदयपुर, रायगढ़, वनस्थली, नागपुर, हैदराबाद, हरियाणा, मंडी, षिमला, चंडीगढ़, लखनऊ, पानीपत, अमृतसर, गोवा, पुनल्लुर समेत देषभर का भ्रमण। ऽ मषहूर रंगकर्मी ऊषा गांगुली, विजय कुमार, पद्मश्री जोयेलकर अनिरुद्ध पाठक, रंजीत कपूर, के. जा. कृष्णमूर्ति जैसे निर्देषकों के साथ लम्बे समय तक काम किया। ऽ मानव संसाधन विकास मंत्रालय से रंग संगीत में स्कॉलरशिप

आम आदमी के नाटक का त्रासद पटाक्षेप-वर्ष


राजेश चन्द्र
वर्ष 2009 के रंगजगत की सबसे सांघातिक घटना रही - पिछली शताब्दी से वर्तमान शताब्दी तक, यानि साठ वर्षों से अधिक समयावधि तक निरन्तर उद्देश्यपूर्ण रंगमंच करने वाले विश्व रंगमंच के अद्वितीय निर्देशक, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मशहूर रंगकर्मी, भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापकों में एक हबीब तनवीर का 8 जून को पच्चासी वर्ष की अवस्था में गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझते हुए निधन। हबीब तनवीर धर्मनिरपेक्ष, जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता रखने वाले ऐसे महान शख्स थे, जिनके निधन से थियेटर की दुनिया में एक कभी न भरने वाला शून्य पैदा हो गया। एक ऐसे रंग-शख्सियत जो एक ही समय अभिनेता, नाटककार, निर्देशक, गायक, संगीतकार के अतिरिक्त वस्त्रसज्जा, मंचसज्जा में परिपूर्ण, पत्रकार, शायर, आलोचक के साथ-साथ अच्छे सैलानी भी थे। लम्बा चेहरा, गोरा रंग, ऊँचा कद, इकहरा जिस्म, चैड़ा माथा, माथे पर अस्सी-पच्चासी वर्षों के अनुभवों की लकीरें, गहन-गम्भीर आँखों पर काले फ्रेम का बड़ा चश्मा, होंठों के बीच फँसा पाइप, पुरकशिश आवाज़ और हिन्दी-उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी या अंगरेज़ी में बेबाक बात करने के लिये पहचाने जाने वाले हबीब तनवीर ने हिन्दी नाट्य-जगत और भारतीय रंगमंच को जो नयी दिशा दी, वह अविस्मरणीय है। स्वातन्त्र्योत्तर युग अथवा बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक हबीब तनवीर ने हिन्दुस्तानी साहित्य और रंगमंच को करीब दो दर्जन नाट्य कृतियाँ दी हैं जिनमें आगरा बाज़ार (1954), शतरंज के मोहरे (1954), लाला शोहरत राय (1954), मिट्टी की गाड़ी (शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिकम‘ पर आधारित,1977), चरणदास चोर (1975), उत्तररामचरित (1977), बहादुर कलारिन (1978), पोंगा पण्डित (1990), ज़हरीली हवा (2002) और राजरक्त (2006) इत्यादि ख़ासे प्रसिद्ध हैं। बतौर पत्रकार अपना कैरियर शुरू करने वाले हबीब तनवीर ने नाटकों के क्षेत्र में ऐसा मुकाम हासिल किया जो हर दृष्टि से बेमिसाल है। उनके ‘आगरा बाज़ार‘ और ‘चरणदास चोर‘ ने ऐसी धूम मचाई कि हबीब जीते जी एक किंवदन्ती बन गये। चरणदास चोर में छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों - गोविन्द राम, मदनलाल, दीपक तिवारी, फ़िदाबाई, मुल्वाराम, पूनम और स्वयं हबीब ने अभिनय और आपसी तालमेल का एक ऐसा नया, अनूठा और मोहक लोक छन्द रचा कि दुनिया दंग रह गयी और 1982 में एडनबर्ग के इन्टरनेशनल ड्रामा फेस्टिवल में ‘चरणदास चोर‘ को विश्व का सर्वश्रेष्ठ नाटक घोषित किया गया। नज़ीर अकबराबादी की शायरी, शख्सियत और उनके युग पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार‘ को हिन्दुस्तानी रंगमंच की एक अक्षय निधि, एक अनमोल धरोहर माना जाता है। इस नाटक के फ़कीर, ककड़ीवाला, तरबूजवाला, लड्डूवाला, बरफवाला, रीछवाला, पतंगवाला, किताबवाला, मदारी, शायर, हमजोली, दरजी, पनवाड़ी आदि पात्रों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नाटक का एक गीत है - "जितने हैं आज आगरे में कारखाना जात/सब पर पड़ी है आज के रोज़ी की मुश्किलात/किस-किसके दुख को रोइये और किसकी कहिये बात/रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात.................बेवारिसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह/फूटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहरपनाह/पैसे का ही अमीर के दिल में ख़याल है/पैसे का ही फ़कीर भी करता सवाल है/पैसा ही फ़ौज, पैसा ही जाहो जलाल (सत्ता प्रताप) है/पैसे ही का तमाम यह तंगो दवाल (हंगामा) है/पैसा ही रूप रंग है, पैसा ही माल है/पैसा न हो तो आदमी चरखे की माल है।" हबीब तनवीर एक विशिष्ट प्रयोगधर्मी और आम आदमी के नाट्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने नाटक की परम्परा में सर्वथा नये एवं अत्यधिक सफल प्रयोग किये। छत्तीसगढ़ की नाचा शैली उनकी मौलिक एवं विशिष्ट देन है। हबीब तनवीर की प्रतिभा केवल नाटकों तक सीमित नहीं थी। वे थियेटर की दुनिया का बेशकीमती नगीना थे। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय फिल्मों के लिये अभिनय एवं लेखन, शायरी, पत्रकारिता और संगीत के क्षेत्र में अपनी अनूठी सृजनात्मकता के माध्यम से दिया। 1945 में रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स, लन्दन से थियेटर का प्रशिक्षण प्राप्त कर आकाशवाणी मुम्बई की नौकरी करते हुए हबीब तनवीर ने 1953 तक इप्टा के साथ रंगान्दोलन में शिरक़त की और 1959 में दिल्ली में नया थियेटर की स्थापना की। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), शिखर सम्मान (1975), अन्तर्राष्ट्रीय फ्रिज फस्र्ट एवार्ड (1982), पद्मश्री (1982) आदि सम्मानों-पुरस्कारों से नवाज़े गये हबीब तनवीर के बारे में ब॰ व॰ कारन्त ने कहा था कि हबीब तनवीर ने भारतीय संस्कृति को समकालीनता से जोड़ते हुए लोक नाटकों को 20वीं सदी में नयी शक्ति और ऊर्जा प्रदान की। वे रंगधुनी हैं। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा में मनोनीत सदस्य भी रहे थे। एक त्रासद सच्चाई यह भी है कि दुनिया की कला प्रेमी जनता के बीच अत्यन्त सम्मानित हबीब तनवीर को हिन्दुस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत, लोकतन्त्र तथा धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के कारण आजीवन भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं-नेताओं के हाथों बार-बार अपमानित-प्रताड़ित होना पड़ा। उन पर और उनके नाटकों पर कई बार हमले किये गये पर हबीब तनवीर कभी अपने इरादों से टस से मस नहीं हुए और न ही कभी एक आम हिन्दुस्तानी के पक्ष को उन्होंने अपनी आँखों से ओझल होने दिया। देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों, सुदूर गाँवों-कस्बों या विदेशों में भी उनके लगभग सभी नाट्य प्रदर्शनों में दर्शकों की जैसी भीड़ जुटती रही, वह उनके समकालीन या उत्तरवर्ती उन नाट्यकर्मियों-निर्देशकों के लिये या तो एक कौतूहल या फिर एक अबूझ पहेली ही बनी रही जो सोते-जागते रंगमंच में दर्शकों के संकट पर दार्शनिक भंगिमा बनाये रखते हैं पर मौका मिलने पर अक्सर निरर्थक और बहुसंख्यक जनता के दुख-दर्द या उसके उल्लास से परे होकर नाट्यकर्म करते रहते हैं। दरअसल हबीब तनवीर की लोकप्रियता का आधार हिन्दुस्तानी लोक, भाषा एवं शैली का आधुनिक मूल्य बोध के साथ प्रस्तुतीकरण रहा है। मुझे याद है पटना में प्रेरणा द्वारा आयोजित सफदर हाशमी नाट्य महोत्सव में 3 जनवरी 2002 को रखी गयी ‘आधुनिक रंगमंच और लोक संस्कृति‘ विषयक संगोष्ठी में हबीब तनवीर ने कहा था -"यदि हमारे सारे आचार संस्कृति में शामिल नहीं हैं तो वह संस्कृति नहीं है। सत्ता कल्चर को बर्बाद करने में ही आराम का अनुभव करती है - बाज़ार भी। जनता की रचनात्मकता लोक शैली है - लोक परम्परा है। ज़बान भी एक बदलती हुई चीज़ है। वह जो कल थी आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगी। कला भी कोई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, जो बदलती नहीं। संस्कृति भी धीरे-धीरे बदलती है। अगर हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं होगी तो हम हवा में उड़ जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि हमारी परम्परा के अन्दर जो जैसा है, वैसा ठीक है, अथवा परम्परा का पुजारी होना चाहिये - यह बुतपरस्ती है -कबीर की पूजा करने वाले कबीरपन्थी हैं, उन्हें उस आग से मतलब नहीं है जिसकी हमें ज़रूरत है - क्योंकि उस आग से हम दुनिया को बदल सकते हैं, तो लोक की दृष्टि यह होनी चाहिये। संस्कृति को ठीक से समझ लेने से विकास की भी सही समझ आ जायेगी और राजनीति की भी। लोक शैली के भीतर जो सीमाएँ हैं, वह तो हैं ही, पर यदि कोई चीज़ परम्परा के साथ चल कर उसकी सीमाओं को तोड़ती भी है तो वही आधुनिकता है। आधुनिकता खुद पैदा नहीं होती, वह परम्परा से आती है।" परम्परा की इसी आग को आजीवन हबीब तनवीर सुलगाते रहे और उन्होंने आम आदमी को हिन्दुस्तानी रंगमंच के केन्द्र में स्थापित किया। उनके निधन के बाद इस रंगमंच का पटाक्षेप हो गया है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि इस रंगमंच का भविष्य अब क्या होगा।

Thursday, November 19, 2009

तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते कहते

शशिभूषण वर्मा : लील गयी एनएसडी की लापरवाही

याचको इस एक मौत को बख़्श दो

- राजेश चन्द्र
पिछले चार नवम्बर को हिन्दी रंगमंच के प्रशिक्षण के सर्वोच्च संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रथम वर्ष के छात्र रंगकर्मी शशिभूषण की नोएडा के एक तीसरे दर्ज़े के और अपने किडनी रैकेट वाले राष्ट्रीय कारनामे के लिये कुख्यात अस्पताल में मौत हो गयी। बहुत से रंगकर्मियों के लिये अपने बायोडाटा में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की चर्चा गौरव का विषय हो सकती है पर यहाँ हम जिस रंगकर्मी का ज़िक्र कर रहे हैं वह न सिर्फ जनपक्षीयता और जीवन्तता के पटना रंगमंच का अनमोल हीरा था बल्कि बीस-बाइस वर्षों की अपनी जुझारू रंगमंचीय सक्रियता से उसने देश भर के सक्रिय नाट्य समूहों और गाँवों-कस्बों तक फैले रंगकर्मियों के साथ एक अंतरंगता और गर्मजोशी भरी दोस्ती क़ायम की थी। नब्बे के जिस दशक को पटना रंगमंच में चरम और अवसान के दशक के रूप में ज़्यादातर लोग याद करते हैं उस दशक की कुछ नायाब उपलब्धियों में एक शशिभूषण भी था जिसने न सिर्फ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण बल्कि तमाम लोकोन्मुख रंगसंस्थाओं के लिये अपनी ‘अहर्निशं सेवामहे‘ वाली सहज उपलब्धता के कारण भी एक खास जगह बनाई थी। रंगमंच उसके लिये मनोरंजन का उपकरण नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक माध्यम था और इस माध्यम के लिये उसके अन्दर ऐसी जुनूनी मुहब्बत थी जो कभी भी कम नहीं हुई। इतना सब कुछ अर्जित कर लेने के बाद और अपनी ही इस दृढ़ मान्यता को परे रख कर कि ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हिन्दी रंगमंच की क़त्लग़ाह है‘ (जिस पर उस दशक के ज़्यादातर रंगकर्मी लगभग एकमत रहे हैं) विद्यालय में उसके प्रवेश ने हम सभी दोस्तों को हतप्रभ और हताश ही किया था। कई दोस्तों ने चुटकी लेते हुए पूछा था कि तुम क्या यहाँ रंगमंच पढ़ाने आये हो, पर उसने सबको हँसते हुए जवाब दिया था कि ‘‘नहीं फिलहाल तो थोड़ा आराम से पढ़ने आया हूँ, बहुत भाग-दौड़ कर ली है।‘‘ मेरे जैसे कई दोस्तों के लिये शायद यह तय करना कठिन हो कि क्या केवल हिन्दी रंगमंच की विडम्बना ही उसे यहाँ लेकर आई थी या कि उसकी मौत उसे यहाँ खींच लाई थी। जो भी हो पर इस मौत से (हालाँकि यह इस संस्थान में अकेली ऐसी मौत नहीं है) कई ऐसे असुविधाजनक और अप्रिय लगने वाले सवाल फिर से उठ खड़े हुए हैं जिनके जवाब याचकों की भीड़ में खड़े होकर मध्यस्थता, लीपा पोती और दलाली की विनयपत्रिका बाँचने से नहीं मिलने वाले हैं।
यह सही है कि केन्द्र सरकार द्वारा शत प्रतिशत वित्तपोषित यह संस्थान न सिर्फ अपनी संरचना, प्रशासन और गतिविधियों पर हर वर्ष करोड़ों की राशि ख़र्च करता है बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि यह संस्कृति और रंगकर्म के नाम पर करोड़ों की राशि की छीना-झपटी और बँदरबाँट का कुख्यात केन्द्रीय अड्डा भी बन चुका है। आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता के चलते पूर्व में हो चुकी अन्य मौतों और शशि की मौत के ठीक बाद से इस प्रसंग में भी की जा रही ‘ठकुरसुहातियों‘ को उपरोक्त सन्दर्भ में जाँचने की ज़रूरत है। यह अकारण नहीं है कि जहाँ पटना में शशिभूषण की शवयात्रा में रंगकर्मियों, साहित्यकारों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न तबकों के एक हज़ार से अधिक लोग शामिल हुए और अब तक अपनी एकजुटता के साथ रानावि की नृशंस लापरवाही के खि़लाफ अपने तीव्र रोष का इज़हार भी वे कर रहे हैं - दिल्ली में इस मामले में अब तक एक बीस-पच्चीस लोगों की उपस्थिति वाली शोकसभा से ज़्यादा कुछ भी नहीं किया जा सका है और शशि की मौत के बाद दस दिन गुज़र चुके हैं।
‘पता नहीं क्यों खोज रहे थे हत्यारे मुझे‘ कविता में शायद ऐसे ही किसी सांस्कृतिक क्षरण या ‘ख़ामोशी की संस्कृति‘ को लक्ष्य करते हुए कवि अरुण कमल कहते हैं - ‘‘और मैं मारा गया/इसलिए कि मेरी नाभि में कस्तूरी थी/और रोओं से झर रही थी सुगन्ध लगातार/जानता था एक दिन नष्ट ही करेगी पवित्रता/इस जीवन के कारण मरूँगा तै था/मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया/न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा/और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा/सिर्फ इसलिए कि मेरी जाति वो नहीं जो हत्यारों की/मेरा धर्म वो नहीं और कोई जान नहीं पाएगा/सड़क किनारे खन्दक में सड़ेगी मेरी लाश/कोई जान नहीं पाएगा।‘‘ दिल्ली के मुझ जैसे अतीतजीवी प्रवासियों की अगम्भीरता, हृदयहीनता और समझौतापरस्ती के हद से बढ़ जाने का इससे बढ़ कर और क्या प्रमाण होगा कि अपनी नाभि की कस्तूरी को आकांक्षाओं के दलदल में डुबोने का अपराधबोध भी अब हमारे अन्दर लगभग मर चुका है और हमने चुपचाप अपराध के मूल्यों को स्वीकार लिया है वरना अब तक अपनी नाभि में कस्तूरी की पवित्र गन्ध को सुरक्षित रखते आ रहे साथी शशिभूषण को हमने इस तरह कसाई के गँड़ासे के सहारे नहीं छोड़ा होता और न ही अपनी मध्यवर्गीय निस्संगता और निर्लज्ज नपुंसकता के लिये सुविधाजनक तर्क तलाश कर रहे होते। दिल्ली के हम सभी रीढ़विहीन लोग जो शशिभूषण को बहुत क़रीब से जानने का दावा कर रहे थे, पिछले दस दिनों से इस तरह नज़रें चुरा रहे हैं जैसे - ‘‘सबको कुछ न कुछ काम पड़ गया है अचानक!‘‘
उच्च शिक्षा और आभिजात्य के बीच का पूरक सम्बन्ध पिछली एक सदी में और भी प्रगाढ़ हुआ है यानि सीमित आर्थिक साधनों वाले मध्य वर्ग के लिये शिक्षा आज भी एक ऐसी सीढ़ी की तरह है जिसे लगा कर उच्च या अभिजात वर्ग तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। निम्नवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय तबके के लिये इस सीढ़ी का प्रयोग लगभग निषिद्ध समझा गया है इसलिये रानावि जैसे ऐश्वर्यशाली और उच्चभ्रू शहरी संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक संस्थानों में घुसने के रास्तों पर ऐसे अदृश्य, अनकहे पर बेहद मजबूत प्रतिबन्ध लगा कर रखे गये हैं ताकि अवांछनीय तत्त्वों को यहाँ प्रवेश न मिल सके। इस तरह के व्यावहारिक मानदण्ड निर्मित किये गये हैं कि निचले सामाजिक आर्थिक स्तर का कोई पंछी इस संस्थान में पर तक नहीं मार सकता। यदि गलती से निम्नवर्गीय तबके का कोई रंगकर्मी इस संस्थान में आ भी जाता है तो भीतर फैली एलीटिस्ट संस्कृति के चलते उसका वहाँ टिक पाना असम्भव हो जाता है। यहाँ पढ़ने वाले ज़्यादातर विद्यार्थियों की आकांक्षाएँ एवं वर्ग-चिन्ताएँ लगभग एक जैसी होती हैं और किसी भिन्न आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का कोई भी विद्यार्थी अपनी प्राथमिकताओं का चोला बदले बगैर यहाँ से सफलतापूर्वक योग्यता प्राप्त कर बाहर नहीं आ सकता।
यह एक सच्चाई है कि रानावि जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में तकनीकी पाठ्यक्रमों के समानान्तर एक सांस्कृतिक दुनिया भी होती है जिसका हिस्सा बनने के लिये एक न्यूनतम पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि की ज़रूरत पड़ती है। हाॅस्टल जीवन की तमाम अनौपचारिकता और मस्तमौला ज़िन्दगी के बावजूद यहाँ के लगभग हर विद्यार्थी का चरम उद्देश्य होता है तीन वर्षों की मशक्कत और प्रभुताशाली प्रोफेसरों की ‘रिकमंडेशन‘ के ज़रिये किसी ‘स्काॅलरशिप‘ का कोई ‘आॅफ़र‘ हासिल कर लेना या फिर विद्यालय से ‘डिप्लोमे‘ की सीढ़ी लगा कर सीधे मुम्बई के फिल्म उद्योग में जगह बनाना। हिन्दी रंगमंच को मजबूती देने के नाम पर चलाये जा रहे इस संस्थान से प्रतिवर्ष करीब दो दर्जन रंगकर्मी प्रशिक्षित हो कर निकलते हैं और इनमें से पंचानबे प्रतिशत सीधे मुम्बई चले जाते हैं। इनमें से शायद ही कोई अपवादस्वरूप रंगमंच की ओर मुड़ कर देखता है पर जिस किस्म के रंगमंच में वे प्रशिक्षित होते हैं, न तो पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में उसकी स्वीकार्यता है और न ही उसे आकार दे पाने का सामथ्र्य। अन्ततः ऐसे डिप्लोमाधारियों की नियति उन्हें मुम्बई की उस बीहड़ मायानगरी का कच्चा माल बनने पर मजबूर करती है जहाँ वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध तो हो जाते हैं परन्तु प्रोफेशनल स्तर पर उन्हें सफलता नहीं मिलती। रंगकर्म के परित्याग के बदले उन्हें मिल पाता है निचले दर्ज़े का कोई यांत्रिक काम और एक बहुत महीन किस्म की व्यापारिक एवं सांस्कृतिक गुलामी, जहाँ उनसे आधी उम्र का कोई स्टारपुत्र, मंत्रीपुत्र, कुबेरपुत्र या दाऊद का साला उनका मालिक और नायक बना बैठा होता है। ये सवाल बहुत गहरे, व्यापक और जटिल हैं जिन्होंने दशकों से हिन्दी रंगमंच को अपनी चपेट में ले लिया है।
चार नवम्बर को रानावि के छात्र शशिभूषण की मौत रानावि के ही साझीदार और मौत बाँटने के लिये कुख्यात नोएडा के एक अस्पताल में अत्यन्त संदिग्ध परिस्थितियों में हो गयी। इस अस्पताल में उनतीस अक्टूबर को भर्ती हुए शशि का जाॅन्डिस के लक्षण बता कर इलाज शुरू किया गया और छह दिन बाद यानि तीन नवम्बर को उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था, पर दुबारा बेहोशी के बाद जब फिर से उसे भर्ती कराया गया तो डाॅक्टरों ने इस बार उसे डेंगू होने की पुष्टि की। अगले दिन दोपहर तक उसे आई.सी.यू मंे रखा गया जहाँ करीब साढ़े बारह बजे उसकी मौत हो गयी। कोई नहीं जानता इस बीच उसके साथ क्या हुआ, उसे कौन सी दवाइयाँ दी गयीं। तीन नवम्बर को डिस्चार्ज होने के बाद शशि ने कई दोस्तों को फोन कर कहा था कि अब वह पूरी तरह ठीक है और वापस लौट रहा है। किसे पता था यह उसकी आखि़री बातचीत थी। अस्पताल की भूमिका तो इस मौत के मामले में शुरू से अन्त तक कठघरे में है ही पर यहाँ कुछ और भी बातें ग़ौर करने लायक हैं। उनतीस अक्टूबर से चार नवम्बर के बीच यदि शशि के सहपाठियों की बात छोड़ दें, तो क्यों रानावि के प्रशासन का एक भी आदमी अस्पताल में उसका हाल-चाल पूछने नहीं गया। समाज को सुसंस्कृत और संवेदनशील बनाने निकले रानावि के कर्मयोगी प्रशासक प्रोफेसरों ने क्यों उसकी तरफ से आँखें मूँद रखी थीं। चार नवम्बर को शशि की मौत की ख़बर आने के बाद आनन फानन में जो सबसे पहला काम उन्होंने किया वह था लाश को हवाई रास्ते से पटना पहुँचाने का इन्तजाम। एक तो उन्होंने लाश के पोस्टमार्टम की चर्चा तक नहीं की और जब इस बाबत कुछ रंगकर्मियों ने दबाव डाला तो मुख्य प्रशासक ने बेरुखी से कहा कि उनका इससे कोई सरोकार नहीं है। हद तो यह कि उन्होंने अपने ही विद्यालय के एक छात्र की लाश तक को विद्यालय में दर्शन के लिये रखने से मना कर दिया और मजबूरन उसे हाॅस्टल में रखा गया। पिछले दस दिनों के दरम्यान प्रशासन ने न तो आधिकारिक तौर पर इस मौत पर कोई सफाई दी है और न ही उसके बर्तावों से कभी भी ऐसा ज़ाहिर हुआ है कि इस मौत का उसे कोई अफ़सोस भी है। इससे पहले भी करीब आठ साल पहले जब पटना के रंगान्दोलन के नेतृत्वकर्ता युवा रंगकर्मियों में से एक विद्याभूषण की मौत रानावि के अध्ययन कक्ष में घायल होने के बाद अस्पताल में हो गयी थी तो पटना के रंगकर्मियों ने इस मामले में रानावि द्वारा बरती गयी भीषण लापरवाही के खि़लाफ मोर्चा लिया था परन्तु तब भी विद्यालय प्रशासन ने इस मौत की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था और इसे महज एक दुर्घटना कह कर उन सभी सवालों को दरकिनार करने की कोशिश की थी जो रानावि की रहस्यमय प्रशिक्षण पद्धति और प्रशिक्षु रंगकर्मियों के जीवन को तुच्छ समझने वाली उसकी संस्कृति को लेकर उठाये गये थे। उस समय भी रानावि के पास इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं था कि क्यों एक नाटक में निरर्थक प्रदर्शन के लिये वह पचास हज़ार की घास लगाने में कोई कोताही नहीं बरतता पर एक रंगकर्मी जो अपने माता-पिता, अपने संगठन और अपने राज्य की उम्मीदों को अपने साथ लेकर आता है, उसकी ज़ि़न्दगी तक की सुरक्षा को यहाँ कोई महत्व नहीं दिया जाता। रानावि ने शशि के मामले में भी अस्पताल की इस भयावह कारगुज़ारी पर चुप्पी साध रखी है और इस तरह उसे क्लीन चिट देने की कोशिश की है। असल में यह शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ‘अवांछनीय‘ तत्त्वों के प्रति रानावि की चिरकालिक घृणा की ही अभिव्यक्ति है वरना अगर ऐसी घटना किसी उच्चवर्गीय सुकुमार ‘बेटे‘ के साथ हुई होती तो अब तक इस विद्यालय की चूलें हिला दी जातीं और लाखों के मुआवज़े के साथ उच्चस्तरीय जाँच समिति की घोषणा भी हो चुकी होती। पर संस्कृति और रंगमंच के इन चतुर चालबाज़ों को अच्छी तरह पता है कि शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ये रंगकर्मी सामाजिक स्तर पर उस खास परिवेश से ताल्लुक रखते हैं जहाँ वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में अक्षम हैं और इसलिये एक अजनबी उच्च संस्कृति, उच्च भाषा और उच्च ज्ञान के चक्रव्यूह में फँसकर वे अन्ततः अपनी भोली, प्रतिभावान ज़िन्दगी को दाँव पर लगाते ही रहेंगे। ऐसे लोगों से डरने की क्या ज़रूरत है।
ऐसे में उम्मीद केवल पटना जैसी जगहों के संस्कृतिकर्मियों और रंगकर्मियों से ही की जा सकती है कि वे अपने असाधारण रंगकर्मियों की क्रमवार मौतों पर बदलावकारी हस्तक्षेप करेंगे।

Friday, June 12, 2009

हबीब दा की कुछ यादें
















हबीब तनवीर होने का मतलब


अशोक वाजपेयी
जो लोग मध्यप्रदेश की अपनी सांस्कृतिक यात्रा से वाकिफ हैं उनको ये बताने की जरूरत नहीं है कि न सिर्फ इस रंगयात्रा में बल्कि संस्कृति यात्रा में हबीब तनवीर की केन्द्रीय भूमिका रही है.
जब भारत भवन में रंगमंडल बनाने की बात हुई थी तो सबसे पहले निर्देशक का प्रस्ताव लेकर मैं उनके पास गया था। उन दिनों उनके लिए ये संभव नहीं था कि वो अपने छत्तीसगढ़ के रंग कलाकारों को छोड़कर यहां आएं. या हमारे लिए संभव नहीं था कि भारत भवन में सिर्फ छत्तीसगढ़ी के कलाकारों को लेकर एक रंग मंडल बनाएं. बहरहाल वो नहीं आ सके थे. मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ और बाद में सरकारी नौकरी में थोड़े दिन छत्तीसगढ़ में काम करने का भी मौका मिला. लेकिन मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने छत्तीसगढ़ को वैसा जाना था, जैसा हममें से बहुतों ने सबसे पहले छत्तीसगढ़ी कलाकारों को हबीब तनवीर के नाटकों में देखकर जानना शुरू किया. मुझसे कोई सलाह क्यों लेगा. आजकल तो वैसे भी नहीं लेता. लेकिन अगर ले तो इस नए छत्तीसगढ़ राज्य का पहला राज्यपाल हबीब तनवीर को बनाना चाहिए....अगर किसी एक व्यक्ति का नाम लिया जा सकता है पिछले पचास वर्ष में, जिसने छत्तीसगढ़ को उसकी अस्मिता दी है, उसकी पहचान दी है, और छत्तीसगढ़ पर जो जिद करके अड़ा रहा है. और ये जिद सारे संसार में उन्हें ले गई है तो वह हबीब तनवीर हैं.एक तो हिन्दी में ही नाटक करना कठिन है, ऐसे में हम कभी नहीं सोचते थे कि एक बोली और वो भी हिन्दी की एक उपबोली में नाटक करें. और उस नाटक को इस हद तक ले जाएं, इतने बरसों तक ले जाएं. बोली जो निपट स्थानीय है. और प्रभाव और लक्ष्य जो सार्वभौमिक है. हबीब तनवीर ने एक तो पहली बार ये सिद्ध किया कि बोली में भी समकालीन होना न केवल संभव है बल्कि बोली भी समकालीनता का ही एक संस्करण है. आप में से बहुतों को ये याद होगा कि हबीब तनवीर भारत भवन के आरंभिक न्यासियों में से थे. भारत भवन (अब तो भारत भवन का अनौचित्य बताना जरूरी है. लेकिन उस जमाने में हम लोग औचित्य बताते थे.) के मूल में ये परिकल्पना थी कि समकालीन सिर्फ शहर में रहने वाला नहीं है. वो परिकल्पना ये थी कि समकालीन सिर्फ वो नहीं है जो तथाकथित एक नागरिक किस्म की आधुनिकता में फंसा हुआ है. समकालीन वो भी है जो जंगल में रहता है. जो पहाड़ में रहता है. जो शायद किसी तरह की समकालीन अभिप्रायों से बिल्कुल अनजान है.असल में अपने-अपने ढंग से अलग-अलग क्षेत्रों में तीन लोगों ने मध्यप्रदेश में ये काम किया. सबसे क्रांतिकारी काम तो निश्चय ही हबीब तनवीर का है. जिन्होंने छत्तीसगढ़ की बोली को लेकर काम किया. और सिर्फ बोली नहीं, बोली के साथ जो कुछ जुटा होता है, उन सब पर. बोली लेना तो आसान काम है. लोकगीत वोकगीत गाते रहते हैं आकाशवाणी पर. उससे कुछ बात बनती-वनती नहीं है. लेकिन बोली के साथ जो समूची जातीय स्मृति है, जो समूची लोक संपदा है, जो उसके बिंब हैं, जो उसकी मुद्राएं हैं, उन सबको गूंथकर कुछ ऐसा करना जो स्थानीय भी है और जो स्थानीयता से आगे भी जाता है. अधिकांश लोगों को छत्तीसगढ़ी समझ में नहीं आती थी. हिन्दी वालों को भी नहीं आती है तो गैर हिन्दी वालों को क्या आती. लेकिन इससे उनके उनके नाटक के प्रभाव में कभी कोई क्षति नहीं हुई. कोई हानि नहीं हुई. एक काम किया रंगमंच में हबीब तनवीर ने. दूसरा काम किया कुमार गंधर्व ने. मालवी लोकसंगीत को लेकर एक शास्त्रीय संगीत को सबवर्ड करने का काम. ये तीनों काम असल में बहुत ही आधुनिक शब्दावली में कहें तो सबर्वशन के काम हैं. तीनों लोगों के.हबीब तनवीर ने आधुनिक भारतीय रंगमंच को सबवर्ड किया. उसको उसकी तथाकथित यथार्थवादी और एक तरह की पश्चिम की नकल में हो रहे यथार्थवादी आग्रहों से मुक्त किया. सबवर्ड किया, इस अर्थ में भी कि बोली में शास्त्र को भी और आधुनिक को भी, दोनों को अपने में संभव करना शुरू किया. बहुतों ने देखा होगा ‘मिट्टी की गाड़ी’. मैंने पहली बार अपने जीवन में यह देखा था कि शास्त्र को लोक कैसे मुंह चिढ़ाता है. कैसे जब संस्कृत के, मतलब ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘शूद्रक’ अद्भुत नाटक है. या ‘मुद्राराक्षस’ की संस्कृत की पदावली. संस्कृत के वक्तव्य यकायक छत्तीसगढ़ी में जब बोले जाते थे या छत्तीसगढ़ी कलाकार उनको अपने ढंग से बोलते थे. तो वो जो एक बहुत महिमा मंडन था संस्कृत का. एक विराट आभिजात्य था जो अपने आपमें बहुत सुंदर है. मैं उसकी अवमानना नहीं करना चाहता. वो महान है. लेकिन उसको जैसे मुंह चिढ़ाते थे ये लोग. जैसे एक डिप्रेशन होता है शास्त्र का लोक द्वारा. बिना शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन किए. शास्त्र को लोक में ऐसे संभव जैसे हबीब तनवीर ने बनाया. वैसे ही एक दूसरे स्तर पर कुमार गंधर्व ने बनाया. कौन-सा ऐसा शास्त्रीय गायक है जो तीन घंटे का एक मालवा की लोक धुनें कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकता है. थोड़ा कजरी वजरी गा देते थे अंत में. बहुत सारे कलाकार एक थोड़ा क्षेत्रिय, थोड़ा लौकेक छौंक लगाने के लिए आखिर में. लेकिन बड़े-बड़े उस्ताद बड़े-बड़े पंडित ये हिम्मत नहीं कर सकते थे कि लोक संगीत का एक पूरा कार्यक्रम प्रस्तुत कर दें. जो कुमार गंधर्व ने किया. तीसरा काम हमारे मित्र जगदीश स्वामीनाथन ने कला के क्षेत्र में किया. भारत भवन के माध्यम से. जहां लोक और आदिवासी कलाकार को वही समकक्षता दी जो समकालीन कला को हासिल थी. अकबर पदमसी और हुसैन और रजा और मंजीत बावा के साथ-साथ प्रेमा फात्या और जनगण सिंह श्याम और वो सब लोग आए. मिट्टी बाई, भूरी बाई इत्यादि. ये दिलचस्प बात है कि ये तीनों काम मध्यप्रदेश में हुए. ये दिलचस्प बात नहीं है इस अर्थ में कि ये शुद्ध संयोग है. ये कोई भौगोलिक या जैविक संयोग नहीं है कि ऐसा यहां संभव हुआ. दो लोग ऐसे थे जो असल में मध्यप्रदेश के नहीं थे. कुमार गंधर्व मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. स्वामीनाथन भी मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. हबीब तनवीर मूलत: मध्यप्रदेश के हैं. लेकिन ये इसलिए हिन्दुस्तानी आधुनिक कला परिदृश्य में पिछले पचास वर्षों में, मुझे ये कहने की इजाजत दीजिए. कम से कम भोपाल में तो कहा ही जा सकता है; आधुनिकता का जो सबर्वशन तीनों ने किया, उसमें आधुनिकता का जो दृश्य था वो मौलिक रूप से बदल दिया.



http://raviwar.com/ से साभार

Tuesday, January 27, 2009

मानो पढ़ना अभिभावकों को हो

राजकिशोर
पतन का एक लक्षण यह है कि हर चीज अपनी उल्टी स्थिति में दिखाई पड़ती है। किसान किसान नहीं रह जाता, व्यापारी हो जाता है। व्यापारी अपने उत्पादों के लिए कच्चा माल जुटाने के लिए जमीन खरीदता है और खेती करवाने लगता है। कवि-लेखक पैसेवालों का गुणगान करने लगते हैं और पैसेवाले देश को बताने लगते हैं कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए। शासन करनेवाले बुद्धिजीवी को नौकर रखते हैं और बुद्धिजीवी वही कहने लगते हैं जो उन्हें रोजगार देनेवाले सुनना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षा मात्र शिक्षा कैसे रह सकती है? उसकी खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। स्कूल-कॉलेजों में शिक्षक की हैसियत सबसे नीचे चली जाती है और प्रबंधक तय करने लगते हैं कि उनके संस्थान में किसे प्रवेश मिलेगा और किन शर्तों पर मिलेगा।
दिल्ली में आजकल नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश चल रहा है। अनेक स्कूलों ने अपने दरवाजे पर नोटिस टांग दिया है : एडमिशन फुल। जहां प्रवेश चल रहे हैं, वहां जितनी कार्यवाही खुले में हो रही है, उससे ज्यादा कार्यवाही गोपन में । जब से न्यायालय ने आदेश दिया है कि नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश के लिए बच्चों का इंटरव्यू नहीं लिया जाएगा और प्रवेश "पहले आओ पहले पाओ के आधार पर होगा, तब से स्कूल प्रबंधकों ने बच्चों का चयन करने के बदले अभिभावकों का चयन करना शुरू कर दिया है। प्रतिष्ठित स्कूलों में यह पहले भी होता था, पर अब सभी प्रबंधक इस उत्पादक विधि से काम लेने लगे हैं। वे छात्रों को नहीं मापते (पहले भी कहां मापा जाता था -- यह एक ढोंग था, ताकि कम अमीर परिवारों के बच्चों को ठुकराया जा सके), सीधे अभिभावकों को मापते हैं। जिन बच्चों को नर्सरी के लिए लेना है, उनकी प्रतिभा और ज्ञान में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं होता। ईश्वर के कारखाने में इतना ऊंचा-नीचा नहीं है। लेकिन संसार में आ चुकने के बाद बच्चे की सांसारिक हैसियत उसके माता-पिता (ज्यादातर पिता, क्योंकि माता की हैसियत खुद पिता की हैसियत से तय होती है) से निर्धारित होती है।
इसलिए अभिभावक की परीक्षा लेने के लिए एक अंक पत्र बना लिया जाता है -- उसने कितनी पढ़ाई की है, उसका वित्तीय स्तर क्या है, वह किस पेशे में है, उसकी पत्नी की शैक्षणिक स्थिति क्या है, घर में अंग्रेजी बोली जाती है या मातृभाषा, चार चक्के वाला वाहन है या नहीं और है तो कौन-सा वाहन है आदि-आदि पूछा जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लिए अंक निर्धारित कर दिए जाते हैं। जिस अभिभावक को अच्छे अंक मिलते हैं, उसके बच्चे को ले लिया जाता है। इसके द्वारा प्रबंधक का आशय यह होता है कि हम सफल और शिक्षित परिवारों के बच्चों को ही पढ़ाएंगे, ताकि हमारे स्कूल का नाम रोशन हो। इन अभिभावकों से भी अच्छे-खासे पैसे वसूल किए जाते हैं। ये अपने बच्चों के प्रवेश की खुशी में दे भी देते हैं। पचीस-तीस हजार के लिए क्या किसी को दुखी करना। इतना तो एक बर्थडे पर खर्च हो जाता है।
उनका क्या होता है जिनके बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता? यह किस्सा ज्यादा मजेदार है। सही व्यवस्था में हर आदमी का एक भविष्य होता है, गलत व्यवस्था में भविष्य की खरीद-बिक्री की प्रतिद्वंद्विता होती है। जो अभिभावक फेल हो जाता है, वह मुख्य सड़क से निकल कर अंधेरी-बंद गलियों में टहलने लगता है। यहां उसे बताया जाता है कि ढाई लाख रुपए देने से काम बन जाएगा। जिनकी जेब फूली हुई होती है और मुट्ठी खुली हुई, वे ऐसे किसी प्रस्ताव की प्रतीक्षा करते ही होते हैं। चट मंगनी पट ब्याह। उनके बच्चों को दाखिला मिल जाता है। मुश्किल उनके सामने पेश आती है जो इतना खर्च करना नहीं चाहते या जिनकी इतनी सामर्थ्य नहीं है। वे स्कूल-दर-स्कूल भटकते हैं, सोर्स की खोज करते हैं फिर अंतत: किसी ऐसे-तैसे स्कूल में बच्चे को प्रवेश दिला कर भारी मन से घर लौटते हैं। सुना है, तक्षशिला विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक विद्वान बैठता था। जिस विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना होता था, उसकी परीक्षा वह विद्वान ही लेता था। विद्वान द्वारा प्रमाणित विद्यार्थी को प्रवेश मिल जाता था। यह तरीका इसलिए निकाला गया होगा कि सिर्फ उन्हीं छात्रों को लिया जाए जो वाकई पढ़ना चाहते हैं। इसी का आधुनिक रूप है, इंट्रेन्स टेस्ट। मतलब हम तक्षशिला विश्वविद्यालय के दिनों से थोड़ा भी आगे नहीं बढ़े हैं, इसके बावजूद कि तब शिक्षा पर होनेवाला खर्च बहुत नगण्य था और आज लगभग हर देश के पास इतने संसाधन हैं कि वह अपने हर बच्चे को नौनिहाल बना सके। क्या यह बाजिब है कि आगे पढ़ने का अधिकार उन्हें ही दिया जाए जो पहले से ही पढ़ने में आगे हैं? मैं ऐसे कॉलेजों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता जहां सिर्फ होनहार बच्चों को लिया जाता है और उन्हें रगड़-रगड़ कर चमकाया जाता हैं। मैं ऐसे कॉलेजों के खुलने का इंतजार कर रहा हूं जहां सबसे कमजोर विद्यार्थी को सबसे पहले लिया जाएगा और उसे योग्य से योग्य बनाने की कोशिश होगी। हर सोना कीमती है, पर पत्थर होते हुए भी पारस सोने से ज्यादा कीमती है जो लोहे को भी सोना बना देता है। पारस पत्थर एक मिथक है। प्रकृति की सीमा है। वह अपने नियमों को तोड़ नहीं सकती। लेकिन मनुष्य रोज एक नियम बना सकता है और अगले दिन उसमें सुधार कर सकता है। जिस व्याकरण के तहत यह होता है, उसका नाम है संस्कृति। शिक्षा संस्कृति का अंग है।
संस्कृति की मांग यह है कि हर बच्चे को विकसित होने का एक जैसा अधिकार मिले। इसी नीयत से नर्सरी में प्रवेश के लिए बच्चों की परीक्षा लेना बंद कर दिया गया है। लेकिन न्यायालय ने अभिभावकों की परीक्षा लेने पर रोक नहीं लगाई। सो स्कूलों के प्रबंधक इस तरह आचरण कर रहे हैं जैसे इन अभिभावकों का ही प्रवेश होगा और ये ही कक्षा में पढ़ने आएंगे। यह बच्चों के साथ अन्याय है। उन्हें तो किसी ने यह अधिकार नहीं दिया कि वे अपने अभिभावक चुन लें। फिर अभिभावक की किसी कमी के कारण वे क्यों भुगतें?
शिक्षा व्यवस्था के इन अनैतिक हठों के परिणामस्वरूप ही शिक्षा का प्रसार बढ़ने के बावजूद समाज में सचमुच के शिक्षित लोग कम दिखाई देते हैं। जेब में कोई भारी डिग्री होने से ही दिमाग के बंधन नहीं खुल जाते। बल्कि अक्सर देखा जाता है कि शिक्षित लोग अनपढ़ लोगों से ज्यादा संकीर्ण और स्वार्थी होते हैं। गांधी जी ने कहा था कि मुझे सबसे अधिक निराशा भारत के बौद्धिक वर्ग से हुई है। आज का गांधी कहेगा कि इस देश के शिक्षित लोग समाज पर सबसे बड़ा बोझ हैं।
व्व्व.राष्ट्रीयसहारा.कॉम से साभार