यह शांति का लाल सूरज नहीं है _ मेधा पाटकर
पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार ने बार-बार सवाल उठाया कि मेधा पाटकर नंदीग्राम क्यों गईं? मेरा कहना है कि जहां भी अन्याय होगा, मानवीय मूल्यों पर हमला होगा, वहां जाने का हमारा हक़ बनता है. नंदीग्राम पश्चिम बंगाल में ज़रुर है पर भारत में भी है. एक भारतीय नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. ऐसा ही सवाल हमसे सिंगूर की राह में भी पूछा गया था और कोलकाता हाईकोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया था.नंदीग्राम में हम पर हमला करने वाले आम आदमी नहीं थे, वे किसी खास पार्टी के कैडर थे. वे किस पार्टी के कैडर थे, यह दुनिया को मालूम हो चुका है. 12 नवंबर को जब दूसरी बार हम नंदीग्राम प्रवेश की राह में सीपीएम कैडरों के एक-एक अवरोधक से जूझ रहे थे तो उनके स्टेट चेयरमैन का मीडिया में बयान आ रहा था-हम मेधा पाटकर को किसी भी कीमत पर घुसने नहीं देंगे. किसी संगठन के कैडर और चेयरमैन के बीच इस तरह का संवाद , अनुशासन आप पश्चिम बंगाल में ही देख सकते हैं. 8 नवंबर को हमला सिर्फ हमारे ऊपर हुआ, यह सही नहीं है. पश्चिम बंगाल के वयोवृद्ध बुद्धीजीवी तरुण सान्याल, मशहूर शिक्षाविद सुनंद सान्याल, जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. मैहर इंजीनियर और अनुराधा तलवार जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस हमले के शिकार हुए. हमारे साथ-साथ सफर कर रहे मीडिया के साथियों पर भी हमला हुआ और मुझे अपने से अधिक मीडिया पर हुए हमले का दुख है. हमारे साथ मार खाने वाले मीडियाकर्मी भी हमारी ही तरह निर्दोष थे.नंदीग्राम में मीडिया को लगातार रोकने की कोशिश की गई. देश में पहली बार ऐसा नहीं हुआ है. गुजरात में भी मीडिया का प्रवेश कुछ समय के लिए रोक दिया गया था. पहले प्रवेश बंद करना, फिर निषेध हटा लेना, एक मक़सद से ही ऐसा किया गया होगा. मीडिया को इस तरह प्रवेश से रोकना, देश की आंख पर परदा डालना है. क़ानून को अपने हाथ में लेकर प्रवेश रोकना औऱ प्रवेश करने की कोशिश करने पर हमले करना, इमरजेंसी घोषित न करते हुए भी अघोषित राजनीतिक आपातकाल मैंने देश में पहली बार देखा है. कुछ दृश्य तो गुजरात से भी ज्यादा भयानक, ज्यादा खतरनाक दिखे.सीपीएम की योजनाबद्ध हिंसाविमान बोस बार-बार हमें रोकने की वजह, नंदीग्राम में हमारे जाने से, उन्माद फैलने की आशंका बता रहे था. जबकि गांव में सीपीएम समर्थकों ने कहा- आप पहले क्यों नहीं आईं, पहले आने से नंदीग्राम जलने से बच जाता. विमान बोस उन्माद के बारे में ज्यादा जानते हैं. हमारे पास तो सत्य, शांति और अहिंसा का हथियार ही है. हिंसात्मक तरीके से दखल कब्जा अभियान को वे शांति स्थापना कह रहे हैं. शांति और हिंसा की परिभाषा पश्चिम बंगाल में बदल नहीं सकती. वे कह रहे हैं- 11 माह बाद नंदीग्राम में शांति का लाल सूरज उगा है. ध्वस्त, बर्बाद, जले हुए घरों पर लहराते हुए लाल झंडे की श्मशानी सूरज को हम शांति का लाल सूरज तो नहीं कह सकते.नवंबर में नंदीग्राम में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है. इस बार पुलिस की भूमिका हमले से अलग रखने की रही. सब कुछ राज्यसत्ता ने और साफ-साफ कहें, पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा ने नहीं, सीपीएम ने योजनाबद्ध तरीके से पूरा किया है. हम सरकार से ज़्यादा उन पर यकीन करते हैं, जिन हजारों-हजार लोगों के घर-बार, चास-बास सब बर्बाद हो गये हैं. अपनी ज़िंदगी से उजड़े-बर्बाद हुए लोग झूठ बोल रहे हैं और सरकार सच बोल रही है, इसकी जांच सीबीआई ही कर सकती है.कोलकाता हाईकोर्ट ने 14 मार्च के हमले को असंवैधानिक कहा है लेकिन नवंबर महीने का दखल-कब्जा भी उतना ही असंवैधानिक और अमानवीय है. नंदीग्राम में सेज की परियोजना रद्द होने के बाद सीपीएम सरकार के खिलाफ संग्राम करने वाले गांव-समाज को खत्म कर बदला लेना, यह राजनीतिक अपराधीकरण और अमानवीयता की हद है. निहत्थे लोगों पर हो रहे हमले की फोन से पल-पल की सूचना, बहनों पर अत्याचार के किस्से, लापता और मृतकों के बारे में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के अपुष्ट दावे, यह सब जनसंहार का साक्ष्य ही तो है.पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति शासन लगाने और सरकार को गिराने की मांग की है. हमने पहले भी धारा 355 का विरोध किया था लेकिन सरकार गिराने की मांग हम बेहतर विकल्प के आधार पर ही कर सकते हैं. राष्ट्रपति शासन या धारा 355 की मांग एक तरह से प्रदेश की जनता पर आपातकाल थोपना है. आपातकाल लगा कर नागरिक अधिकारों को कुचलने की मांग हमें पसंद नहीं है.बगदाद बचाने जैसी गुहार और बुश की इच्छाभूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति ने नवंबर महीने के हमले की पूर्व सूचना देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सोनिया गांधी को दी थी. फिर भी नंदीग्राम की हिफाजत नहीं हुई. देश के सर्वोच्च सत्ता का समाज के सबसे कमजोर वर्ग की हिफाजत के प्रति असंवेदनहीनता लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है. इससे नंदीग्राम के आहत, बर्बाद ग्रामेर मानुष की लोकतांत्रिक आस्था कमजोर पड़ी है. कोलकाता से देर रात सोनिया गांधी से लेकर मंत्रियों तक, मै, इस तरह फोन करती रही, जैसे बगदाद को बचा लेने की यह आख़री रात है. लेकिन हुआ वही, जैसा बुश ने चाहा.बुद्धदेव ने कहा-जैसे को तैसा. नंदीग्राम बर्बाद हो गया. यूपीए गठबंधन की भूमिका भी नंदीग्राम के सवाल पर संदिग्ध रही. किसी प्रदेश में राज्य-पोषित हिंसा को रोकने में नकारा साबित होना, यूपीए गठबंधन की नियत पर सवाल उठाता है.नंदीग्राम, न्यूक्लियर डील और माओवादीनंदीग्राम ने परमाणु डील को प्रभावित किया है और किसी तरह का आंतरिक समझौता कांग्रेस और वाम के बीच हुआ है, ऐसा कहा जा रहा है. लेकिन इसके कोई मज़बूत आधार नहीं हैं. परमाणु समझौते के सवाल पर हम नंदीग्राम से ज्यादा भाजपा को सत्ता से रोकने की जिद को महत्वपूर्ण मानते हैं. हमें सीपीएम की पश्चिम बंगाल की भूमिका से ज़रुर ऐतराज है पर इसी सीपीएम की परमाणु समझौते के सवाल पर मजबूती के साथ अकड़ने से साम्राज्यवादी ताक़तों को कड़ी चुनौती मिली है. परमाणु के मुद्दे पर डटे रहने से देश ही नहीं, दुनिया भर में परमाणु के खिलाफ एक तरह की हवा बनी और बहस शुरु हुई. सीपीएम की इस भूमिका की तारीफ़ होनी चाहिए.नंदीग्राम में मार्च से लेकर अब तक माओवादियों की उपस्थिति के हमें कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़े. भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति में शामिल तृणमूल कांग्रेस, एसयूसीआई, जमायत-उलाम-ए-हिंद सहित सभी घटक दल माओवादी राजनीति के धुर विरोधी हैं. फिर माओवादियों का प्रवेश किस तरह हो सकता है?मार्च से नवंबर तक निहत्थे किसान-मज़दूरों पर हमला हुआ, सशस्त्र माओवादियों पर नहीं. माओवादियों ने 14 मार्च और 10-11 नवंबर को ज़रुर सशस्त्र संघर्ष किया होता, अगर वे वहां उपस्थित होते.नंदीग्राम में हथियारों की राजनीति को थोड़ी और गंभीरता से देखने की जरुरत है. नंदीग्राम में सेज का विरोध करने वाले भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थक भी 11 महीने पहले सीपीएम के ही समर्थक थे. सेज की किसान विरोधी नीति ने गांव के किसानों को संग्राम के लिए प्रेरित किया. पहले लोगों को टुकड़े में बांटिए, फिर हथियार बांटकर हिंसक माहौल तैयार करिये. 14 मार्च के जनसंहार के बाद भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के समर्थकों ने भी बदले के भाव में हिंसा का सहारा लिया था, जिसे हम उचित नहीं ठहरा सकते. हिंसा हर हाल में बुरी है, चाहे इधर की हो या उधर की. लेकिन हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हिंसा को बढ़ावा किसने दिया! गांव के भोले-भाले किसानों को हथियारों से लैस करना, यह लोकतांत्रिक राजनीति नहीं है तो वामपंथी भी नहीं हो सकती. राजनीति को अपराधीकरण से बचाने के लिए सबसे ज्यादा ज़रुरी है कि राजनीतिक दलों का निःशस्त्रीकरण किया जाये. हथियार सिर्फ पश्चिम बंगाल में सीपीएम के पास ही नहीं है, देश में दूसरे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास भी सशस्त्र दस्ते हैं. चुनाव लड़ने वाली किसी भी राजनीतिक दल को सशस्त्र दस्ते रखने का हक़ नहीं होना चाहिए.गांधीवाद से आगे की राजनीतिआलोचक कहते हैं कि मुझे गांधीवाद से आगे की राजनीति का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैं मार्क्सवादी सरकार के खिलाफ खड़ी हुई हूं. हमें लगता है कि मार्क्स और गांधी दोनों ने समाज के सबसे कमज़ोर मेहनतकश को श्रम के उचित दाम और उनके हक़-न्याय की बात की थी. हमें गांधी विरुद्ध अंबेडकर, मार्क्स विरुद्ध गांधी के विवाद से अलग रखा जाए तो अच्छा है. सब जानते हैं, हमारे विश्वास की अवधारणा अपने निजी चिंतन पर नहीं, मार्क्स, गांधी, अंबेडकर की विचारधारा के आधार पर तय होती है. देश के वरिष्ठ वामपंथी, मार्क्सवादी जो हमारे साथ ऐनरॉन से लेकर नर्मदा के मुद्दे पर साथ खड़े हुए, उन्होंने हमें कभी भी मार्क्स विरोधी नहीं माना.नंदीग्राम राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ सत्य, न्याय और शांति के अहिंसात्मक विकल्पों को चुनने का संदेश देता है. हमें सीपीएम से अपेक्षा थी कि सेज के सवाल पर जो भूमिका वे महाराष्ट्र के रायगढ़ में लेते हैं, वही भूमिका नंदीग्राम में लेंगे. पूंजीपति सत्ता और राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं. वामपंथियों को इस गठजोड़ से बचना होगा.सत्ता राजनीति को पहले भ्रष्ट करती है, फिर अपने मूल्यों से गिराती है. आज पूंजीकरण और बाज़ारीकरण ने राजनीति का चित्र औऱ चरित्र ही बदल दिया है. मुनाफे का बाज़ार ही नहीं, मुनाफे की राजनीति, राजनीतिक दलों का उद्देश्य हो गया है. वामपंथी राजनीति भी अगर मुनाफे से प्रभावित हो रही है तो लोकतंत्र के बचाने की ज़िम्मेवारी किसकी है ?धार्मिक संप्रदायवाद की तरह भाषा और प्रदेशवाद भी एक तरह की सांप्रदायिकता है. गुजरात की राज्यसत्ता ने भाषावाद और प्रांतवाद को ख़ूब इस्तेमाल किया है. बंगाल के बुद्धीजीवी नंदीग्राम के सवाल पर किसी भी राजनीतिक दल से ज़्यादा सक्रिय हैं. हमें लगता है कि बंगाल के बुद्धीजीवी संप्रदायवाद के जाल को काटना जानते हैं. हमें बंगाल के एक-एक ग्रामेर मानुष, कलाजीवी, बुद्धीवीजी, शिल्पकार समाज पर पूरा भरोसा है, वे बंगाल को बदलकर दम लेंगे.(प्रस्तुतिः पुष्पराज)
www.raviwar.com से साभार
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