Friday, October 3, 2008

अलविदा कटवारिया के गधो

कटवारिया के गधे मुझे विशेष प्रिय हैं क्योंकि वे मेरी जानकारी में इतनी तादाद में दिल्ली में शायद कहीं और नहीं देखे जाते। पिछले लगभग दो सालों से मेरा इनसे साबका पड़ता रहा है, और अब जब मैं इनसे दूर जा रहा हूँ तो मुझे अपनी ज़िन्दगी में इनकी अहमियत का पता चला है। वास्तव में हमारी नस्ल एक है यह मुझे बहुत बाद में जाकर अहसास हुआ और इतने करीब रहकर भी हम सुख-दुख की दो-चार बातें नहीं कर सके। वक़्त मिला तो कभी इत्मीनान से इस पर एक संस्मरण ज़रूर लिखूँगा। अभी तो ग़मे-रोज़गार से ही निजात पाने की कोशिश कर रहा हूँ।

अपने व्यालोक भाई और अभिषेक भाई कई महीनों से चकित थे कि ऐसा कैसे सम्भव है कि मैं पिछले लगभग दो सालों से एक ही नौकरी में हूँ। चकित तो मैं भी था व्यालोक भाई और लीजिये हाज़िर हो गया हूँ फिर से अपने सनमखाने में। ऐसा क्यों है कि कुछ दूर चलने के बाद सारे रास्ते कहीं अंधी गली में मुड़ जाते हैं ? कोई कह सकता है कि तुम्हें चलना नहीं आता पर ७-८ सालों के अनुभव ने इतना तो पका ही दिया है कि नारों और दावों के मर्म समझ सकूँ। फिर ज़रूर अपने सोचने के तरीके में ही वह कारण छिपा है जो कहीं भी ज़्यादा दिनों तक अपना पाँव ही नहीं टिकने देता। सफलता की चक्करदार सीढियों पर चढ़ने, चढ़ते चले जाने के लिए जिस हुनर, जिस कौशल की दरकार होती है उसका तो नितांत अभाव हमेशा से अपने पास रहा ही। अपने बॉस को खुश रखना कोई आसान काम नहीं होता होगा और जो लोग यह हुनर साध लेते हैं सुखी रहते हैं। हम तो भाई गधे ही रहे ! शहर में बसना नहीं ही आया।


जब तक कहीं भी, कैसी भी नौकरी नहीं मिल जाती, तब तक के लिए देशकाल पर आने वाले तमाम दोस्तों से माफी चाहता हूँ क्योंकि यहाँ आप भले ही आयेंगे मैं चाहकर भी नहीं आ सकूँगा। सायबर कैफ़े में बैठकर तो ब्लॉगिंग होगी नहीं और घर में कम्प्यूटर नहीं है। सो सबको ईद, दशहरा और दीवाली की इकट्ठा शुभकामनाएँ......

आपका,
राजेश चन्द्र

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