Tuesday, July 13, 2010

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !

(साथी अजय प्रकाश ने अपने ब्लॉग जनज्वार पर साहित्य और संस्कृति की समकालीन अवसरवादिता, वैचारिक दोगलापन और ठकुरसुहाती को लक्ष्य कर एक अत्यंत ज़रूरी बहस छेड़ी है . उनका यह प्रयास स्तुत्य है और उनके समर्थन में जुटते हुए मैं इस पूरी बहस को यहाँ रख रहा हूँ. साथ ही इस प्रकरण पर लोगों ने जो  प्रतिक्रियाएं दी हैं उन्हें भी प्रस्तुत किया जा रहा है -राजेश चन्द्र .)
हत्यारों की गवाहियां अभी बाकी हैं राजेंद्र बाबू?
अजय प्रकाश

देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।


इसे सनसनी माने या सच, मगर कार्यक्रम तय है कि इस बार साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधति राय और सलवा जुडूम अभियान के मुखिया छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन आमने-सामने होंगे। यह जानकारी सबसे पहले हिंदी समाज के जनपक्षधर लोगों में पढ़ी जाने वाली मासिक पत्रिका ‘समयांतर’ के माध्यम से जनज्वार तक पहुंची, जिसकी पुष्टि अब ‘हंस‘ भी कर चुका है। ‘हंस’ से मिली जानकारी के मुताबिक इन दो मुख्य वक्ताओं के अलावा अन्य वक्ता भी होंगे।

तमाशे की फ़िराक में राजेंद्र बाबू
हर वर्ष 31जुलाई को होने वाले इस कार्यक्रम का महत्व इस बार इसलिए भी अधिक है कि ‘हंस’ अपने प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की कोशिश होगी कि धमाकेदार ढंग से पत्रिका की सिल्वर-जुबली का मजा लिया जाये। मजा लेने के शगल में पक्के अपने राजेंद्र बाबू ने माओवाद के मसले पर बहस का विषय रखा है, ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।’

‘हंस’ ऐसे किसी ज्वलंत मसले को लेकर ऐसा संस्कृतनिष्ठ और घुमावदार शीर्षक रखेगा, हतप्रभ करने वाला है। खासकर तब जबकि पत्रिका के तौर पर ‘हंस’ और संपादक के बतौर राजेंद्र यादव खुल्लमखुल्ला, खुलेआमी के हमेशा अंधपक्षधर रहे हों। वैसे में देश के मध्य हिस्से में चल रहे माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का शीर्षक रखने में राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये हैं,जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

हिंदी में प्रतिष्ठित कही जाने वाली इस पत्रिका के संपादक का यह शीर्षक चिंता का विषय है और अनुभव का भी। अनुभव का इसलिए कि एक कार्यक्रम के दौरान एक दूसरे राजनीतिक मसले पर श्रोता उनके इस रूप से रू-ब-रू हुए थे। संसद हमले मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद फांसी की सजा पाये अफजल गुरु को लेकर ‘जनहस्तक्षेप’दिल्ली के  गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम किया था जिसमें अन्य वक्ताओं के साथ राजेंद्र यादव भी आमंत्रित थे।

बोलने की बारी आने पर संचालक ने जब इनका नाम उदघोषित  किया तो अपने राजेंद्र बाबू ने मामले को कानूनी बताते हुए वकील कमलेश जैन को बोलने के लिए कहा। कमलेश जैन ने अफजल गुरु को लेकर वही बातें कहीं जो कि सरकार का पक्ष है। कमलेश सरकारी पक्ष को इस तरह पेश करने लगीं कि मजबूरन श्रोताओं ने हूटिंग की और आयोजकों को शर्मशार होना पड़ा। जबकि हम सब जानते हैं कि अफजल का केस लड़ रहे वकील,सामाजिक कार्यकर्ता और जन पक्षधर बुद्धिजीवी इस मामले में फेयर ट्रायल की मांग करते रहे हैं। कारण कि सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी की सजा ‘कंसेंट आफ नेशन’ के आधार पर मुकर्रर की थी।

अफजल से ही जुड़ा एक दूसरा मसला ‘हंस’ में लेख प्रकाशित करने को लेकर हुआ। जाने माने पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार एवं ‘हंस’ के सहयोगी गौतम नौलखा ने कहा कि, ‘अफजल मामले की सच्चाई हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि ‘हंस’ में इस मसले पर लेख छपे।’ गौतम के इस सुझाव पर राजेंद्र यादव ने लेख आमंत्रित किया। लेख उन तक पहुंचा। उन्होंने तत्काल पढ़ा और लेख के बहुत अच्छा होने का वास्ता देकर अगले अंक में छापने की बात कही। मगर बात आयी-गयी और वह लेख नहीं छपा।

अब सवाल यह है कि पिछले छह वर्षों से सलवा जुडूम अभियान के तमाशबीन बने रहे राजेंद्र यादव कहीं इस तमाशायी उपक्रम के जरिये अपने होने का प्रमाण देने की तो कोशिश में नहीं लगे हैं। तमाशायी कार्यक्रम इसलिए कि लेखिका अरुंधति राय सलवा जुडूम अभियान, माओवादियों और सरकार के रवैये पर क्या सोचती हैं, उनके लेखन के जरिये हम सभी जान चुके हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रिय डीजीपी विश्वरंजन ‘सलवा जुडूम’को एक जन अभियान मानते हैं,यह छुपी हुई बात नहीं है। याद होगा कि पिछले वर्ष दर्जनों जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने रायपुर में विश्वरंजन के इंतजाम से हो रहे ‘प्रमोद वर्मा स्मृति’कार्यक्रम में इसी आधार पर जाने से मना कर दिया था। इस बाबत विरोध में पहला पत्र विश्वरंजन के नाम कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा था। विरोध का मजमून हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘द पब्लिक एजेंडा’में छपे विश्वरंजन के एक साक्षात्कार के आधार पर कवि ने लिखा था जिसमें डीजीपी ने सलवा जुडूम को जनता का अभियान बताया था।

ऐसे में फिर बाकी क्या है जिसके लिए राजेंद्र बाबू अरुंधति-विश्वरंजन मिलाप कराने को लेकर इतने उत्साहित हैं। क्या हजारों आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने, माओवादियों के सफाये के बहाने आदिवासियों को विस्थापित किये जाने की साजिशों से राजेंद्र बाबू वाकिफ नहीं हैं। राजेंद्र बाबू क्या आप माओवाद प्रभावित इलाकों में सैकड़ों हत्याएं,बलात्कार आदि मामलों से अनभिज्ञ हैं जो आपने विश्वरंजन को आत्मस्विकारोक्ति के लिए दिल्ली आने का बुलावा भेज दिया है। रही बात उन भले मानुषों की सोच का जो यह मानते हैं कि इस बहाने माओवाद के मसले पर बहस होगी और राष्ट्रीय मसला बनेगा फिर तो राजेंद्र बाबू आप ऐसे सेमीनारों की झड़ी लगा सकते हैं।

जैसे अभी विश्वरंजन को बुलाने की बजाय भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बुलाइये जिससे राष्ट्र के सामने वह अपना पक्ष रख सके कि उसने त्रासदी बुलायी थी या आयी थी। इसी तरह सिख दंगों के मुख्य आरोपियों और गुजरात मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को भी दंगे,हत्याओं और बलात्कारों की मजबूरियां गिनाने के लिए एक चांस आप ‘ऐवाने गालिब सभागार’में जरूर दीजिए। समय बचे तो निठारी हत्याकांड के सरगना पंधेर और कोली को बुलावा भिजवा दीजिए जिससे कि उसके साथ अन्याय न हो,कोई गलत राय न बनाये। राजेंद्र बाबू आप ऐसा नहीं करेंगे और मुझे अहमक कहेंगे क्योंकि इन सभी पर राज्य ने अपराधी होने या संदेह का ठप्पा लगा दिया है। तब हम पूछते हैं राजेंद्र बाबू आपसे कि जिसको जनता ने अपराधी मुकर्रर किया है,उसकी गवाहियों में मुंसिफ बनने की अनैतिकता आप कैसे कर सकते हैं?

राजेंद्र बाबू अगर आप कुछ बहस की मंशा रखते ही हैं तो गृहमंत्री पी.चिदंबरम को बुलवाने का जुगाड़ लगाइये। मगर शर्त यह रहेगी कि 5 मई को जेएनयू में जिस तरह की डेमोक्रेसी वहां के छात्रों को झेलनी पड़ी, जिसे वहां के छात्रों ने चिदंबरी डेमोक्रेसी कहा, इस बार उनके आगमन पर माहौल वैसा न हो। गर यह संभव नहीं है तो विश्वरंजन से क्या बहस करेंगे, वह कोई कानून बनाते हैं?

राजेंद्र बाबू आप बड़े साहित्यकार हैं। सुना है आपने दलितों-स्त्रियों को साहित्य में जगह दी है। इस भले काम के लिए मैं तहेदिल से आपको बधाई देता हूं। साथ ही सुझाव देता हूं कि साहित्य में पूरा जीवन लगा देने के बावजूद गर आप दण्डकारण्य को एक आदिवासी साहित्यकार नहीं दे सके तो,आदिवासियों के हत्यारों की जमात से आये प्रतिनिधियों को साहित्यकार बनाने का तो पाप मत ही कीजिए।

राजेंद्र बाबू आप भी जानते हैं कि साहित्यकारों की संवेदनशीलता और संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। आज बाजार का रोगन चढ़ा है, मगर ऐसा भी नहीं है सब अपना पिछवाड़ा उघाड़े खडे़ हैं और फिर हमारे युवा मन का तो ख्याल कीजिए। हो सकता है उम्र के इस पड़ाव पर आप डीजीपी कवि की कविताओं को सुनने में ही सक्षम हों,मगर हमारी निगाहें तो उन खून से सने लथपथ हाथों को देखते ही ताड़ जायेंगी। एक बात कहें राजेंद्र बाबू, एक दिन आप अपने नाती-पोतों को वह हाथ दिखाइये, अच्छा ठीक है किस्सों में अहसास ही कराइये। यकीन मानिये आप बुद्धना, मंगरू, शुकू, सोमू, बुद्धिया को अपने घरों में पायेंगे जो पिछले छह वर्षों से दण्डकारण्य क्षेत्र में तबाह-बर्बाद हो रहे हैं। इन जैसे हजारों लोग जो आज मध्य भारत में युद्ध की चपेट में हैं, आपको एक झटके में पड़ोसी लगने लगेंगे और आप साहित्य के वितण्डावादी आयोजन की जगह एक सार्थक पहल को लेकर आगे बढ़ेंगे।

महोदय कवि हैं?
उम्मीद है कि अर्जी पर आप गौर करेंगे। गौर नहीं करने की स्थिति में हमें मजबूरन अरुंधति राय से अपील करनी पड़ेगी। फिर वही बात होगी कि देखो हिंदी से बड़ी अंग्रेजी है और न चाहते हुए भी सारा क्रेडिट अरुंधति के हिस्से जायेगा। हिंदीवालों की पोल खुलेगी सो अलग। इसलिए राजेंद्र बाबू घर की इज्जत घर में ही रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हमारी भाषा में जनपक्षधरता को गहराई मिले। कम-से-कम अपने किये पर समाज के सबसे कमजोर तबके (आदिवासियों)के सामने तो शर्मसार न होना पड़े। खासकर तब जबकि उस तबके ने हमारे समाज और सरकार से सिवाय अपनी आजादी के किसी और चीज की उम्मीद ही न की हो।

मिट्टी में मिलाने में क्यों तुले हैं आप?


दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकार  विश्वदीपक का प्रकाशित कर  रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी.


आदरणीय राजेंद्र जी,

पहले ‘जनज्वार’ से जानकारी मिली और फिर ‘समयांतर’ से इसकी पुष्टि हुई कि आप इस बार ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी में छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को बोलने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। ‘हंस’ अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना रहा है-ये हम सब के लिए खुशी की बात है, लेकिन अपनी पच्चीसवीं सालगिरह पर आप ‘हंस’ को ये तोहफा देंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। अब जबकि ‘हंस’ अपनी भरी जवानी को महसूस कर सकता है इस तरह इसे ‘को-आप्ट’ होने की प्रक्रिया में ले जाने का क्या मतलब?


ऐसा करम करो ना भाई, परछाई ही करण लगे हंसाई.
‘प्रगतिशील चेतना के वाहक’ के तौर पर ‘हंस’ निश्चित रूप से आपका व्यक्तिगत प्रयास है, पर ये इस देश की संघर्षशील जनता की आकाक्षांओं का प्रतिबिंब भी है। इस पत्रिका के जरिए आप उन लाखों के संघर्ष से तादात्मय बिठाने में सफल रहे हैं जिन्हे हर समय की सत्ता ने हाशिए पर धकेल रखा है। यही वो बिंदु है जहां आपकी चेतना एक पहचान पाती हैं, लेकिन इस बार आपने ‘हंस’ की गोष्ठी में विश्वरंजन को आमंत्रित कर खुद को उन्ही लोगों की जमात में शामिल कर दिया है जो ये मानते हैं कि बीच का भी कोई रास्ता होता है, कि माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का मुख्य मुद्दा ‘विकास’ है! सरकार पिछले साठ सालों से उपेक्षित हिस्से का विकास करना चाहती है और माओवादी विकास के खिलाफ हैं!

कमजोरों के खून से सने इन तर्कों के पीछे की मंशा आप नहीं समझते ऐसा नहीं है! फिर राज्य प्रायोजित हिंसा के सबसे बड़े कमांडर को मंच देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं? क्या आपको लगता है कि सरकार के पास अभी भी अपनी सफाई में कुछ कहने को बाकी है? भारतीय राज्य की नेक नीयत पर अगर आपको इतना ही भरोसा है तो फिर आप जो चाहें कर सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या विश्वरंजन जैसे लोगों को मंच देने के बाद आपकी साख यथावत रहेगी? जिस छवि को आपने व्यक्तिगत रिश्तों की कुर्बानी और साहित्य की स्थापित वैचारिक सत्ताओं के खिलाफ संघर्ष करके अर्जित किया है उसको मिट्टी में  मिलाने में क्यों तुले हैं आप?

संभवत: आप मानते हैं कि विश्वरंजन जैसे हत्यारों को मंच देकर आप राज्य प्रायोजित हिंसा के विरोधाभास को उजागर कर पाएंगे- तो ऐसा नहीं है। आप जानते हैं विश्वरंजन बीजेपी की फासीवादी सरकार के चहेते हैं, इसलिए नहीं कि वो बहुत काबिल अधिकारी हैं बल्कि इसलिए कि बीजेपी की नस्लवादी और बुनियादी तौर पर हिंसक सोच को अमल में लाने और वैधता प्रदान करवाने के लिए विश्वरंजन अधिकारी की सीमा से बाहर जाकर व्यक्तिगत प्रयास भी करते हैं। इसी तरह वो कांग्रेस के भी विश्वसनीय हैं। वजह यहां भी साफ हैं। मध्यवर्ग की राजनीति करते-करते कांग्रेस जिस हिंस्र-कॉर्पोरेट-डेमोक्रेसी को एक मॉडल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में है विश्वरंजन उसके लिए मैंदान साफ कर रहे हैं।

 ये अनायास नही है कि अरुंधति भारतीय राज्य को ‘बनाना रिपब्लिक’ की संज्ञा देती है। क्या आप भारतीय लोकतंत्र के क्लप्टोक्रेसी में तब्दील होने को नहीं समझ पा रहे हैं? या जानबूझकर इससे अनजान बने हुए हैं? भारतीय लोकतंत्र की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जिस संख्या बल के आधार पर ये दुनिया के सबसे बड़े और विविध लोकतंत्र होने का दंभ भरता है वही अब इसके निशाने पर है। भारतीय राज्य अब अपने ही आदमियों की हत्या पर आमादा है। और आप हत्यारों के सरदार को मंच देने के लिए बेताब हैं!


यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेन्द्र ठाकुर,  नामवर सिंह,  किताब  विक्रेता अशोक  महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन और आलोक धन्वा : चचा आलोक आप  गाय घाट पर  माला जपते,  तो भी अपने बुजुर्गों  हम शर्मिंदा न होते.

आप जानते हैं कि अमेरिकी कारपोरेट-साम्राज्यवाद के छोटे उस्ताद के तौर पर भारत ने कल्याणकारी राज्य होने की चाहत खो दी है। अब भारतीय राज्य की चिंता ये नहीं है कि हमारे जनगण का जीवन कैसा है, बल्कि उसकी चिंता अब ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लिए कैसे माहौल उपल्ब्ध कराया जाय, कैसे मिशन-चंद्रयान को पूरा किया जाय और कैसे अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाजार को हरम में तब्दील कर दिया जाय!

लेकिन इससे भी शातिराना मंशा ये है कि इस पूरी साजिश को विकास के लुभावने नारे की शक्ल में पेश किया जा रहा है। विश्वरंजन जैसे लोग आज २०१० में वही भूमिका अदा कर रहे हैं जिसकी कल्पना औपनिवेशिक काल में मैकाले ने की थी। अमेरिकी सैन्य साम्राज्यवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार करवाने वाले वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर हम विश्वरंजन को चिन्हित करते हैं। और आप इसे उस बौद्धिक सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में हैं जो कवि है और इसीलिए प्रगतिशील भी है? सही भी है? आपकी भावभंगिमा से लगता है कि आप उस हिंसक और कठोर सामंत के साथ है जिसे कल्याण की मंशा के तहत जनता पर चाबुक चलाने का दैवी अधिकार प्राप्त होता है!

आप ये कह सकते हैं कि ‘लोकतंत्र’ की परंपरा में विरोधी को भी बोलने की आजादी है और विचारों का संघर्ष दरअसल एक स्वस्थ्य परंपरा है। ये तर्क ‘सुअरबाड़े’ (चिदंबरम ने दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद के मसले पर संसद में बयान देते वक्त इस शब्द को कोट किया था) में तब्दील हो चुकी संसद के बारे में भी कहा जाता है, लेकिन आजादी के वर्तमान ढांचे के अंदर सत्ता और विपक्ष जो खेल खेलता है उससे आप अच्छी तरह वाकिफ है।

सर, वक्त कम है और शिकायतें ज्यादा। नुकीली चुभती हड्डियों और आंसुओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं...इसी से हमारा प्रतिरोध खड़ा हो रहा है। मनमोहन और सोनिया के राज में जिस दलाल-हत्यारे वर्ग का उदय हुआ है उसे आप जस्टीफाई कैसे कर सकते हैं? सलवा जुडूम के दौर में हुई हत्याओं, बलात्कारों और मासूमों के कत्ल के बारे में विश्वरंजन की भूमिका को लेकर अगर अभी भी आपके मन में संदेह की गुंजाइश है तो फिर आपसे संवाद की कोई जमीन नहीं बचती है। (In Maoist Country, by Gautan Navlaka and John Myrdal, Economic and political weekly april 17-31, 2010 में गौतम नौलखा ने लिखा है कि सलवा जुडूम के दौर में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव बंदूक की नोंक पर खाली कराए गए, 3 लाख 50 हजार यानि दंतेवाड़ा जिले की आधी जनसंख्या अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हुई है, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बहू बेटियों को मार दिया गया.

आप उन कुछ दुर्गों में  हैं जो अभी तक ढहे नहीं है. फिर भी आप ढहने को  तैयार हैं तो हमारे पास इस विध्वंस को  मंजूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं।


आपका
विश्वदीपक  
अग्रसारित- उन सुधीजनों को जिन्हें मुल्क के बेहतरी की चिंता है. 

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम

प्रिय अजय,

यह मेरी प्रतिक्रिया है ......... नीलाभ

प्रिय अजय प्रकाश और विश्वदीपक,

दोस्तो या तो तुम लोग बहुत भोले हो या फिर सब कुछ जानते-बूझते हुए मामले को व्यर्थ ही उलझा रहे हो.हंस ने अगर इस बार की सालाना गोष्ठी में विश्वरंजन और अरुन्धती राय दोनों को एक ही मंच पर लाने की योजना बनायी है तो इसके निहितार्थ साफ़ हैं. पहली बात तो यह है कि इस बार की गोष्ठी को "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसा शीर्षक दे कर राजेन्द्र जी यह भ्रम देना चाहते हैं कि वे एक गम्भीर बहस का सरंजाम कर रहे हैं. वे यह भ्रम भी पैदा करना चाहते हैं कि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें सबको अपनी बात कहने का  अधिकार है.

दर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी करते रहो और बहस भी चलाते रहो.अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है,लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो,जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है,गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे !अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं.

उधर,हंस के मंच पर और वह भी अरुन्धती राय के साथ आने पर विश्व रंजन को जो विश्वसनीयता हासिल होगी वह नामवर सिंह,आलोक धन्वा,अरुण कमल और खगेन्द्र ठाकुर जैसे महारथियों से अपनी किताब का विमोचन कराने से कहीं ज़्यादा बैठेगी.साथ ही एक जन विरोधी पुलिस अफ़सर की काली छवि को कुछ ऊजर करने का कम भी करेगी. आख़िर हंस "प्रगतिशील चेतना का वाहक" जो ठहरा.

असली मुश्किल अरुन्धती की है.अगर वह शामिल होती है तो राजेन्द्र जी की चाल कामयाब हो जाती है और विश्व रंजन के भी पौ बारह हो जाते हैं. नहीं शामिल होती तो राजेन्द्र जी, विश्व रंजन और उनके होते-सोते हल्ला करेंगे कि देखिये, कितने खेद की बात है, इन लोगों में तो जवाब देने की भी हिम्मत नहीं, भाग गये, भाग गये, हो, हो, हो, हो !

इसलिए प्यारे भाइयो,इस सारे खेल को समझो.यह पूरा आयोजन कुल मिला कर सत्ताधारी वर्ग के हाथ मज़बूत करने की ही कोशिश है.

यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेन्द्र ठाकुर, नामवर सिंह, किताब विक्रेता अशोक महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन और आलोक धन्वा : चचा आलोक आप गाय घाट पर माला जपते, तो भी अपने बुजुर्गों पर हम शर्मिंदा न होते.



अब रहा सवाल हिन्दी साहित्य का --तो दोस्तो विश्व रंजन के कविता संग्रह के विमोचन में जो चेहरे दिख रहे हैं, उनसे हिन्दी साहित्य के गटर की,उसकी ग़लाज़त की,सड़ांध की सारी असलियत खुल कर सामने आ जाती है.वैसे इसकी शुरुआत मौजूदा दौर में करने का सेहरा भी आदरणीय राजेन्द्र जी के सिर बंधा था जब उन्होंने बथानी टोला हत्याकाण्ड के बाद बिहार के सारे लेखकों की बिनती ठुकरा कर लालू प्रसाद यादव से एक लाख का पुरस्कार ले लिया था.उनका पक्ष बिलकुल साफ़ है.यही वजह है कि वे किसी ऐसे स्थान पर नहीं नज़र आते जहां सत्ता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा बनने की आशंका हो.वे किसी पत्रकार के बेटे की शादी की दावत में आई आई सी में " खाने-पीने" का न्योता नहीं ठुकराएंगे,लेकिन फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में जिसे कहते हैं "इन कोल्ड ब्लड"मार दिये गये युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की अन्त्येष्टि में शामिल होने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेंगे.कहां जाना है कहां नहीं जाना इसे ये सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें आप हिन्दी के पुरोधा और सामाजिक परिवर्तन के सूत्रधार बनाये हुए, कातर भाव से उनके कर्तव्यों की याद दिला रहे हैं.

इनमें से कौन नहीं जानता कि बड़े पूंजीपति घरानों के इशारे पर हमारी मौजूदा सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़,उड़ीसा,आन्ध्र और महाराष्ट्र में कैसा ख़ूनी और बेशर्म खेल खेल रही है.लेकिन ये अपने अपने सुरक्षा के घेरे में सुकून से "साहित्य चर्या"में लीन हैं,इसी ख़ूनी सरकार के लोहे के पंजे के कविता संग्रह के क़सीदे पढ़ रहे हैं.क्या इन्हें माफ़ किया जा सकता है ?मत भूलिए कि जो समाज की बड़ी बड़ी बातें करते हैं उनका उतना ही पतन होता है.यह हमारे ही वक़्त की बदनसीबी है कि "गोली दागो पोस्टर" का रचनाकार उसी दारोग़ा के साथ है जिसके उत्पीड़न पर उसने सवाल उठाया था.ये वही अरुण कमल हैं जिन्हों ने लिखा था :"जिनके मुंह मॆं कौर मांस का उनको मगही पान". बाक़ियों की तो बात ही छोड़िए.

तो भी,मैं तुम दोनों को इस बात पर ज़रूर बधाई देना चाहता हूं कि इस चौतरफ़ा ख़ामोशी और गिरावट के माहौल में तुम दोनों ने इस ज़रूरी मुद्दे को उठाया है हालांकि चोट हलकी है साथियो,बहरों को सुनाने के लिए ज़ोरदार धमाका चाहिये.

अन्त में अपने एक प्रिय कवि का कवितांश जिसे हम अब धीरे-धीरे भूल रहे हैं :


ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!



उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,



दु:खों के दाग़ों को तमग़े सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्य किया,
जीवन क्या जिया!!

................

भावना के कर्तव्य त्याग दिये,
हॄदय के मन्तव्य मर डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ ही उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए फंस गये,
अपने ही कीचड़ में धंस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में,
आदर्श खा गये.
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !

comments:


Anonymous said...
शायद ऐसे ही (राजेन्द्र यादव सरीखे) लोगों के लिए किसी ने ठीक ही लिखा है - ऐसी लचीली रीढ़ की हड्डी जो हवा के रुख पर अपनी पीठ बदल ले । शहर में रहने वाले ये बुद्धिवादी दो टांगोँ वाले ऐसे कीड़े - मकोड़े हैं , जो मौसम देखकर ही सैर को निकलते हैं ।
Rangnath Singh said...
बेहतर हो कि आप राजेन्द्र यादव और अरूंधती राय का स्टैण्ड लेकर प्रकाशित करें।
shirish said...
सबसे पहले जब आलोक मेहता के बिकने की खबर आई थी तो हैरत के साथ-साथ यह संदेह भी जताया गया था कि सत्ता द्वारा पूरे खेल में कई और मोहरों को भी आगे किया जा सकता है. मगर यहाँ तो उसके द्वारा बड़े-बड़े महारथियों को मोहरों की तरह खड़ा किया जा रहा है. अच्छे अच्छों के चाल चरित्र में आ रहा अचानक बदलाव किसी गहरी साजिश की तरफ़ संकेत कर रहा है. कहीं सत्ता द्वारा राजनेताओं कि तरह अब बुध्दिजीविओं की भी बड़े पैमाने पर ख़रीद फरोख्त तो नहीं की जा रही है ?
अशोक कुमार पाण्डेय said...
नीलाभ सही कह रहे हैं…आप देखिये न यहां भी स्टैण्ड कौन ले रहा है?
सचिन .......... said...
बढिया। जुबानी जमाखर्च अच्छा है। लेकिन विश्वदीपक, अजय और नीलाभ जी, आप सभी बहुत बेहतर ढंग से जानते हैं कि ऐसे छुटपुट लेखों को राजेन्द्र जी अपने काले चश्मे के कारण ठीक से पढ नहीं पाते। जिस तेज आवाज की आप बात कर रहे हैं वह राजेन्द्र जी को कार्यक्रम स्थल पर ही सुनाई दे पायेगी। सुना है कानों के कच्चे भी हैं। सत्ता ऐसे आयोजन करती रहेगी तो जन को भी उनके विरोध में उठ खडा होना होगा। अपील कीजिए समानधर्मा, समानचेता पत्रकार, लेखकों से कि कार्यक्रम वाले दिन धरना दें और राजेन्द्र जी को इस (कु)कृत्य के लिए माफी मांगने पर विवश करें। यह उनका निजी आयोजन नहीं है, हंस की प्रतिबद्धता भी साबित होनी चाहिए। अगर राजेन्द्र जी अपनी गलती नहीं मानते हैं तो वहीं प्रस्ताव धर लिया जाए। नीलाभ जी, आपके प्रिय कवि को ही याद करते हुए "सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का, वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह, शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा ! .......... .......... इतने में हमीं में से अजीब कराह सा कोई निकल भागा भरे दरबारे-आम में मैं भी सँभल जागा कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार बख्तरबंद समझौते सहमकर, रह गए, दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए, दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे, दढ़ियल सिपहसालार संजीदा सहमकर रह गये !ओ"
Hirawal Morcha said...
sachin ne theek kaha, lekin baat dharne vaghairah se aur aage ki hai. jo kutil jal ve rach rahe use klatne ki aur bhi tarkeeben sochni hongi -- yaad keejiye उधर उस ओर...वह बेनाम.. मुहैय्या कर रह लश्कर. हमारी हार का बद्ला चुकाने आयेगा

comments:

अशोक कुमार पाण्डेय said...
यह हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों का असली चरित्र है मेरे भाई…
अवतन्स said...
बहुत खूब अजय...राजेन्द्र बाबू को शायद खुद की असलियत पता चल हो गई...उनके आगे पीछे पिछवाड़ा खोलने वालों से उम्मीद तो बेईमानी है....
Rangnath Singh said...
यानी इस बार भी हंस का सालाना जलसा हंगामाखेज होगा। राजेन्द्र जी को शायद यही चाहिए था। जबकि इसके बिना भी उनका कार्यक्रम सफल ही रहता।
Anonymous said...
ख़ूब परदाफ़ाश किया है भाई आपने अपने इस लेख में | --अनिल जनविजय
Anonymous said...
ख़ूब परदाफ़ाश किया है भाई आपने अपने इस लेख में | --अनिल जनविजय
चन्दन said...
यह सुविचारित लेख है. यह सही है कि सफाई देने के लिये सबके पास अपने तर्क होते हैं. पर हमें उसके काम से उसका पक्ष तय करना होगा. यह हिन्दी का सामान्य नियम बनता जा रहा है कि काम करने के बाद/अपने विचार रखने के बाद दुबारा अपना पक्ष रखने का मौका माँगा जा रहा है. अपने शब्दो या कार्यों पर लोगो को भरोसा नहीं रहा है यह गलत है. और आश्चर्य की हम सबका पक्ष सुनने को तैयार बैठे रहते हैं.. दुबारा ..तिबारा..
Uday Prakash said...
Wonderfully truthful and straight. Ethics and morality should be restored back in the left and civilian resistance.
pratibha said...
Bahut badhiya Ajay ji. sahi nas pakdi aapne...
दिलीप मंडल said...
विश्वरंजन को हंस का मंच दिया गया तो मैं इस कार्यक्रम का बहिष्कार करूंगा। इससे कितना फर्क पड़ेगा,मुझे नहीं मालूम। लेकिन यह गलत है, इस बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है। विश्वरंजन एक पुलिस अधिकारी के तौर पर कुछ भी कहें, मुझे शिकायत नहीं हैं। इस काम के उन्हें पैसे मिलते हैं। उन्हें पूरी ईमानदारी के ग्रीन हंट का समर्थन करना चाहिए। मैं टीवी पर उनके तर्क सुन लूंगा कि आदिवासियों को मारना क्यों जरूरी है। लेकिन उनकी यही बात मैं हंस के मंच पर सुनने के लिए तैयार नहीं हूं।

comments:


shirish khare said...
राजेंद्र यादव जी अपनी सहूलियत हिस़ाब से तर्क भी निकाल लिया करते हैं. अब देखना है कि इस सवाल पर वह क्या कहते हैं.
अशोक कुमार पाण्डेय said...
उफ़ आलोक धन्वा भी!! वह पोस्टर अब सरकारी सामान बन गया…
Anonymous said...
अबकि बार हम सबसे ख़तरनाक हालातों के बीच खड़े हैं. इमरजेंसी के समय विरोधी पक्ष मजबूत था. मगर आदिवासियों के ख़िलाफ शुरू किए गए इस युद्ध में जिनसे विरोध के लिए आगे आने की उम्मीद थी, वह सत्ता पक्ष की तेल मालिश कर रहे हैं. एक ही सवाल है- सत्ता की चुनौती से इस बार कैसे निपटा जाएगा. क्योंकि इस बार हार जाने का मतलब होगा हमेशा के लिए हार जाना और पूरी तरह से हार जाना.
 
 
 
 

2 comments:

Anonymous said...

Arundhati kyon iske liye raji ho gayin ? kya ve bhi Rajendra Yadav ki yojna ka hissa hain ?

Anonymous said...

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