पहेली जैसा प्रश्न ये है कि सीपीएम ने नंदीग्राम मामले में जो हुआ वो क्यों होने किया? शायद वे उस चीनी नेतृत्व के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे रहे थे, जिसने खुलेआम थिआनानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन का दमन किया था और उसके बाद इतना कड़ा रुख अपनाया गया कि बीजिंग के महाशक्ति के रूप में तेज़ी से उभरने की वजह से अब इस बारे में कोई बात भी नहीं करना चाहता.
हालांकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी विशेष आर्थिक क्षेत्रों की जरूरत के सवाल पर एक मत नहीं हैं. पार्टी के ज्यादातर सदस्य इण्डोनेशियाई भागीदारी को लेकर सशंकित हैं. पार्टी का एक दूसरा बड़ा खेमा किसानों की जमीनें अधिग्रहित करने के मुद्दे पर खुश नहीं है. फिर ऐसा क्या है कि पार्टी नेता भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन को दबाने की कोशिशें कर रहे थे? इसका जवाब साफ है. दरअसल नंदीग्राम में पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार की कई कड़वी सच्चाईयां दफन हैं.
भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं.
इससे अलग दूसरा कारण ये कि पार्टी के बहुत से कैडरों की निगाहें उस सूत्र पर भी गड़ी हुई हैं, जिसके तहत वे करोड़ों की सेज परियोजना में अपने लाभ का गणित हल कर सकते हैं.
पूरा मिदनापुर जिला और खासतौर से नंदीग्राम क्षेत्र मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है. वहां भूमि सुधारों की प्रक्रिया के दौरान बड़ा उत्साह देखा गया क्योंकि ज़मींदारों से अपनी खुन्नस निकालना, उन्हें चिढ़ाना उस समय पार्टी समर्थकों का एक पसंदीदा सिद्धांत बन गया था. दूसरी ओर भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. यानी जमीनों पर कागजी कब्जा एक तरह से सीपीएम के पास है. कागजातों का सीपीएम के पास होना ही वो राज़ है, जिसके कारण सीपीएम अचानक उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत तक वोट झटकने की स्थिति में पहुंच गई. लोग अपनी ज़मीन छिन जाने के डर से सीपीएम का हर हाल में साथ देने के लिए मजबूर थे. जब सेज का प्रस्ताव आया तो इस क्षेत्र को चुना भी इसीलिए गया. सीपीएम नेता इस अतिविश्वास में थे कि यहां के लोग इस मुद्दे पर ज़्यादा विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जमीनों के कागजात तो पार्टी के कब्जे में थे.
लेकिन, जिस बिंदु पर सीपीएम गौर नहीं कर पाई, वो ये कि बिना कागजातों के भी भूमि नंदीग्राम के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी थी. बस पहले से ही पक्षपात के शिकार किसानों ने छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने का निर्णय लिया. उन्होंने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति(बीयूपीसी) के बैनर तले अपने को संगठित किया और राज्य पुलिस, प्रशासन और सीपीएम के अनधिकृत बाहुबलियों से जमकर लोहा लिया. 14 मार्च, 2007 को हुए संघर्ष में 140 से ज्यादा किसान मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए. नतीजा ये निकला कि सीपीएम समर्थकों का उस क्षेत्र के गांवों में रह पाना मुश्किल हो गया. भाग कर सभी ने खेजुरी के शरणार्थी शिविर में शरण ली.
नवम्बर से पहले अधिग्रहण का विरोध कर रहे बिना कागजातों की ज़मीन वाले लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी हो गया. सीपीएम की योजना के मुताबिक अब तक इन किसानों द्वारा जोती जा रही भूमि पर पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा कब्जा किया जाना था. केवल कागजी कब्जे से तो कोई मकसद हासिल होने वाला था नहीं जब जमीन पर असल कब्जा अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का था. और ज्यादा दिन अगर ये सब चलता तो ये बात भी दुनिया के सामने आ जाती कि भूमि सुधारों में दी गयी ज़मीनों के कागजात सीपीएम के ऑफिसों में रखे हुए हैं.
दुख इस बात का है कि कई राज्यों में कांग्रेस भी कुछ ऐसी ही कार्य-प्रणाली अपना रही है. आपात भूमि सुधार के दौरान जिन लोगों ने जमीनें पाईं थीं, उनमें से बहुत-से लोग अब खेती में रुचि नहीं रखते. बहुत सारे जो पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं, आरक्षण के तहत नौकरी पा गए और शहरों में चले गए गए. लिहाजा वे बस नाम के ही भूस्वामी रह गए. स्थानीय दबंग नेता अनपढ़ गरीब किसानों को इन नाममात्र के भूस्वामियों के रूप में दिखा कर पावर ऑफ़ अटॉर्नी अपने किसी आदमी के नाम करवा देते हैं. बाद में इन जमीनों को किसी अनजान अप्रवासी भारतीय को बेच दिया जाता है. ये लोग जमीनों को एक लाभकारी निवेश के रूप में देखते हैं. यानी कि जो काम महाराष्ट्र में कांग्रेस कर रही है वही काम नंदीग्राम में वामपंथी कर रहे हैं.
शरद जोशी
(लेखक राज्य सभा सदस्य और किसानों के मुद्दों से जुड़ी संस्था शेतकरी संगठना के संस्थापक हैं)
तहलका हिन्दी से साभार
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