Saturday, December 13, 2008

आतंक और एकता

राम पुनियानी
पिछले 26 नवम्बर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले ने शहर के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है. जो जानें गईं, उनकी तो कोई कीमत लगाई ही नहीं जा सकती, परंतु आम जनता ने राजनैतिक नेतृत्व पर जो विश्वास खोया है, उसकी भी भारी कीमत हमारे देश को अदा करनी होगी.इन हमलों के लिए हम किसे दोष दें? एक समस्या तो यह है कि पाकिस्तान में आज भी अनेक ऐसे आतंकी संगठन हैं जो सीआईए और आईएसआई द्वारा अफगानिस्तान पर रूसी कब्जे के बाद स्थापित किए गए मदरसों में तैयार किए गए थे. अफगानिस्तान से रूसी सेनाओं की वापिसी के बाद ये कट्टरपंथी आतंकी संगठन पाकिस्तान में बेरोजगारी के दिन काट रहे हैं. इस कारण ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है कि इन संगठनों का प्रेरणास्त्रोत व पोषक पाकिस्तान है. ऐसा पहले तो था परंतु अब नहीं है. बदले हुए समीकरणों का एक प्रमाण है पाकिस्तान की सेना द्वारा जनरल मुर्शरफ के कार्यकाल में लाल मस्जिद पर किया गया हमला. लाल मस्जिद उन स्थानों में शामिल थी जहाँ रूसी सेनाओं से लड़ने के लिए मुस्लिम युवकों को तैयार किया जाता था. मुसलमानों और आतंकवाद को पर्यायवाची बताने का काम 9 / 11 के बाद अमरीका की सरकार ने शुरू किया.आज हमें पाकिस्तान की धरती से काम कर रहे आतंकी संगठनों के पाकिस्तान की सरकार से रिश्तों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इनमें से कुछ संगठन पाकिस्तान के भीतर भी आतंकी हमले कर रहे हैं. हाँ, पाकिस्तान पर यह दबाव अवश्य डाला जाना चाहिए कि वो इन संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करे. अक्सर यह कहा जाता है कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए देश में एकता की जरूरत है. दुर्भाग्यवश, पिछले दो दशकों में देश को धर्म के आधार पर बाँटने के लिए कुछ राजनैतिक ताकतों ने जमीन आसमान एक कर दिया है.
साम्प्रदायिक राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही अल्पसंख्यकों के बारे में मिथक फैलाए गए. उनके बारे में दुष्प्रचार किया गया. इसने समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत किया, साम्प्रदायिक ताकतों को मजबूत किया और देश में दंगे भड़काए. इस कारण ही अल्पसंख्यकों में ''अपने लोगों'' के बीच रहने की प्रवृत्ति बढ़ी और पूरे देश, विशेषकर भाजपा शासित प्रदेशों में मुसलमानों में असुरक्षा का भाव बढ़ा.
वे ही तत्व जो पहले करकरे के मुंह पर कालिख पोत रहे थे उन्हीं तत्वों ने अपना राग बदल लिया और उन्हें नायक घोषित कर दिया. क्या इससे गंदी और छिछली राजनीति कुछ हो सकती है?
जब हम देश में ''एकता'' और ''बंधुत्व'' की बात करते हैं तो इसमें सबसे बड़ी बाधा है समाज का साम्प्रदायिकीकरण. यह कहना तो ठीक है कि हम सबको एक रहना चाहिए परंतु उसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि यदि आज हम एक नहीं हैं तो उसका कारण है धर्म आधारित राजनीति. साम्प्रदायिकता बढने से समाज की सोच में जो बदलाव आया है वही हमारे देश को बाँटने के लिए जिम्मेदार है.देश पर इतनी बड़ी मुसीबत आने के बाद भी कांग्रेस और भाजपा अलग-अलग भाषा में बात करे रहे हैं. भाजपा एक ओर राष्ट्रीय एकता की बात कर रही थी तो दूसरी ओर अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन जारी कर जनता को बता रही थी कि अगर आतंकी हमलों से बचना है तो भाजपा को वोट दो. भाजपा ने प्रधानमंत्री की भी आलोचना की जो देश से एक रहने का आव्हान कर रहे थे. मुंबई हमलों के लिए चुने गए समय ने भी कई प्रश्नों को जन्म दिया है. इस हमले के कुछ समय पूर्व ही महाराष्ट्र एटीएस ने आरएसएस की विचारधारा से जुड़े ले. कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, सेवानिवृत्त मेजर उपाध्याय आदि के खिलाफ आतंकवादी हमलों को अंजाम देने के सुबूत जुटाकर उन्हें हिरासत में लिया था. भोंसले सैनिक स्कूल की भूमिका भी उजागर हुई थी.जाँच जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, दरगाहों ओर मस्जिदों पर हुए बम हमलों में आरएसएस से जुड़े संगठनों की भूमिका के सुबूत सामने आते जा रहे थे. उस समय संघ परिवार एटीएस और विशेषकर उसके प्रमुख हेमन्त करकरे को खलनायक सिध्द करने में जुटा हुआ था. उन पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि उन्होंने अकारण साध्वी और उनके साथियों को पकड़ा था. एटीएस पर संघ का हमला इतना कटु था कि करकरे को जाने-माने पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो से मिलकर उनसे सलाह लेने और नैतिक समर्थन प्राप्त करने की जरूरत पड़ी. 28 नवम्बर के ''द टाईम्स ऑफ इंडिया'' के मुंबई संस्करण में प्रकाशित अपने लेख में जूलियो रिबेरो ने बताया है कि उन पर हो रहे राजनैतिक हमलों से करकरे कितने विचलित और उद्वेलित थे. रिबेरो ने करकरे की सच पर अडिग रहने और निहित स्वार्थी तत्वों की आलोचना के आगे न झुकने के लिए जमकर तारीफ की है.
हेमन्त करकरे की मृत्यु, मुंबई आतंकी हमले से हुए बड़े नुकसानों में से एक है। हम आशा करते हैं कि उनकी मृत्यु से मालेगांव बम धमाकों की जाँच पर असर नहीं पड़ेगा. आतंकियों से मुकाबला करने के लिए निकलते वक्त करकरे की मन:स्थिति क्या थी, यह तो अब कोई नहीं जान पाएगा परंतु उनकी मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ वह सबके सामने है. वे ही तत्व जो पहले करकरे के मुंह पर कालिख पोत रहे थे उन्हीं तत्वों ने अपना राग बदल लिया और उन्हें नायक घोषित कर दिया. क्या इससे गंदी और छिछली राजनीति कुछ हो सकती है? पूरे घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक हिस्सा था आतंकवाद के विरूध्द स्वनियुक्त योध्दा नरेन्द्र मोदी का मुंबई आना और ओबेराय होटल के सामने खड़े होकर पत्रकारों को संबोधित करना. मोदी, श्री करकरे की पत्नी से मिलने भी गए और उन्हें आर्थिक मदद देने की पेशकश की. पूरी गरिमा और विनम्रता के साथ श्रीमती करकरे ने उस व्यक्ति से एक करोड़ रूपये लेने से इंकार कर दिया, जो उनके पति की अपना काम ईमानदारी से करने के लिए आलोचना करते नहीं थकता था. यह समय ही हमें बताएगा कि हमारे देश को इतना बहादुर ओर ईमानदार अधिकारी क्यों और किन परिस्थितियों में खोना पड़ा. यह समय ही बताएगा कि करकरे द्वारा संघ परिवार के कार्यकर्ताओं के विरूध्द शुरू की गई कानूनी कार्यवाही अपने तार्किक अंत तक पहुंचेगी या नहीं और मालेगाँव और अन्य स्थानों पर बम विस्फोट करने वालों को उनके किए की सजा मिलेगी या नहीं.

www.raviwar.com से साभार

देशद्रोही

संदीप पांडेय
राज ठाकरे हिन्दुत्व की राजनीति की खुराक पर बड़े हुए हैं. हिन्दुत्व की राजनीति की बुनियाद मुस्लिम विरोध पर टिकी हुई है. कभी-कभी यह इसाई विरोध के रूप में भी दिखाई देती है. पर राज ठाकरे को ऐसा समझ में आया कि शिव सेना से अलग होने एवं महाराष्ट्र के पिछले स्थानीय निकायों के चुनाव में करारी शिकस्त के बाद राजनीति में अपने को स्थापित करने के लिए उनके लिए उत्तर भारतियों के विरोध की राजनीति करनी आवश्यक थी. सो उन्होंने किया.
ऐसा लगा जैसे मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वाली मशीन का मुंह उत्तर भारतीयों की तरफ मोड़ दिया गया हो. मामला उनके नियंत्रण के इस कदर बाहर निकल गया कि उनके राजनीतिक सहयोगियों के लिए उनकी कार्यवाइयों को जायज ठहराना मुश्किल हो गया.
राज ठाकरे ने जो मुद्दा उठाया है वह उन्हीं पर भारी पड़ रहा है. उत्तर भारतीय लोग तो मुम्बई, पंजाब, गुजरात, कोलकाता ही नहीं दुनिया के कई इलाकों में, जहां-जहां मजदूरों की जरूरत थी वहां, जा कर बसे हैं. ये वो काम करते हैं जो स्थानीय लोग नहीं करते. अक्सर ये काम काफी श्रम की मांग करते हैं.
उदाहरण के लिए बोझा उठाने का काम मुम्बई में महाराष्ट्र के लोग नहीं करते. अत: राज ठाकरे का यह कहना कि उत्तर भारतीय लोग मराठी लोगों का रोजगार छीन रहे हैं पूर्णतया सही नहीं है. यदि उत्तर भारतीय लोग मुम्बई में जिन कामों में लगे हुए हैं उनसे अपने हाथ खींच लें तो मुम्बई की अर्थव्यवस्था बैठ जाएगी. यही हाल भारत व दुनिया के अन्य इलाकों का है जहां उत्तर भारतीय लोगों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करने का काम किया है.
अब तो देश के बड़े-बड़े हिन्दुत्ववादी नेता साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व श्रीकांत पुरोहित के पक्ष में उतर आए हैं. क्या यह कोई बरदाश्त करेगा कि मोहम्मद अफजल गुरू को कोई चुनाव लड़ाए?
एक तरफ अपना खून-पसीना बहा कर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सींचने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ क्षेत्रवाद की संर्कीण घिनौनी राजनीति करने वाले राज ठाकरे जिन्होंने निरीह लोगों को हिंसा का शिकार बनाया. यह निष्कर्ष निकालना बहुत मुश्किल नहीं है कि कौन देश-समाज के हित में काम कर रहा है, कौन उसके विरोध में?
पूरा देश आवाक तो इस बात से है कि जिन महाराष्ट्र के लोगों पर राज ठाकरे को बहुत नाज़ था उनमें से ही कुछ लोग देश में आतंकवादी कार्यवाइयों को अंजाम देने में मुख्य साजिशकर्ता की भूमिका में थे. यह कितने शर्म और खतरे की बात है कि सेना में काम करने वाला लेफटिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित इन कार्यवाइयों में शामिल था. साध्वी-साधुओं की लिप्तता भी कम चौंकाने वाली नहीं है. देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी स्वीकार किए हुए तथा समाज को अध्यात्मिक दिशा देने वाले व्यक्ति देश-समाज को अंदर से ही आघात पहुंचा रहे होंगे इसकी किसी को कल्पना ही नहीं थी.
देश में होने वाली आतंकवादी कार्यवाइयों के लिए पहले पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों व उसकी खुफिया संस्था को जिम्मेदार ठहराया जाता था. फिर बंग्लादेश के आतंकवादी संगठन का नाम आने लगा. अंत में यह कहा जाने लगा कि देश का ही मुस्लिम युवा संगठन सिमी इन कार्यवाइयों के लिए जिम्मेदार है. देश के कई इलाकों से मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां भी हुईं. किन्तु इनके खिलाफ आतंकवादी कार्यवाइयों में शामिल होने के कोई ठोस सबूत नहीं हैं. सिर्फ पुलिस हिरासत में उनके इकबालिया बयान के आधार पर ही कई मुस्लिम युवाओं को लम्बे समय तक पुलिस या न्यायिक हिरासत में रखा गया है. इनमें से अधिकांश को पुलिस की घोर मानसिक-शारीरिक यातनाओं का शिकार भी होना पड़ा है.
दूसरी तरफ आतंकवादी घटनाओं में लिप्त होने के जो भी सबूत मिले हैं वे हिन्दुत्ववादी संगठनों के खिलाफ हैं. अप्रैल 2006 के नांदेड़ में दो बजरंग दल के कार्यकर्ता एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े व्यक्ति के घर में बम बनाते हुए विस्फोट में मारे गए. तेनकाशी, तमिल नाडू, में जनवरी 2008 में रा.स्व.सं. के स्थानीय कार्यालय पर हुए हमले में संघ के ही सात कार्यकर्ता पकड़े गए. जून 2008 में ही महाराष्ट्र के गड़करी रंगायतन में हुई घटनाओं में भी हिन्दुत्ववादी संगठनों के ही कार्यकर्ता पकड़े गए.
24 अगस्त, 2008 को कानपुर में हुए एक बम विस्फोट में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए. और अब तक के सबसे बड़े खुलासे में मालेगांव व मोडासा बम विस्फोट की घटनाओं में हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े कई कार्यकर्ता अब तक गिरफ्तार किए जा चुके हैं. इसमें सबसे चौंकाने वाला पहलू है रा.स्व.सं. की सेना जैसे संगठन में घुसपैठ.
पहले शरारतपूर्ण ढंग से यह प्रचारित किया गया कि हरेक आतंकवादी मुस्लिम ही होता है. आतंकवादी घटनाओं में गिरफ्तार मुस्लिम युवाओं की कोई वकालत न करे इसके लिए वकीलों के संगठनों ने प्रस्ताव पारित किए. लखनऊ, फैजाबाद, धार, आदि, जगहों में जो वकील आतंकवादी घटनाओं के अभियुक्तों के पक्ष में खड़े हुए तो उनके साथ हाथा-पाई तक की गई. कहा गया कि आतंकवादियों के खिलाफ कोई सबूत नहीं हो सकता. विवेचना के पहले ही तथा बिना कोई मुकदमा चले ही अभियुक्तों को पुलिस-वकील-मीडिया आतंकवादी मान लेते थे.
अब तो सारा समीकरण ही उलट गया है. गोडसे व सावरकर की परिवार से जुड़ी एक महिला आतंकवादी घटनाओं में पकड़े गए हिन्दू अभियुक्तों के लिए चंदा इकट्ठा कर रही हैं. इनसे हम उम्मीद भी क्या कर सकते थे? अब हिन्दुत्ववादी वकीलों को कोई दिक्कत नहीं है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हमेशा बिना सबूत के गिरफ्तारी, पुलिस हिरासत में लम्बे समय तक रखने, पुलिस द्वारा यातनाएं देने, नारको परीक्षण, आदि, का विरोध किया है. किन्तु अभी तक यह बहस मुस्लिम अभियुक्तों या नक्सलवाद से जुड़े होने के आरोप में पकड़े गए अभियुक्तों के संदर्भ में होती थी. तब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर आतंकवाद या नक्सलवाद के समर्थक होने के आरोप भी लगते थे. कहा जाता था कि मानवाधिकार कार्यकर्ता आतंकवादी या नक्सलवादी घटनाओं के शिकार लोगों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं.
अब तो देश के बड़े-बड़े हिन्दुत्ववादी नेता साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व श्रीकांत पुरोहित के पक्ष में उतर आए हैं. ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि वे उन आतंकी घटनाओं, जिनके लिए हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ता पकड़े गए हैं, में मारे गए साधारण निर्दोष लोगों के प्रति जरा भी संवेदनशील हैं. शिव सेना श्रीकांत पुरोहित को चुनाव लड़ाना चाहती है तो उमा भारती प्रज्ञा ठाकुर को. क्या यह कोई बरदाश्त करेगा कि मोहम्मद अफजल गुरू को कोई चुनाव लड़ाए?
हिन्दुत्ववादी संगठन न सिर्फ परोक्ष रूप से हिंसा का या हिंसा करने वालों का समर्थन कर रहे हैं बल्कि काफी बेशर्मी पर उतर आए हैं. देश को इन्होंने काफी नुकसान पहुंचाया है. चाहे महात्मा गांधी ही हत्या हो अथवा बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना. इनकी गतिविधियों की वजह से देश में हमेशा अस्थिरता पैदा हुई है. ये देश में नफरत फैला कर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं. इनको बेनकाब किया जाना बहुत जरूरी है. इनकी असली रूप अब सामने आ रहा है. राष्ट्रवाद का नारा तो से अपनी देश-विरोधी गतिविधियों को छुपाने के लिए देते हैं. देश-समाज को इनसे बचाने की जरूरत है. आम धार्मिक हिन्दुओं को अपने आप को हिन्दुत्ववादी संगठनों से अलग कर लेना चाहिए ताकि हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की छवि बची रहे
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*यह लेख मुंबई में चरमपंथी हमले से पहले लिखा गया था।
www.raviwar.com से साभार

Terror: The Aftermath

{भाई आनंद पटवर्धन के इस आलेख को टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अस्वीकृत कर दिया और हिंदुस्तान टाइम्स ने स्वीकार करके भी नहीं छापा। आख़िर ऐसा क्या था इसमें जो उन्हें आपत्तिजनक लगा....}
The attack on Mumbai is over. Nearly 200 dead. And now, after heart-rending stories of bereavement, come the repercussions, the blame game and the "solutions". Loud voices, amplified by saturation TV demanding: Why don't we amend our Constitution and create new anti-terror laws? Why don't we arm our police with AK 47s? Why don't we do what Israel did after Munich or the USA did after 9/11 and hit terror camps across the border?Solutions that can only lead us further into the abyss. For terror is a self-fulfilling prophecy. It thrives on reaction, polarization and militarization. The only thing that can undermine it is that which least occurs to those thirsting for revenge.
The External Terror Those who invoke America need only to analyse whether their actions after 9/11 increased or decreased global terror. The neo-cons invaded oil-rich Iraq knowing fully well that Iraq had nothing to do with 9/11. The war on Iraq killed over 200,000 Iraqis and several thousand Americans and allowed a cornered Bin Laden to escape. It also recruited global support for Islamic militancy, which began to be seen as a just resistance against American mass murder. Which begs the question of who created Bin Laden in the first place, armed the madarsas of Pakistan and rejuvenated the concept of Islamic jehad? Remember that at the height of the Cold War it was Communism that was the enemy and Islamic jehad, the friend.
Israel's historic role in stoking the fires of jehad is equally great. The very creation of Israel in 1948 robbed Palestinians of their land, an act that Mahatma Gandhi to his credit deplored at the time as an unjust way to redress the wrongs done to Jews during the Holocaust. What followed has been a slow and continuing genocide of the Palestinian nation. At first Palestinian resistance was led by secular forces represented by Yasser Arafat but as Israel/America successfully undermined Arafat and secular Palestinians, Islamic forces took over the mantle. When the first largely non-violent Intifada was crushed, a second more violent one replaced it and when all else failed, human bombs appeared.
Thirty years ago when I first went abroad there were two countries my passport forbade me to visit. One was racist South Africa. The other was Israel. We were a non-aligned nation that stood for disarmament and world peace. Today Israel and America are our biggest allies and military partners. Is it surprising that we are on the jehadi hit list? Israel, America and other prosperous countries can to an extent protect themselves against the determined jehadi, but can India put an impenetrable shield over itself? Remember that when attackers are on a suicide mission, the strongest shields have crumbled. New York was laid low not with nuclear weapons but with a pair of box cutters. Yet those who perhaps first infected the world with the virus are also ready with the anti-virus. So Mossad, the FBI and Scotland Yard have arrived in Mumbai to investigate terror and suggest the remedy.
The Terror WithinIndia is for many reasons a quintessentially soft target. Our huge population and vast landmass and coastline are impossible to protect. The rich may build new barricades. The Taj and the Oberoi can be made safer. So can our airports and planes. Can our railway stations and trains, bus stops, busses, markets and lanes do the same?
The threat of terror in India does not come exclusively from the outside, no matter how quickly the finger is pointed outwards. For apart from being enormously populated by the poor, India is also a country divided, not just between rich and poor, but by religion, caste and language. This internal divide is as potent a breeding ground for terror as jehadi camps abroad.
Nor is jehad the copyright of one religion alone. It can be argued that international causes apart, India has jehadis that are fully home grown. Perhaps the earliest famous one was Nathuram Godse who acting at the behest of his mentor Vinayak Savarkar (still considered to be "Veer" or "brave" although he refused to own up to his role in the conspiracy) murdered Mahatma Gandhi for having championed the cause of Muslims.
Let us jump to 6 December, 1992, the day Hindu fanatics demolished the Babri Mosque setting into motion a chain of events that still wreaks havoc. From the Bombay riots of 1992 to the bomb blasts of 1993, the Gujarat pogroms of 2002 to the present massacre in Mumbai, not to mention hundreds of smaller but nevertheless deadly events in between, the last 16 years have been the bloodiest since Partition. Action has been followed by reaction in an endless cycle of escalating retribution. At the core on the Hindu side of terror are organizations like the RSS and the Shiv Sena, both open admirers of Adolph Hitler, nursing the hate of historic wrongs inflicted by Muslims of the medeival past. A small irony here is that these votaries of Hitler are friends and admirers of Israel.
On the Muslim side of terror are scores of disaffected youth, many of whom have seen their families tortured and killed in more recent pogroms. Christians too have fallen victim to recent Hindu terror but as yet have not formed the mechanisms for revenge. Dalits too have not yet retaliated in violence despite centuries of caste oppression, although a small fraction may be drawn into the armed struggle waged by Naxalites.
It is clear that no amount of spending on defense, no amount of patrolling the high seas, no amount of increasing the military and police and equipping them with the latest weaponry will end the cycle of violence or place India under a bubble of safety. Just as nuclear India did not lead to more safety, but only to Pakistan becoming nuclear and both countries becoming that much poorer, no amount of homeland security can save us. And inviting Israel and America to the security table will only make us more of a target for the next determined terrorist attack.
Policing, Justice and the MediaAs for draconian anti-terror laws, they too can only breed more terror as for the most part they are implemented by a State machinery that has imbibed the assumption that Muslims are the prime source of all terror. So in Narendra Modi's Gujarat after the ethnic cleansing of Muslims in 2002, despite scores of confessions about rape and murder being captured on hidden camera, virtually no Hindu militants were punished by the State while thousands of Muslims rotted in jail under draconian laws. The same happened in Bombay despite the Shiv Sena being found guilty by the Justice Shrikrishna Commission. Under pressure a few such cases were finally brought to trial but everyone escaped with the lightest of knuckle raps. In stark contrast many Muslims accused in the 1993 bomb blasts were given death sentences.
The bulk of our media, policing and judicial systems swallows the canard that Muslims are by nature more prone to violence. Removing democratic safeguards guaranteed by the Constitution can only make this worse. Every act of wrongful imprisonment and torture that follows is likely then to turn innocents into material for future terrorists to draw upon. Already the double standards are visible for all to see. The Students Islamic Movement of India (SIMI) was banned on grounds that could not stand up to legal scrutiny. With far more evidence against them, predominantly Hindu outfits like the RSS, the VHP, the Bajrang Dal, the Shiv Sena and the MNS remain legal entities. The leader of the latter, Raj Thackeray openly spread such hatred that many north Indians were recently killed by lynch mobs. Amongst these were the Dubey brothers, doctors from Kalyan who treated the poor for a grand fee of Rs.10 per patient. Raj Thackeray like his uncle Bal before him, remains free after issuing public threats that Bombay would burn if anyone had the guts to arrest him. Narendra Modi remains free despite the pogroms of Gujarat. Congress party murderers of Sikhs in 1984 remain free. Justice in India is clearly not there for all. Increasing the powers of the police cannot solve this problem. Only the honest and unbiased implementation of laws that exist, can.
It is a tragedy of the highest proportions that one such honest policeman, ATS chief Hemant Karkare, who had begun to unravel the thread of Hindutva terror was himself gunned down, perhaps by Muslim terror. I say perhaps because I cannot automatically believe every story that emerges from the police or from the media, however convincing it may first sound. All I will say at the moment is that the evidence on record points to another historic irony. The people who had the most to gain from Hemant Karkare's death were the Hindutva bomb makers, sponsors and planters, from Col. Purohit to Sadhvi Pragya. It is reported that these elements now in judicial custody actually celebrated the news of Karkare's death. Until Karkare took charge, the Malegaon bomb blasts in which Muslims were killed and the Samjhauta Express blasts in which Pakistanis were killed were being blamed on Muslim terror. Karkare exposed a hitherto unknown Hindu outfit as masterminding a series of killer blasts across the country. For his pains Karkare came under attack not just from militant Hindus but from the mainstream BJP. Such was the viciousness of the attack that Karkare was under pressure to prove his patriotism. Was it this that led this senior officer to don helmet and ill-fitting bullet proof vest and rush into battle with a pistol? Or was it just his natural instinct, the same courage that had led him to expose Hindutva terror when popular sentiment was stacked against him?
Whatever it was, if indeed he was killed by Muslim terrorists, it only underlines the fact that jehadis of all kinds are actually allies of each other. So Bin Laden served George Bush and his neo-cons and vice-versa. So Islamic and Hindutva jehadis have served each other for years. Do they care who dies? Of the 200 people killed in the last few days by Islamic jehadis, a high number, specially at Shivaji Terminus, were Muslims. Many were waiting to board trains to celebrate Eid in their hometowns in UP and Bihar, when co-religionists gunned them down. Shockingly the media has not commented on this, nor for that matter has it focused at all on the tragedy at the railway station, choosing to concentrate almost entirely on tragedies that befell the more well-to-do. And shockingly it is the media that is leading the charge to turn us into a police state where we may lead lives with an illusion of safety, but with the certainty of joylessness.
I am not arguing that we do not need basic security at public places and at vulnerable sites. But real security will only come when it is accompanied by real justice, when the principles of democracy are extended to every part of the country, when the legitimate grievances of people are not crushed with an iron heel, when the arms race is replaced by a race for decency and humanity, when our children grow up in an atmosphere where religious faith is put to the test of reason. Until such time we will remain at the mercy of "patriots" and zealots.
Anand PatwardhanNovember 2008

Friday, November 21, 2008

खतरे में खेती

देविंदर शर्मा
लगभग ढाई दशक पहले आयरलैंड के कोर्क में आयरिश अकाल की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर शहर के मेयर ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ''तब समाज कितना बर्बर था. लोग भूखों मर रहे थे और मक्के से लदे जहाज इंग्लैंड भेजे जा रहे थे.''

उस भीषण अकाल के करीब 175 साल बाद विश्व इससे भी अधिक बर्बरता की उर्वर जमीन तैयार कर रहा है. इस बार दुनिया विदेशी खेतों में निवेश करने की होड़ का गवाह बन रहा है. लाखों हेक्टेयर उर्वर जमीन खरीदी जा रही है और उसे खाद्य संपदा में बदला जा रहा है. अनेक खाद्य और वित्तीय कंपनियां विदेशों में जमीन में निवेश करने के साथ-साथ अपने कामगार, उत्पादन प्रौद्योगिकी और उपकरण ला रही हैं.
खाद्य उत्पादन की आउटसोर्सिंग की अपेक्षाकृत नई अवधारणा निवेशकर्ता देश की तो खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करेगी, लेकिन मूल देश की जनता को भूख, भुखमरी और खाद्य संकट की विभीषिका में झोंक देगी. ये कंपनियां अति सघन खेती करेंगी, जिसका पर्यावरण पर बेहद घातक प्रभाव पड़ता है. मेजबान देश के पल्ले पड़ेगी मिट्टी की गिरी हुई उर्वरता, भूमिगत जलस्तर में कमी और रसायनों की भरमार से विषैली बनी धरा. यह पूरी दुनिया में चल रहा है.

भारत की बात करें तो कर्नाटक में इस प्रयोग की शुरुआत होने जा रही है. खेती वाली भूमि की खरीद पर लगा नियंत्रण ढीला करके प्रदेश निवेश आकर्षित करने का खतरनाक प्रयास कर रहा है. यहां निवेश के लिए 15 कंपनियां तत्पर हैं. इनमें सार्वजनिक क्षेत्र की स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन के अलावा कुछ बड़ी निजी कंपनियां शामिल हैं. पैरागुवे, ऊरुग्वे और ब्राजील में पहले ही दस हजार हेक्टेयर जमीन में मुख्यत: सोयाबीन और तिलहन के उत्पादन के लिए विदेशी कंपनियों ने भूमि पट्टे पर लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. भारतीय कंपनियां भी दलहन उत्पादन के लिए म्यांमार में प्रवेश कर रही हैं. इसके अलावा इंडोनेशिया में तेल उत्पादन के लिए पाम के पेड़ खरीदे जा रहे हैं. इसके बाद खरीदारी की सूची में आस्ट्रेलिया और कनाडा हैं. कृषि संपदा से संबंधित राष्ट्रीय कानूनों को संशोधित जा रहा है.

खाद्य एवं कृषि मंत्रालय खेती की आउटसोर्सिग के पक्षधर हैं. रिजर्व बैंक वर्तमान कानूनों में बदलाव कर रहा है ताकि विदेशों में कृषि भूमि खरीदने के लिए कंपनियों को वित्तीय सहायता मुहैया कराई जा सके. भारत में ही नहीं, अर्जेटीना से मंगोलिया और आस्ट्रेलिया से रूस तक में विदेशी कंपनियों को कृषि भूमि खरीदने की अनुमति प्रदान करने के अनुकूल कानून संशोधित किए जा रहे हैं. खाद्य संकट की तीव्र वेदना झेल रहे पाकिस्तान में प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने मध्य जून में सऊदी अरब के दौरे से लौटने के बाद अति उत्साह का परिचय दिया. खबर है कि विदेशी निवेश की जबरदस्त तंगी के कारण उन्होंने लाखों एकड़ उर्वर भूमि बेचने की पेशकश कर डाली.

इस बीच कतर पाकिस्तान के पंजाब में कृषि भूमि खरीदने की तैयारी कर रहा है, जिसके लिए करीब 25 हजार गांवों के किसानों को बेदखल होना पड़ेगा. सऊदी अरब भी इंडोनेशिया के मेरोके में 16 लाख हेक्टेयर कृषि संपदा हासिल करने की योजना बना रहा है. यहां चावल का उत्पादन कर वह वापस अपने देश मंगाएगा. विदेश में जमीन खरीदने के इच्छुक देशों में सऊदी अरब अकेला नहीं है. गल्फ कारपोरेशन काउंसिल का गठन किया जा चुका है, जिसके सदस्यों में सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत, कतर, ओमान, जार्डन और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं. ये निवेश पर लाभ के बदले विदेशों में जमीन की खोज कर रहे हैं.
यह स्पष्ट है कि खाद्य पदार्थो की राजनीतिक अर्थव्यवस्था फिर से लिखी जा रही है. नि:संदेह इसके गंभीर नतीजे निकलेंगे.

एशिया में लाओस, इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, कंबोडिया, पाकिस्तान, थाईलैंड और म्यांमार, मध्य एशिया और यूरोप में यूक्रेन, कजाकिस्तान, जार्जिया, रूस और टर्की तथा अफ्रीका में सूडान व उगांडा में पहले ही भूमि संबंधी करार किए जा चुके हैं. इन देशों को अहसास हो गया है कि तेल से आय लोगों का पेट नहीं भर सकती. हालिया वैश्विक खाद्य संकट में सुपर मार्केटों से खाद्यान्न गायब हो गया था. इसलिए खाड़ी देश भविष्य में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के इरादे से निवेश कर रहे हैं.

जमीन हथियाने में चीन मुख्य खिलाड़ी बन गया है. आबादी को खेती से हटाकर शहरों में ले जाने की बढ़ रही प्रक्रिया के चलते अब चीन विदेशों में भूमि खरीदने की गतिविधि में बढ़-चढ़कर भाग ले रहा है. मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य एशिया, आस्ट्रेलिया और फिलीपींस में चीन तीस से अधिक भूमि समझौतों को अंजाम दे चुका है. चीन खाद्य उत्पादनों की आउटसोर्सिग के अनुरूप कृषि नीति तैयार कर रहा है. मजेदार बात यह है कि एक तरफ चीन विदेशों में भूमि खरीदने की फिराक में है और दूसरी तरफ जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका की खाद्य उत्पादन से जुड़ी कंपनियां उसकी कृषि व्यवसाय गतिविधियों पर नियंत्रण कर रही हैं. कोरिया मंगोलिया की प्राकृतिक भूमि खरीद रहा है, जिससे विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक परिवेश में पारिस्थितिक संतुलन गड़बड़ाने का खतरा पैदा हो गया है. चीन में ग्रामीण आबादी के शहरों में पलायन ने वहां का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न कर दिया है. इससे वहां सामाजिक असंतोष पैदा हो गया है, जो अक्सर हिंसक रूप ले लेता है. चीनी सरकार के अधिकारिक मुखपत्र 'चाइना डेली' में छपी रिपोर्ट के अनुसार चीन में ग्रामीण समुदाय के विरोध प्रदर्शनों में भारी बढ़ोतरी हुई है. करीब 11 साल पहले यह संख्या मात्र दस हजार प्रति वर्ष थी, जो 2005-06 तक बढ़कर 75 हजार पहुंच गई.

इसका मतलब है कि वहां रोजाना करीब ढाई सौ प्रदर्शन हो रहे हैं. देहात के इलाकों में भारी उद्योगीकरण के कारण टिकाऊ कृषि व्यवस्था में हड़कंप मच गया है. इस कारण उसके पास देश से बाहर भूमि की तलाश ही एकमात्र रास्ता बचा है. भारत भी चीन के साथ अंधी दौड़ में यह दोषपूर्ण प्रतिमान हासिल करने की सोच रहा है. हाल ही में खाद्य दंगों को झेलने वाले मिस्र ने बर्र का छत्ता छेड़ दिया है.

उसने रहस्योद्घाटन किया है कि आठ लाख चालीस हजार हेक्टेयर भूमि, जो युगांडा के भूभाग का ढाई प्रतिशत है, के संबंध में करार प्रक्रिया जारी है. इस भूमि पर गेहूं और मैदा का उत्पादन कर इसे वापस मिस्र को निर्यात किया जाएगा. दुविधा के शिकार कई अन्य देश हैं. एक तरफ तो वे दूसरे देशों में भूमि की तलाश कर रहे हैं, जबकि दूसरी ओर कुछ कंपनियां उन्हीं के देश में भूमि में निवेश कर रही हैं. बार्सिलोना स्थित ग्रेन द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार जापान की बड़ी खाद्य कंपनियों ने चीन, ब्राजील, अफ्रीका और मध्य एशिया में सैकड़ों हेक्टेयर कृषि भूमि खरीदी है. मौजूदा समय आर्थिक मंदी की चर्चाओं के बीच अगर आपको हैरानी हो रही है कि करदाताओं की कीमत पर बेलआउट पैकेज कहां जा रहा है तो अपनी सांस रोक लीजिए.

गोल्डमैन सैश और ड्यूश बैंक चीन के पशुधन उद्योग पर नजरे गड़ाए हैं। मार्गन स्टेनले ने यूक्रेन में चालीस हजार हेक्टेयर भूमि खरीद ली है। ब्रिटिश निवेश समूह लैंडकोम भी यूक्रेन में एक लाख हेक्टेयर भूमि खरीद चुका है. स्वीडन की दो निवेश फर्म ब्लैक अर्थ फार्मिग और आल्पकोट एग्रो ने रूस में क्रमश: 3.31 लाख और 1.28 लाख हेक्टेयर भूमि खरीद ली है. यह सूची बढ़ती जा रही है. स्पष्ट है कि खाद्य पदार्थो की राजनीतिक अर्थव्यवस्था फिर से लिखी जा रही है. नि:संदेह इसके गंभीर नतीजे निकलेंगे.

www.raviwar.com से साभार

Friday, October 31, 2008

हमारा मंत्र लोकतंत्र

अभय कुमार दुबे

अगर लोकतांत्निक राजनीति का उद्देश्य जनता को अधिकारसंपन्न करना और अधिकार-चेतना से लैस करना है तो भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया ने वास्तव में कुछ ऐसी उपलब्धियां हासिल की हैं, जिन्हें इतिहास सकारात्मक लहजे में याद किए बिना रह नहीं सकता। इस मामले में हमारी राजनीति को सौ में से साठ-पैंसठ नंबर तो दिए ही जा सकते हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि 15 अगस्त, 1947 को जिस तरह का भारतीय समाज हमारे नवोदित आधुनिक राज्य को मिला था, उसके बारे में लगभग सभी विद्वानों और प्रेक्षकों की राय थी कि उसकी जमीन पर किसी एकताबद्ध राष्ट्र की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के लिहाज से माना जाता था कि द्वितीय विश्व यद्ध के बाद स्वतंत्न हुए एशिया और अफ्रीका के अन्य राष्ट्र भारत के मुकाबले ज्यादा सफल हो सकते हैं। एक तो वे राष्ट्र आकार में छोटे थे, दूसरे उनका सामाजिक ढांचा काफी-कुछ समरूप था। इसके उलट भारत अपने महाद्वीपीय आकार और असंख्य विविधताओं के कारण राष्ट्र निर्माण के किसी भी खांचे में फिट होने से इनकार कर रहा था। इसीलिए सत्तर के दशक की शुरूआत तक दुनिया में किसी को यकीन ही नहीं हुआ कि भारतीय लोकतंत्न टिक भी सकता है। 1967 के आम चुनाव के बारे में तो अमेरिकी विद्वान सेलिग हैरिसन ने अपनी किताब ‘इंडिया : दि मोस्ट डेंजरस डिकेड’ में लिख ही दिया था कि यह भारत का आखिरी लोकतांत्निक चुनाव होने जा रहा है। हैरिसन अब भी बौद्धिक रूप से सक्रिय हैं और अमेरिकी प्रशासन अब भी उनसे भारत के बारे में राय-मश्विरा लेता रहता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस समय राष्ट्रपति बुश ने भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर दस्तखत किए होंगे, उस समय हैरिसन को अपनी वह भविष्यवाणी याद करके कैसा लग रहा होगा। आज भारतीय राज्य और राष्ट्र को अगर कहीं से चुनौती मिल रही है तो वह केवल नक्सलवाद की तरफ से ही है। आतंकवाद हमें सता जरूर रहा है, पर वह भारतीय राष्ट्र की एकता को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। उसका भारतीय जनता में कोई आधार नहीं है।

दरअसल, आधुनिक भारतीय राजनीति का इतिहास 1947 से शुरू न होकर बीसवीं सदी के दूसरे दशक से शुरू होता है, जब गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा किए गए प्रशासनिक विभाजन को खारिज करके भाषाई आधार पर अपने संगठन और आंदोलन का गठन करने का निश्चय किया। इस प्रयोजन में अभूतपूर्व सफलता मिली और फिर एक पचास साल लंबी उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति का सूत्नपात हुआ। आजादी का आंदोलन एक लंबे वोकेशनल स्कूल की तरह था जिसमें भारतीय समाज ने पश्चिमी राजनीतिक सिद्धांतों का अपने समाज की भाषा में अनुवाद करने का पहला पाठ पढा़। राष्ट्रवाद कहता था कि भाषा एक होनी चाहिए, धर्म एक होना चाहिए, जातीयता एक होनी चाहिए और संस्कृति एक होनी चाहिए। भारत ने हर जगह इस ‘एक’ के स्थान पर ‘अनेक’ रखकर प्रयोग किए। विदेशी प्रेक्षकों को लगा कि इससे विकृतियां पैदा होंगीं, पर इसी के साथ हमारे लोकतांित्नक अभिजनों ने जनता के विवेक पर भरोसा करके उसे संविधानसम्मत अधिकार देने शुरू किए, यह मानते हुए कि समय के साथ इन अधिकारों की चेतना भी आ जाएगी। एक बड़ी हद तक ऐसा हुआ भी। संविधान पारित होने की पूर्वसंध्या पर भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि कल राजनीतिक लिहाज से हर व्यक्ति के पास एक वोट होगा, पर सामाजिक लिहाज से ऊंच-नीच की मानसिकता जारी रहेगी। हमें जल्द से जल्द इस अंतर्विरोध को हल कर लेना चाहिए। सवाल यह है कि भारत यह अंतर्विरोध किस सीमा तक हल कर पाया और अगर कर पाया तो उसके लिए क्या तरकीबें अपनाईं। इस अंतर्विरोध को हल करने में सबसे बड़ा योगदान आरक्षण की तरकीब का रहा जिसके कारण भारतीय समाज जातियुद्ध से बच गया। इसके जरिए पहले अनुसूचित जातियां और बाद में पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक जातियां राजनीतिक-सामाजिक मुख्यधारा में आ पाए। भारतीय अभिजनों के आकार और संरचना में रेडिकल परिवर्तन हुआ। आज आरक्षण की इसी तरकीब के जरिए स्ति्नयों को भी राजनीतिक अभिजनों के दायरे में लाने का उपक्रम हो रहा है। आरक्षण विरोधियों को केवल यह दिखता है कि उन्हें नौकरियां मिलने में दिक्कत हो रही है, पर वे राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से इसके महत्व को समझने में नाकाम रहते हैं। लोकतंत्न केवल वहीं कामयाब हो सकता है, जिसके अभिजनों का दायरा लगातार बढ़ता रहे। भारतीय लोकतंत्न ने यह कर दिखाया है। इसी से जुड़ी हुई भारतीय राजनीति की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि है समाज की सामुदायिक संरचना का आधुनिकीकरण। यह अनूठी उपलब्धि केवल लोकतांत्निक राजनीति के जरिए ही संभव हो सकती थी। लोकतांित्नक राजनीति के स्पर्धामूलक चरित्न की यह विशेषता है कि वह सामाजिक समूहों को एक-दूसरे के साथ एकताबद्ध होने के लिए बाध्य कर देती है। अपने आप में डूबे हुए ग्राम समुदायों में बंटे भारतीय समाज ने जब लोकतांत्निक राजनीति में भाग लेना शुरू किया तो जिस चीज को हम सब लोग ‘राजनीति का जातिवाद’ कहते हैं, वह दरअसल ‘जातियों के राजनीतिकरण’ के रूप में प्रकट हुआ। राजनीति में बढो़तरी हासिल करने के स्वार्थ ने जातियों को दूसरी जातियों के साथ गठजोड़ करने की तरफ धकेला, जिसके कारण जो सामाजिक ढांचा नीचे से ऊपर की तरफ जाता था, उसका विन्यास धीरे-धीरे दाएं से बाएं की तरफ होने लगा। इस प्रक्रिया में केवल राजनीति ने ही नहीं, बल्कि सेकुलरीकरण, आधुनिकीकरण, शहरीकरण और उघोगीकरण ने भी अपनी भूमिका निभाई है। लेकिन इन सारी प्रक्रियाओं की चालक शक्ति की भूमिका राजनीति के हाथ में ही है। पूछा जा सकता है कि फिर भारतीय राजनीति केवल 60-65 नंबर लेकर ही कैसे रह सकती है। इसका उत्तर यह है कि अभी बहुत से काम अधूरे पड़े हुए हैं। गठजोड़ राजनीति की मजबूरियों ने सांप्रदायिक राजनीति के नख-दंत काफी भोथरे किए हैं, पर गठजोड़ संस्कृति अभी अपरिपक्व ही है। उसकी स्थायी कसौटियां बननी अभी बाकी है। दूसरे, भारतीय राजनीति का अधिकांश समय अभी तक केवल समुदाय की जमी हुई सत्ता से निबटने में खर्च होता रहा है। नागरिकता और उसके बोध के विकास का चरण अभी तक आ ही नहीं पाया है। लोकतंत्न केवल तभी परिपक्व हो सकता है जब हमारे यहां नागरिक समाज की शक्तियां पूरी तरह से पुिष्पत-पल्लवित हों। भारतीय राजनीति जिस दिन परिवार और राज्य की संस्था के बीच के दायरे में सिविल सोसाइटी को खड़ा कर देगी, उस दिन उसे सौ में सौ नंबर मिलेंगे। (लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम का संपादक है)

Friday, October 3, 2008

अलविदा कटवारिया के गधो

कटवारिया के गधे मुझे विशेष प्रिय हैं क्योंकि वे मेरी जानकारी में इतनी तादाद में दिल्ली में शायद कहीं और नहीं देखे जाते। पिछले लगभग दो सालों से मेरा इनसे साबका पड़ता रहा है, और अब जब मैं इनसे दूर जा रहा हूँ तो मुझे अपनी ज़िन्दगी में इनकी अहमियत का पता चला है। वास्तव में हमारी नस्ल एक है यह मुझे बहुत बाद में जाकर अहसास हुआ और इतने करीब रहकर भी हम सुख-दुख की दो-चार बातें नहीं कर सके। वक़्त मिला तो कभी इत्मीनान से इस पर एक संस्मरण ज़रूर लिखूँगा। अभी तो ग़मे-रोज़गार से ही निजात पाने की कोशिश कर रहा हूँ।

अपने व्यालोक भाई और अभिषेक भाई कई महीनों से चकित थे कि ऐसा कैसे सम्भव है कि मैं पिछले लगभग दो सालों से एक ही नौकरी में हूँ। चकित तो मैं भी था व्यालोक भाई और लीजिये हाज़िर हो गया हूँ फिर से अपने सनमखाने में। ऐसा क्यों है कि कुछ दूर चलने के बाद सारे रास्ते कहीं अंधी गली में मुड़ जाते हैं ? कोई कह सकता है कि तुम्हें चलना नहीं आता पर ७-८ सालों के अनुभव ने इतना तो पका ही दिया है कि नारों और दावों के मर्म समझ सकूँ। फिर ज़रूर अपने सोचने के तरीके में ही वह कारण छिपा है जो कहीं भी ज़्यादा दिनों तक अपना पाँव ही नहीं टिकने देता। सफलता की चक्करदार सीढियों पर चढ़ने, चढ़ते चले जाने के लिए जिस हुनर, जिस कौशल की दरकार होती है उसका तो नितांत अभाव हमेशा से अपने पास रहा ही। अपने बॉस को खुश रखना कोई आसान काम नहीं होता होगा और जो लोग यह हुनर साध लेते हैं सुखी रहते हैं। हम तो भाई गधे ही रहे ! शहर में बसना नहीं ही आया।


जब तक कहीं भी, कैसी भी नौकरी नहीं मिल जाती, तब तक के लिए देशकाल पर आने वाले तमाम दोस्तों से माफी चाहता हूँ क्योंकि यहाँ आप भले ही आयेंगे मैं चाहकर भी नहीं आ सकूँगा। सायबर कैफ़े में बैठकर तो ब्लॉगिंग होगी नहीं और घर में कम्प्यूटर नहीं है। सो सबको ईद, दशहरा और दीवाली की इकट्ठा शुभकामनाएँ......

आपका,
राजेश चन्द्र

Friday, September 26, 2008

बाढ़ की जाति

भाई प्रमोद रंजन की यह रिपोर्ट २४ अक्टूबर को उनके चिट्ठे संशयात्मा पर छपी है। इसमें उन्होंने बिहार के जन संहार की कुछ नयी गुत्थियाँ खोली हैं। देशकाल पर दुबारा इसे छापने का लोभ नहीं छोड़ सका।
राज्‍य सत्‍ता की जाति
प्रमोद रंजन
जो कुछ बताने जा रहा हूं वह एकबारगी तो मुझे भी अविश्वसनीय लगा. ज्यों-ज्यों कड़ियां जुड़ती गयीं, तस्वीर साफ होती गयी. यह बाढ़ आयी नहीं, लाई गयी है. कुशहा तटबंध तोड़ा तो नहीं गया लेकिन उसे टूटने का भरपूर मौका दिया गया. विपदा के बाद राहत कार्यों में सरकारी मशीनरी खुद ब खुद अक्षम साबित नहीं हुई, उसे अक्षम बनाये रखा गया. जातिवाद के लिए चर्चित बिहार में अंजाम दी गयी यह कथित लापरवाही, वास्तव में कम से कम आजाद भारत की सबसे बड़ी सुव्यवस्थित जाति आधारित हिंसा है. वर्ष २००८ के १८ अगस्त को कासी क्षेत्र में आयी बाढ़ में सरकारी आकड़ों के अनुसार कम से कम २५ लाख लोग तबाह हुए हैं. एक पुख्ता अनुमान के अनुसार लगभग ५० हजार लोग मारे गये हैं.
कोसी अंचल के दलित जब बिल में पानी जाने के बाद बिलबिलाती चींटियों की तरह मर रहे थे; यादवों के पशु, घर, खेत सब कोसी की धार में बहे जा रहे थे, ऐसे समय में सत्ताधारी दल जनता यूनाइटेड के राष्टीय प्रवक्ता के बयान ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार ने इन्हें बचाने की कोशिश क्यों नहीं कर रही. जदयू के राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने विपक्षी राष्टीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद की सक्रियता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 'भाई का दर्द भाई ही समझता है'. प्रेस को जारी इस बयान में तिवारी ने कहा कि चूंकि इसके पहले आयी बाढ़ से सहरसा, मधेपुरा (यादव बहुल जिले) नहीं प्रभावित होते थे इसलिए लालू इतने सक्रिय नहीं होते थे. 'भाई' की पीड़ा ने उन्हें इतना संवदेनशील बना दिया है कि वे इसके बीच कूद पड़े हैं. इस फूहड़ बयान के निहितार्थ गंभीर हैं. यह सच है कि बाढ़ग्रस्त इलाका यादव बहुल है, इसके अलावा वहां बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ों और दलितों की है. (सहरसा, सुपौल और मधेपुरा के बाढ़ग्रस्त इलाकों से गुजरते हुए, राहत शिविरों में बातचीत करते हुए, मुझे महसूस हुआ कि यहां दलितों की आबादी भी बहुत ज्यादा है)
लगभग ३० विधान सभा सीटों वाला बाढ़ से प्रभावित हुआ यह क्षेत्र लालू प्रसाद को बिहार की सत्ता में बनाये रखने का एक बड़ा कारण रहा था. लेकिन पिछली बार पासा पलट गया. कहते हैं कि उस समय इलाके के यादव लालू से नाराज हो गये थे. राष्टीय जनता दल के एक कद्दावर नेता बताते हैं कि 'राजद को बिहार की सत्ता से बेदखल करने में बड़ी भूमिका इस क्षेत्र की रही'. पिछले विधान सभा चुनाव में इन जिलों की अधिकांश सीटें राजद हार गया. अभी इस क्षेत्र की कुल २८-३० सीटों में से २२-२३ विधायक जदयू अथवा भाजपा के हैं. इसके बावजूद राजग की ओर से यह बयान आया कि यादव होने के कारण लालू इस क्षेत्र के लिए चिंतित हैं. बयान बताता है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में सिर्फ घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है. इसके पीछे जातिवाद का चरमावस्था है. ऐसा कुत्सित जातिवाद, जो यह हुंकार भरता फिर रहा है-यादवों, दलितों, अति पिछड़ों! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है.
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार में जाति-शत्रुओं के सफाये के लिए बाढ़ के रूप में सुव्यवस्थित हिंसा की नयी तकनीक लागू की गयी. इस तकनीक ने नरेंद्र मोदी के प्रयोगों को भी पीछे छोड़ दिया. नरेंद्र मोदी वंदे मातरम्‌ गाने वालों को बख्श देने की बात करते हैं. लेकिन यहां लाखों लोग राज्य सत्ता को समर्थन देने के बावजूद सिर्फ इसलिए अपने हाल पर छोड़ दिये गये क्योंकि वे यादव थे, दलित थे. उन्होंने राजग को वोट किया था तो क्या, वे अवधिया कुरमी अथवा भूमिहार तो न थे. इसे नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्यसत्ता में आयी एक सवर्ण जाति की कुंठा के विस्फोट के रूप में भी देखा जा सकता है. लालू प्रसाद के शासन काल में यादवों के मातहत रहने का दंश उन्हें १७-१८ वर्षों से सता रहा था. उन्हें यह 'सुख' है कि कीड़े-मकोड़ों की तरह बिलबिलाओं सालों, देखते हैं, कौन क्या कर लेता है!
नेपाल में कुशहा के पास तटबंध टूटने की सूचना भीमनगर बैराज के पास तैनात मुख्य अभियंता सत्यनारायण ने नौ अगस्त को ही बिहार सरकार को दे दी थी. यह एक पूर्णतः प्रमाणित हो चुका तथ्य है, जिसका खुलासा इस इंजीनियर को डिमोट कर स्थानांतरित कर देने के बाद हुआ. इसके अलावा अन्य श्रोतों से भी तटबंध में रिसाव होने सूचना बिहार के सत्ताधीशों को थी. लेकिन इसे रोकने की कोशिश करने की बजाय तटबंध मरम्मती नाम 'माल' बनाने की कोशिशें की जाती रहीं. परिणाम यह हुआ कि १८ अगस्त को तटबंध टूट गया. (कुछ लोग इसके टूटने की तारीख और पहले बताते हैं) पानी लाखों लोगों का आशियाना उजाड़ते, हजारों की जान लेते रोजाना नये इलाकों की ओर बढ़ता गया.
तटबंध टूटने से छूटे लगभग डेढ़ लाख क्यूसेक पानी से १८, १९ और २० अगस्त को जिन बस्तियों की सीधी टक्कर हुई, वे तो उसी समय नेस्तानाबूद हो गयीं. झुग्‍गी-झोपड़ियों, दलितों के टोलों में तो न कोई आशियाना बचा, न जानवर, न एक भी आदमी. अगले ७-८ दिनों तक पानी कोसी की नयी (मुख्य) धार के आसपास के गांवों की ओर बढ़ता गया. लोग अकबकाए चूहों की तरह, जिधर राह मिली, भागने लगे. सब ओर पानी ही पानी. रास्ते का अता-पता नहीं. कोसी की विकराल, हहराती, कुख्यात तेज धारा. डूब कर मरने वालों में-पैदल भाग रहे लोगों, केले के पेड़ों, लोहे डघमों, धान उसनने वाले कटौतों आदि का सहारा लेकर निकलना चाह रहे लोगों की संख्या कितनी रही, यह हम कभी नहीं जान पाएंगे. कितनी निजी नावें पलटीं, कितनों को स्थानीय अपराधियों ने पानी में फेंका, कितनी महिलाओं के जेवर छीने गये, कितनों ने अस्मत गंवायी. क्या कभी सामने आएगा इनका आंकड़ा?
उधर यादव-दलित डूबते जा रहे थे और इधर सत्ताधारी जनता दल युनाइटेड प्रधानमंत्री से मिलने के लिए ५०० पृष्ठों का दस्तावेज तैयार कर रहा था. लेकिन यह कागजात बाढ़ से संबंधित नहीं थे. यह कागजात थे रेलमंत्री द्वारा कुछ कट्ठा जमीनें लिखवा कर रेलवे की नौकरियां बांटने के. १८ अगस्त को तटबंघ टूटने,सैकड़ों बस्तियों के बह जाने, हजारों लोगों के मारे जाने की सूचनाओं के बीच ६ दिन गुजारने के बाद-२३ अगस्त को-जनता दल यूनाइटेड के राष्टीय अध्यक्ष शरद यादव, राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी, प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह व केसी त्यागी जब भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बाल नकवी की अगुवाई में प्रधानमंत्री से मिले तो उनके सामने बाढ़ कोई मसला नहीं था. वे सिर्फ यह चाहते थे कि लालू प्रसाद को केंद्रीय मंत्रीमंडल से बाहर कर दिया जाए. मुख्यमंत्री ने बाढ़ क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण पहले २० अगस्त को और फिर २४ अगस्त को किया. तब तक भारी तबाही हो चुकी थी. 20 अगस्‍त को ही उन्होंने देखा कि पानी सैकड़ों बस्तियों को लीलता बढा जा रहा है. हजारों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन उनका ग्लेशियर सा हिंसक ठंडापन बरकरार था. बिना हो-हंगामे के जितना डूब सकें, डूबें हरामी!
२४ अगस्त को हवाई अड्डा पर प्रेस कांफ्रेस में तथा २६ अगस्त को रेडियो से जनता के नाम 'संदेश' देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बिहार में प्रलय आ गया है. लोग दान देने के लिए आगे आएं. हजारों लोगों की मौत के बाद, बाढ़ के ९ वें दिन रेडियो पर मुख्यमंत्री द्वारा पढे गये इस संदेश की भाषा में 'भावुकता' कूट-कूट कर भरी गयी थी. मुख्यमंत्री ने अपील की कि लोग बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों से बाहर निकलें. सरकार सब व्यवस्था करेगी!
जाहिर है, राज्य सरकार न सिर्फ तटबंध की सुरक्षा बल्कि बचाव-राहत कार्य में भी सुस्त बनी रही. सरकार के खैरख्वाह समाचार माध्यमों के माध्यम से अपना तीन साल पुराना तकिया कलाम दुहराते रहे कि यह सब कुछ पिछली सरकार का किया-धरा है. लालू ने तटबंध मरम्मती के लिए कुछ किया ही नहीं.
रेलकर्मी का जातिवाद
राज्‍य सत्ता ने ऐसा किया तो जाहिर है, यह अनायास नहीं रहा होगा। जाति बिहार के रग-रग में कूट-कूट कर भरी है. बिहार में भारी तबाही की खबर सुनकर मेधा पाटकर बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के दौरे पर पहुंचीं. उनके कार्यकर्ताओं द्वारा मुंबई से लायी जा रही राहत सामग्री (कपड़ों से भरी ३१ बोरियां) एक रेल कर्मी उदयशंकर सिंह ने बरौनी स्टेशन पर फेंक दी. ये कार्यकर्ता मेधा के नेतृत्व में मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी वासियों के हित में चलने वाले 'घर बचाओ' आंदोलन से जुड़े थे और नीची जातियों से आते थे. कार्यकर्ता लाल बाबू राय, अतीक अहमद, बाबुलाल और राजाराम पटवा ने इस संबंध में की गयी शिकायत में लिखा है कि 'सभी सामान फेंकने के बाद कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर सिंह ने अभद्र गालियां देते हुए कहा कि कहां से दलित हरिजन का कपड़ा उठा कर ले आया है. ऐसा बोलते उसने सफाई कर्मचारी से डिब्बे में झाड़ू लगवाया. उसके बाद गार्ड बॉक्स में रखे गोमूत्र एवं गंगाजल की शीशी निकाल कर गंगाजल एवं गोमूत्र का छिड़काव किया'.
मेधा पाटकर ने इस घटना की जानकारी मिलने के बाद इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि वह इस सूचना से बेहद व्यथित हैं. बिहार के जातिवाद के बारे में उन्होंने सुना तो था लेकिन यह आज के समय में भी इतना विकराल होगा, इनका अनुमान उन्हें न था. मेधा के चाहने पर एक समाचार पत्र में 'सामान फेंके जाने' की सूचना देती छोटी सी खबर छपी. लेकिन उसमें इस बात का जिक्र न था कि सामान क्यों फेंका गया. लालू प्रसाद ने मेधा को फोन किया और रेलवे के एक उच्चाधिकारी को उनसे माफी मांगने को कहा. गार्ड उमाशंकर सिंह सस्पेंड किया गया. जब लालू प्रसाद का फोन आया मेधा के साथ हम सुपौल जिला के छुरछुरिया धार के पास से लौट रहे थे. वहां सेना द्वारा चलाए जा रहे रेस्क्यू ऑपरेशन के पास राहत सामग्री वितरित करते हुए मेधा ने ३५-४० मौतें (सिर्फ उसी स्थान पर) रिकार्ड की थीं, जबकि उस समय तक राज्य सरकार बाढ़ में मरने वालों की कुल संख्या महज २५ बता रही थी. मेधा इस सबसे बेहद विचलित थीं. लालू प्रसाद ने भी उन्हें फोन पर बताया कि कम से कम ५० हजार लोग मरे हैं, सरकार लगातार झूठ बोल रही है. उनका कहना था कि नीतीश पुनर्निर्माण कार्य जनवरी-फरवरी तक शुरू करेंगे ताकि लोकसभा चुनाव में इसका लाभ ले सकें. मेधा ने लालू प्रसाद को कहा कि राष्टीय आपदा घोषित हो जाने के बावजूद इसे लेकर अभी तक केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक नहीं हुई है. जबकि नियमानुसार, राष्टीय आपदा को लेकर केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक तुरंत होनी चाहिए थी, जिसमें पीड़ित क्षेत्रों के कृषि-स्वास्थ आदि मसलों पर निर्णय लिया जाता.
यह सब ५ सितंबर की बात है. 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं से दुर्व्यवहार करने वाला सस्पेंड हो चुका था. ६ सितंबर को इससे संबंधित समाचार भी सभी अखबारों में छपा. लेकिन मेधा चाहतीं थीं कि उस रेलकर्मी का जातिवादी व्यवहार भी अखबारों के माध्यम से सामने आये. उन्होंने मुझसे कहा कि सामान फेंकने से बहुत ज्यादा गंभीर और धक्का पहुंचाने वाली वह जातिवदी प्रवृति है. इसे अखबारों को उठाना चाहिए.लेकिन मेधा को बिहार की सवर्ण मीडिया की बारीक बुद्धि की जानकारी न थी. सिर्फ मेधा ही क्यों, मैं भी तो लगभग इससे अन्जान ही था, तभी तो इसके लिए असफल कोशिश की.
सघा विहीन सवर्णों का दुःख
बाढ़ क्षेत्र के दौरा करते हुए मैं अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए सहरसा में एक कायस्थ परिवार का कंप्यूटर इस्तेमाल करता रहा था. इस परिवार का मघेपुरा स्थित घर डूब चुका है, सहरसा में वे किराये पर रहते हैं. उनके सभी पड़ोसियों के गांवों में स्थित पैतृक मकान डूबे थे. इनमें अधिकांश कायस्थ थे. इन सबके अनेक परिजन सहरसा में ही राहत शिविरों में आश्रय लिये थे. अपनी छोटे-छोटे किराये के कमरों में वे कितनों को जगह देते? रोजाना दिन भर बाढ़ पीड़ितों का इनके यहां आना-जाना लगा रहता था.इनमें से कई परिवार ऐसे थे, जिनके मामा, चाचा, बहन या ससुराल के गांवों में लोग अब भी फंसे थे. उन्हें निकालने के लिए न कोई नाव पहुंच रही थी, न ही राहत सामग्री. वे चाहते थे कि मैं बतौर पत्रकार संबंधित जिले के जिलाधिकारी से बात कर उनके गांवों में नाव भिजवाने की व्यवस्था करूं. मैंने कोशिश भी की लेकिन नतीजा सिफर रहा. मुझे ऐसा तो नहीं लगा कि संबंधित जिलाधिकारी ने जानबूझ कर उन गांवों में नाव नहीं भेजी; पर मेरी असफलता पर उन किरायेदारों की राय रोचक थी. उनका कहना था कि कुछ भी कर लीजिये हम फारवडों के लिए यह सरकार कुछ भी नहीं करेगी.
९/११ बनाम ८/१८११ सितंबर
11 सितंबर को अमेरिका में हवाई हमले में लगभग ५ हजार लोग मारे गये थे. आज भी उनकी याद में मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है. क्या १८ अगस्त की याद में, जिसमें ५० हजार लोग मारे गये, भी मोमबत्तियां जलाई जाएंगी? क्या यह देश इसे एक काले दिन की तरह याद करेगा? उत्तर है-नहीं. कारण; हम-आप सब जानते हैं.
और अंत में
आज १२ सितंबर की सुबह है. दो दिन पहले ही बाढ़ क्षेत्र से पटना लौट आया हूं. अखबार देख रहा हूं. कई अखबारों में ११ सितंबर को अमेरिका में जलाई गयी मोमबत्तियों और उस हमले में मारे गये लोगों के परिजनों की व्थाएं छपीं हैं. पटना से प्रकाशित हिंदुस्तान में एक खबर है. 'केमिकल से नष्ट होंगे पशुओं के शव : सुशील मोदी'. सुशील कुमार मोदी भारतीय जनता पार्टी के राष्टीय उपाध्यक्ष व बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं. खबर इस प्रकार है- 'उपमुख्यमंत्री ने बताया कि केमिकल की खेप गुजरात से चल चुकी है. इसके जरिए पशुओं के शवों को मिनटों में नष्ट किया जा सकता है. इससे बदबू और महामारी फैलने की आशंका नहीं रहेगी.. पहली बार राज्य सरकार की ओर से व्यवस्थित ढ़ंग से राहत कार्य चलाया जा रहा है'.
केमिकल, पशुओं के शव के लिए? और मनुष्यों के उन हजारों शवों के लिए क्या, जो झाड़ियों, बांसबाड़ियों व उंची मेड़ों के किनारे पड़े सड़ रहे हैं. बाढ़ आए लगभग एक माह होने को आ रहा है. राज्य सरकार की ओर से मनुष्यों के शवों की चिंता करता कोई बयान अभी तक नहीं आया है. सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' se आ रहा है.(और शायद 'आइडिया' भी). राज्य सरकार की ओर से पहली बार 'व्यवस्थित ढंग' से राहत कार्य चलाया जा रहा है. इसी केमिकल से व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी 'मिनटों' में ठिकाने लगाया जाएगा. न बदबू होगी, न आक्रोश फैलेगा. आखिर कुछ समय बाद ही वहां कई हजार करोड़ रुपयों का पुननिर्माण कार्य करने जाना है... और, मनुष्य मरे भी कहां हैं? मरे तो शूद्र हैं. भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।

संशयात्मा से saabhar

Monday, September 15, 2008

बाँध बन रहा है.....

भाई >रियाज़-उल-हक बिहार के दुर्गम जिलों खासकर सुपौल, मधेपुरा और अररिया से लगातार रिपोर्ट भेज रहे हैं जिनसे वहां की त्रासदी और भयावह सच्चाइयों का हम जैसे लोग अन्दाज़ा लगा पा रहे हैं वरना अन्य माध्यमों ने जिस तरह अपनी विश्वसनीयता खो दी है और वे ब्रूनो को जलानेवालों और गैलीलियो को मर्मान्तक पीड़ा देने वालों के साथ गिरोहबंद होकर आडवाणी को हर कीमत पर इस देश का प्रधानमंत्री बनाने के तय एजेंडे पर चल रहे हैं, कोसीकनहा लोगों की कौन सुधि लेने वाला था ? प्रस्तुत रिपोर्ट में भी, जो उन्होंने कुशहा, नेपाल के पूर्वी एफ्लक्स बाँध पर चल रहे तथाकथित मरम्मत कार्य का जायजा लेने के बाद लिख कर भेजी है और जो >रविवार में छपी है, सरकारी-प्रशासनिक दावों के कपड़े उतारे हैं।
पूर्वी एफ्लक्स बांध पर बोल्डर लेकर कटान की ओर जानेवाले ट्रकों की कतार लगी हुई है. बांध पर चढ़ते ही एक सरकारी कर्मचारी बोल्डरों की माप करता है- एक फीट, दो फीट, तीन फीट...वह ट्रकों के नंबर दर्ज करता है और उन्हें आगे बढ़ने का इशारा करता है. ट्रक बहुत धीमे-धीमे सरकते हैं. पूरा बांध आने और जानेवाले ट्रकों-ट्रैक्टरों से भरा हुआ है. दायीं ओर साथ-साथ चलता है मधुबन जंगल... कोसी टापू वाइल्ड लाइफ रिजर्व. अपने दलदल, अरना भैंस और प्रवासी पक्षियों के लिए मशहूर संरक्षित अभयारण्य. पूरी दुनिया में यहां के अलावा सिर्फ असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में ही मिलती है अरना भैंस-स्थानीय निवासी पूरे गर्व से बताते हैं. बांध इसी रिजर्व में बना है. ट्रकों का रेला देख कर एक नेपाली ग्रामीण हंसते हुए कहता है-लोगों को डुबा कर अब नींद खुली है भारतीय इंजीनियरों की. उनके सिर मानो भूत सवार है, अभी. हम तो पहले से ही कहते थे...
अब बांध के दोनों ओर बाढ़ में जान बचा कर आनेवाले शरणार्थियों के शिविर मिलने लगे हैं. नीले-काले तंबू. बीच-बीच में जालियां बुनते मजदूर भी दिख रहे हैं. नायलोन की पहले गोल चकती बनायी जाती है और फिर इस चकती से जाली बुनी जाती है. इसी बोरीनुमा जाली में बोल्डर भर कर कटान को बचाया जाता है, बांध पर दबाव कम किया जाता है. दाहिनी ओर सैकड़ों बोरियों में रेत भरी जा रही है. इनसे पाइलिंग की जायेगी. ...दाहिनी तरफ पेड़ों के उस पार चमकता हुआ कुछ दिखता है...कोसी! काफी चौड़ाई में फैली कोसी का वेग यहां उतना नहीं दिखता. लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, पश्चिम की ओर मुख्यधारा की दिशा में रेत दिखने लगती है. यह सिल्ट है, जिसे कोसी ने लाकर वर्षों से जमा किया है और जिसे कोसी प्रोजेक्ट और बिहार सरकार के इंजीनियर निकालना भूल गये हैं. कोसी अब अपने को एक संकरे गलियारे में पाती है और पूरब की ओर खिसकती हुई बांध से टकराती चलती है. इस हिस्से में उसका वेग बहुत तेज है.
अब ट्रकों का काफिला रुक गया है. आगे दूर तक गाड़ियां हैं. कटान तक पहुंची गाड़ियां जब बोल्डर उतार कर लौटेंगी, तो पीछेवाली गाड़ियां आगे बढ़ेंगी. अब आगे पैदल ही जाना होगा.13.60 आरडी. कोसी अपनी पूरी ताकत से स्पर पर चोट कर रही है. इस पर खतरा बना हुआ है. पचासेक मजदूर इसे बचाने में लगे हैं. क्रेटिंग की जा रही है. 12.90 आरडी से, बांध जहां से कटा है, 13.60 आरडी तक सबसे अधिक दबाव है. स्थानीय लोग दिखाते हैं, बांध पर जहां पहली बार पानी चढ़ा है-आज ही. शायद कंचनजंघा, महाभारत, वाराह क्षेत्र में कहीं बारिश हुई है. नदी में पानी बढ़ा है. वह कुसहा गांव के बचे हुए इलाकों में भी भर रहा है, कटे हुए हिस्से से निकल कर.कटान. डेढ़ से दो मीटर प्रति सेकेंड के वेग से बहता हुआ पानी कटे हुए बांध से निकल रहा है. अगले कुछ घंटों में वह वीरपुर, शंकरपुर, मुरलीगंज आदि से होता हुआ कुरसेला में गंगा से मिल जायेगा. कटान को देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसने कितनी तबाही मचायी होगी पिछले 22 दिनों में.
कटान का दूसरा हिस्सा सामने है-लगभग दो किमी दूर. वहां की गतिविधियां नहीं दिख रहीं यहां से. ठीक कटान पर 20-22 मजदूर कटान को बचाने के लिए कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी गति भी झुंझला देने की हद तक धीमी है. नीचे पानी में रखी गयी जाली में एक-एक बोल्डर डाले जा रहे हैं. मजदूरों से पूछो, तो वे सामग्री की कमी इसकी वजह बताते हैं. वे शिकायत करते हैं कि उन्हें जाली नहीं मिल रही है. इसके अलावा वे रात में भी काम करना चाहते हैं, लेकिन शुरू के कुछ दिनों को छोड़ कर अब सिर्फ दिन में ही काम होता है. ग्रामीण कहते हैं-लगातार काम की जरूरत हैं. वे कहते है कि अपर्याप्त काम और धीमी गति के कारण धारा पर कोई असर नहीं पड़ रहा. वह सारी मेहनत बहा ले जाती है. प्राय: हर रोज नये सिरे से काम करना पड़ता है.
कट एंड को देखने से यह बात सही लगती है. पिछले कई दिनों से काम हो रहा है, लेकिन आज भी कटान पर अभी जाली-बोल्डर की पहली परत डालने का ही काम चल रहा है. मजदूरों का कहना है कि वे तो रात में काम करने के लिए आते हैं, लेकिन इंजीनियर-ठेकेदार नहीं रहते. सो काम कैसे हो? बांध के नीचे, कटान से थोड़ा पहले मिलते हैं प्रोजेक्ट इंजीनियर जेएन सिंह. वे नायलोन, बोल्डर की फर्जी सप्लाइ दिखानेवाले सप्लायर्स पर बिगड़ रहे हैं-ऐसा कैसे हो सकता है? आपने तो नायलोन की सप्लाई नहीं की. फिर आप डिलीवरी दिखा कैसे रहे हैं ?
उनके पास कुछ आंकड़े हैं. अब तक 5078 नायलोन क्रेटिंग की जा चुकी है. 1359 की संख्या में बोल्डर क्रेटिंग की गयी है. अब तक कुल 3729 घन मीटर बोल्डर सप्लाइ हुई है, जिसमें से 10 सितंबर की शाम तक 1150 घनमीटर बोल्डर बचा हुआ है. वे जल्दी-जल्दी कुछ सूचनाएं देते हैं- 13.60 स्पर पर खतरा था. उनकी क्रेटिंग जारी है. कट एंड को सुरक्षित कर लिया गया है. और काम? काम आप खुद देखिए. कितना हुआ है, आप देख ही रहे हैं. रात में काम न होने की शिकायतों को वे गलत ठहराते हैं. दिन-रात काम हो रहा है. कहने दीजिए मजदूरों को कुछ भी. प्रोजेक्ट इंजीनियर यहां कार्यरत कुल मजदूरों की संख्या 1000 बताते हैं. लेकिन ग्र्रामीण उनकी बात हंसी में उड़ा देते हैं.देवनारायण राउत कुशहा वार्ड नं 4 के हैं. कहते हैं-बहुत ज्यादा होंगे तब भी 400 से अधिक संख्या नहीं होगी मजदूरों की....दूसरे लोग उनकी तसदीक करते हैं. ...पश्चिम में सूरज डूब रहा है. बोल्डर गिरा कर गाड़ियां लौट रही हैं. ट्रक वापस लौटते हुए रसीद लेना नहीं भूलते. उनके बीच से जगह बनातीं जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार की गाड़ियां तेजी से बांध से उतर रही हैं. ...वे सब लौट रहे हैं, संभवत:...ठेकेदार, इंजीनियर. तो क्या ग्रामीणों ने सही कहा था कि रात में काम नहीं होता?सुदूर उत्तर में घने बादल घिर आये हैं. शायद उधर बारिश हो रही है. काले बादल देख कर उस बूढ़े नेपाली मजदूर श्यामसुंदर की आंखों में भय छा जाता है- जाने क्या होने वाला है इस साल।

http://www.raviwar.com/ से साभार

Thursday, September 11, 2008

बाढ़ राहत कैंपः एक दृश्य

(भाई रेयाज़-उल-हक़ ने बथनाहा, फारबिसगंज से यह रिपोर्ट रविवार को भेजी है जो उसके १० सितम्बर के मुखपृष्ठ पर छपी है। रेयाज-उल ने इससे पहले भी बिहार के इस सरकार प्रायोजित जनसंहार की जीवंत तस्वीरें हमें दिखाई हैं और इसके लिए हमें उनका ऋणी होना ही चाहिए। पूरा मीडिया आज जिस किस्म की ठकुरसुहाती में संलिप्त है , इस घने अंधेरे वक़्त में ऐसे जीवट और साहसिक काम से रेयाज ने हमें सचमुच झकझोर दिया है। उनके साथ रविवार को भी साधुवाद सहित। )

२४ घंटे पहले एक बच्चे को जन्म देने के बाद से सविता देवी ने कुछ भी नहीं खाया है। दो घंटे पहले उसे चूडा-गुड़ दिया गया था खाने को, वह एक किनारे पड़ा हुआ है, अब भी –अछूता। बथनाहा के सशस्त्र सीमा बल कैंप के पास स्थित राहत शिविर मे यूनिसेफ व राज्य स्वास्थ्य समिति के तंबू में पड़ी सविता पसीने से नहाई हुई अपने बच्चे को चुप कराने का असफल प्रयास कर रही है।
उसके पास बैठी आंगनबाड़ी सेविका वंदना झा समझाती है- “ प्रसूता को खाने में कम से कम मसूर की दाल, चावल आदि तो मिलना ही चाहिए। यह भी नहीं मिला तो कैसे होगा ? खिचड़ी दी जा रही है, वह भी बिना दाल-सब्जी के। इस तरह तो ये लोग मार ही देंगे।”वंदना थोड़ी गुस्से में हैं और अपनी नाराज़गी शिविर का निरीक्षण करने आए जिलाधिकारी को भी दिखा चुकी हैं– थोड़ी देर पहले. और उनका गुस्सा वाजिब भी है. इतना समय बीत जाने पर भी मां-बच्चा को न कोई दवा मिली है और न ढंग का आहार. सविता में खून की कमी है– इसका भी शिविर में कोई उपाय नहीं है. वंदना जहां अपनी अन्य सहयोगियों के साथ दवा मांगने गयीं तो उन्हें डांट कर भगा दिया गया. मेडिकल कैंप प्रभारी कहते हैं कि उनके यहां कमी किसी चीज़ की नहीं है. तो फिर सविता को दवाएं क्य़ों नहीं दी जा रहीं ? वे इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझते. कैंप प्रभारी कैलाश झा अपने तंबू में वाउचरों और लोगों में उलझे हुए हैं. वे कहते हैं – “ कैंप में कमी किसी चीज़ की नहीं है. जितना हो सकता है, हम कर रहे हैं.”.... तो फिर सिर्फ खिचड़ी और चूड़ा-गुड़ क्यों बंट रहा है ?वे कहते हैं– “ किसी ने हमसे इसकी मांग ही नहीं कि उसे दाल-चावल दिया जाए.”लेकिन किसी ने मांग नहीं की, सिर्फ इसीलिए उसे लगभग बिना दाल वाली खिचड़ी खिलायी जानी चाहिए ? लोग बताते हैं कि वे कई बार कह चुके हैं कि उन्हें सब्जी दी जाए, ढंग से चावल-दाल दिया जाए. लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं है।
शंभू शर्मा सुपौल के छातापुर से आये हैं. सौभाग्य से उन्हें कैंप में काम मिल गया है स्टोर में. सुबह 6 से रात 11 बजे तक ड्यूटी करने के बाद वे 50 रुपये पाते हैं. उन्होंने दिहाड़ी बढ़ाने की बात की तो कहा गया कि काम करना है तो करो नहीं तो टेंट में जाकर बैठो. वे 'भीतर’ की बातें जानते हैं– कब, क्या, कितना आया और कितना बंटा.
दोपहर में बंटी मोटे चावल की खिचड़ी और बेस्वाद चोखा खाते हुए वे स्टोर की ओर हाथ उठाते हैं – “ देखिए, उसमें 20 बोरी चना रखा हुआ है। मैंने कल राशन इंचार्ज को कहा कि इसे खुला देते हैं, कल इसे भी बाटेंगे तो उसने मना कर दिया. सब कुछ आता है, लेकिन हमें सिर्फ खिचड़ी मिलती है. स्टोर में सब चीज़ है– फल है, एक क्विंटल बिस्कुट है. कोक का पैकेट है. लेकिन बंटता कुछ नहीं. वह सब अधिकारी और गार्ड लोग यूज़ करता है.” सुरक्षा ड्यूटी पर लगे अवर निरीक्षक राधाकृष्ण रजक इस सबको गलत बताते हैं. लेकिन आंगनबाड़ी सेविकाएं जो बताती हैं, उससे शंभु की बातें पुष्ट होती हैं. वंदना, सुमन व पार्वती समेत दूसरी सेविकाएं सुबह आठ बजे शिविर में आई हैं. अभी तक उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिला है. वे कहती हैं– “हम यह नहीं चाहते के हमें खाना मिले. लेकिन बुरा तो तब लगता है जब गार्ड और अन्य अधिकारी पीड़ितों के लिए आये बिस्कुट और फल खुद खा जाते हैं.”सविता ने अपने बच्चे के सिराहने लोहे का हंसिया रख छोड़ा है – बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए. काश ! यह इस तंत्र की संवेदनहीनता को भी दूर भगा पाता.
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Wednesday, September 10, 2008

कोसी की बाढ़ नहीं सरकार प्रायोजित जनसंहार

उत्तरी बिहार में पिछले १८ अगस्त से महाविनाश का जो तांडव चल रहा है उसे बाढ़ या प्राकृतिक आपदा कहने वाले या तो सरकारी मुलाजिम होंगे या फिर नीतिश के रिश्तेदार। मुख्यमंत्री ने जितने संगठित, सुनियोजित और दुर्लभ आक्रामकता के साथ इस भयावह जनसंहार को अंजाम दिया है उसका दूसरा उदाहरण इतिहास के बर्बर और जघन्य कालों में भी नहीं मिल सकता। क्या अब और ठहरकर सोचने का वक़्त है कि हम कैसे काल में जी रहे हैं ? क्या ऎसी सरकारों और इनके मुखियाओं के विरुद्ध आदिम ज़माने की बर्बर कार्रवाइयों के अलावा कोई विकल्प एक आम आदमी के पास बचता है ?
बिहार में पिछले १८ अगस्त से जनसंहार हो रहा है। आदमी के पास बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जा रहा, नहीं छोड़ा गया। या तो उसे डूबकर मरना है, या भूख से। अगर तब भी नहीं मरा तो सरकारी नावें बीच धार में उसे डुबो रही हैं। जितनी नावें लोगों को बचाने (मारने) में लगी हैं उससे ज़्यादा उनके खाली पड़े घरों को लूटने में लगी हैं। बिहार के सभी सामंतों, बाहुबलियों, अपहर्ताओं, डकैतों, लुटेरों, ठेकेदारों, बलात्कारियों को इस सरकारी महाअभियान में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गयी हैं और वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे हैं। जितने व्यापक पैमाने पर सरकार अपने लक्ष्य हासिल कर पा रही है उससे पता चलता है कि सरकार ने इस महाजनसंहार को अंजाम देने के लिए गंभीर पूर्वाभ्यास किया था। तभी तो एक तरफ सरकार इतनी ढिठाई के साथ इस जनसंहार के मामले में ख़ुद को पाक-साफ़ बताने में लगी है और पूरा सरकारी अमला हरबे-हथियार लेकर इस मामले में अपने सिवाय हर दूसरे को जिम्मेदार बता रहा है - तो दूसरी तरफ सबकुछ गँवा चुके, उजड़े-विस्थापित, स्वजन-सम्बन्धियों के मृत्युशोक से भरे, भूखे-बीमार, असहाय-निराश्रित लोगों के साथ बर्बरतम सलूक किया जा रहा है। उनकी बहू-बेटियों को बेइज्जत किया जा रहा है, बीमार बच्चों के लिए दवाइयाँ नहीं दी जा रहीं, भूख से बिलबिलाते बुजुर्गों, महिलाओं और गरीब-लाचार लोगों को खाना नहीं दिया जा रहा। सरकारी राहत शिविरों के वधस्थलों से जान बचाकर जो लोग परिवार लेकर अपने घर-गाँव लौट जा रहे हैं सरकारी सेना ''हांका'' देकर उन्हें वहां से भगा रही है। इन राहत(!) शिविरों की इससे बढ़कर और क्या असलियत होगी कि लोगों को अपने डूबे हुए घर इनसे ज़्यादा निरापद लग रहे हैं। सेना कैसी हुआ करती है इसका कड़वा अनुभव नेपाल की सीमा से लगे जिलों के लोगों ने अटल बिहारी के समय से ही लिया है।
सशस्त्र सीमा बल (यानि एस एस बी) की पिछले लगभग ७-८ वर्षों से उपस्थिति ने यहाँ के सीधे-सादे और अत्यन्त शांतिप्रिय जनजीवन में जितना ज़हर घोला है उससे समस्त क्षेत्र पहले ही सशंकित-आतंकित था/है। न केवल सुपौल, अररिया या अन्य सीमावर्ती जिलों के, बल्कि नेपाल के लोगों का जीवन भी इन सुरक्षा बलों ने दूभर कर रखा है। तस्करी रोकने एवं आई एस आई के तंत्र को ध्वस्त करने के लिए तैनात किए गए इन बलों ने यहाँ के सामाजिक जीवन को ही ध्वस्त किया है और भोले-भाले, निरीह लोगों को धमकाया है, यातनाएं दी हैं। गौरतलब है कि सुपौल के इन सीमावर्ती इलाकों में मुस्लिम समुदाय के लोगों की बहुतायत है और इनमें से ज्यादातर या तो खेतिहर मजदूर हैं या फिर कारीगरी का काम करने वाले। मुस्लिम समुदाय के अनगिनत युवक और महिलाएं इन बलों की ज्यादतियों के शिकार हुए हैं, पर इसकी शिकायत वे कहाँ करें यह एक बड़ा सवाल है। विरोध करने का एक बड़ा खतरा तो यह भी है कि इससे इन्हें आई एस आई का पक्षधर बता दिया जाए, जो कि होना ही है, और बदले में दुगुनी प्रतिहिंसा इन्हें झेलनी पड़ेगी। देश भर में सुरक्षा बलों ने नागरिक समुदायों पर जितने ज़ुल्म ढाए हैं इसकी मिसाल देने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। एस एस बी का जितना आतंक और गुंडाराज यहाँ चल रहा है उसकी गवाही इस इलाके का हर बच्चा-बच्चा दे सकता है। जनता और सरकार के संसाधनों को लूटने की खुली छूट पाए इन सुरक्षा बलों ने खूब पैसा तो बनाया ही है, यहाँ की बहुमूल्य वन सम्पदा की भी ये खुले आम तस्करी कर रहे हैं। वीरपुर, छातापुर, नरपतगंज, राघोपुर, करजाइन, बलुआ आदि इलाकों के बहुमूल्य शीशम के लाखों पेंड़ जो वन-विभाग के अंतर्गत आते थे , इन सुरक्षा बलों द्वारा कटवाकर गायब कर दिए गए हैं और पूरा इलाका पेंड़ विहीन होता जा रहा है।
कहने का तात्पर्य यह कि जिन सुरक्षा बलों का यह रूप यहाँ के लोगों ने देखा-महसूस किया है आज उसीकी रहनुमाई में रहने के लिए भला कैसे लोग तैयार होंगे? बिहार के इन इलाकों के लोगों का नेपाल की तराई क्षेत्र के लोगों के साथ जितना अपनापा रहा था, शादी-ब्याह, मुंडन-उपनयन, हाट-बजार, नैहर-ससुराल का जो अभिन्न-प्रगाढ़ रिश्ता था उसे ख़त्म करने में इन बलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और यहाँ के जन जीवन में साम्प्रदायिकता का बीजारोपण किया। आज सरकार इन लोगों को फिर सुरक्षा बलों के हवाले कर रही है। दरअसल जिंदा बचे लोगों को पूरी तरह कुचलने का यह अमोघ अस्त्र है सरकार की यही सोच है।
देशभर के-दुनिया भर के लोग जो एक सरकार द्वारा प्रायोजित मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करना चाह रहे हैं उनके सामने कोई चारा-कोई रास्ता नहीं है। उन्हें अपनी मदद उस सरकार के हवाले करने पर मजबूर होना पड़ रहा है जिसके बारे में अब हर कोई यह समझ रहा है कि यह नरमेध उसने ही रचा है। कैसे पहुचेगी कोई मदद, कौन पहुँचायेगा इन निरीह लोगों तक कोई मदद जब पूरी सरकार, सरकारी अमले, गुंडों-बलात्कारियों की पूरी सरकार समर्थित सेना चीलों-गिद्धों की तरह हर मदद पर बाज-झपट्टा मारने, अपने पैने दांत गाड़ने को तत्पर है।
सचमुच अब केवल भगवान के आसरे हैं ये लाखों-लाख लोग। आने वाले पांछ-छः महीनों में घर वापसी के कोई आसार नहीं। घर वापसी के बाद भी क्या होगा सब जानते हैं। क्या खाना है, कैसे जीना है किसी को पता नहीं। जो वापसी का सपना त्यागकर निकल पड़े हैं पटना, दिल्ली, मुंबई, पंजाब, हरियाणा और जाने कहाँ-कहाँ सचमुच में कहाँ जा रहे हैं ये लोग? इनके बच्चे, इनकी महिलाएं क्या करेंगी, क्या होगा इनका? सम्भव है इनमें से ज्यादातर बच्चे-औरतें देशी-विदेशी सेक्स-मंडियों में पहुच जायें, भीख मांगें, पुलिस के दैहिक मानसिक शोषण का शिकार बनें और ये मर्द नशा करें, अपराध करें, जेल जायें और इनका एनकाउंटर कर दिया जाए। बिल्कुल सम्भव है और यही तो इस देश के ग़रीबों का राजपथ है, इससे बचकर कहाँ जायेंगे?

बाढ़ पीड़ितों से भी तो पूछें समाधान की राह

भारत डोगरा
इस वर्ष भी पहले की तरह मानसूनी वर्षा के चलते देश का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित हुआ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और असम तक देश का एक बड़ा व घनी आबादी वाला हिस्सा है जहां हर साल बाढ़ की बढ़ती-बिगड़ती समस्या पूरे क्षेत्र के विकास परे बड़ा प्रश्नचिन्ह बन गई है। बिहार में कोसी की बाढ़ की विभीषिका और इसके चलते विस्थापित हुए लाखों लोग इसका एक उदाहरण है। पड़ोसी बांग्लादेश के एक बड़े क्षेत्र की भी यही स्थिति है। ऐसे में यह सवाल जटिल होता जा रहा है कि आखिर इस समस्या का स्थायी समाधान क्या हो।
इस विषय पर हाल के वर्षों में दो तरह के विचार सामने आए हैं। पहला विचार मुख्य रूप से इंजीनियरिंग दृष्टिकोण है जो बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों पर या उनके आसपास विभिन्न निर्माण कार्यों की वकालत करता है। यह सुझाव पानी का संग्रह करने वाले स्टोरेज बांध बनाने का या नदियों के आसपास तटबंध बनाने का है। दूसरी मुख्य विचारधारा पहली इंजीनियरिंग विचारधारा को चुनौती देती है और हमें यह बताती है कि तटबंधों व बड़े बांधों के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण करने की अपनी सीमाएं हैं। बिहार की कोसी नदी में भयंकर बाढ़ से पता चलता है कि बाढ़ से बचाव के लिए तटबंधों पर निर्भरता बहुत हानिकारक भी साबित हो सकती है। कई स्थानों पर इन इंजीनियरिंग समाधानों पर अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद बाढ़ की समस्या और विकट हुई है। अत: यह दृष्टिकोण बाढ़ के प्रति एक ऐसी सोच बनाने पर जोर देता है जो बाढ़ रोकने के लिए निर्माण कार्य करने के स्थान पर बाढ़ को अधिक सहनीय बनाने से संबंधित है। इस सोच में कुछ हद तक बाढ़ को सहने को कहा गया है तो कुछ हद तक पर्यावरण को इस तरह सुधारने के लिए कहा गया है जिससे बाढ़ का प्रकोप व उसकी विनाशक क्षमता कम हो जाए। उदाहरण के लिए, नदियों के कुछ पानी को तालाबों में भरा जा सकता है जिससे आगे के सूखे महीनों के लिए पानी भी जमा हो जाए व वर्षा का प्रकोप भी कम हो जाए। पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा, मिट्टी व जल संरक्षण से पर्वतीय तथा नीचे के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ व भूस्खलन का खतरा कम करने में सहायता मिलेगी।
कई बार जब दो तरह की विचारधाराएं सामने आती हैं तो उन्हें मिलाकर ऐसी नीति बनाने की कोशिश की जाती है जो सबको स्वीकार्य हो, पर यदि विचारधाराओं में बुनियादी फर्क है तो उन्हें मिलाने से एक ऐसा अजीब घालमेल भी बन सकता है जो अन्तर्विरोधों से भरा हो। ऐसी घालमेल की नीति हमें निश्चित तौर पर नहीं चाहिए।
कई बार यह कहा जाता है कि बाढ़ प्रभावित लोगों से इस बारे में राय प्राप्त करनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके विचार व्यापक स्तर पर प्राप्त करना हर हालत में जरूरी हैं, पर उनसे भी अलग-अलग विचार मिलेंगे इसके लिए तैयार रहना होगा। कई बार ऐसा होता है कि कोई तटबंध एक क्षेत्र को बाढ़ से बचाता है तो दूसरे क्षेत्र के लिए समस्या पैदा कर देता है। जो लोग अभी तटबंध के वास्तविक असर को नहीं देख पाए हैं वे उत्साह से इसकी मांग कर सकते हैं, जबकि जो लोग तटबंधों के असर को वर्षों तक झेल चुके हैं वे इन्हें हटाने की या तोड़ने की मांग भी कर सकते हैं। परिस्थितियों तथा लोगों के अनुभव के आधार पर काफी अलग–अलग विचार प्राप्त हो सकते हैं, अत: जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षण के स्थान पर लोगों से विस्तृत बातचीत के लिए आयोजित संवादों की अधिक जरूरत है। फिलहाल कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक सहमति बना कर इन पर तेजी से काम आगे बढ़ाना चाहिए। यह कार्य इस तरह का होना चाहिए जिससे निश्चित लाभ मिलेगा, कोई नुकसान नहीं होगा और शीघ्र ही बाढ़ की समस्या का संतोषजनक समाधान निकालने में मदद मिलेगी।सबसे पहली बात तो यह है कि नदियों के जल–ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा व मिट्टी तथा जल–संरक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर होना चाहिए। यह कार्य बहुत सार्थक तो है पर साथ ही इसके नाम पर पहले ही बहुत भ्रष्टाचार हो चुका है। अत: इसे बहुत सावधानी से करना होगा ताकि हरियाली केवल सरकारी कागजों तक ही न सिमटी रह जाए।
दूसरी बात यह है कि जिन क्षेत्रों को तटबंधों व बड़े बांधों से ‘बाढ़-सुरक्षा’ दिए कई वर्ष बीत चुके हैं, ऐसे कुछ क्षेत्रों का निष्पक्ष व विस्तृत अध्ययन होना चाहिए जिससे यह निर्णयात्मक तौर पर स्पष्ट हो जाए कि इस तरह वास्तव में बाढ़ सुरक्षा के नाम पर अरबों रूपए भविष्य में भी खर्च करते रहना उचित है या नहीं? इन अध्ययनों में प्रभावित लोगों से विस्तृत बातचीत होनी चाहिए और इस संवाद को पूरा का पूरा प्रकाशित करना चाहिए। इस अध्ययन का तौर–तरीका और उसके परिणाम पूरी तरह पारदर्शी होने चाहिए।
बड़े बांधों के संचालन और प्रबंधन को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाना चाहिए जिससे लोगों को पूरी जानकारी उपलब्ध हो सके कि कब और किस स्थिति में कितना पानी इनसे छोड़ा जाता है और इसका बाढ़ की स्थिति पर क्या असर होता है।
बाढ़ से बार-बार प्रभावित होने वाली नदियों के मार्ग में ऐसे गहरे तालाब बनाने चाहिए या पुराने तालाबों की मरम्मत होनी चाहिए, जिनमें बाढ़ के समय नदियों का पानी एकत्र हो सके।
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बाढ़ से पहले के महीनों में ऐसे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिए जहां सरकारी अधिकारियों व मीडिया की उपस्थिति में लोग अपनी समझ के अनुसार बताएं कि उन्हें बाढ़ से सुरक्षा कैसे मिल सकती है, बाढ़ के समय उन तक बेहतर राहत कैसे पहुंच सकती है तथा बाढ़ राहत या नियंत्रण का पैसा उनके क्षेत्र में कैसे खर्च होता रहा है। लोगों से पूछना चाहिए कि बाढ़ नियंत्रण व राहत के काम पर खर्च हो रहे इस धन का क्या कोई बेहतर उपयोग हो सकता है। जिन गांवों में तटबंध अनेक वर्षों से बने हुए हैं वहां के लोगों से विस्तार से पूछना चाहिए कि क्या वे तटबंधों की मरम्मत व बेहतर रख-रखाव चाहते हैं या उनसे मुक्त होना चाहते हैं। इन सम्मेलनों में बाढ़ प्रभावित लोग जो कहते हैं उसे सही ढंग से डाक्यूमेंट किया जाना चाहिए ताकि नीति–निर्धारण से पहले उसे ध्यान में रखा जा सके। साथ ही बाढ़ राहत की तैयारी बेहतर होनी चाहिए। हैलीकाप्टरों व हवाई जहाजों से राहत सामग्री गिराने के स्थान पर इसे पर्याप्त नावों की समुचित व्यवस्था व स्थानीय मल्लाहों, नाविकों आदि के रोजगार के तहत दूर–दूर के गांवों में पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
बाढ़ से रक्षा के लिए विभिन्न राज्यों में तथा पड़ोसी देशों से बेहतर संवाद व सहयोग होना चाहिए। बाढ़ के बारे में केवल बाढ़ के समय सोचने की आदत को छोड़कर बाढ़ से रक्षा, बाढ़-राहत की तैयारी व अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए विकास की उचित नीतियां तैयार करने पर निरंतरता से कार्य होना चाहिए। परंपरागत बीजों में पर्याप्त खोजबीन कर ऐसे बीजों के बारे में पता लगाना चाहिए जो स्थानीय परिस्थितियों में अधिक पानी को सहने की क्षमता रखते हैं या अन्य तरह से इन क्षेत्रों के लिए अनुकूल हैं। ऐसे बीज यहां के किसानों को अधिक मात्रा में न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध होने चाहिए।
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Tuesday, September 9, 2008

राष्ट्रीय आपदा के तहत् सहायता

बिहार में बाढ़ राष्ट्रीय आपदा घोषित की गई है। अमूमन राष्ट्रीय आपदा की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है। इस बार भी प्रधानमंत्री ने बिहार के पांच जिलों का दौरा कर कोसी का प्रकोप देखा और तभी इसे राष्ट्रीय आपदा करार दिया। इसके बाद राष्ट्रीय आपदा अधिनियम के तहत बिहार को केंद्र से मदद मिलनी शुरू हुई। इस अधिनियम के तहत प्रभावितों को कई तरह का मुआवजा केंद्र द्वारा पहुंचाया जाता है। मुआवजा देने की अधिकतम समय सीमा भी तय है, जो 45 दिनों की है। इसके तहत दी जाने वाली सहायता–
राज्य सरकार द्वारा घोषित मृतकों के आश्रितों को एक-एक लाख रूपए की सहायता राशि।

शारीरिक रूप से विकलांग हुए लोगों को 35 से 50 हजार रूपए तक की सहायता राशि।

गंभीर चोट खाए लोगों को 2500–7500 रूपए की सहायता राशि।

कृषि भूमि में गाद यानी कीचड़ की सफाई के लिए 6000 रूपए प्रति हेक्टेयर की सहायता राशि।
कृषि भूमि में आए कटाव की समस्या के लिए 15000 रूपए प्रति हेक्टेयर की सहायता राशि।
आपदा के दौर में अनाथ बच्चों के लिए प्रतिदिन 15 रूपए और वृद्धों तथा अनाश्रितों को 20 रूपए प्रतिदिन की सहायता राशि।
घरेलू सामान के नुकसान पर प्रति परिवार 1000 रूपए और इतनी ही राशि कपड़े के नुकसान पर।
प्रभावितों में से प्रत्येक को 8 किलोग्राम गेहूं या 5 किलोग्राम चावल प्रतिदिन के हिसाब से।
टूटे या क्षतिग्रस्त हुए मकानों के लिए 25000 रूपए प्रति मकान के हिसाब से सहायता राशि।
कच्चे मकानों के लिए 10000 हजार रूपए की सहायता राशि।
झोपड़ियों के लिए 2000 रूपए की सहायता राशि।
दुधारू पशुओं के लिए 10000 रूपया प्रति पशु की दर से सहायता राशि।
गैर दुधारू पशुओं के लिए 1000 रूपया प्रति पशु की दर से सहायता राशि।
मुर्गीपालकों को प्रति मुर्गी 30 रूपए की दर से सहायता राशि।
बड़े पशुओं के चारे के लिए प्रति पशु 20 रूपए प्रतिदिन तथा छोटे पशुओं के लिए 10 रूपए प्रतिदिन की दर से सहायता राशि।
मछली पालकों को 2500 से 7500 रूपए तक की सहायता राशि।
आपदा के पूरे दिनों के लिए अकुशल श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी जितनी दैनिक मजदूरी की व्यवस्था।
प्रस्तुति : प्रवीण कुमार
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संदिग्ध नहीं संधि

अवधेश कुमार

कोसी द्वारा जल प्लावन के विकराल रूप धारण करने की खबरें जैसे ही आनी लगी, नेपाल को खलनायक के रूप में पेश किया जाने लगा। कोसी का उद्गम स्रोत नेपाल है और बांध भी कुसहा में टूटा। इस नाते नेपाल की आ॓र उंगली उठनी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन क्या वाकई नेपाल इस प्रलय सदृश स्थिति के लिए जिम्मेदार है? केवल कोसी ही नहीं, बिहार खासकर उत्तर बिहार की बाढ़ का मुख्य स्रोत ही नेपाल है। चाहे वह बूढ़ी गंडक हो या बागमती, कमला हो या भूतही बलान, सभी का उद्गम स्थल नेपाल है। भारत-नेपाल के बीच इन नदियों के प्रयोग एवं परियोजनाओं पर अलग–अलग संधियाँ हैं। यहां हम कोसी पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे तो दोनों देशों की नदी जल से जुड़ी सारी बातें स्पष्ट हो जाएंगी।

1954 की कोसी संधि में भारत ने कोसी परियोजना की रूपरेखा बनाने से लेकर निर्माण, संचालन, रख–रखाव आदि की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है। नेपाल तब बहुत कुछ करने की हालत में नहीं था और दोनों के बीच विश्वास इतने गहरे थे कि एक बार कोसी परियोजना तय हो गई तो फिर केवल औपचारिकता के लिए संधि की गई। यह आपसी सहयोग की भावना से की गई विश्वास पर आधारित संधि थी। कहा जाता है कि संधि के अनुसार नेपाल के लिए करने को बहुत कुछ बचता नहीं है। उसे व्यवहार में केवल भारत को काम करने की, वहां आवश्यक बोल्डर बगैरह रखने की अनुमति देनी है। यह पूरा सच नहीं है। बिहार सरकार बांधों की मरम्मत में कोताही बरत रही थी तो नेपाल ने पानी के बहाव की मॉनिटरिंग एवं बाढ़ की चेतावनी देने की जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। उनकी सोच शायद यह थी कि यह उनके लिए बडा़ खतरा साबित नहीं होगा। नेपाल में लंबे समय तक के राजनीतिक गतिरोध के कारण समस्या गंभीर हुई। माआ॓वादियों की यंग कम्युनिस्ट लीग एवं जनशक्ति सेना ने इंजीनियरों व ठेकेदारों को मरम्मत का काम करने नहीं दिया। यानी माआ॓वादियों के उभार से भारत के ठेकदारों व इंजीनियरों के लिए काम करना मुश्किल हुआ है। किंतु इसमें बाधा संधि नहीं आपसी व्यवहार है।

दरअसल, सारी नदी परियोजनाएं, सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार की शिकार हैं और वे नेपाल तक विस्तारित हैं। बिहार में सिंचाई विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काम करने वालों ने स्वीकार किया है कि प्रतिवर्ष निर्माण एवं मरम्मती के नाम पर निर्गत होने वाली 250–300 करोड़ रूपये का 30 प्रतिशत से भी कम खर्च होता है और शेष इंजीनियरों, नेताओं व अधिकारियों की जेब में चला जाता है। नेपाल के दबंग लोगों ने भी इसमें हिस्सेदारी मांगनी शुरू की। माआ॓वादियों के उभार के बाद मांग इतनी बढ़ गई कि ठेकेदार के लिए इसे पूरा करना संभव नहीं हुआ। दूसरी आ॓र माआ॓वादी नदी परियोजनााओं के विरूद्ध अभियान भी चलाए हुए थे और उन्होंने जो थोडा़ बहुत बोल्डर वहां रखा था उसे हटवा दिया। किंतु सोचने वाली बात है कि मरम्मत का काम तो जनवरी से मार्च तक समाप्त हो जाना चाहिए। जुलाई-अगस्त में चिंता क्यों की गई? सिंचाई विभाग की यही कार्यशैली है। संधि के प्रावधान अपनी जगह हैं लेकिन व्यवहार में भ्रष्टाचार, लापरवाही एवं नेपाल के माआ॓वादियों के विरोध की ही मुख्य भूमिका है। संधि के अनुसार आपात स्थिति के लिए जितने बोल्डर एवं अन्य सामग्री वहां रहनी चाहिए, कभी नहीं रहती एवं कालाबाजार में बिक जाती है। ये कारण सभी परियोजनाओं पर लागू होती है। जाहिर है, भारत और नेपाल के बीच पुराने दौर की सद्भावना हो और दोनों के राजनीतिक प्रतिष्ठान तय करें तो मौजूदा संधियों के तहत भी ऐसी भयावह स्थिति को टाला जा सकता है। माआ॓वादियों के नेतृत्व में नई गठजोड़ सरकार के प्रधानमंत्री प्रचंड ने कोसी संधि को अन्यायपूर्ण कहकर इसकी समीक्षा की मांग की है। 1959 की गंडक संधि की समीक्षा की भी मांग है। 1996 की महाकाली पंचेश्वर परियोजना को ये नेपाल की तत्कालीन शेर बहादुर देउबा सरकार की भूल करार देते हैं। क्या संधियों की समीक्षा एवं इसमें बदलाव या इन्हें रद्द कर देने से इसका निदान निकल जाएगा? 19 दिसंबर 1966 को कोसी संधि में संशोधन करके नेपाल के लिए कोसी नदी, सन कोसी एवं उसकी अन्य सहायक नदियों के पानी का सिंचाई सहित अन्य प्रकार के उपयोगों के पूरे अधिकार का शब्द डाला गया। यानी नेपाल को इसका स्वामित्व मिल गया है। भारत को बैराज में उपलब्ध पानी को संतुलित करने का अधिकार मिला। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि कोसी संधि नेपाल के लिए बिल्कुल अन्यायपूर्ण है। मूल बात व्यवहार की है। वाल्मिकी नगर गंडक परियोजना को देख लीजिए, उसमें भी नेपाल अधिकारविहीन नहीं है। किंतु वहां भी यही आलम है- भ्रष्टाचार, आपसी तनाव। भारत पर अन्याय करने का आरोप। प्रश्न है कि किया क्या जाए?

साफ है कि दोनों देशों की सहमति से ही नदी जल समस्याओं का निदान हो सकता है। दोनों जो भी निर्णय करें लेकिन मरम्मत, रख–रखाव एवं गाद की सफाई का संयुक्त माकूल तंत्र खडा़ नहीं होगा तो कुछ नहीं हो सकता। बैराज में गाद बढ़ेगा तो नदी धारा बदलेगी। नेपाल के लिए भी अतिरिक्त पानी छोड़ने की मजबूरी होगी एवं इसका परिणाम हमारे यहां बाढ़ ही होगा। इसे आप नहीं टाल सकते। कहा जा रहा है कि कोसी बांध की उंचाई बढा़ना इसका निदान है। यानी बांध ऊंचा होने से ज्यादा पानी रूकेगा, जिससे बिजली भी ज्यादा बनेगी एवं सिंचाई के लिए सुरक्षित जल उपलब्ध रहेगा तथा बाढ़ भी नहीं आएगी। 2004 के कोसी बाढ़ के बाद दोनों देशों ने कोसी बांध की ऊंचाई बढा़ने वाली महापरियोजना जिसे सप्तकोसी बहुद्देश्यीय परियोजना कहते हैं, पर तेजी से कम करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार नेपाल के आ॓खलाढुंगा जिले में सन कोसी नदी पर एक बांध बनेगा, जिसकी ऊंचाई 269 से 335 मीटर की जानी है। इसमें नेपाल एवं बिहार में 6 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेतों की सिंचाई होगी। स्वयं नेपाल ने इसमें एक डायवर्जन का प्रस्ताव रखा था जिसमें सन कोसी का जल एक नहर के माध्यम से मध्य नेपाल के कमला नदी में आनी है। इससे जुड़े अन्य नहरों से मध्य नेपाल में कोसी नदी के पूरब बागमती तक के खेतों की सिंचाई की योजना है। भारत सरकार ने 29 करोड़ रूपया इसके प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर खर्च कर दिया है। संधि की समीक्षा का अर्थ इस परियोजना का खटाई में पड़ना है। शायद नेपाल की नई सरकार इसके लिए तैयार हो जाएगी।

नेपाल के विदेश मंत्री उपेंद्र यादव हाल में भारत में थे और उन्होंने कहा कि उनकी सरकार बड़ी बिजली परियोजनाओं के पक्ष में है। इनके अलावा तत्काल चार काम किया जाना चाहिए। एक, बीरपुर क्षेत्र के जो लोग नेपाल की आ॓र गए हैं, उनके पास भारत आने का एकमात्र विकल्प महेन्द्र राजमार्ग है। नेपाल अपने राहत शिविरों में इन्हें स्थान दे और इसका हिसाब रखे। भारत सरकार इसके लिए नेपाल से बात करे एवं अपने करीब 50–60 हजार नागरिकों के लिए उसे धन प्रदान कर दे। दूसरे, जो लोग उस रास्ते पुन: बिहार में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें आने दिया जाए। इसे स्थायी व्यवस्था का रूप मिले ताकि जब भी ऐसी स्थिति हो लोग उस मार्ग का उपयोग कर सकें। तीसरे, दोनों देशों के नदी जल विशेषज्ञों की सरकारी मॉनिटरिंग में बातचीत आरंभ की जाए और जो तय हो उसे लागू किया जाए। चौथे, नेपाल चाहता है तो नदी जल समझौतों की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए।

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जल प्रलय या आपराधिक लापरवाही

राजीव रंजन
अगर सीमांचल के छह जिलों में कोसी नदी की उद्दंडता और तबाही का इतिहास लिखा जायेगा तब कटघरे में सिर्फ कोसी नदी नहीं होगी। उसके साथ खड़े होंगे राज्य और केंद्र सरकार के वे प्रशासनिक महकमे जिनके जिम्मे थी नेपाल में अवस्थित वह बांध, जिसके बंधे होने से महफूज थी बिहार के सीमांचल जिलों में रहने वाली कराड़ों की आबादी। यह आबादी पिछले साठ वर्षों में लगभग भूल चुकी थी बाढ़ की त्रासदी और कोसी के महाजलप्रलय की कहानियां। अगर कोसी के जलप्रलय का इतिहास लिखा जायेगा तब कटघरे में खड़े होंगे, वे अभियंता जिन्हें गत 6 अगस्त को नेपाल के कुसहा बराज के समीप कोसी नदी के बांध में हो रहे कटाव का जायजा लेने को भेजा गया था। इतिहास के पन्नों में कैद होगी पिछली सरकार की उदासीनता और कथित ईमानदारी भी, जिसके कारण राज्य सरकार के अभियंता कुसहा बराज और वहां बने बांध की रक्षा करना अब अपनी जिम्मेदारियों का हिस्सा नहीं मानते थे। साथ ही दर्ज होगा नेपाल के साथ बेटी और रोटी का वह रिश्ता जो न जाने पिछली कई सदियों से एक-दूसरे के पूरक बने हुए हैं।
इतिहास जब कोसी के महाजलप्रलय का अपराध लिखेगा तब लिखी जायेगी 21वीं सदी के भारत में आपदा प्रबंधन की सुस्त चाल। जब कोसी की प्रचंड जलधाराओं ने नेपाल भाग में कुसहा के समीप एफलेक्स बांध के 12.10 और 12.90 किमी के बंधन को तोड़कर सीमांचल के छह जिलों का रूख कर लिया तब बिहार सरकार और भारत सरकार का आपदा प्रबंधन तंत्र क्या कर रहा था? ऐसा नहीं है कि बिहार में ‘कोसी मैया’ कहकर पुकारी जाने वाली कोसी नदी ने अपनी प्रंचडता और जल प्रलय का यह मंजर दिखाने से पहले सीमांचल के छह जिलों में रहने वाली करोड़ों की आबादी और उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने वाली सरकार को आगाह नहीं किया था।
कोसी के इस महाप्रलय की कहानी गत 5 अगस्त को ही शुरू हो गयी, जब वहां से अभियंताओं की टीम ने राज्य सरकार को पत्र लिखकर नेपाल भाग के कुसहा में बनी कोसी की बांध में टूटान की सूचना दी थी। इस सूचना के बाद 6 अगस्त को अभियंताओं की एक टीम कुसहा जाकर स्थिति का आकलन किया और सरकार को जानकारी दी कि कटाव तो हो रहा है लेकिन वह इतना बड़ा नहीं है जितना कि बताया गया है। इसके बाद बांध की मरम्मत के लिए नेपाल में निर्माण सामग्री भी गिराई गई पर सुरक्षा के अभाव में वहां के असामाजिक तत्वों ने निर्माण सामग्री गायब कर दी। नेपाल सरकार से सुरक्षा की गुहार भी लगायी गयी लेकिन तब नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल और प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ की ताजपोशी के बीच ये गुहार बेअसर साबित हुई। तब नेपाल में बदले राजनीतिक हालात और माआ॓वादियों की बढ़ी शक्ति के कारण बांध की मरम्मती के काम के लिए वहां के ठेकेदारों और मजदूरों ने बिहार सरकार से मेहनताने के रूप में उस रकम की मांग की जिसे मंजूर करने की इजाजत सरकार ने भी नहीं दे रखी थी। बता दें कि भारत-नेपाल में वर्ष 1956 में कोसी नदी पर बने बराज और तटबंध को लेकर हुए समझौते में यह तय हुआ था कि बराज और तटबंधों के रख-रखाव की पूरी जिम्मेवारी तो भारत व बिहार सरकार की होगी, अभियंता भी भारतीय होंगे लेकिन रख-रखाव और मरम्मती के काम में सिर्फ नेपाली ठेकेदारों और मजदूरों को लगाया जायेगा। समझौते की इसी बंदु के कारण तेजी से कट रहे एफलेक्स बांध की मरम्मती का काम शुरू नहीं हो सका। अगर बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के सूत्रों की मानें तो वर्ष 2003-04 तक कोसी नदी पर नेपाल भाग में बने कुसहा बराज पर पदस्थापना के लिए अभियंताओं की बोली लगती थी। वहां सालों भर चलने वाले मरम्मती के कार्यों में कमीशनखोरी का इतना बोलबाला था कि हर अभियंता अपनी पूरी सेवा में एक बार वहां तैनाती चाहता था। लेकिन पिछली सरकार के जल संसाधन मंत्री ने इसपर पूरी तरह रोक दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि अभियंता यहां पदस्थापना को ही सजा मानने लगे। काम में दिलचस्पी लेने की पुरानी परम्परा खत्म हो गयी। नतीजा आज सबके सामने है।
जब पूरा देश 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ मनाने में व्यस्त था तब कोसी नदी प्रलय की नयी कहानी गढ़ रही थी। इस पूरे प्रकरण में सबसे अजीब स्थिति तो बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की थी जिसने इतना सबकुछ होते हुए भी राजधानी पटना में बैठकर अपने अभियंताओं और अधिकारियों को इतनी छूट दिये रखा कि वहां तटबंध तेजी से कटते रहे और वे यहां बैठकर दावा करते रहे कि नेपाल के रास्ते बिहार में प्रवेश करने वाली नदियों के बराज, तटबंध और बांध पूरी तरह सुरक्षित हैं। लाखों-करोड़ों जिंदगियों के साथ लापरवाही का आलम यहीं खत्म नहीं होता। सूत्रों की मानें तो कोसी नदी के तटबंधों और बराज के रख-रखाव के लिए राज्य सरकार के खाते में अभी भी 80 करोड़ रूपये की राशि रखी हुई है लेकिन मरम्मती के नाम पर खर्च हुए महज 44 लाख रूपये।
जब गत 5 अगस्त को टूटान की सूचना मिली तब जाकर जल संसाधन विभाग ने कुल 6 लाख रूपये के निर्माण कार्य के लिए सामग्री मंगायी जिसे नेपाल के असामाजिक तत्व उठाकर अपने साथ ले गये। सीमांचल में रह रहे लोगों की जानमाल के साथ खिलवाड़ का यह सिलसिला आगे भी जारी रहा और तब आयी 18 अगस्त की वह दोपहर जब कोसी की बेलगाम जलधारा ने कुसहा के समीप एफलेक्स बांध की 12.10 तथा 12.90 किमी के बीच करीब 50 मीटर के बांध को तोड़कर फिर आ॓र अपना रूख कर लिया जिसे पिछले 60 सालों से सुरक्षित समझा जा रहा था। अब यह टूटान लगभग तीन किमी लंबी हो चुकी है। वैसे बाढ़ का पानी उत्तर बिहार के लिए कोई नयी त्रासदी नहीं है लेकिन इस बार कोसी का पानी सूबे के उन इलाकों को अपनी चपेट में लिया है जो अबतक सुरक्षित समझे जाते थे। त्रासदी का दंश यहां इसलिए भी अधिक तीखा है क्योंकि यहां की वर्तमान पीढ़ी पिछले साठ सालों से बाढ़ के कहर को भूल चुकी थी।

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सावधानी हटी दुर्घटना घटी

सुरेंद्र किशोर (वरिष्ठ पत्रकार)

बिहार सरकार, भारत सरकार, नेपाल सरकार और पक्ष- विपक्ष के अधिकतर नेतागण, कोशी बाढ़ विपदा को लेकर सब के सब पीड़ित जनता व अन्य जानकार लोगों के सवालों के कठघरे में हैं। सवाल यह है कि समय रहते और मौका मिलने पर कितने लोगों ने ईमानदारी व कार्य कुशलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई? सबको बारी-बारी से इसका जवाब देना है। पर अभी तो सब एक-दूसरे पर आरोप लगाने में लगे हुए हैं या फिर अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश में हैं। उधर, पूर्वोत्तर बिहार के करीब 30 लाख बाढ़ पीड़ितों के रिलीफ व पुनर्वास का विशाल काम अभी लंबे समय तक जारी रहना है। यह विपदा इतनी बड़ी है कि इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण इतिहास में खोजे नहीं मिल रहा है। यह विपदा कितनी दैवी है और कितनी मानवनिर्मित, इस पर भी बहस जारी है। पक्ष-विपक्ष के नेताओं की आ॓र से जो बना–बनाया बयान रोज ब रोज परोसा जा रहा है, वह यह है कि हम नहीं बल्कि हमारे राजनीतिक विरोधी ही इसके लिए जिम्मेदार हैं।

ऐसे बयान पढ़ और सुनकर लोग बाग हैरान हैं। कोसी तटबंध विध्वंस के लिए जिम्मेदार तत्वों को लेकर रोज ब रोज नए-नए तथ्य भी मीडिया में आ रहे हैं। अब तक मिली जानकारियों के आधार पर मोटा- मोटी इस दुर्घटना की जो तस्वीर उभरती है, उसके अनुसार कमोवेश सभी संबंधित पक्ष जिम्मेदार लग रहे हैं। हालांकि कुछ बातें इतनी तकनीकी और पेचीदगी भरी है कि उनके आधार पर कोई उच्चाधिकारप्राप्त आयोग ही जांच के बाद किसी ठोस नतीजे पर पहुंच सकता है। इतनी बड़ी दुर्घटना के लिए कौन-कौन से तत्व व पात्र जिम्मेदार रहे हैं, इसकी जांच जरूरी मानी जा रही है। अन्यथा ऐसी किसी अन्य दुर्घटना की आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता।

मामला इतना संश्लिष्ट है कि एक ही सरकारी पत्र को आधार बना कर सत्ताधारी पक्ष अपना बचाव कर रहा है तो विरोध पक्ष कोसी तटबंध को टूटने से बचाने में विफल रहने के लिए सरकार पर बयानी हमला कर रहा है। वह पत्र वीरपुर, नेपाल स्थित जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार के मुख्य अभियंता सत्यनारायण का है। नौ अगस्त 2008 को मुख्य अभियंता ने काठमांडू स्थित संपर्क पदाधिकारी अरूण कुमार को लिखा कि ‘सूचित करना है कि आरक्ष, बन टप्पू प्रक्षेत्र, कुशहा, जिला–सुनसरी(नेपाल)कार्यालय के समीप पूर्वी बहोत्थान बांध के स्पर किलोमीटर 12.90 पर कोशी नदी के तीव्र प्रवाह के कारण भीषण कटाव जारी है। अंतत: बांध वहीं टूटा। रात-दिन बाढ़ संघर्षात्मक कार्य कराए जा रहे हैं। इस स्पर पर भारतीय भूभाग से आवश्यक बाढ़ सामग्री नेपाल प्रभाग में ले जाने में भंटावारी कस्टम, सुनसरी (नेपाल)द्वारा अनावश्यक विलंब किया जा रहा है। साथ ही स्थल पर कार्यरत मजदूरों को बनटप्पू आरक्ष सेना, कुशहा द्वारा कार्यस्थल से भगा दिए जाने के कारण बाढ़ संघर्षात्मक कार्य प्रभावित हो रहे हैं।

’मुख्य अभियंता ने लिखा कि ‘अत: स्थल को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से नेपाल प्रशासन से सहयोग की अपेक्षा की जा रही है। अनुरोध है कि इस संदर्भ में उच्चस्तरीय सहयोग हेतु समुचित कार्रवाई करना चाहेंगे।’ इस पत्र की प्रतियां उन्होंने पटना स्थित अपने विभाग के अफसरों को भेजी या नहीं, यह बात इस पत्र की फोटो कापी देखने से साफ नहीं है। पर बाद में सत्यनारायण ने जो चिटि्ठयां उन्होंने 14, 15 और 16 अगस्त 2008 को भेजीं, उनकी प्रतियां उन्होंने पटना में अपने उच्चाधिकारियों को भी भेजीं। तब तक स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी। तटबंध की रक्षा नहीं की जा सकी और इस बीच 18 अगस्त को तटबंध टूट गया। उससे बिहार के आधा दर्जन जिलों में जो प्रलयंकर बाढ़ आई, उसकी हृदय विदारक पीडा़ लोगबाग झेल रहे हैं। अनेकानेक पीड़ितों की दर्दनाक स्थिति टीवी पर देखकर देश-प्रदेश के अनेक लोग मर्माहत हैं।

इस बीच मुख्य अभियंता सत्यनारायण के पत्र को बिहार के सत्ताधारियों ने इस तरह अपने बचाव का हथियार बनाया कि उस पत्र के अनुसार मजदूरों को वहां काम नहीं करने दिया गया और कस्टम के लोगों ने भी आवश्यक बाढ़ सामग्री को स्थल पर ले जाने में अनावश्यक विलंब कराया। पर दूसरी आ॓र प्रतिपक्ष ने आरोप लगाया कि मुख्य अभियंता द्वारा बार-बार पत्र लिखे जाने के बावजूद बिहार सरकार ने समय रहते तटबंध को कटने से रोकने के लिए समुचित कदम नहीं उठाया। इसको लेकर राजद नेता और राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री जगदानंद ने कहा कि ‘बांध टूटा नहीं है बल्कि उसे तोडा़ गया है। उन्होंने कहा कि छह अगस्त से ही एफलक्स बांध में रिसाव शुरू हो जाने की जानकारी बिहार सरकार को थी। पर उसे रोकने के लिए कार्रवाई नहीं की गई। इसके लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उनकी सरकार कातिल है और उन्हें एक दिन जेल जाना पड़ेगा।’ बिहार जदयू के अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह ने कहा कि राजद गलतबयानी कर रहा है। राज्य सरकार ने पांच अगस्त से ही कोसी के कटाव वाले स्थल पर कटाव रोकने के लिए काम शुरू कर दिया था लेकिन नेपाल के स्थानीय लोगों और वहां के प्रशासन का सकरात्मक सहयोग नहीं मिल सका। नौ, चौदह, पंद्रह और सोलह अगस्त को नेपाल स्थित भारतीय दूतावास और केंद्र सरकार को पत्र लिखकर स्थिति से अवगत करा दिया गया था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी से बातचीत की। फिर भी केंद्र सरकार की आ॓र से सकारात्मक पहल नहीं की जा सकी।

याद रहे कि जहां कोसी का तटबंध टूटा है, वह स्थल नेपाल में है। वहां मरम्मत व दूसरे कार्यों को लेकर आए दिन माआ॓वादियों के विरोध का सामना बिहार सरकार के सिंचाई विभाग के अफसरों को करना पडा़ है। हाल के महीनों में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहा, इस कारण भी तटबंध पर काम करने में नेपाल सरकार पहले जैसा सहयोग नहीं दे सकी। 1993 में भी उसी स्थल पर कटाव का खतरा उपस्थित हुआ था। तब के सिचाई मंत्री जगदानंद और सिंचाई सचिव विजय शंकर दुबे के अथक प्रयास से कटाव नहीं होने दिया गया था। तब आज के सिंचाई मंत्री विजेंद्र यादव लालू मंत्रिमंडल के सदस्य थे और उस स्थल पर जगदानंद के साथ गए भी थे। वे उस स्थल की नाजुक स्थिति को देख चुके थे। फिर भी इस बार वे भरपूर तत्परता नहीं दिखा सके, इसको लेकर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है।

हाल में नेपाल के एक अखबार ‘सिंहनाद ’ में प्रकाशित एक खबर का शीर्षक था,‘ कोशी बाढ़ पर नेपाल सरकार द्वारा गलती स्वीकार’। उस खबर के अनुसार,‘माआ॓वादी के तमाम नेताओं और मंत्रियों द्वारा कोसी बांध के टूटने के पीछे भारत को दोषी ठहराने की होड़ चली लेकिन आज सरकार के प्रमुख अधिकारी ने स्वीकार किया कि बांध टूटने में भारत नहीं बल्कि नेपाल सरकार दोषी है। गृह मंत्रलय के प्रमुख सचिव उमेश कांत मैनाली ने कहा कि समय पर भारत सरकार और उनके अधिकारियों के साथ समन्वय नहीं किए जाने के कारण ही सप्त कोशी बांध टूट गया है। संविधान सभा के अध्यक्ष सुबास नेमांग द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक में गृह सचिव ने अपनी सरकार की कमी– कमजोरी को स्वीकारा।’ यानी इस बांध को बचाने की जिम्मेदारी देश-विदेश के जिन जिन तत्वों पर थी, उन लोगों ने यदि दूरदर्शितापूर्ण काम किए होते तो शायद ऐसी विपदा सामने नहीं आती।

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हमने ही तैयार किया जल बम

राजेंद्र सिह (संरक्षक, जल बिरादरी )
बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ का मुख्य कारण केंद्र और वहां की प्रदेश सरकार की अदूरदर्शी योजनाएं हैं। कोसी नदी जो 120 किलोमीटर के क्षेत्र में बहती है, उसे एक नाले में तब्दील कर दिया गया। नदी पर बिना सोचे-समझे तटबंध बनने से परमाणु बम की तरह जल बम का निर्माण कर दिया गया। अब यह जल बम भारी तबाही का कारण बना है। नेपाल और भारत सरकार की साझा योजना के तहत कोसी पर तटबंध का निर्माण हुआ था। इसके रख-रखाव की जिम्मेदारी बिहार सरकार पर थी और केन्द्र इसके लिए धनराशि मुहैया कराता था, लेकिन सरकारी अधिकारियों की लापरवाही के चलते यह तटबंध टूट गया और लाखों लोग बाढ़ के शिकार हो गए।
बिहार के राजनेता अभी तक हर साल आने वाली बाढ़ से कोई सबक नहीं ले सके हैं। वे बाढ़ में भी राजनीति करने का जरिया ढूंढ लेते हैं और अपना वोट बैंक पक्का करने की कोशिश करते हैं। देश के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद ने बिहार में लोगों को बाढ़ से बचाने के लिए जगह-जगह तटबंधों का निर्माण करवाया था, लेकिन उनकी सुरक्षा, रख-रखाव और मरम्मत का कार्य वहां की कोई भी सरकार अभी तक नहीं कर सकी है। चाहे केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव हों या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, बाढ़ आपदा प्रबंधन के मामले में इनकी नाकामी उजागर हो गई है। अब ये लोग नेपाल सरकार के माथे ठीकरा फोड़ रहे हैं, जो अब बेकार है। देश के लोगों के साथ सरकार को भी चाहिए कि वे अब नदी के अस्तित्व के साथ जीना सीख लें और उससे ज्यादा छेड़छाड़ न करें।
प्रस्तुति : सत्येंद्र शुक्ल
www.rashtriyasahara.com से साभार