Monday, December 28, 2009

शशि की मौत: घेरे में एनएसडी


  • मनोज कृष्ण
चार नवम्बर को हुई मशहूर रंगकर्मी शशिभूषण की अप्रत्याशित मौत ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा यानी कि एनएसडी को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। हालांकि, ये कोई पहला मौका नहीं है जब रंग क्षेत्र में देश की इस सबसे बड़ी आटोनामस बॉडी पर सवाल उठ रहे हैं। इससे पहले भी कई सवाल उठते रहे हैं मगर उनका सरोकार सिर्फ भ्रष्टाचार, अस्तित्व और कारगुज़ारियों तक ही सीमित रहा। मसलन थिएटर के नाम पर मिलने वाला फंड कुछ दलाल टाइप संस्कृतकर्मियों या एनएसडिएंस के नाम जारी होने, एनएसडी की वर्कशाप और कार्यक्रमों में गैर एनएसडियन को बिल्कुल ही तवज्जो न देने, फेलोशिप और प्रोडक्शन ग्रांट में बंदरबांट, प्रोफेसरों के क्लास लेने के बजाय बाहर ज्यादा व्यस्त रहने, पास आउट स्नातकों के सक्रिय नाटक छोड़कर फिल्म, टीवी या दूसरे व्यवसायों की ओर उन्मुख होने, नए प्रयोगों की कमी जैसे आरोप अक्सर एनएसडी पर लगते रहे हैं। मगर इस बार अपने ही एक स्नातक छात्र शशि की मौत से उठे सवाल बाकी मसलों से कहीं ज्यादा पेंचीदा हैं। जाहिरा तौर पर इसके जवाब में एनएसडी की कलई के भी खुलकर सामने आने की संभावना है इसीलिए स्कूल प्रशासन ने जानबूझकर एक खास तरह की अप्रत्याशित चुप्पी साध ली है। बिहार के मध्यम निम्नवर्गीय परिवार से आने वाले शशि भूषण की पहचान एनएसडी कभी नहीं रही। यहां आने से पहले ही वो देशभर में अपनी साहित्यिक रंग प्रस्तुतियों के लिए मशहूर हो चुके थे। थिएटर तो जैसे उनके रग-रग में बसा था। अभिनय, निर्देशन, गायन, स्टेज सज्जा से लेकर वो म्यूजिक तक का काम बखूबी निभाते थे। बाइस साल से रंगकर्म के विभिन्न क्षेत्र से जुड़े शशि जितनी अच्छी नाल बजाते थे उतने ही अच्छे गायक भी थे। ढोलक की थाप के साथ गोरख पांडेय के जनगीत समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई... पर छेड़ा गया उनका आलाप शायद ही चाहने वाले कभी भूल पाएं। पटना की वामपंथी रंग संस्था हिरावल से कैरियर की शुरुआत करने वाले शशि ने बाइस साल से ज्यादा की रंगयात्रा के बाद इसी साल जब एनएसडी में एडमिशन लेने की बात दोस्तों को बताई तो बड़ा ताज्जुब हुआ। एतराज जताने पर उस समय शशि ने अपने अंदाज में जवाब दिया - ‘‘बहुत भागदौड़ कर ली है। फिलहाल तो यहां थोड़ा आराम करने आया हूं।‘‘ मगर काल के क्रूर हाथों ने उसे ये मौका नहीं दिया। संदेह इस बात पर होता है कि इलाज से ठीक होने वाली एक मामूली बीमारी ने कैसे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी रंगकर्मी की जान ले ली। घटना के अनुसार मृत्यु से कुछ रोज पहले ही शशि की तबियत खराब हुई। शिकायत महज शारीरिक कमजोरी और हल्के बुखार को लेकर थी। नियमों के मुताबिक एनएसडी अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों का स्वास्थ्य बीमा कराता है। इसके तहत कुछ चुनिंदा अस्पतालों के पैनल होते हैं जहां जाकर इलाज कराया जा सकता है। इसी पैनल के तहत शशि को इलाज के लिए एनएमसी, नोएडा ले जाया गया। सबसे पहला सवाल यहीं खड़ा हो जाता है कि दिल्ली में कई चुनिंदा अस्पतालों के होते हुए भी नोएडा के उस अस्पताल को क्यों पैनल में शामिल किया गया जबकि वो पहले से ही किडनी रैकेट और निठारीकांड जैसे जघन्य आरोपों में शामिल रहा है। क्या एनएसडी के बाकी स्टाफ मसलन लेक्चरर, प्रोफेसर, आफिशियल स्टाफ भी इस सुविधा के तहत नोएडा के एनएससी में ही अपना और परिजनों का इलाज कराते हैं? अगर नहीं तो छात्रों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ क्यों? अस्पताल की घोर लापरवाही इस रूप में सामने आती है कि एडमिट होने के बाद से हर दूसरे दिन शशि को डॉक्टरों ने अलग-अलग बीमारी बताई। यही नहीं कुछ दिनों बाद उसे सिर्फ स्वास्थ्य लाभ की जरूरत बताते हुए डिस्चार्ज भी कर दिया गया। मगर इसी दौरान अस्पताल परिसर में ही शशि बेहोश होकर गिर पड़े। डॉक्टरों ने दोबारा जांच में बताया कि डेंगू है। इसके बाद तो शशि सिर्फ पन्द्रह घंटे ही और जीवित रह सके। अंतिम तौर पर डाॅक्टरी रिपोर्ट में मौत की वजह हार्ट अटैक बताई गई। इस पूरे प्रकरण में एनएसडी किस हद तक असंवेदनशील बना रहा कहने की जरूरत नहीं। शशि की मौत के तत्काल बाद संस्था ने एयर टिकट की व्यवस्था कर आनन-फानन में अगली सुबह ही लाश पटना भेजने की व्यवस्था कर दी। यही नहीं अस्पताल प्रशासन से उसने सवाल जवाब करने तक की जहमत भी नहीं उठाई। बिना किसी पुख्ता सबूत के एनएसडी ने इस मौत को स्वाभाविक मान लिया जबकि लापरवाही नंगी आंखों से साफ दिखाई दे रही थी। स्कूल प्रशासन के मुताबिक डायरेक्टर अनुराधा कपूर खुद अस्पताल में इलाज के दौरान गई थीं। मगर इतने भर से तो ये नहीं साबित हो जाता कि लापरवाही नहीं हुई। शशि से जुड़े जब कुछ रंगकर्मी मित्रों ने जब इस मुद्दे पर सवाल उठाया तो स्कूल प्रशासन ने खुद को इससे एकदम अलग करते हुए कोई सहयोग नहीं करने की बात कही। इससे संस्था का दोहरा चरित्र खुलकर सामने आ जाता है कि वो अपने ही छात्र की मौत जैसे मुद्दे पर भी कितने असंवेदनशील तरीके से पेश आ सकता है। और तो और शशि की लाश को स्कूल परिसर में लाकर रखने तक की इजाजत नहीं दी गई। डायरेक्टर अनुराधा कपूर ने मृतक के बदहवास परिजनों से सीधे न मुलाकात करके आॅफिस में बुलाकर बात की। आरोप तो ये भी है कि अस्पताल और एनएसडी ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए पोस्टमार्टम की कार्रवाई रोकने की भरसक कोशिश की। इसे तभी शुरू कराया जा सका जब रंगकर्मी विजय कुमार बेंगलूर से दिल्ली आकर व्यापक राजनीतिक दबाव बना सके। उधर अगले दिन पटना पहुंचे शशि को देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा। मशहूर रंग निर्देशक राॅबिन दास और शशि के कुछ सहपाठी भी शव के साथ थे। इन्हें लोगों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। अपनी माटी से जुड़े शशि की याद में लोगों ने एनएसडी के दलालो वापस जाओ के नारे लगाए। हर किसी की आंखों में उमड़ते आंसुओं के साथ एक ही सवाल था कि ऐसा कैसे हो गया? पूरे प्रकरण में सबसे ताज्जुब की बात एनएसडी प्रशासन की गम्भीर चुप्पी है। बार-बार सम्पर्क करने पर भी कोई इस बारे में कुछ बोलने को तैयार नहीं। गौरतलब है कि साल 2001 में एक और स्नातक विद्याभूषण की भी अस्वाभाविक मौत हो गई थी। उस समय मामले को महज दुर्घटना मानकर रफा-दफा कर दिया गया था। कहा ये गया कि क्लास रूम में गिर जाने से सिर में आई गम्भीर चोट की वजह से मौत हुई। पूरे प्रकरण को लेकर रंगकर्मी आंदोलन की राह पर हैं। पटना में शशि से जुड़े रंगकर्मियों ने उनकी याद में पिछले दिनों एक शोक सभा की। इस तरह की एक और शोक सभा 12 नवम्बर को दिल्ली के ललित कला अकादमी में भी हुई। इन सभाओं में शशि की मौत की बावत अस्पताल की भूमिका की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से कराने, स्कूल प्रबंधन की संदिग्ध भूमिका को जांचने, पीड़ित निर्धन परिवार को तत्काल मुआवजा देने के साथ ही पटना में होने वाले भारत रंग महोत्सव को शशि को समर्पित करने की मांग की गई है। जाहिर सी बात है ये कोई राजनीतिक मांगे नहीं हैं। एनएसडी को अपनी विश्वसनीयता पर खरे उतरने के लिए भी इन मांगों पर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। एनएसडी प्रशासन की शुरुआती भूमिका जिस तरह की रही उससे शशि की मौत से जुड़े सवाल इतने गहरे हो चुके हैं कि अब इसे महज सदमा बताकर विभागीय जांच कमेटी गठित करने भर से काम नहीं चलने वाला।
पता - मनोज कृष्ण, द्वारा -श्री आर एस मौर्य, ए-31/१, गली नं. 5 ,पूर्वी विनोद नगर, दिल्ली- 91 मोबाइल: 9868655357.

अधूरी ज़िन्दगी के कुछ अहम पड़ाव
कहने की जरूरत नहीं है, जिस उम्र में लोग अपनी रूमानी ज़िन्दगी के ख्वाब बुनने में जुटे रहते हैं उस उम्र में शशिभूषण समाज में फैली बुराइयां, अव्यवस्था, गरीबी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अनूठे संघर्ष के जरिए एक जाना पहचाना चेहरा बन गए थे। पटना की हिरावल संस्था उनके इस संघर्ष और जज़्बे की गवाह रही। एक ओर जहां साहित्यक कृतियों पर बने नाटकों को अक्सर लोग करने से घबराते हैं वहीं शशि के लिए ये सबसे खास शगल था। उनके चर्चित नाटकों के मूल संदर्भ में ज़्यादातर साहित्यिक कहानियां ही शामिल हैं। फणीष्वर नाथ रेणु, स्वदेष दीपक, भीष्म साहनी, हरिषंकर परसाई और श्री लाल शुक्ल की रचनाओं को शषि ने रंगमंच के जरिए सैकड़ों बार जिया है। रेणु से वो इतने प्रभावित थे कि उनकी रचनाओं पर उन्होंने देषभर में घूम-घूम कर नाट्य मंचन में हिस्सा लिया। उनके रगकर्म का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है- ऽ पैंतीस से ज़्यादा नाटकों में अभिनय ऽ पन्द्रह से ज्यादा नाटकों का निर्देषन ऽ शषि के अभिमंचित प्रमुख नाटक - एक और दुर्घटना(दारियो फो), काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), किस्सा ठलहा राम(राजेष गोनदवाले), नेटुआ(रतन वर्मा), लीला नंदलाल की(भीष्म साहनी), मातादीन चांद पर(हरिषंकर परसाई), एक हसीना पांच दीवाने(हरिषंकर परसाई), रसप्रिया(फणीष्वर नाथ रेणु), पंचलाइट(फणीष्वर नाथ रेणु), ना जाने केहि वेष में(फणीष्वर नाथ रेणु), हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं(हरिषंकर परसाई), राग दरबारी(श्रीलाल शुक्ल), आॅफ माइस एंड मेन(जाॅन स्टीन बैक) इत्यादि। ऽ नुक्कड़ नाटक - खेल तमाषा, सर्कस, जनता पागल हो गई है, मेरा नहीं तेरा नहीं सबकुछ हमारा इत्यादि के जगह-जगह करीब 2000 प्रदर्षन। ऽ निर्देषक के रूप में - काल कोठरी(स्वदेष दीपक), बिरजीस कदर का कुनबा(लोर्का), ईदगाह(प्रेमचंद) समेत पंद्रह से ज़्यादा नाटक। अन्य उपलब्धियां ऽ मंच आर्ट गुप के सचिव के नाते संस्था की रंगसभाओं में दिल्ली, कोलकाता, जयपुर, बड़ौदा, पुणे, मुम्बई, गुवाहाटी, भोपाल, मैसूर, ग्वालियर, गोपालगंज, उदयपुर, रायगढ़, वनस्थली, नागपुर, हैदराबाद, हरियाणा, मंडी, षिमला, चंडीगढ़, लखनऊ, पानीपत, अमृतसर, गोवा, पुनल्लुर समेत देषभर का भ्रमण। ऽ मषहूर रंगकर्मी ऊषा गांगुली, विजय कुमार, पद्मश्री जोयेलकर अनिरुद्ध पाठक, रंजीत कपूर, के. जा. कृष्णमूर्ति जैसे निर्देषकों के साथ लम्बे समय तक काम किया। ऽ मानव संसाधन विकास मंत्रालय से रंग संगीत में स्कॉलरशिप

आम आदमी के नाटक का त्रासद पटाक्षेप-वर्ष


राजेश चन्द्र
वर्ष 2009 के रंगजगत की सबसे सांघातिक घटना रही - पिछली शताब्दी से वर्तमान शताब्दी तक, यानि साठ वर्षों से अधिक समयावधि तक निरन्तर उद्देश्यपूर्ण रंगमंच करने वाले विश्व रंगमंच के अद्वितीय निर्देशक, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मशहूर रंगकर्मी, भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापकों में एक हबीब तनवीर का 8 जून को पच्चासी वर्ष की अवस्था में गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझते हुए निधन। हबीब तनवीर धर्मनिरपेक्ष, जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता रखने वाले ऐसे महान शख्स थे, जिनके निधन से थियेटर की दुनिया में एक कभी न भरने वाला शून्य पैदा हो गया। एक ऐसे रंग-शख्सियत जो एक ही समय अभिनेता, नाटककार, निर्देशक, गायक, संगीतकार के अतिरिक्त वस्त्रसज्जा, मंचसज्जा में परिपूर्ण, पत्रकार, शायर, आलोचक के साथ-साथ अच्छे सैलानी भी थे। लम्बा चेहरा, गोरा रंग, ऊँचा कद, इकहरा जिस्म, चैड़ा माथा, माथे पर अस्सी-पच्चासी वर्षों के अनुभवों की लकीरें, गहन-गम्भीर आँखों पर काले फ्रेम का बड़ा चश्मा, होंठों के बीच फँसा पाइप, पुरकशिश आवाज़ और हिन्दी-उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी या अंगरेज़ी में बेबाक बात करने के लिये पहचाने जाने वाले हबीब तनवीर ने हिन्दी नाट्य-जगत और भारतीय रंगमंच को जो नयी दिशा दी, वह अविस्मरणीय है। स्वातन्त्र्योत्तर युग अथवा बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक हबीब तनवीर ने हिन्दुस्तानी साहित्य और रंगमंच को करीब दो दर्जन नाट्य कृतियाँ दी हैं जिनमें आगरा बाज़ार (1954), शतरंज के मोहरे (1954), लाला शोहरत राय (1954), मिट्टी की गाड़ी (शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिकम‘ पर आधारित,1977), चरणदास चोर (1975), उत्तररामचरित (1977), बहादुर कलारिन (1978), पोंगा पण्डित (1990), ज़हरीली हवा (2002) और राजरक्त (2006) इत्यादि ख़ासे प्रसिद्ध हैं। बतौर पत्रकार अपना कैरियर शुरू करने वाले हबीब तनवीर ने नाटकों के क्षेत्र में ऐसा मुकाम हासिल किया जो हर दृष्टि से बेमिसाल है। उनके ‘आगरा बाज़ार‘ और ‘चरणदास चोर‘ ने ऐसी धूम मचाई कि हबीब जीते जी एक किंवदन्ती बन गये। चरणदास चोर में छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों - गोविन्द राम, मदनलाल, दीपक तिवारी, फ़िदाबाई, मुल्वाराम, पूनम और स्वयं हबीब ने अभिनय और आपसी तालमेल का एक ऐसा नया, अनूठा और मोहक लोक छन्द रचा कि दुनिया दंग रह गयी और 1982 में एडनबर्ग के इन्टरनेशनल ड्रामा फेस्टिवल में ‘चरणदास चोर‘ को विश्व का सर्वश्रेष्ठ नाटक घोषित किया गया। नज़ीर अकबराबादी की शायरी, शख्सियत और उनके युग पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार‘ को हिन्दुस्तानी रंगमंच की एक अक्षय निधि, एक अनमोल धरोहर माना जाता है। इस नाटक के फ़कीर, ककड़ीवाला, तरबूजवाला, लड्डूवाला, बरफवाला, रीछवाला, पतंगवाला, किताबवाला, मदारी, शायर, हमजोली, दरजी, पनवाड़ी आदि पात्रों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नाटक का एक गीत है - "जितने हैं आज आगरे में कारखाना जात/सब पर पड़ी है आज के रोज़ी की मुश्किलात/किस-किसके दुख को रोइये और किसकी कहिये बात/रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात.................बेवारिसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह/फूटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहरपनाह/पैसे का ही अमीर के दिल में ख़याल है/पैसे का ही फ़कीर भी करता सवाल है/पैसा ही फ़ौज, पैसा ही जाहो जलाल (सत्ता प्रताप) है/पैसे ही का तमाम यह तंगो दवाल (हंगामा) है/पैसा ही रूप रंग है, पैसा ही माल है/पैसा न हो तो आदमी चरखे की माल है।" हबीब तनवीर एक विशिष्ट प्रयोगधर्मी और आम आदमी के नाट्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने नाटक की परम्परा में सर्वथा नये एवं अत्यधिक सफल प्रयोग किये। छत्तीसगढ़ की नाचा शैली उनकी मौलिक एवं विशिष्ट देन है। हबीब तनवीर की प्रतिभा केवल नाटकों तक सीमित नहीं थी। वे थियेटर की दुनिया का बेशकीमती नगीना थे। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय फिल्मों के लिये अभिनय एवं लेखन, शायरी, पत्रकारिता और संगीत के क्षेत्र में अपनी अनूठी सृजनात्मकता के माध्यम से दिया। 1945 में रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स, लन्दन से थियेटर का प्रशिक्षण प्राप्त कर आकाशवाणी मुम्बई की नौकरी करते हुए हबीब तनवीर ने 1953 तक इप्टा के साथ रंगान्दोलन में शिरक़त की और 1959 में दिल्ली में नया थियेटर की स्थापना की। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), शिखर सम्मान (1975), अन्तर्राष्ट्रीय फ्रिज फस्र्ट एवार्ड (1982), पद्मश्री (1982) आदि सम्मानों-पुरस्कारों से नवाज़े गये हबीब तनवीर के बारे में ब॰ व॰ कारन्त ने कहा था कि हबीब तनवीर ने भारतीय संस्कृति को समकालीनता से जोड़ते हुए लोक नाटकों को 20वीं सदी में नयी शक्ति और ऊर्जा प्रदान की। वे रंगधुनी हैं। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा में मनोनीत सदस्य भी रहे थे। एक त्रासद सच्चाई यह भी है कि दुनिया की कला प्रेमी जनता के बीच अत्यन्त सम्मानित हबीब तनवीर को हिन्दुस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत, लोकतन्त्र तथा धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के कारण आजीवन भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं-नेताओं के हाथों बार-बार अपमानित-प्रताड़ित होना पड़ा। उन पर और उनके नाटकों पर कई बार हमले किये गये पर हबीब तनवीर कभी अपने इरादों से टस से मस नहीं हुए और न ही कभी एक आम हिन्दुस्तानी के पक्ष को उन्होंने अपनी आँखों से ओझल होने दिया। देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों, सुदूर गाँवों-कस्बों या विदेशों में भी उनके लगभग सभी नाट्य प्रदर्शनों में दर्शकों की जैसी भीड़ जुटती रही, वह उनके समकालीन या उत्तरवर्ती उन नाट्यकर्मियों-निर्देशकों के लिये या तो एक कौतूहल या फिर एक अबूझ पहेली ही बनी रही जो सोते-जागते रंगमंच में दर्शकों के संकट पर दार्शनिक भंगिमा बनाये रखते हैं पर मौका मिलने पर अक्सर निरर्थक और बहुसंख्यक जनता के दुख-दर्द या उसके उल्लास से परे होकर नाट्यकर्म करते रहते हैं। दरअसल हबीब तनवीर की लोकप्रियता का आधार हिन्दुस्तानी लोक, भाषा एवं शैली का आधुनिक मूल्य बोध के साथ प्रस्तुतीकरण रहा है। मुझे याद है पटना में प्रेरणा द्वारा आयोजित सफदर हाशमी नाट्य महोत्सव में 3 जनवरी 2002 को रखी गयी ‘आधुनिक रंगमंच और लोक संस्कृति‘ विषयक संगोष्ठी में हबीब तनवीर ने कहा था -"यदि हमारे सारे आचार संस्कृति में शामिल नहीं हैं तो वह संस्कृति नहीं है। सत्ता कल्चर को बर्बाद करने में ही आराम का अनुभव करती है - बाज़ार भी। जनता की रचनात्मकता लोक शैली है - लोक परम्परा है। ज़बान भी एक बदलती हुई चीज़ है। वह जो कल थी आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगी। कला भी कोई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, जो बदलती नहीं। संस्कृति भी धीरे-धीरे बदलती है। अगर हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं होगी तो हम हवा में उड़ जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि हमारी परम्परा के अन्दर जो जैसा है, वैसा ठीक है, अथवा परम्परा का पुजारी होना चाहिये - यह बुतपरस्ती है -कबीर की पूजा करने वाले कबीरपन्थी हैं, उन्हें उस आग से मतलब नहीं है जिसकी हमें ज़रूरत है - क्योंकि उस आग से हम दुनिया को बदल सकते हैं, तो लोक की दृष्टि यह होनी चाहिये। संस्कृति को ठीक से समझ लेने से विकास की भी सही समझ आ जायेगी और राजनीति की भी। लोक शैली के भीतर जो सीमाएँ हैं, वह तो हैं ही, पर यदि कोई चीज़ परम्परा के साथ चल कर उसकी सीमाओं को तोड़ती भी है तो वही आधुनिकता है। आधुनिकता खुद पैदा नहीं होती, वह परम्परा से आती है।" परम्परा की इसी आग को आजीवन हबीब तनवीर सुलगाते रहे और उन्होंने आम आदमी को हिन्दुस्तानी रंगमंच के केन्द्र में स्थापित किया। उनके निधन के बाद इस रंगमंच का पटाक्षेप हो गया है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि इस रंगमंच का भविष्य अब क्या होगा।