Monday, March 31, 2008

सोया, साम्राज्यवाद और पर्यावरण : संस्कृति तथा स्वास्थ्य का खतरनाक खेल


वंदना शिवा
मनुष्यत्व के विकास से लेकर अब तक खाद्यान्न प्रजाति के 80000 से अधिक पौधों का स्वाद हमने चखा है. इनमें से तीन हज़ार से ज्यादा मनुष्य के लगातार इस्तेमाल में आ रहे हैं. बहरहाल, अब हम विश्व की खाद्य जरुरतों को पूरा करने के लिए सिर्फ आठ फसलों पर निर्भर हैं जो कि इस जरुरत का 75 प्रतिशत पूरा करती हैं. लेकिन अब अनुवांशिक अभियांत्रिकी ने उत्पादन को तीन फसलों – सोया, मक्का और राई के बीच समेट दिया है.मोनोकल्चर हमारी जैव विविधता, हमारे स्वास्थ्य और खाद्यान्न की गुणवत्ता और बहुविविधता को नष्ट कर रहे हैं. मोनोकल्चर को औद्योगिक निर्वासन और कृषि के वैश्वीकरण के जरूरी घटक के जैसा देखा जाता रहा है. उन्हें ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने वाला समझा जाता है. हालांकि वे सिर्फ मोनसांटो, कारगिल और ए.डी.एम के लिए ज्यादा प्रभुत्व और मुनाफा कमाने वाले साबित हो रहे हैं. वे जैव विविधता, स्थानीय खाद्यान्न प्रणाली और खाद्यान्न संस्कृति को खत्म करके फर्जी आधिक्य और असल अभाव पैदा कर रहे हैं. सरसों, नारियल, मूंगफली, तिल, अलसी आदि से बनाए जाने वाले भारतीय देसी खाद्य तेल जिनका प्रसंस्करण विशिष्ट मिलों में किया जाता था, उन्हें “खाद्यान्न सुरक्षा” के बहाने प्रतिबंधित कर दिया गया.इसके साथ ही साथ सोया तेल पर लगे हुए आयात प्रतिबंध को हटा लिया गया. इसने एक करोड़ किसानों की आजीविका पर संकट पैदा कर दिया. गाँवों में दस लाख तेल मिलें बंद हो गईं. भारतीय बाजारों को सोया सो पाट दिए जाने के कारण स्थानीय खाद्यान्न तेल के दामों में गिरावट आ रही थी. इसके विरोध प्रदर्शन के दौरान बीस से ज्यादा किसानों की जाने गईं. कई लाख टन कृत्रिम रुप से सस्ता जीएमओ सोया तेल भारतीय बाजार में उतार दिया गया.जंगलों का विनाशसोया को इस तरह बाजार में डंप करने के विरोध और सरसों तेल की वापसी के लिए दिल्ली की झोपड़ पट्टियों में रहने वाली महिलाओं ने एक आंदोलन शुरु किया और “सरसों बचाओ, सोयाबीन भगाओ” के नारे के साथ दिल्ली की सड़कों पर निकल आई. इस “सरसों सत्याग्रह” से हमें सरसों को वापस लाने में सफलता मिली. कुछ दिनों पहले अमेज़न में थी. जहां कारगिल और एडीएम, वो ही कंपनियां जो भारत में सोया का डंप कर रहीं थी; सोया का उत्पादन करने के लिए अमेज़न को बरबाद करने में तुली हुई थी. निर्यात योग्य सोया उगाने के लिए लाखों एकड़ में फैला बारामासी अमेज़न जंगल, जो कि वैश्विक जलवायु का जिगर, फेफड़ा और दिल है; जलाया जा रहा है. कारगिल ने तो पारा में, सांतारेन नामक जगह में एक अवैध बंदरगाह बना रखा है जिससे वह बारामासी अमेज़न जंगल में सोया का विस्तार कर रहा है. हथियारबंद गिरोह जंगल में कब्जा कर लेते हैं और गुलामों से सोया की खेती कराते हैं. और जब सिस्टर डोरोथी स्टैंग जैसे लोग जंगलों के विनाश का विरोध करते हैं तो उनकी हत्या करा दी जाती है. ब्राज़ील और भारत में लोगों को डरा-धमका कर कृषि व्यवसाय को फायदा पहुँचाने वाले मोनोकल्चर को बढ़ावा दिया जा रहा है. यूरोप और अमेरिकी लोग अप्रत्यक्ष रुप से खतरे में हैं, क्योंकि वहां 80 % सोया पशुचारे के रुप में उपयोग किया जा रहा है, जिससे सस्ता गोश्त उपलब्ध हो सके.सस्ता प्रोटीन जो कि फैक्ट्री-फार्मों में पाले जाने वाले पशुओं का चारे जैसा इस्तेमाल होता है, बारामासी अमेज़न जंगल और संपन्न देशों के लोगों के स्वास्थ्य, दोनों को नुकसान पहुँचा रहा है. एक अरब लोगों के पास खाद्यान्न इसलिए नहीं हैं क्योंकि मोनोकल्चर ने उनकी कृषि और अन्य खाद्यन्न आधारित रोज़गार छीन लिया है. खतरे और भी हैंलगभग 1.7 अरब अन्य लोग मोटापे और अन्य खाद्य से जुड़े रोगों से प्रभावित हैं. मोनोकल्चर जरुरत से अधिक भोजन करने वाले और जरुरत से कम भोजन करने वाले, दोनो प्रकार के लोगों के लिए कुपोषण का कारण बनता जा रहा है.सहकारी संस्थाएं हमें जी.एम.ओ जैसे अपरीक्षित खाद्य पदार्थ खाने पर मजबूर कर रहे हैं. सोया, जो कि आज हमारे पूरे प्रसंस्कृत खाद्य प्रदार्थों में मौजूद है, किसी भी संस्कृति में आज से 50 साल पहले तक नहीं खाया जाता था. इसमें उच्च मात्रा में “इसोफ्लावोन” और “फोटो-ऑस्ट्रीजंस” होते हैं जो मनुष्यों में हार्मोन असंतुलन पैदा करते हैं. चीन और जापानी संस्कृति में पारंपरिक रुप से मौजूद खमीर उठाने की विधि से इसोफ्लावोन के स्तर में गिरावट आती है. खाद्यान्न में सोया को बढावा देना एक बहुत बड़ा प्रयोग है, जो कि 1998 से 2004 के बीच अमेरीकी सरकार द्वारा 13 अरब डालर के, और अमेरिकी सोया उद्योग के 8 करोड़ डालर सालाना के अनुदान के साथ शुरु किया गया था. प्रकृति, संस्कृति और मानव स्वास्थ सबका ह्रास हो रहा है. स्थानीय खाद्यान्न संस्कृति में सोया से ज्यादा समृद्ध और विभन्न प्रकार के विकल्प मौजूद हैं. प्रोटीन के लिए हमारे पास हजारों प्रकार की सेमों और दलहनों की किस्में मौजूद हैं जैसे – अरहर, बरबट्टी, मूंग, चना भाजी, उड़द फली, धान, खैरी चना, राजमा, मोठ फली, मटर, लाल चना, दालें, छोले, ग्वारफली, कमरख आदि. खाद्य तेलों में हमारे पास– तिल, सरसों, अलसी, सूर्यमुखी, मूंगफली और नाइगर सफोला हैं. हमारी खाद्य प्रणाली को सुधारने के लिए अपने मोनोकल्चर मनोविज्ञान से उबरना हमारी आवश्यकता है. छोटे जैवविविधता युक्त खेतों में ज्यादा उत्पादकता होती है और वो किसानों के लिए ज्यादा आमदनी का जरिया हो सकता है. साथ ही जैवविवध खुराक ज्यादा पोषक और स्वादिष्ट होती हैं.खेतों में जैवविविधता की वापसी और छोटे किसानों की खेतों में वापसी साथ-साथ होगी. कॉरपोरेट घरानों का फैलना, फूलना, पनपना मोनोकल्चर पर निर्भर है. इससे उबरना हमारी जरुरत भी है और मज़बूरी भी।
www.raviwar.com से साभार