Thursday, November 19, 2009

तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते कहते

शशिभूषण वर्मा : लील गयी एनएसडी की लापरवाही

याचको इस एक मौत को बख़्श दो

- राजेश चन्द्र
पिछले चार नवम्बर को हिन्दी रंगमंच के प्रशिक्षण के सर्वोच्च संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रथम वर्ष के छात्र रंगकर्मी शशिभूषण की नोएडा के एक तीसरे दर्ज़े के और अपने किडनी रैकेट वाले राष्ट्रीय कारनामे के लिये कुख्यात अस्पताल में मौत हो गयी। बहुत से रंगकर्मियों के लिये अपने बायोडाटा में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की चर्चा गौरव का विषय हो सकती है पर यहाँ हम जिस रंगकर्मी का ज़िक्र कर रहे हैं वह न सिर्फ जनपक्षीयता और जीवन्तता के पटना रंगमंच का अनमोल हीरा था बल्कि बीस-बाइस वर्षों की अपनी जुझारू रंगमंचीय सक्रियता से उसने देश भर के सक्रिय नाट्य समूहों और गाँवों-कस्बों तक फैले रंगकर्मियों के साथ एक अंतरंगता और गर्मजोशी भरी दोस्ती क़ायम की थी। नब्बे के जिस दशक को पटना रंगमंच में चरम और अवसान के दशक के रूप में ज़्यादातर लोग याद करते हैं उस दशक की कुछ नायाब उपलब्धियों में एक शशिभूषण भी था जिसने न सिर्फ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण बल्कि तमाम लोकोन्मुख रंगसंस्थाओं के लिये अपनी ‘अहर्निशं सेवामहे‘ वाली सहज उपलब्धता के कारण भी एक खास जगह बनाई थी। रंगमंच उसके लिये मनोरंजन का उपकरण नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक माध्यम था और इस माध्यम के लिये उसके अन्दर ऐसी जुनूनी मुहब्बत थी जो कभी भी कम नहीं हुई। इतना सब कुछ अर्जित कर लेने के बाद और अपनी ही इस दृढ़ मान्यता को परे रख कर कि ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हिन्दी रंगमंच की क़त्लग़ाह है‘ (जिस पर उस दशक के ज़्यादातर रंगकर्मी लगभग एकमत रहे हैं) विद्यालय में उसके प्रवेश ने हम सभी दोस्तों को हतप्रभ और हताश ही किया था। कई दोस्तों ने चुटकी लेते हुए पूछा था कि तुम क्या यहाँ रंगमंच पढ़ाने आये हो, पर उसने सबको हँसते हुए जवाब दिया था कि ‘‘नहीं फिलहाल तो थोड़ा आराम से पढ़ने आया हूँ, बहुत भाग-दौड़ कर ली है।‘‘ मेरे जैसे कई दोस्तों के लिये शायद यह तय करना कठिन हो कि क्या केवल हिन्दी रंगमंच की विडम्बना ही उसे यहाँ लेकर आई थी या कि उसकी मौत उसे यहाँ खींच लाई थी। जो भी हो पर इस मौत से (हालाँकि यह इस संस्थान में अकेली ऐसी मौत नहीं है) कई ऐसे असुविधाजनक और अप्रिय लगने वाले सवाल फिर से उठ खड़े हुए हैं जिनके जवाब याचकों की भीड़ में खड़े होकर मध्यस्थता, लीपा पोती और दलाली की विनयपत्रिका बाँचने से नहीं मिलने वाले हैं।
यह सही है कि केन्द्र सरकार द्वारा शत प्रतिशत वित्तपोषित यह संस्थान न सिर्फ अपनी संरचना, प्रशासन और गतिविधियों पर हर वर्ष करोड़ों की राशि ख़र्च करता है बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि यह संस्कृति और रंगकर्म के नाम पर करोड़ों की राशि की छीना-झपटी और बँदरबाँट का कुख्यात केन्द्रीय अड्डा भी बन चुका है। आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता के चलते पूर्व में हो चुकी अन्य मौतों और शशि की मौत के ठीक बाद से इस प्रसंग में भी की जा रही ‘ठकुरसुहातियों‘ को उपरोक्त सन्दर्भ में जाँचने की ज़रूरत है। यह अकारण नहीं है कि जहाँ पटना में शशिभूषण की शवयात्रा में रंगकर्मियों, साहित्यकारों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न तबकों के एक हज़ार से अधिक लोग शामिल हुए और अब तक अपनी एकजुटता के साथ रानावि की नृशंस लापरवाही के खि़लाफ अपने तीव्र रोष का इज़हार भी वे कर रहे हैं - दिल्ली में इस मामले में अब तक एक बीस-पच्चीस लोगों की उपस्थिति वाली शोकसभा से ज़्यादा कुछ भी नहीं किया जा सका है और शशि की मौत के बाद दस दिन गुज़र चुके हैं।
‘पता नहीं क्यों खोज रहे थे हत्यारे मुझे‘ कविता में शायद ऐसे ही किसी सांस्कृतिक क्षरण या ‘ख़ामोशी की संस्कृति‘ को लक्ष्य करते हुए कवि अरुण कमल कहते हैं - ‘‘और मैं मारा गया/इसलिए कि मेरी नाभि में कस्तूरी थी/और रोओं से झर रही थी सुगन्ध लगातार/जानता था एक दिन नष्ट ही करेगी पवित्रता/इस जीवन के कारण मरूँगा तै था/मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया/न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा/और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा/सिर्फ इसलिए कि मेरी जाति वो नहीं जो हत्यारों की/मेरा धर्म वो नहीं और कोई जान नहीं पाएगा/सड़क किनारे खन्दक में सड़ेगी मेरी लाश/कोई जान नहीं पाएगा।‘‘ दिल्ली के मुझ जैसे अतीतजीवी प्रवासियों की अगम्भीरता, हृदयहीनता और समझौतापरस्ती के हद से बढ़ जाने का इससे बढ़ कर और क्या प्रमाण होगा कि अपनी नाभि की कस्तूरी को आकांक्षाओं के दलदल में डुबोने का अपराधबोध भी अब हमारे अन्दर लगभग मर चुका है और हमने चुपचाप अपराध के मूल्यों को स्वीकार लिया है वरना अब तक अपनी नाभि में कस्तूरी की पवित्र गन्ध को सुरक्षित रखते आ रहे साथी शशिभूषण को हमने इस तरह कसाई के गँड़ासे के सहारे नहीं छोड़ा होता और न ही अपनी मध्यवर्गीय निस्संगता और निर्लज्ज नपुंसकता के लिये सुविधाजनक तर्क तलाश कर रहे होते। दिल्ली के हम सभी रीढ़विहीन लोग जो शशिभूषण को बहुत क़रीब से जानने का दावा कर रहे थे, पिछले दस दिनों से इस तरह नज़रें चुरा रहे हैं जैसे - ‘‘सबको कुछ न कुछ काम पड़ गया है अचानक!‘‘
उच्च शिक्षा और आभिजात्य के बीच का पूरक सम्बन्ध पिछली एक सदी में और भी प्रगाढ़ हुआ है यानि सीमित आर्थिक साधनों वाले मध्य वर्ग के लिये शिक्षा आज भी एक ऐसी सीढ़ी की तरह है जिसे लगा कर उच्च या अभिजात वर्ग तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। निम्नवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय तबके के लिये इस सीढ़ी का प्रयोग लगभग निषिद्ध समझा गया है इसलिये रानावि जैसे ऐश्वर्यशाली और उच्चभ्रू शहरी संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक संस्थानों में घुसने के रास्तों पर ऐसे अदृश्य, अनकहे पर बेहद मजबूत प्रतिबन्ध लगा कर रखे गये हैं ताकि अवांछनीय तत्त्वों को यहाँ प्रवेश न मिल सके। इस तरह के व्यावहारिक मानदण्ड निर्मित किये गये हैं कि निचले सामाजिक आर्थिक स्तर का कोई पंछी इस संस्थान में पर तक नहीं मार सकता। यदि गलती से निम्नवर्गीय तबके का कोई रंगकर्मी इस संस्थान में आ भी जाता है तो भीतर फैली एलीटिस्ट संस्कृति के चलते उसका वहाँ टिक पाना असम्भव हो जाता है। यहाँ पढ़ने वाले ज़्यादातर विद्यार्थियों की आकांक्षाएँ एवं वर्ग-चिन्ताएँ लगभग एक जैसी होती हैं और किसी भिन्न आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का कोई भी विद्यार्थी अपनी प्राथमिकताओं का चोला बदले बगैर यहाँ से सफलतापूर्वक योग्यता प्राप्त कर बाहर नहीं आ सकता।
यह एक सच्चाई है कि रानावि जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में तकनीकी पाठ्यक्रमों के समानान्तर एक सांस्कृतिक दुनिया भी होती है जिसका हिस्सा बनने के लिये एक न्यूनतम पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि की ज़रूरत पड़ती है। हाॅस्टल जीवन की तमाम अनौपचारिकता और मस्तमौला ज़िन्दगी के बावजूद यहाँ के लगभग हर विद्यार्थी का चरम उद्देश्य होता है तीन वर्षों की मशक्कत और प्रभुताशाली प्रोफेसरों की ‘रिकमंडेशन‘ के ज़रिये किसी ‘स्काॅलरशिप‘ का कोई ‘आॅफ़र‘ हासिल कर लेना या फिर विद्यालय से ‘डिप्लोमे‘ की सीढ़ी लगा कर सीधे मुम्बई के फिल्म उद्योग में जगह बनाना। हिन्दी रंगमंच को मजबूती देने के नाम पर चलाये जा रहे इस संस्थान से प्रतिवर्ष करीब दो दर्जन रंगकर्मी प्रशिक्षित हो कर निकलते हैं और इनमें से पंचानबे प्रतिशत सीधे मुम्बई चले जाते हैं। इनमें से शायद ही कोई अपवादस्वरूप रंगमंच की ओर मुड़ कर देखता है पर जिस किस्म के रंगमंच में वे प्रशिक्षित होते हैं, न तो पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में उसकी स्वीकार्यता है और न ही उसे आकार दे पाने का सामथ्र्य। अन्ततः ऐसे डिप्लोमाधारियों की नियति उन्हें मुम्बई की उस बीहड़ मायानगरी का कच्चा माल बनने पर मजबूर करती है जहाँ वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध तो हो जाते हैं परन्तु प्रोफेशनल स्तर पर उन्हें सफलता नहीं मिलती। रंगकर्म के परित्याग के बदले उन्हें मिल पाता है निचले दर्ज़े का कोई यांत्रिक काम और एक बहुत महीन किस्म की व्यापारिक एवं सांस्कृतिक गुलामी, जहाँ उनसे आधी उम्र का कोई स्टारपुत्र, मंत्रीपुत्र, कुबेरपुत्र या दाऊद का साला उनका मालिक और नायक बना बैठा होता है। ये सवाल बहुत गहरे, व्यापक और जटिल हैं जिन्होंने दशकों से हिन्दी रंगमंच को अपनी चपेट में ले लिया है।
चार नवम्बर को रानावि के छात्र शशिभूषण की मौत रानावि के ही साझीदार और मौत बाँटने के लिये कुख्यात नोएडा के एक अस्पताल में अत्यन्त संदिग्ध परिस्थितियों में हो गयी। इस अस्पताल में उनतीस अक्टूबर को भर्ती हुए शशि का जाॅन्डिस के लक्षण बता कर इलाज शुरू किया गया और छह दिन बाद यानि तीन नवम्बर को उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था, पर दुबारा बेहोशी के बाद जब फिर से उसे भर्ती कराया गया तो डाॅक्टरों ने इस बार उसे डेंगू होने की पुष्टि की। अगले दिन दोपहर तक उसे आई.सी.यू मंे रखा गया जहाँ करीब साढ़े बारह बजे उसकी मौत हो गयी। कोई नहीं जानता इस बीच उसके साथ क्या हुआ, उसे कौन सी दवाइयाँ दी गयीं। तीन नवम्बर को डिस्चार्ज होने के बाद शशि ने कई दोस्तों को फोन कर कहा था कि अब वह पूरी तरह ठीक है और वापस लौट रहा है। किसे पता था यह उसकी आखि़री बातचीत थी। अस्पताल की भूमिका तो इस मौत के मामले में शुरू से अन्त तक कठघरे में है ही पर यहाँ कुछ और भी बातें ग़ौर करने लायक हैं। उनतीस अक्टूबर से चार नवम्बर के बीच यदि शशि के सहपाठियों की बात छोड़ दें, तो क्यों रानावि के प्रशासन का एक भी आदमी अस्पताल में उसका हाल-चाल पूछने नहीं गया। समाज को सुसंस्कृत और संवेदनशील बनाने निकले रानावि के कर्मयोगी प्रशासक प्रोफेसरों ने क्यों उसकी तरफ से आँखें मूँद रखी थीं। चार नवम्बर को शशि की मौत की ख़बर आने के बाद आनन फानन में जो सबसे पहला काम उन्होंने किया वह था लाश को हवाई रास्ते से पटना पहुँचाने का इन्तजाम। एक तो उन्होंने लाश के पोस्टमार्टम की चर्चा तक नहीं की और जब इस बाबत कुछ रंगकर्मियों ने दबाव डाला तो मुख्य प्रशासक ने बेरुखी से कहा कि उनका इससे कोई सरोकार नहीं है। हद तो यह कि उन्होंने अपने ही विद्यालय के एक छात्र की लाश तक को विद्यालय में दर्शन के लिये रखने से मना कर दिया और मजबूरन उसे हाॅस्टल में रखा गया। पिछले दस दिनों के दरम्यान प्रशासन ने न तो आधिकारिक तौर पर इस मौत पर कोई सफाई दी है और न ही उसके बर्तावों से कभी भी ऐसा ज़ाहिर हुआ है कि इस मौत का उसे कोई अफ़सोस भी है। इससे पहले भी करीब आठ साल पहले जब पटना के रंगान्दोलन के नेतृत्वकर्ता युवा रंगकर्मियों में से एक विद्याभूषण की मौत रानावि के अध्ययन कक्ष में घायल होने के बाद अस्पताल में हो गयी थी तो पटना के रंगकर्मियों ने इस मामले में रानावि द्वारा बरती गयी भीषण लापरवाही के खि़लाफ मोर्चा लिया था परन्तु तब भी विद्यालय प्रशासन ने इस मौत की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था और इसे महज एक दुर्घटना कह कर उन सभी सवालों को दरकिनार करने की कोशिश की थी जो रानावि की रहस्यमय प्रशिक्षण पद्धति और प्रशिक्षु रंगकर्मियों के जीवन को तुच्छ समझने वाली उसकी संस्कृति को लेकर उठाये गये थे। उस समय भी रानावि के पास इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं था कि क्यों एक नाटक में निरर्थक प्रदर्शन के लिये वह पचास हज़ार की घास लगाने में कोई कोताही नहीं बरतता पर एक रंगकर्मी जो अपने माता-पिता, अपने संगठन और अपने राज्य की उम्मीदों को अपने साथ लेकर आता है, उसकी ज़ि़न्दगी तक की सुरक्षा को यहाँ कोई महत्व नहीं दिया जाता। रानावि ने शशि के मामले में भी अस्पताल की इस भयावह कारगुज़ारी पर चुप्पी साध रखी है और इस तरह उसे क्लीन चिट देने की कोशिश की है। असल में यह शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ‘अवांछनीय‘ तत्त्वों के प्रति रानावि की चिरकालिक घृणा की ही अभिव्यक्ति है वरना अगर ऐसी घटना किसी उच्चवर्गीय सुकुमार ‘बेटे‘ के साथ हुई होती तो अब तक इस विद्यालय की चूलें हिला दी जातीं और लाखों के मुआवज़े के साथ उच्चस्तरीय जाँच समिति की घोषणा भी हो चुकी होती। पर संस्कृति और रंगमंच के इन चतुर चालबाज़ों को अच्छी तरह पता है कि शशिभूषण और विद्याभूषण जैसे ये रंगकर्मी सामाजिक स्तर पर उस खास परिवेश से ताल्लुक रखते हैं जहाँ वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में अक्षम हैं और इसलिये एक अजनबी उच्च संस्कृति, उच्च भाषा और उच्च ज्ञान के चक्रव्यूह में फँसकर वे अन्ततः अपनी भोली, प्रतिभावान ज़िन्दगी को दाँव पर लगाते ही रहेंगे। ऐसे लोगों से डरने की क्या ज़रूरत है।
ऐसे में उम्मीद केवल पटना जैसी जगहों के संस्कृतिकर्मियों और रंगकर्मियों से ही की जा सकती है कि वे अपने असाधारण रंगकर्मियों की क्रमवार मौतों पर बदलावकारी हस्तक्षेप करेंगे।