ज्यादा घातक है आज का साम्राज्यवाद
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अष्टभुजा शुक्ल
अब डेढ़ सौ साल का कोई आदमी इस दुनिया में सदेह नहीं बचा है जिससे पूछा जाय कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम का आंखों देखा हाल सुनाओ। अब वह मुकम्मल तौर पर इतिहास है जिसके बहुत सारे लिखित-अलिखित बयान पिछली तारीखों में दर्ज हैं। फिर भी वह हिन्दुस्तान का स्वाभिमान वर्ष है जिसमें किसी देश और समाज का मुक्तिकामी तुमुलनाद सुनाई देता है। मुट्ठीभर परजीवी उपनिवेशवादी शक्तियों की अजगरी जकड़न में कोई महादेश किस तरह पिसता चला गया और क्यों चला गया, इसकी शिनाख्त और आत्मालोचन के लिए 2007 भी आने वाले भविष्य में एक इतिहास की ही तरह रेखांकित किया जाएगा। 1857 की राष्ट्रीय क्रांति की हकीकत और फसाने को लेकर आज की तारीख में पुनर्मूल्यांकन या पुनर्पाठ का दौर जारी है तथा विचारकों का बौध्दिक संग्राम छिड़ा हुआ है। इस घमासान में 1857 से 1947 तक की रील का फ्लैशबैक विभिन्न पहलुओं को उजागर कर रहा है जिसे लेकर बुध्दिजीवियों के अपने-अपने पक्ष, तर्क एवं निहितार्थ हैं। एक वर्ग जहां इसे तत्कालीन सामंतवादी शक्तियों की निजी हितरक्षा का विक्षोभ मान रहा है तो दूसरा वर्ग जनसाधारण के राष्ट्रीय प्रतिरोध का उत्कट बलिदान। अन्य प्रकार के बुध्दिजीवी इस मूल्यांकन में ब्रिटिश हुकूमत की वकालत में उस स्तर की सोच तक पहुंच गए हैं जहां 'अंग्रेज देर से आए और पहले ही चले गए', का हाय-हाय और पश्चाताप प्रकट हो रहा है।
जो भी हो अलग-अलग ढपली का एक सामूहिक और सुखद राग यह है कि 1857 पूरी गंभीरता के साथ बहस एवं चर्चा के केंद्र में है। यह स्वाधीनता की कामना और ऊर्जा के साथ किसी भी राष्ट्र की संजीदा धड़कन का जीवंत प्रमाण है। इसके सापेक्ष 1947 की 50वीं स्वर्ण जयंती की बहसें सिर्फ इश्तिहार और चूं-चूं मुरब्बा साबित हुईं। इसके कारण सुस्पष्ट हैं। जो सत्ता की आजादी होती है, वही जनता की आजादी नहीं होती एवं जो सत्ताओं के संग्राम हैं, वहीं जनसंग्राम नहीं होते। संदेहास्पद आजादी को पाकर भी जनसाधारण उतना उल्लसित नहीं हो सकता जितना कि मुक्ति संग्राम के स्मरण मात्र से वह रोमांचित हो उठता है। इस विमर्श में जहां गदर के गद्दारों को भी याद रखने पर बल दिया जा रहा है वहीं राजनैतिक गुलामी के चोले में निहित सामाजिक गुलामी को भी उधेड़कर प्रतिगामी ताकतों को चिन्हित किया जा रहा है। नायकों और खलनायकों की पहचान के क्रम में 1857 का इतिहास सचमुच हमारी पिछली आंख का काम कर रहा है।
इसमें रत्ती भर संदेह नहीं कि भारत का विपुल जन समुदाय दोहरी गुलामी की प्रतारणा झेल रहा ता। ब्रिटिश गुलामी की भीतरी पर्तों में वर्ण व्यवस्था की व्याधि भी कम यातनाप्रद नहीं रही। मनुष्य की सामाजिक हिकारत और घृणा किसी कोढ़ से कम न थी। इसके फलस्वरूप जो लोक जीवन के जनविद्रोह और बलिदान रहे, वे वर्चस्वशाली वर्ग की प्रभुता के आगे ठीक से रेखांकित ही नहीं हो सके। फिर भी 1857 की ज्वाला और राष्ट्रीय स्वाभिमान को साहित्य में जो सबसे जोरदार और लोकप्रिय स्वर मिला वह 'चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' वाला ही था। यह हो सकता है कि अंग्रेजी उपनिवेश का प्रतिरोध समाज की फुटकर अस्मिताओं द्वारा अपने-अपने स्वार्थों के नाते ही हुआ हो किंतु भिन्न मन्तव्यों एवं स्थानों से उठी हुईं चिनगारियां संपूर्ण राष्ट्रीय विप्लव की शक्ल में घटित हो सकीं। इस ऐतिहासिक राज्य क्रांति में स्त्री, दलित, सामंत, सवर्ण, हिन्दू , मुस्लिम 'एक प्रान, दुई गात' थे। 1957 में ही जन्में हिन्दी साहित्य के एक ऐतिहासिक व्यक्ति बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री का भी जन्म हुआ जिन्होंने गद्य-पद्य (खड़ी बोली और ब्रजभाषा) की एक भाषा अर्थात खड़ी बोली करने का आह्वान किया था। जिसका ग्रियर्सन के साथ भारतेन्दु मंडल के अनेक लेखकों ने प्रतिवाद किया तो फ्रेडरिक पिन्काट ने समर्थन। इस दृष्टि से यह भाषा, धर्म, जाति, राज्य आदि क्षेत्रीयताओं के सामूहिक उद्धोष का नवजागरण था 1857। लेकिन लक्ष्मीबाई के मर्दाने व्यक्तित्व के पीछे ऊदा देवी, झलकारी बाई आदि वंचित समूहों की क्रांति नेत्रियों का अवदान काफी बाद में आंकने की बाध्यता तभी हुई जब अवर्णों के भीतर अपनी अस्मिता का तीव्र राजनैतिक, सामाजिक और शैक्षणिक बोध हुआ। उपनिवेशवाद के विरूध्द मुक्ति संग्राम में उनकी जितनी बढ़-चढ़कर भागीदारी थी उससे कम लोहा उन्हें अपने समाज की वर्ण व्यवस्था से भी नहीं लेना पड़ा। पूर्व में पेरियार के सामाजिक विद्रोह को आत्मसात करके बेशक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस वैचारिक चेतना का सूत्रपात किया उससे भारतीय समाज के दलित और वंचित वर्ग में एक नई जागृति आई। किंतु इसका सामाजिक सत्यापन एवं क्रियान्वयन स्व. कांशीराम की प्रेरणा, सूझबूझ और राजनीतिक सक्रियता से ही संभव हो सका। आरंभ में उन्होंने सवर्ण मानसिकता के विरूध्द आवश्यक आक्रोश पैदा करके दलितों का जैसा ध्रुवीकरण किया, उसके अतिरिक्त इस चिर-रूढ़ समाज को आंदोलित करने का कोई दूसरा चारा ही न था।
विधिक रूप से स्वाधीन हो जाने के बावजूद दलितों और दलितों में भी दलित स्त्रियों की सामाजिक स्थिति भारतीय वर्ण-व्यवस्था की शिकार रही। किंतु तेजी से घटित हो रहे परिवर्तनों ने न केवल इन समूहों को मुखर बनाया बल्कि उनके भीतर अपनी अस्मिता के प्रति ऐसी अदमनीय कामना उत्पन्न की कि संदेहास्पद आजादी बहुत कुछ चरितार्थ होने लगी। कांशीराम की उसी प्रेरणा से लैस होकर अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता और आत्मबल की बदौलत मायावती ने तताम पुरूष-सत्ताओं के सिंहनाद को फुस्स कर दिया और पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता पर आरूढ़ होकर तमाम अटकलों को 2007 में नकार दिया। 2007 में ही आजाद भारत राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी उल्लेखनीय हो गया। महामहिम पद के लिए पहली बार ऐसी गर्दिश मची। यहां यह भी ध्यातव्य है कि पिछले राष्ट्रपति चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक कमांडर कैप्टन लक्ष्मी सहगल का भी नाम तेजी के साथ उभरा था, तथापि डॉ. कलाम एक सम्मानित और लोकप्रिय राष्ट्रपति सिध्द हुए। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में मल्ल-प्रतिमल्ल जैसे आरोप-प्रत्यारोप तो खूब हुए लेकिन युगल प्रत्याशियों के सपनों को गौर से नहीं देखा गया। संप्रति महामहिम प्रतिभा पाटिल ने चुनाव पूर्व जिक्र किया था कि स्वामी लेखराज ने उनसे सपने में कहा था कि 'तुम्हें आने वाले समय में देश के लिए महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाना है।' आश्चर्य कि उनके ऐसे इलहाम पर तत्वदर्शी वामपंथियों को भी कोई एतराज नहीं हुआ। फिलहाल, प्रतिभा जी का सपना पूरा हो गया है। उन्हें यह भी जानना चाहिए कि देश की हर स्त्री का सपना राष्ट्रपति बनने का ही नहीं होता। अत: उनके छोटे-छोटे सपने यदि टूटने, रौंदने और बिखरने से बच सकें तो महिला राष्ट्रपति का पद और गौरवान्वित होगा। इसके बरक्स स्त्री-चेतना का विस्फोट इस कदर भी हो रहा है कि कुछ तथाकथित महिला संगठनों ने 'राष्ट्रपति' शब्द को पुरूष मानसिकता की देन बताते हुए इसे बदलने के लिए हल्ला मचाया है। दरअसल ये महिलाएं खुद पति-परंपरा से उपजी जान पड़ती हैं अन्यथा कोई भी पद लिंग, जाति अथवा धर्म वाहक नहीं होता।
उदारीकरण, बाजारीकरण और प्रचारीकरण की महालीला के बीच कन्या भू्रण हत्या, दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, शोषण, आत्महत्या जैसी शर्मनाक घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। तो दूसरी ओर नई पीढ़ी के बीच शिल्पा शेट्टियां, सहस्राब्दि के महानायकों, मास्टर ब्लास्टरों आदि की दीवानगी ने मुक्ति संग्राम के नायकों और योध्दाओं के त्याग और बलिदान को लगभग नजरअंदाज कर दिया है। अपने इतिहास की यह आत्महंता विस्मृति चिंताजनक है। स्वतंत्र हिन्दुस्तान के 2007 में हमें 1857 का एक नया चश्मा मिला है। देखने, परखने, पुनर्विचारने और प्रगतिशील भारत के निर्माण में हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। यह देखते हुए कि 1857 के एकांगी साम्राज्यवाद की तुलना में आज का साम्राज्यवाद बहुआयामी और ज्यादा घातक है।
मीडिया विमर्श से साभार
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