Saturday, December 13, 2008

आतंक और एकता

राम पुनियानी
पिछले 26 नवम्बर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले ने शहर के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है. जो जानें गईं, उनकी तो कोई कीमत लगाई ही नहीं जा सकती, परंतु आम जनता ने राजनैतिक नेतृत्व पर जो विश्वास खोया है, उसकी भी भारी कीमत हमारे देश को अदा करनी होगी.इन हमलों के लिए हम किसे दोष दें? एक समस्या तो यह है कि पाकिस्तान में आज भी अनेक ऐसे आतंकी संगठन हैं जो सीआईए और आईएसआई द्वारा अफगानिस्तान पर रूसी कब्जे के बाद स्थापित किए गए मदरसों में तैयार किए गए थे. अफगानिस्तान से रूसी सेनाओं की वापिसी के बाद ये कट्टरपंथी आतंकी संगठन पाकिस्तान में बेरोजगारी के दिन काट रहे हैं. इस कारण ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है कि इन संगठनों का प्रेरणास्त्रोत व पोषक पाकिस्तान है. ऐसा पहले तो था परंतु अब नहीं है. बदले हुए समीकरणों का एक प्रमाण है पाकिस्तान की सेना द्वारा जनरल मुर्शरफ के कार्यकाल में लाल मस्जिद पर किया गया हमला. लाल मस्जिद उन स्थानों में शामिल थी जहाँ रूसी सेनाओं से लड़ने के लिए मुस्लिम युवकों को तैयार किया जाता था. मुसलमानों और आतंकवाद को पर्यायवाची बताने का काम 9 / 11 के बाद अमरीका की सरकार ने शुरू किया.आज हमें पाकिस्तान की धरती से काम कर रहे आतंकी संगठनों के पाकिस्तान की सरकार से रिश्तों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इनमें से कुछ संगठन पाकिस्तान के भीतर भी आतंकी हमले कर रहे हैं. हाँ, पाकिस्तान पर यह दबाव अवश्य डाला जाना चाहिए कि वो इन संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करे. अक्सर यह कहा जाता है कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए देश में एकता की जरूरत है. दुर्भाग्यवश, पिछले दो दशकों में देश को धर्म के आधार पर बाँटने के लिए कुछ राजनैतिक ताकतों ने जमीन आसमान एक कर दिया है.
साम्प्रदायिक राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही अल्पसंख्यकों के बारे में मिथक फैलाए गए. उनके बारे में दुष्प्रचार किया गया. इसने समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत किया, साम्प्रदायिक ताकतों को मजबूत किया और देश में दंगे भड़काए. इस कारण ही अल्पसंख्यकों में ''अपने लोगों'' के बीच रहने की प्रवृत्ति बढ़ी और पूरे देश, विशेषकर भाजपा शासित प्रदेशों में मुसलमानों में असुरक्षा का भाव बढ़ा.
वे ही तत्व जो पहले करकरे के मुंह पर कालिख पोत रहे थे उन्हीं तत्वों ने अपना राग बदल लिया और उन्हें नायक घोषित कर दिया. क्या इससे गंदी और छिछली राजनीति कुछ हो सकती है?
जब हम देश में ''एकता'' और ''बंधुत्व'' की बात करते हैं तो इसमें सबसे बड़ी बाधा है समाज का साम्प्रदायिकीकरण. यह कहना तो ठीक है कि हम सबको एक रहना चाहिए परंतु उसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि यदि आज हम एक नहीं हैं तो उसका कारण है धर्म आधारित राजनीति. साम्प्रदायिकता बढने से समाज की सोच में जो बदलाव आया है वही हमारे देश को बाँटने के लिए जिम्मेदार है.देश पर इतनी बड़ी मुसीबत आने के बाद भी कांग्रेस और भाजपा अलग-अलग भाषा में बात करे रहे हैं. भाजपा एक ओर राष्ट्रीय एकता की बात कर रही थी तो दूसरी ओर अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन जारी कर जनता को बता रही थी कि अगर आतंकी हमलों से बचना है तो भाजपा को वोट दो. भाजपा ने प्रधानमंत्री की भी आलोचना की जो देश से एक रहने का आव्हान कर रहे थे. मुंबई हमलों के लिए चुने गए समय ने भी कई प्रश्नों को जन्म दिया है. इस हमले के कुछ समय पूर्व ही महाराष्ट्र एटीएस ने आरएसएस की विचारधारा से जुड़े ले. कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, सेवानिवृत्त मेजर उपाध्याय आदि के खिलाफ आतंकवादी हमलों को अंजाम देने के सुबूत जुटाकर उन्हें हिरासत में लिया था. भोंसले सैनिक स्कूल की भूमिका भी उजागर हुई थी.जाँच जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, दरगाहों ओर मस्जिदों पर हुए बम हमलों में आरएसएस से जुड़े संगठनों की भूमिका के सुबूत सामने आते जा रहे थे. उस समय संघ परिवार एटीएस और विशेषकर उसके प्रमुख हेमन्त करकरे को खलनायक सिध्द करने में जुटा हुआ था. उन पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि उन्होंने अकारण साध्वी और उनके साथियों को पकड़ा था. एटीएस पर संघ का हमला इतना कटु था कि करकरे को जाने-माने पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो से मिलकर उनसे सलाह लेने और नैतिक समर्थन प्राप्त करने की जरूरत पड़ी. 28 नवम्बर के ''द टाईम्स ऑफ इंडिया'' के मुंबई संस्करण में प्रकाशित अपने लेख में जूलियो रिबेरो ने बताया है कि उन पर हो रहे राजनैतिक हमलों से करकरे कितने विचलित और उद्वेलित थे. रिबेरो ने करकरे की सच पर अडिग रहने और निहित स्वार्थी तत्वों की आलोचना के आगे न झुकने के लिए जमकर तारीफ की है.
हेमन्त करकरे की मृत्यु, मुंबई आतंकी हमले से हुए बड़े नुकसानों में से एक है। हम आशा करते हैं कि उनकी मृत्यु से मालेगांव बम धमाकों की जाँच पर असर नहीं पड़ेगा. आतंकियों से मुकाबला करने के लिए निकलते वक्त करकरे की मन:स्थिति क्या थी, यह तो अब कोई नहीं जान पाएगा परंतु उनकी मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ वह सबके सामने है. वे ही तत्व जो पहले करकरे के मुंह पर कालिख पोत रहे थे उन्हीं तत्वों ने अपना राग बदल लिया और उन्हें नायक घोषित कर दिया. क्या इससे गंदी और छिछली राजनीति कुछ हो सकती है? पूरे घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक हिस्सा था आतंकवाद के विरूध्द स्वनियुक्त योध्दा नरेन्द्र मोदी का मुंबई आना और ओबेराय होटल के सामने खड़े होकर पत्रकारों को संबोधित करना. मोदी, श्री करकरे की पत्नी से मिलने भी गए और उन्हें आर्थिक मदद देने की पेशकश की. पूरी गरिमा और विनम्रता के साथ श्रीमती करकरे ने उस व्यक्ति से एक करोड़ रूपये लेने से इंकार कर दिया, जो उनके पति की अपना काम ईमानदारी से करने के लिए आलोचना करते नहीं थकता था. यह समय ही हमें बताएगा कि हमारे देश को इतना बहादुर ओर ईमानदार अधिकारी क्यों और किन परिस्थितियों में खोना पड़ा. यह समय ही बताएगा कि करकरे द्वारा संघ परिवार के कार्यकर्ताओं के विरूध्द शुरू की गई कानूनी कार्यवाही अपने तार्किक अंत तक पहुंचेगी या नहीं और मालेगाँव और अन्य स्थानों पर बम विस्फोट करने वालों को उनके किए की सजा मिलेगी या नहीं.

www.raviwar.com से साभार

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