Tuesday, January 27, 2009

मानो पढ़ना अभिभावकों को हो

राजकिशोर
पतन का एक लक्षण यह है कि हर चीज अपनी उल्टी स्थिति में दिखाई पड़ती है। किसान किसान नहीं रह जाता, व्यापारी हो जाता है। व्यापारी अपने उत्पादों के लिए कच्चा माल जुटाने के लिए जमीन खरीदता है और खेती करवाने लगता है। कवि-लेखक पैसेवालों का गुणगान करने लगते हैं और पैसेवाले देश को बताने लगते हैं कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए। शासन करनेवाले बुद्धिजीवी को नौकर रखते हैं और बुद्धिजीवी वही कहने लगते हैं जो उन्हें रोजगार देनेवाले सुनना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षा मात्र शिक्षा कैसे रह सकती है? उसकी खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। स्कूल-कॉलेजों में शिक्षक की हैसियत सबसे नीचे चली जाती है और प्रबंधक तय करने लगते हैं कि उनके संस्थान में किसे प्रवेश मिलेगा और किन शर्तों पर मिलेगा।
दिल्ली में आजकल नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश चल रहा है। अनेक स्कूलों ने अपने दरवाजे पर नोटिस टांग दिया है : एडमिशन फुल। जहां प्रवेश चल रहे हैं, वहां जितनी कार्यवाही खुले में हो रही है, उससे ज्यादा कार्यवाही गोपन में । जब से न्यायालय ने आदेश दिया है कि नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश के लिए बच्चों का इंटरव्यू नहीं लिया जाएगा और प्रवेश "पहले आओ पहले पाओ के आधार पर होगा, तब से स्कूल प्रबंधकों ने बच्चों का चयन करने के बदले अभिभावकों का चयन करना शुरू कर दिया है। प्रतिष्ठित स्कूलों में यह पहले भी होता था, पर अब सभी प्रबंधक इस उत्पादक विधि से काम लेने लगे हैं। वे छात्रों को नहीं मापते (पहले भी कहां मापा जाता था -- यह एक ढोंग था, ताकि कम अमीर परिवारों के बच्चों को ठुकराया जा सके), सीधे अभिभावकों को मापते हैं। जिन बच्चों को नर्सरी के लिए लेना है, उनकी प्रतिभा और ज्ञान में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं होता। ईश्वर के कारखाने में इतना ऊंचा-नीचा नहीं है। लेकिन संसार में आ चुकने के बाद बच्चे की सांसारिक हैसियत उसके माता-पिता (ज्यादातर पिता, क्योंकि माता की हैसियत खुद पिता की हैसियत से तय होती है) से निर्धारित होती है।
इसलिए अभिभावक की परीक्षा लेने के लिए एक अंक पत्र बना लिया जाता है -- उसने कितनी पढ़ाई की है, उसका वित्तीय स्तर क्या है, वह किस पेशे में है, उसकी पत्नी की शैक्षणिक स्थिति क्या है, घर में अंग्रेजी बोली जाती है या मातृभाषा, चार चक्के वाला वाहन है या नहीं और है तो कौन-सा वाहन है आदि-आदि पूछा जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लिए अंक निर्धारित कर दिए जाते हैं। जिस अभिभावक को अच्छे अंक मिलते हैं, उसके बच्चे को ले लिया जाता है। इसके द्वारा प्रबंधक का आशय यह होता है कि हम सफल और शिक्षित परिवारों के बच्चों को ही पढ़ाएंगे, ताकि हमारे स्कूल का नाम रोशन हो। इन अभिभावकों से भी अच्छे-खासे पैसे वसूल किए जाते हैं। ये अपने बच्चों के प्रवेश की खुशी में दे भी देते हैं। पचीस-तीस हजार के लिए क्या किसी को दुखी करना। इतना तो एक बर्थडे पर खर्च हो जाता है।
उनका क्या होता है जिनके बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता? यह किस्सा ज्यादा मजेदार है। सही व्यवस्था में हर आदमी का एक भविष्य होता है, गलत व्यवस्था में भविष्य की खरीद-बिक्री की प्रतिद्वंद्विता होती है। जो अभिभावक फेल हो जाता है, वह मुख्य सड़क से निकल कर अंधेरी-बंद गलियों में टहलने लगता है। यहां उसे बताया जाता है कि ढाई लाख रुपए देने से काम बन जाएगा। जिनकी जेब फूली हुई होती है और मुट्ठी खुली हुई, वे ऐसे किसी प्रस्ताव की प्रतीक्षा करते ही होते हैं। चट मंगनी पट ब्याह। उनके बच्चों को दाखिला मिल जाता है। मुश्किल उनके सामने पेश आती है जो इतना खर्च करना नहीं चाहते या जिनकी इतनी सामर्थ्य नहीं है। वे स्कूल-दर-स्कूल भटकते हैं, सोर्स की खोज करते हैं फिर अंतत: किसी ऐसे-तैसे स्कूल में बच्चे को प्रवेश दिला कर भारी मन से घर लौटते हैं। सुना है, तक्षशिला विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक विद्वान बैठता था। जिस विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना होता था, उसकी परीक्षा वह विद्वान ही लेता था। विद्वान द्वारा प्रमाणित विद्यार्थी को प्रवेश मिल जाता था। यह तरीका इसलिए निकाला गया होगा कि सिर्फ उन्हीं छात्रों को लिया जाए जो वाकई पढ़ना चाहते हैं। इसी का आधुनिक रूप है, इंट्रेन्स टेस्ट। मतलब हम तक्षशिला विश्वविद्यालय के दिनों से थोड़ा भी आगे नहीं बढ़े हैं, इसके बावजूद कि तब शिक्षा पर होनेवाला खर्च बहुत नगण्य था और आज लगभग हर देश के पास इतने संसाधन हैं कि वह अपने हर बच्चे को नौनिहाल बना सके। क्या यह बाजिब है कि आगे पढ़ने का अधिकार उन्हें ही दिया जाए जो पहले से ही पढ़ने में आगे हैं? मैं ऐसे कॉलेजों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता जहां सिर्फ होनहार बच्चों को लिया जाता है और उन्हें रगड़-रगड़ कर चमकाया जाता हैं। मैं ऐसे कॉलेजों के खुलने का इंतजार कर रहा हूं जहां सबसे कमजोर विद्यार्थी को सबसे पहले लिया जाएगा और उसे योग्य से योग्य बनाने की कोशिश होगी। हर सोना कीमती है, पर पत्थर होते हुए भी पारस सोने से ज्यादा कीमती है जो लोहे को भी सोना बना देता है। पारस पत्थर एक मिथक है। प्रकृति की सीमा है। वह अपने नियमों को तोड़ नहीं सकती। लेकिन मनुष्य रोज एक नियम बना सकता है और अगले दिन उसमें सुधार कर सकता है। जिस व्याकरण के तहत यह होता है, उसका नाम है संस्कृति। शिक्षा संस्कृति का अंग है।
संस्कृति की मांग यह है कि हर बच्चे को विकसित होने का एक जैसा अधिकार मिले। इसी नीयत से नर्सरी में प्रवेश के लिए बच्चों की परीक्षा लेना बंद कर दिया गया है। लेकिन न्यायालय ने अभिभावकों की परीक्षा लेने पर रोक नहीं लगाई। सो स्कूलों के प्रबंधक इस तरह आचरण कर रहे हैं जैसे इन अभिभावकों का ही प्रवेश होगा और ये ही कक्षा में पढ़ने आएंगे। यह बच्चों के साथ अन्याय है। उन्हें तो किसी ने यह अधिकार नहीं दिया कि वे अपने अभिभावक चुन लें। फिर अभिभावक की किसी कमी के कारण वे क्यों भुगतें?
शिक्षा व्यवस्था के इन अनैतिक हठों के परिणामस्वरूप ही शिक्षा का प्रसार बढ़ने के बावजूद समाज में सचमुच के शिक्षित लोग कम दिखाई देते हैं। जेब में कोई भारी डिग्री होने से ही दिमाग के बंधन नहीं खुल जाते। बल्कि अक्सर देखा जाता है कि शिक्षित लोग अनपढ़ लोगों से ज्यादा संकीर्ण और स्वार्थी होते हैं। गांधी जी ने कहा था कि मुझे सबसे अधिक निराशा भारत के बौद्धिक वर्ग से हुई है। आज का गांधी कहेगा कि इस देश के शिक्षित लोग समाज पर सबसे बड़ा बोझ हैं।
व्व्व.राष्ट्रीयसहारा.कॉम से साभार

3 comments:

रंजना said...

Bahut sahi kaha aapne....
Badi bhayavah sthiti hai,par yah theek kaise hogi ......pata nahi.

Anonymous said...

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