तुम पूछते हो कि मेरी कविताएं क्यों नहीं करतीं फूलों और पत्तियों की बातें मेरे साथ आओ और देखो सड़कों पर बहता हुआ लहू ...पाब्लो नेरुदा.
Friday, September 26, 2008
बाढ़ की जाति
राज्य सत्ता की जाति
प्रमोद रंजन
जो कुछ बताने जा रहा हूं वह एकबारगी तो मुझे भी अविश्वसनीय लगा. ज्यों-ज्यों कड़ियां जुड़ती गयीं, तस्वीर साफ होती गयी. यह बाढ़ आयी नहीं, लाई गयी है. कुशहा तटबंध तोड़ा तो नहीं गया लेकिन उसे टूटने का भरपूर मौका दिया गया. विपदा के बाद राहत कार्यों में सरकारी मशीनरी खुद ब खुद अक्षम साबित नहीं हुई, उसे अक्षम बनाये रखा गया. जातिवाद के लिए चर्चित बिहार में अंजाम दी गयी यह कथित लापरवाही, वास्तव में कम से कम आजाद भारत की सबसे बड़ी सुव्यवस्थित जाति आधारित हिंसा है. वर्ष २००८ के १८ अगस्त को कासी क्षेत्र में आयी बाढ़ में सरकारी आकड़ों के अनुसार कम से कम २५ लाख लोग तबाह हुए हैं. एक पुख्ता अनुमान के अनुसार लगभग ५० हजार लोग मारे गये हैं.
कोसी अंचल के दलित जब बिल में पानी जाने के बाद बिलबिलाती चींटियों की तरह मर रहे थे; यादवों के पशु, घर, खेत सब कोसी की धार में बहे जा रहे थे, ऐसे समय में सत्ताधारी दल जनता यूनाइटेड के राष्टीय प्रवक्ता के बयान ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार ने इन्हें बचाने की कोशिश क्यों नहीं कर रही. जदयू के राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने विपक्षी राष्टीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद की सक्रियता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 'भाई का दर्द भाई ही समझता है'. प्रेस को जारी इस बयान में तिवारी ने कहा कि चूंकि इसके पहले आयी बाढ़ से सहरसा, मधेपुरा (यादव बहुल जिले) नहीं प्रभावित होते थे इसलिए लालू इतने सक्रिय नहीं होते थे. 'भाई' की पीड़ा ने उन्हें इतना संवदेनशील बना दिया है कि वे इसके बीच कूद पड़े हैं. इस फूहड़ बयान के निहितार्थ गंभीर हैं. यह सच है कि बाढ़ग्रस्त इलाका यादव बहुल है, इसके अलावा वहां बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ों और दलितों की है. (सहरसा, सुपौल और मधेपुरा के बाढ़ग्रस्त इलाकों से गुजरते हुए, राहत शिविरों में बातचीत करते हुए, मुझे महसूस हुआ कि यहां दलितों की आबादी भी बहुत ज्यादा है)
लगभग ३० विधान सभा सीटों वाला बाढ़ से प्रभावित हुआ यह क्षेत्र लालू प्रसाद को बिहार की सत्ता में बनाये रखने का एक बड़ा कारण रहा था. लेकिन पिछली बार पासा पलट गया. कहते हैं कि उस समय इलाके के यादव लालू से नाराज हो गये थे. राष्टीय जनता दल के एक कद्दावर नेता बताते हैं कि 'राजद को बिहार की सत्ता से बेदखल करने में बड़ी भूमिका इस क्षेत्र की रही'. पिछले विधान सभा चुनाव में इन जिलों की अधिकांश सीटें राजद हार गया. अभी इस क्षेत्र की कुल २८-३० सीटों में से २२-२३ विधायक जदयू अथवा भाजपा के हैं. इसके बावजूद राजग की ओर से यह बयान आया कि यादव होने के कारण लालू इस क्षेत्र के लिए चिंतित हैं. बयान बताता है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में सिर्फ घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है. इसके पीछे जातिवाद का चरमावस्था है. ऐसा कुत्सित जातिवाद, जो यह हुंकार भरता फिर रहा है-यादवों, दलितों, अति पिछड़ों! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है.
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार में जाति-शत्रुओं के सफाये के लिए बाढ़ के रूप में सुव्यवस्थित हिंसा की नयी तकनीक लागू की गयी. इस तकनीक ने नरेंद्र मोदी के प्रयोगों को भी पीछे छोड़ दिया. नरेंद्र मोदी वंदे मातरम् गाने वालों को बख्श देने की बात करते हैं. लेकिन यहां लाखों लोग राज्य सत्ता को समर्थन देने के बावजूद सिर्फ इसलिए अपने हाल पर छोड़ दिये गये क्योंकि वे यादव थे, दलित थे. उन्होंने राजग को वोट किया था तो क्या, वे अवधिया कुरमी अथवा भूमिहार तो न थे. इसे नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्यसत्ता में आयी एक सवर्ण जाति की कुंठा के विस्फोट के रूप में भी देखा जा सकता है. लालू प्रसाद के शासन काल में यादवों के मातहत रहने का दंश उन्हें १७-१८ वर्षों से सता रहा था. उन्हें यह 'सुख' है कि कीड़े-मकोड़ों की तरह बिलबिलाओं सालों, देखते हैं, कौन क्या कर लेता है!
नेपाल में कुशहा के पास तटबंध टूटने की सूचना भीमनगर बैराज के पास तैनात मुख्य अभियंता सत्यनारायण ने नौ अगस्त को ही बिहार सरकार को दे दी थी. यह एक पूर्णतः प्रमाणित हो चुका तथ्य है, जिसका खुलासा इस इंजीनियर को डिमोट कर स्थानांतरित कर देने के बाद हुआ. इसके अलावा अन्य श्रोतों से भी तटबंध में रिसाव होने सूचना बिहार के सत्ताधीशों को थी. लेकिन इसे रोकने की कोशिश करने की बजाय तटबंध मरम्मती नाम 'माल' बनाने की कोशिशें की जाती रहीं. परिणाम यह हुआ कि १८ अगस्त को तटबंध टूट गया. (कुछ लोग इसके टूटने की तारीख और पहले बताते हैं) पानी लाखों लोगों का आशियाना उजाड़ते, हजारों की जान लेते रोजाना नये इलाकों की ओर बढ़ता गया.
तटबंध टूटने से छूटे लगभग डेढ़ लाख क्यूसेक पानी से १८, १९ और २० अगस्त को जिन बस्तियों की सीधी टक्कर हुई, वे तो उसी समय नेस्तानाबूद हो गयीं. झुग्गी-झोपड़ियों, दलितों के टोलों में तो न कोई आशियाना बचा, न जानवर, न एक भी आदमी. अगले ७-८ दिनों तक पानी कोसी की नयी (मुख्य) धार के आसपास के गांवों की ओर बढ़ता गया. लोग अकबकाए चूहों की तरह, जिधर राह मिली, भागने लगे. सब ओर पानी ही पानी. रास्ते का अता-पता नहीं. कोसी की विकराल, हहराती, कुख्यात तेज धारा. डूब कर मरने वालों में-पैदल भाग रहे लोगों, केले के पेड़ों, लोहे डघमों, धान उसनने वाले कटौतों आदि का सहारा लेकर निकलना चाह रहे लोगों की संख्या कितनी रही, यह हम कभी नहीं जान पाएंगे. कितनी निजी नावें पलटीं, कितनों को स्थानीय अपराधियों ने पानी में फेंका, कितनी महिलाओं के जेवर छीने गये, कितनों ने अस्मत गंवायी. क्या कभी सामने आएगा इनका आंकड़ा?
उधर यादव-दलित डूबते जा रहे थे और इधर सत्ताधारी जनता दल युनाइटेड प्रधानमंत्री से मिलने के लिए ५०० पृष्ठों का दस्तावेज तैयार कर रहा था. लेकिन यह कागजात बाढ़ से संबंधित नहीं थे. यह कागजात थे रेलमंत्री द्वारा कुछ कट्ठा जमीनें लिखवा कर रेलवे की नौकरियां बांटने के. १८ अगस्त को तटबंघ टूटने,सैकड़ों बस्तियों के बह जाने, हजारों लोगों के मारे जाने की सूचनाओं के बीच ६ दिन गुजारने के बाद-२३ अगस्त को-जनता दल यूनाइटेड के राष्टीय अध्यक्ष शरद यादव, राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी, प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह व केसी त्यागी जब भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बाल नकवी की अगुवाई में प्रधानमंत्री से मिले तो उनके सामने बाढ़ कोई मसला नहीं था. वे सिर्फ यह चाहते थे कि लालू प्रसाद को केंद्रीय मंत्रीमंडल से बाहर कर दिया जाए. मुख्यमंत्री ने बाढ़ क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण पहले २० अगस्त को और फिर २४ अगस्त को किया. तब तक भारी तबाही हो चुकी थी. 20 अगस्त को ही उन्होंने देखा कि पानी सैकड़ों बस्तियों को लीलता बढा जा रहा है. हजारों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन उनका ग्लेशियर सा हिंसक ठंडापन बरकरार था. बिना हो-हंगामे के जितना डूब सकें, डूबें हरामी!
२४ अगस्त को हवाई अड्डा पर प्रेस कांफ्रेस में तथा २६ अगस्त को रेडियो से जनता के नाम 'संदेश' देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बिहार में प्रलय आ गया है. लोग दान देने के लिए आगे आएं. हजारों लोगों की मौत के बाद, बाढ़ के ९ वें दिन रेडियो पर मुख्यमंत्री द्वारा पढे गये इस संदेश की भाषा में 'भावुकता' कूट-कूट कर भरी गयी थी. मुख्यमंत्री ने अपील की कि लोग बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों से बाहर निकलें. सरकार सब व्यवस्था करेगी!
जाहिर है, राज्य सरकार न सिर्फ तटबंध की सुरक्षा बल्कि बचाव-राहत कार्य में भी सुस्त बनी रही. सरकार के खैरख्वाह समाचार माध्यमों के माध्यम से अपना तीन साल पुराना तकिया कलाम दुहराते रहे कि यह सब कुछ पिछली सरकार का किया-धरा है. लालू ने तटबंध मरम्मती के लिए कुछ किया ही नहीं.
रेलकर्मी का जातिवाद
राज्य सत्ता ने ऐसा किया तो जाहिर है, यह अनायास नहीं रहा होगा। जाति बिहार के रग-रग में कूट-कूट कर भरी है. बिहार में भारी तबाही की खबर सुनकर मेधा पाटकर बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के दौरे पर पहुंचीं. उनके कार्यकर्ताओं द्वारा मुंबई से लायी जा रही राहत सामग्री (कपड़ों से भरी ३१ बोरियां) एक रेल कर्मी उदयशंकर सिंह ने बरौनी स्टेशन पर फेंक दी. ये कार्यकर्ता मेधा के नेतृत्व में मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी वासियों के हित में चलने वाले 'घर बचाओ' आंदोलन से जुड़े थे और नीची जातियों से आते थे. कार्यकर्ता लाल बाबू राय, अतीक अहमद, बाबुलाल और राजाराम पटवा ने इस संबंध में की गयी शिकायत में लिखा है कि 'सभी सामान फेंकने के बाद कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर सिंह ने अभद्र गालियां देते हुए कहा कि कहां से दलित हरिजन का कपड़ा उठा कर ले आया है. ऐसा बोलते उसने सफाई कर्मचारी से डिब्बे में झाड़ू लगवाया. उसके बाद गार्ड बॉक्स में रखे गोमूत्र एवं गंगाजल की शीशी निकाल कर गंगाजल एवं गोमूत्र का छिड़काव किया'.
मेधा पाटकर ने इस घटना की जानकारी मिलने के बाद इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि वह इस सूचना से बेहद व्यथित हैं. बिहार के जातिवाद के बारे में उन्होंने सुना तो था लेकिन यह आज के समय में भी इतना विकराल होगा, इनका अनुमान उन्हें न था. मेधा के चाहने पर एक समाचार पत्र में 'सामान फेंके जाने' की सूचना देती छोटी सी खबर छपी. लेकिन उसमें इस बात का जिक्र न था कि सामान क्यों फेंका गया. लालू प्रसाद ने मेधा को फोन किया और रेलवे के एक उच्चाधिकारी को उनसे माफी मांगने को कहा. गार्ड उमाशंकर सिंह सस्पेंड किया गया. जब लालू प्रसाद का फोन आया मेधा के साथ हम सुपौल जिला के छुरछुरिया धार के पास से लौट रहे थे. वहां सेना द्वारा चलाए जा रहे रेस्क्यू ऑपरेशन के पास राहत सामग्री वितरित करते हुए मेधा ने ३५-४० मौतें (सिर्फ उसी स्थान पर) रिकार्ड की थीं, जबकि उस समय तक राज्य सरकार बाढ़ में मरने वालों की कुल संख्या महज २५ बता रही थी. मेधा इस सबसे बेहद विचलित थीं. लालू प्रसाद ने भी उन्हें फोन पर बताया कि कम से कम ५० हजार लोग मरे हैं, सरकार लगातार झूठ बोल रही है. उनका कहना था कि नीतीश पुनर्निर्माण कार्य जनवरी-फरवरी तक शुरू करेंगे ताकि लोकसभा चुनाव में इसका लाभ ले सकें. मेधा ने लालू प्रसाद को कहा कि राष्टीय आपदा घोषित हो जाने के बावजूद इसे लेकर अभी तक केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक नहीं हुई है. जबकि नियमानुसार, राष्टीय आपदा को लेकर केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक तुरंत होनी चाहिए थी, जिसमें पीड़ित क्षेत्रों के कृषि-स्वास्थ आदि मसलों पर निर्णय लिया जाता.
यह सब ५ सितंबर की बात है. 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं से दुर्व्यवहार करने वाला सस्पेंड हो चुका था. ६ सितंबर को इससे संबंधित समाचार भी सभी अखबारों में छपा. लेकिन मेधा चाहतीं थीं कि उस रेलकर्मी का जातिवादी व्यवहार भी अखबारों के माध्यम से सामने आये. उन्होंने मुझसे कहा कि सामान फेंकने से बहुत ज्यादा गंभीर और धक्का पहुंचाने वाली वह जातिवदी प्रवृति है. इसे अखबारों को उठाना चाहिए.लेकिन मेधा को बिहार की सवर्ण मीडिया की बारीक बुद्धि की जानकारी न थी. सिर्फ मेधा ही क्यों, मैं भी तो लगभग इससे अन्जान ही था, तभी तो इसके लिए असफल कोशिश की.
सघा विहीन सवर्णों का दुःख
बाढ़ क्षेत्र के दौरा करते हुए मैं अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए सहरसा में एक कायस्थ परिवार का कंप्यूटर इस्तेमाल करता रहा था. इस परिवार का मघेपुरा स्थित घर डूब चुका है, सहरसा में वे किराये पर रहते हैं. उनके सभी पड़ोसियों के गांवों में स्थित पैतृक मकान डूबे थे. इनमें अधिकांश कायस्थ थे. इन सबके अनेक परिजन सहरसा में ही राहत शिविरों में आश्रय लिये थे. अपनी छोटे-छोटे किराये के कमरों में वे कितनों को जगह देते? रोजाना दिन भर बाढ़ पीड़ितों का इनके यहां आना-जाना लगा रहता था.इनमें से कई परिवार ऐसे थे, जिनके मामा, चाचा, बहन या ससुराल के गांवों में लोग अब भी फंसे थे. उन्हें निकालने के लिए न कोई नाव पहुंच रही थी, न ही राहत सामग्री. वे चाहते थे कि मैं बतौर पत्रकार संबंधित जिले के जिलाधिकारी से बात कर उनके गांवों में नाव भिजवाने की व्यवस्था करूं. मैंने कोशिश भी की लेकिन नतीजा सिफर रहा. मुझे ऐसा तो नहीं लगा कि संबंधित जिलाधिकारी ने जानबूझ कर उन गांवों में नाव नहीं भेजी; पर मेरी असफलता पर उन किरायेदारों की राय रोचक थी. उनका कहना था कि कुछ भी कर लीजिये हम फारवडों के लिए यह सरकार कुछ भी नहीं करेगी.
९/११ बनाम ८/१८११ सितंबर
11 सितंबर को अमेरिका में हवाई हमले में लगभग ५ हजार लोग मारे गये थे. आज भी उनकी याद में मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है. क्या १८ अगस्त की याद में, जिसमें ५० हजार लोग मारे गये, भी मोमबत्तियां जलाई जाएंगी? क्या यह देश इसे एक काले दिन की तरह याद करेगा? उत्तर है-नहीं. कारण; हम-आप सब जानते हैं.
और अंत में
आज १२ सितंबर की सुबह है. दो दिन पहले ही बाढ़ क्षेत्र से पटना लौट आया हूं. अखबार देख रहा हूं. कई अखबारों में ११ सितंबर को अमेरिका में जलाई गयी मोमबत्तियों और उस हमले में मारे गये लोगों के परिजनों की व्थाएं छपीं हैं. पटना से प्रकाशित हिंदुस्तान में एक खबर है. 'केमिकल से नष्ट होंगे पशुओं के शव : सुशील मोदी'. सुशील कुमार मोदी भारतीय जनता पार्टी के राष्टीय उपाध्यक्ष व बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं. खबर इस प्रकार है- 'उपमुख्यमंत्री ने बताया कि केमिकल की खेप गुजरात से चल चुकी है. इसके जरिए पशुओं के शवों को मिनटों में नष्ट किया जा सकता है. इससे बदबू और महामारी फैलने की आशंका नहीं रहेगी.. पहली बार राज्य सरकार की ओर से व्यवस्थित ढ़ंग से राहत कार्य चलाया जा रहा है'.
केमिकल, पशुओं के शव के लिए? और मनुष्यों के उन हजारों शवों के लिए क्या, जो झाड़ियों, बांसबाड़ियों व उंची मेड़ों के किनारे पड़े सड़ रहे हैं. बाढ़ आए लगभग एक माह होने को आ रहा है. राज्य सरकार की ओर से मनुष्यों के शवों की चिंता करता कोई बयान अभी तक नहीं आया है. सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' se आ रहा है.(और शायद 'आइडिया' भी). राज्य सरकार की ओर से पहली बार 'व्यवस्थित ढंग' से राहत कार्य चलाया जा रहा है. इसी केमिकल से व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी 'मिनटों' में ठिकाने लगाया जाएगा. न बदबू होगी, न आक्रोश फैलेगा. आखिर कुछ समय बाद ही वहां कई हजार करोड़ रुपयों का पुननिर्माण कार्य करने जाना है... और, मनुष्य मरे भी कहां हैं? मरे तो शूद्र हैं. भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।
संशयात्मा से saabhar
Monday, September 15, 2008
बाँध बन रहा है.....
अब बांध के दोनों ओर बाढ़ में जान बचा कर आनेवाले शरणार्थियों के शिविर मिलने लगे हैं. नीले-काले तंबू. बीच-बीच में जालियां बुनते मजदूर भी दिख रहे हैं. नायलोन की पहले गोल चकती बनायी जाती है और फिर इस चकती से जाली बुनी जाती है. इसी बोरीनुमा जाली में बोल्डर भर कर कटान को बचाया जाता है, बांध पर दबाव कम किया जाता है. दाहिनी ओर सैकड़ों बोरियों में रेत भरी जा रही है. इनसे पाइलिंग की जायेगी. ...दाहिनी तरफ पेड़ों के उस पार चमकता हुआ कुछ दिखता है...कोसी! काफी चौड़ाई में फैली कोसी का वेग यहां उतना नहीं दिखता. लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, पश्चिम की ओर मुख्यधारा की दिशा में रेत दिखने लगती है. यह सिल्ट है, जिसे कोसी ने लाकर वर्षों से जमा किया है और जिसे कोसी प्रोजेक्ट और बिहार सरकार के इंजीनियर निकालना भूल गये हैं. कोसी अब अपने को एक संकरे गलियारे में पाती है और पूरब की ओर खिसकती हुई बांध से टकराती चलती है. इस हिस्से में उसका वेग बहुत तेज है.
अब ट्रकों का काफिला रुक गया है. आगे दूर तक गाड़ियां हैं. कटान तक पहुंची गाड़ियां जब बोल्डर उतार कर लौटेंगी, तो पीछेवाली गाड़ियां आगे बढ़ेंगी. अब आगे पैदल ही जाना होगा.13.60 आरडी. कोसी अपनी पूरी ताकत से स्पर पर चोट कर रही है. इस पर खतरा बना हुआ है. पचासेक मजदूर इसे बचाने में लगे हैं. क्रेटिंग की जा रही है. 12.90 आरडी से, बांध जहां से कटा है, 13.60 आरडी तक सबसे अधिक दबाव है. स्थानीय लोग दिखाते हैं, बांध पर जहां पहली बार पानी चढ़ा है-आज ही. शायद कंचनजंघा, महाभारत, वाराह क्षेत्र में कहीं बारिश हुई है. नदी में पानी बढ़ा है. वह कुसहा गांव के बचे हुए इलाकों में भी भर रहा है, कटे हुए हिस्से से निकल कर.कटान. डेढ़ से दो मीटर प्रति सेकेंड के वेग से बहता हुआ पानी कटे हुए बांध से निकल रहा है. अगले कुछ घंटों में वह वीरपुर, शंकरपुर, मुरलीगंज आदि से होता हुआ कुरसेला में गंगा से मिल जायेगा. कटान को देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसने कितनी तबाही मचायी होगी पिछले 22 दिनों में.
कटान का दूसरा हिस्सा सामने है-लगभग दो किमी दूर. वहां की गतिविधियां नहीं दिख रहीं यहां से. ठीक कटान पर 20-22 मजदूर कटान को बचाने के लिए कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी गति भी झुंझला देने की हद तक धीमी है. नीचे पानी में रखी गयी जाली में एक-एक बोल्डर डाले जा रहे हैं. मजदूरों से पूछो, तो वे सामग्री की कमी इसकी वजह बताते हैं. वे शिकायत करते हैं कि उन्हें जाली नहीं मिल रही है. इसके अलावा वे रात में भी काम करना चाहते हैं, लेकिन शुरू के कुछ दिनों को छोड़ कर अब सिर्फ दिन में ही काम होता है. ग्रामीण कहते हैं-लगातार काम की जरूरत हैं. वे कहते है कि अपर्याप्त काम और धीमी गति के कारण धारा पर कोई असर नहीं पड़ रहा. वह सारी मेहनत बहा ले जाती है. प्राय: हर रोज नये सिरे से काम करना पड़ता है.
कट एंड को देखने से यह बात सही लगती है. पिछले कई दिनों से काम हो रहा है, लेकिन आज भी कटान पर अभी जाली-बोल्डर की पहली परत डालने का ही काम चल रहा है. मजदूरों का कहना है कि वे तो रात में काम करने के लिए आते हैं, लेकिन इंजीनियर-ठेकेदार नहीं रहते. सो काम कैसे हो? बांध के नीचे, कटान से थोड़ा पहले मिलते हैं प्रोजेक्ट इंजीनियर जेएन सिंह. वे नायलोन, बोल्डर की फर्जी सप्लाइ दिखानेवाले सप्लायर्स पर बिगड़ रहे हैं-ऐसा कैसे हो सकता है? आपने तो नायलोन की सप्लाई नहीं की. फिर आप डिलीवरी दिखा कैसे रहे हैं ?
उनके पास कुछ आंकड़े हैं. अब तक 5078 नायलोन क्रेटिंग की जा चुकी है. 1359 की संख्या में बोल्डर क्रेटिंग की गयी है. अब तक कुल 3729 घन मीटर बोल्डर सप्लाइ हुई है, जिसमें से 10 सितंबर की शाम तक 1150 घनमीटर बोल्डर बचा हुआ है. वे जल्दी-जल्दी कुछ सूचनाएं देते हैं- 13.60 स्पर पर खतरा था. उनकी क्रेटिंग जारी है. कट एंड को सुरक्षित कर लिया गया है. और काम? काम आप खुद देखिए. कितना हुआ है, आप देख ही रहे हैं. रात में काम न होने की शिकायतों को वे गलत ठहराते हैं. दिन-रात काम हो रहा है. कहने दीजिए मजदूरों को कुछ भी. प्रोजेक्ट इंजीनियर यहां कार्यरत कुल मजदूरों की संख्या 1000 बताते हैं. लेकिन ग्र्रामीण उनकी बात हंसी में उड़ा देते हैं.देवनारायण राउत कुशहा वार्ड नं 4 के हैं. कहते हैं-बहुत ज्यादा होंगे तब भी 400 से अधिक संख्या नहीं होगी मजदूरों की....दूसरे लोग उनकी तसदीक करते हैं. ...पश्चिम में सूरज डूब रहा है. बोल्डर गिरा कर गाड़ियां लौट रही हैं. ट्रक वापस लौटते हुए रसीद लेना नहीं भूलते. उनके बीच से जगह बनातीं जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार की गाड़ियां तेजी से बांध से उतर रही हैं. ...वे सब लौट रहे हैं, संभवत:...ठेकेदार, इंजीनियर. तो क्या ग्रामीणों ने सही कहा था कि रात में काम नहीं होता?सुदूर उत्तर में घने बादल घिर आये हैं. शायद उधर बारिश हो रही है. काले बादल देख कर उस बूढ़े नेपाली मजदूर श्यामसुंदर की आंखों में भय छा जाता है- जाने क्या होने वाला है इस साल।
http://www.raviwar.com/ से साभार
Thursday, September 11, 2008
बाढ़ राहत कैंपः एक दृश्य
२४ घंटे पहले एक बच्चे को जन्म देने के बाद से सविता देवी ने कुछ भी नहीं खाया है। दो घंटे पहले उसे चूडा-गुड़ दिया गया था खाने को, वह एक किनारे पड़ा हुआ है, अब भी –अछूता। बथनाहा के सशस्त्र सीमा बल कैंप के पास स्थित राहत शिविर मे यूनिसेफ व राज्य स्वास्थ्य समिति के तंबू में पड़ी सविता पसीने से नहाई हुई अपने बच्चे को चुप कराने का असफल प्रयास कर रही है।
उसके पास बैठी आंगनबाड़ी सेविका वंदना झा समझाती है- “ प्रसूता को खाने में कम से कम मसूर की दाल, चावल आदि तो मिलना ही चाहिए। यह भी नहीं मिला तो कैसे होगा ? खिचड़ी दी जा रही है, वह भी बिना दाल-सब्जी के। इस तरह तो ये लोग मार ही देंगे।”वंदना थोड़ी गुस्से में हैं और अपनी नाराज़गी शिविर का निरीक्षण करने आए जिलाधिकारी को भी दिखा चुकी हैं– थोड़ी देर पहले. और उनका गुस्सा वाजिब भी है. इतना समय बीत जाने पर भी मां-बच्चा को न कोई दवा मिली है और न ढंग का आहार. सविता में खून की कमी है– इसका भी शिविर में कोई उपाय नहीं है. वंदना जहां अपनी अन्य सहयोगियों के साथ दवा मांगने गयीं तो उन्हें डांट कर भगा दिया गया. मेडिकल कैंप प्रभारी कहते हैं कि उनके यहां कमी किसी चीज़ की नहीं है. तो फिर सविता को दवाएं क्य़ों नहीं दी जा रहीं ? वे इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझते. कैंप प्रभारी कैलाश झा अपने तंबू में वाउचरों और लोगों में उलझे हुए हैं. वे कहते हैं – “ कैंप में कमी किसी चीज़ की नहीं है. जितना हो सकता है, हम कर रहे हैं.”.... तो फिर सिर्फ खिचड़ी और चूड़ा-गुड़ क्यों बंट रहा है ?वे कहते हैं– “ किसी ने हमसे इसकी मांग ही नहीं कि उसे दाल-चावल दिया जाए.”लेकिन किसी ने मांग नहीं की, सिर्फ इसीलिए उसे लगभग बिना दाल वाली खिचड़ी खिलायी जानी चाहिए ? लोग बताते हैं कि वे कई बार कह चुके हैं कि उन्हें सब्जी दी जाए, ढंग से चावल-दाल दिया जाए. लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं है।
दोपहर में बंटी मोटे चावल की खिचड़ी और बेस्वाद चोखा खाते हुए वे स्टोर की ओर हाथ उठाते हैं – “ देखिए, उसमें 20 बोरी चना रखा हुआ है। मैंने कल राशन इंचार्ज को कहा कि इसे खुला देते हैं, कल इसे भी बाटेंगे तो उसने मना कर दिया. सब कुछ आता है, लेकिन हमें सिर्फ खिचड़ी मिलती है. स्टोर में सब चीज़ है– फल है, एक क्विंटल बिस्कुट है. कोक का पैकेट है. लेकिन बंटता कुछ नहीं. वह सब अधिकारी और गार्ड लोग यूज़ करता है.” सुरक्षा ड्यूटी पर लगे अवर निरीक्षक राधाकृष्ण रजक इस सबको गलत बताते हैं. लेकिन आंगनबाड़ी सेविकाएं जो बताती हैं, उससे शंभु की बातें पुष्ट होती हैं. वंदना, सुमन व पार्वती समेत दूसरी सेविकाएं सुबह आठ बजे शिविर में आई हैं. अभी तक उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिला है. वे कहती हैं– “हम यह नहीं चाहते के हमें खाना मिले. लेकिन बुरा तो तब लगता है जब गार्ड और अन्य अधिकारी पीड़ितों के लिए आये बिस्कुट और फल खुद खा जाते हैं.”सविता ने अपने बच्चे के सिराहने लोहे का हंसिया रख छोड़ा है – बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए. काश ! यह इस तंत्र की संवेदनहीनता को भी दूर भगा पाता.
Wednesday, September 10, 2008
कोसी की बाढ़ नहीं सरकार प्रायोजित जनसंहार
बिहार में पिछले १८ अगस्त से जनसंहार हो रहा है। आदमी के पास बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जा रहा, नहीं छोड़ा गया। या तो उसे डूबकर मरना है, या भूख से। अगर तब भी नहीं मरा तो सरकारी नावें बीच धार में उसे डुबो रही हैं। जितनी नावें लोगों को बचाने (मारने) में लगी हैं उससे ज़्यादा उनके खाली पड़े घरों को लूटने में लगी हैं। बिहार के सभी सामंतों, बाहुबलियों, अपहर्ताओं, डकैतों, लुटेरों, ठेकेदारों, बलात्कारियों को इस सरकारी महाअभियान में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गयी हैं और वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे हैं। जितने व्यापक पैमाने पर सरकार अपने लक्ष्य हासिल कर पा रही है उससे पता चलता है कि सरकार ने इस महाजनसंहार को अंजाम देने के लिए गंभीर पूर्वाभ्यास किया था। तभी तो एक तरफ सरकार इतनी ढिठाई के साथ इस जनसंहार के मामले में ख़ुद को पाक-साफ़ बताने में लगी है और पूरा सरकारी अमला हरबे-हथियार लेकर इस मामले में अपने सिवाय हर दूसरे को जिम्मेदार बता रहा है - तो दूसरी तरफ सबकुछ गँवा चुके, उजड़े-विस्थापित, स्वजन-सम्बन्धियों के मृत्युशोक से भरे, भूखे-बीमार, असहाय-निराश्रित लोगों के साथ बर्बरतम सलूक किया जा रहा है। उनकी बहू-बेटियों को बेइज्जत किया जा रहा है, बीमार बच्चों के लिए दवाइयाँ नहीं दी जा रहीं, भूख से बिलबिलाते बुजुर्गों, महिलाओं और गरीब-लाचार लोगों को खाना नहीं दिया जा रहा। सरकारी राहत शिविरों के वधस्थलों से जान बचाकर जो लोग परिवार लेकर अपने घर-गाँव लौट जा रहे हैं सरकारी सेना ''हांका'' देकर उन्हें वहां से भगा रही है। इन राहत(!) शिविरों की इससे बढ़कर और क्या असलियत होगी कि लोगों को अपने डूबे हुए घर इनसे ज़्यादा निरापद लग रहे हैं। सेना कैसी हुआ करती है इसका कड़वा अनुभव नेपाल की सीमा से लगे जिलों के लोगों ने अटल बिहारी के समय से ही लिया है।
सशस्त्र सीमा बल (यानि एस एस बी) की पिछले लगभग ७-८ वर्षों से उपस्थिति ने यहाँ के सीधे-सादे और अत्यन्त शांतिप्रिय जनजीवन में जितना ज़हर घोला है उससे समस्त क्षेत्र पहले ही सशंकित-आतंकित था/है। न केवल सुपौल, अररिया या अन्य सीमावर्ती जिलों के, बल्कि नेपाल के लोगों का जीवन भी इन सुरक्षा बलों ने दूभर कर रखा है। तस्करी रोकने एवं आई एस आई के तंत्र को ध्वस्त करने के लिए तैनात किए गए इन बलों ने यहाँ के सामाजिक जीवन को ही ध्वस्त किया है और भोले-भाले, निरीह लोगों को धमकाया है, यातनाएं दी हैं। गौरतलब है कि सुपौल के इन सीमावर्ती इलाकों में मुस्लिम समुदाय के लोगों की बहुतायत है और इनमें से ज्यादातर या तो खेतिहर मजदूर हैं या फिर कारीगरी का काम करने वाले। मुस्लिम समुदाय के अनगिनत युवक और महिलाएं इन बलों की ज्यादतियों के शिकार हुए हैं, पर इसकी शिकायत वे कहाँ करें यह एक बड़ा सवाल है। विरोध करने का एक बड़ा खतरा तो यह भी है कि इससे इन्हें आई एस आई का पक्षधर बता दिया जाए, जो कि होना ही है, और बदले में दुगुनी प्रतिहिंसा इन्हें झेलनी पड़ेगी। देश भर में सुरक्षा बलों ने नागरिक समुदायों पर जितने ज़ुल्म ढाए हैं इसकी मिसाल देने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। एस एस बी का जितना आतंक और गुंडाराज यहाँ चल रहा है उसकी गवाही इस इलाके का हर बच्चा-बच्चा दे सकता है। जनता और सरकार के संसाधनों को लूटने की खुली छूट पाए इन सुरक्षा बलों ने खूब पैसा तो बनाया ही है, यहाँ की बहुमूल्य वन सम्पदा की भी ये खुले आम तस्करी कर रहे हैं। वीरपुर, छातापुर, नरपतगंज, राघोपुर, करजाइन, बलुआ आदि इलाकों के बहुमूल्य शीशम के लाखों पेंड़ जो वन-विभाग के अंतर्गत आते थे , इन सुरक्षा बलों द्वारा कटवाकर गायब कर दिए गए हैं और पूरा इलाका पेंड़ विहीन होता जा रहा है।
कहने का तात्पर्य यह कि जिन सुरक्षा बलों का यह रूप यहाँ के लोगों ने देखा-महसूस किया है आज उसीकी रहनुमाई में रहने के लिए भला कैसे लोग तैयार होंगे? बिहार के इन इलाकों के लोगों का नेपाल की तराई क्षेत्र के लोगों के साथ जितना अपनापा रहा था, शादी-ब्याह, मुंडन-उपनयन, हाट-बजार, नैहर-ससुराल का जो अभिन्न-प्रगाढ़ रिश्ता था उसे ख़त्म करने में इन बलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और यहाँ के जन जीवन में साम्प्रदायिकता का बीजारोपण किया। आज सरकार इन लोगों को फिर सुरक्षा बलों के हवाले कर रही है। दरअसल जिंदा बचे लोगों को पूरी तरह कुचलने का यह अमोघ अस्त्र है सरकार की यही सोच है।
देशभर के-दुनिया भर के लोग जो एक सरकार द्वारा प्रायोजित मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करना चाह रहे हैं उनके सामने कोई चारा-कोई रास्ता नहीं है। उन्हें अपनी मदद उस सरकार के हवाले करने पर मजबूर होना पड़ रहा है जिसके बारे में अब हर कोई यह समझ रहा है कि यह नरमेध उसने ही रचा है। कैसे पहुचेगी कोई मदद, कौन पहुँचायेगा इन निरीह लोगों तक कोई मदद जब पूरी सरकार, सरकारी अमले, गुंडों-बलात्कारियों की पूरी सरकार समर्थित सेना चीलों-गिद्धों की तरह हर मदद पर बाज-झपट्टा मारने, अपने पैने दांत गाड़ने को तत्पर है।
सचमुच अब केवल भगवान के आसरे हैं ये लाखों-लाख लोग। आने वाले पांछ-छः महीनों में घर वापसी के कोई आसार नहीं। घर वापसी के बाद भी क्या होगा सब जानते हैं। क्या खाना है, कैसे जीना है किसी को पता नहीं। जो वापसी का सपना त्यागकर निकल पड़े हैं पटना, दिल्ली, मुंबई, पंजाब, हरियाणा और जाने कहाँ-कहाँ सचमुच में कहाँ जा रहे हैं ये लोग? इनके बच्चे, इनकी महिलाएं क्या करेंगी, क्या होगा इनका? सम्भव है इनमें से ज्यादातर बच्चे-औरतें देशी-विदेशी सेक्स-मंडियों में पहुच जायें, भीख मांगें, पुलिस के दैहिक मानसिक शोषण का शिकार बनें और ये मर्द नशा करें, अपराध करें, जेल जायें और इनका एनकाउंटर कर दिया जाए। बिल्कुल सम्भव है और यही तो इस देश के ग़रीबों का राजपथ है, इससे बचकर कहाँ जायेंगे?
बाढ़ पीड़ितों से भी तो पूछें समाधान की राह
इस वर्ष भी पहले की तरह मानसूनी वर्षा के चलते देश का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित हुआ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और असम तक देश का एक बड़ा व घनी आबादी वाला हिस्सा है जहां हर साल बाढ़ की बढ़ती-बिगड़ती समस्या पूरे क्षेत्र के विकास परे बड़ा प्रश्नचिन्ह बन गई है। बिहार में कोसी की बाढ़ की विभीषिका और इसके चलते विस्थापित हुए लाखों लोग इसका एक उदाहरण है। पड़ोसी बांग्लादेश के एक बड़े क्षेत्र की भी यही स्थिति है। ऐसे में यह सवाल जटिल होता जा रहा है कि आखिर इस समस्या का स्थायी समाधान क्या हो।
इस विषय पर हाल के वर्षों में दो तरह के विचार सामने आए हैं। पहला विचार मुख्य रूप से इंजीनियरिंग दृष्टिकोण है जो बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों पर या उनके आसपास विभिन्न निर्माण कार्यों की वकालत करता है। यह सुझाव पानी का संग्रह करने वाले स्टोरेज बांध बनाने का या नदियों के आसपास तटबंध बनाने का है। दूसरी मुख्य विचारधारा पहली इंजीनियरिंग विचारधारा को चुनौती देती है और हमें यह बताती है कि तटबंधों व बड़े बांधों के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण करने की अपनी सीमाएं हैं। बिहार की कोसी नदी में भयंकर बाढ़ से पता चलता है कि बाढ़ से बचाव के लिए तटबंधों पर निर्भरता बहुत हानिकारक भी साबित हो सकती है। कई स्थानों पर इन इंजीनियरिंग समाधानों पर अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद बाढ़ की समस्या और विकट हुई है। अत: यह दृष्टिकोण बाढ़ के प्रति एक ऐसी सोच बनाने पर जोर देता है जो बाढ़ रोकने के लिए निर्माण कार्य करने के स्थान पर बाढ़ को अधिक सहनीय बनाने से संबंधित है। इस सोच में कुछ हद तक बाढ़ को सहने को कहा गया है तो कुछ हद तक पर्यावरण को इस तरह सुधारने के लिए कहा गया है जिससे बाढ़ का प्रकोप व उसकी विनाशक क्षमता कम हो जाए। उदाहरण के लिए, नदियों के कुछ पानी को तालाबों में भरा जा सकता है जिससे आगे के सूखे महीनों के लिए पानी भी जमा हो जाए व वर्षा का प्रकोप भी कम हो जाए। पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा, मिट्टी व जल संरक्षण से पर्वतीय तथा नीचे के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ व भूस्खलन का खतरा कम करने में सहायता मिलेगी।
कई बार जब दो तरह की विचारधाराएं सामने आती हैं तो उन्हें मिलाकर ऐसी नीति बनाने की कोशिश की जाती है जो सबको स्वीकार्य हो, पर यदि विचारधाराओं में बुनियादी फर्क है तो उन्हें मिलाने से एक ऐसा अजीब घालमेल भी बन सकता है जो अन्तर्विरोधों से भरा हो। ऐसी घालमेल की नीति हमें निश्चित तौर पर नहीं चाहिए।
कई बार यह कहा जाता है कि बाढ़ प्रभावित लोगों से इस बारे में राय प्राप्त करनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके विचार व्यापक स्तर पर प्राप्त करना हर हालत में जरूरी हैं, पर उनसे भी अलग-अलग विचार मिलेंगे इसके लिए तैयार रहना होगा। कई बार ऐसा होता है कि कोई तटबंध एक क्षेत्र को बाढ़ से बचाता है तो दूसरे क्षेत्र के लिए समस्या पैदा कर देता है। जो लोग अभी तटबंध के वास्तविक असर को नहीं देख पाए हैं वे उत्साह से इसकी मांग कर सकते हैं, जबकि जो लोग तटबंधों के असर को वर्षों तक झेल चुके हैं वे इन्हें हटाने की या तोड़ने की मांग भी कर सकते हैं। परिस्थितियों तथा लोगों के अनुभव के आधार पर काफी अलग–अलग विचार प्राप्त हो सकते हैं, अत: जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षण के स्थान पर लोगों से विस्तृत बातचीत के लिए आयोजित संवादों की अधिक जरूरत है। फिलहाल कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक सहमति बना कर इन पर तेजी से काम आगे बढ़ाना चाहिए। यह कार्य इस तरह का होना चाहिए जिससे निश्चित लाभ मिलेगा, कोई नुकसान नहीं होगा और शीघ्र ही बाढ़ की समस्या का संतोषजनक समाधान निकालने में मदद मिलेगी।सबसे पहली बात तो यह है कि नदियों के जल–ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा व मिट्टी तथा जल–संरक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर होना चाहिए। यह कार्य बहुत सार्थक तो है पर साथ ही इसके नाम पर पहले ही बहुत भ्रष्टाचार हो चुका है। अत: इसे बहुत सावधानी से करना होगा ताकि हरियाली केवल सरकारी कागजों तक ही न सिमटी रह जाए।
दूसरी बात यह है कि जिन क्षेत्रों को तटबंधों व बड़े बांधों से ‘बाढ़-सुरक्षा’ दिए कई वर्ष बीत चुके हैं, ऐसे कुछ क्षेत्रों का निष्पक्ष व विस्तृत अध्ययन होना चाहिए जिससे यह निर्णयात्मक तौर पर स्पष्ट हो जाए कि इस तरह वास्तव में बाढ़ सुरक्षा के नाम पर अरबों रूपए भविष्य में भी खर्च करते रहना उचित है या नहीं? इन अध्ययनों में प्रभावित लोगों से विस्तृत बातचीत होनी चाहिए और इस संवाद को पूरा का पूरा प्रकाशित करना चाहिए। इस अध्ययन का तौर–तरीका और उसके परिणाम पूरी तरह पारदर्शी होने चाहिए।
बड़े बांधों के संचालन और प्रबंधन को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाना चाहिए जिससे लोगों को पूरी जानकारी उपलब्ध हो सके कि कब और किस स्थिति में कितना पानी इनसे छोड़ा जाता है और इसका बाढ़ की स्थिति पर क्या असर होता है।
बाढ़ से बार-बार प्रभावित होने वाली नदियों के मार्ग में ऐसे गहरे तालाब बनाने चाहिए या पुराने तालाबों की मरम्मत होनी चाहिए, जिनमें बाढ़ के समय नदियों का पानी एकत्र हो सके।
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बाढ़ से पहले के महीनों में ऐसे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिए जहां सरकारी अधिकारियों व मीडिया की उपस्थिति में लोग अपनी समझ के अनुसार बताएं कि उन्हें बाढ़ से सुरक्षा कैसे मिल सकती है, बाढ़ के समय उन तक बेहतर राहत कैसे पहुंच सकती है तथा बाढ़ राहत या नियंत्रण का पैसा उनके क्षेत्र में कैसे खर्च होता रहा है। लोगों से पूछना चाहिए कि बाढ़ नियंत्रण व राहत के काम पर खर्च हो रहे इस धन का क्या कोई बेहतर उपयोग हो सकता है। जिन गांवों में तटबंध अनेक वर्षों से बने हुए हैं वहां के लोगों से विस्तार से पूछना चाहिए कि क्या वे तटबंधों की मरम्मत व बेहतर रख-रखाव चाहते हैं या उनसे मुक्त होना चाहते हैं। इन सम्मेलनों में बाढ़ प्रभावित लोग जो कहते हैं उसे सही ढंग से डाक्यूमेंट किया जाना चाहिए ताकि नीति–निर्धारण से पहले उसे ध्यान में रखा जा सके। साथ ही बाढ़ राहत की तैयारी बेहतर होनी चाहिए। हैलीकाप्टरों व हवाई जहाजों से राहत सामग्री गिराने के स्थान पर इसे पर्याप्त नावों की समुचित व्यवस्था व स्थानीय मल्लाहों, नाविकों आदि के रोजगार के तहत दूर–दूर के गांवों में पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
बाढ़ से रक्षा के लिए विभिन्न राज्यों में तथा पड़ोसी देशों से बेहतर संवाद व सहयोग होना चाहिए। बाढ़ के बारे में केवल बाढ़ के समय सोचने की आदत को छोड़कर बाढ़ से रक्षा, बाढ़-राहत की तैयारी व अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए विकास की उचित नीतियां तैयार करने पर निरंतरता से कार्य होना चाहिए। परंपरागत बीजों में पर्याप्त खोजबीन कर ऐसे बीजों के बारे में पता लगाना चाहिए जो स्थानीय परिस्थितियों में अधिक पानी को सहने की क्षमता रखते हैं या अन्य तरह से इन क्षेत्रों के लिए अनुकूल हैं। ऐसे बीज यहां के किसानों को अधिक मात्रा में न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध होने चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार
Tuesday, September 9, 2008
राष्ट्रीय आपदा के तहत् सहायता
बिहार में बाढ़ राष्ट्रीय आपदा घोषित की गई है। अमूमन राष्ट्रीय आपदा की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है। इस बार भी प्रधानमंत्री ने बिहार के पांच जिलों का दौरा कर कोसी का प्रकोप देखा और तभी इसे राष्ट्रीय आपदा करार दिया। इसके बाद राष्ट्रीय आपदा अधिनियम के तहत बिहार को केंद्र से मदद मिलनी शुरू हुई। इस अधिनियम के तहत प्रभावितों को कई तरह का मुआवजा केंद्र द्वारा पहुंचाया जाता है। मुआवजा देने की अधिकतम समय सीमा भी तय है, जो 45 दिनों की है। इसके तहत दी जाने वाली सहायता–
राज्य सरकार द्वारा घोषित मृतकों के आश्रितों को एक-एक लाख रूपए की सहायता राशि।
शारीरिक रूप से विकलांग हुए लोगों को 35 से 50 हजार रूपए तक की सहायता राशि।
गंभीर चोट खाए लोगों को 2500–7500 रूपए की सहायता राशि।
संदिग्ध नहीं संधि
कोसी द्वारा जल प्लावन के विकराल रूप धारण करने की खबरें जैसे ही आनी लगी, नेपाल को खलनायक के रूप में पेश किया जाने लगा। कोसी का उद्गम स्रोत नेपाल है और बांध भी कुसहा में टूटा। इस नाते नेपाल की आ॓र उंगली उठनी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन क्या वाकई नेपाल इस प्रलय सदृश स्थिति के लिए जिम्मेदार है? केवल कोसी ही नहीं, बिहार खासकर उत्तर बिहार की बाढ़ का मुख्य स्रोत ही नेपाल है। चाहे वह बूढ़ी गंडक हो या बागमती, कमला हो या भूतही बलान, सभी का उद्गम स्थल नेपाल है। भारत-नेपाल के बीच इन नदियों के प्रयोग एवं परियोजनाओं पर अलग–अलग संधियाँ हैं। यहां हम कोसी पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे तो दोनों देशों की नदी जल से जुड़ी सारी बातें स्पष्ट हो जाएंगी।
1954 की कोसी संधि में भारत ने कोसी परियोजना की रूपरेखा बनाने से लेकर निर्माण, संचालन, रख–रखाव आदि की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है। नेपाल तब बहुत कुछ करने की हालत में नहीं था और दोनों के बीच विश्वास इतने गहरे थे कि एक बार कोसी परियोजना तय हो गई तो फिर केवल औपचारिकता के लिए संधि की गई। यह आपसी सहयोग की भावना से की गई विश्वास पर आधारित संधि थी। कहा जाता है कि संधि के अनुसार नेपाल के लिए करने को बहुत कुछ बचता नहीं है। उसे व्यवहार में केवल भारत को काम करने की, वहां आवश्यक बोल्डर बगैरह रखने की अनुमति देनी है। यह पूरा सच नहीं है। बिहार सरकार बांधों की मरम्मत में कोताही बरत रही थी तो नेपाल ने पानी के बहाव की मॉनिटरिंग एवं बाढ़ की चेतावनी देने की जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। उनकी सोच शायद यह थी कि यह उनके लिए बडा़ खतरा साबित नहीं होगा। नेपाल में लंबे समय तक के राजनीतिक गतिरोध के कारण समस्या गंभीर हुई। माआ॓वादियों की यंग कम्युनिस्ट लीग एवं जनशक्ति सेना ने इंजीनियरों व ठेकेदारों को मरम्मत का काम करने नहीं दिया। यानी माआ॓वादियों के उभार से भारत के ठेकदारों व इंजीनियरों के लिए काम करना मुश्किल हुआ है। किंतु इसमें बाधा संधि नहीं आपसी व्यवहार है।
दरअसल, सारी नदी परियोजनाएं, सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार की शिकार हैं और वे नेपाल तक विस्तारित हैं। बिहार में सिंचाई विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काम करने वालों ने स्वीकार किया है कि प्रतिवर्ष निर्माण एवं मरम्मती के नाम पर निर्गत होने वाली 250–300 करोड़ रूपये का 30 प्रतिशत से भी कम खर्च होता है और शेष इंजीनियरों, नेताओं व अधिकारियों की जेब में चला जाता है। नेपाल के दबंग लोगों ने भी इसमें हिस्सेदारी मांगनी शुरू की। माआ॓वादियों के उभार के बाद मांग इतनी बढ़ गई कि ठेकेदार के लिए इसे पूरा करना संभव नहीं हुआ। दूसरी आ॓र माआ॓वादी नदी परियोजनााओं के विरूद्ध अभियान भी चलाए हुए थे और उन्होंने जो थोडा़ बहुत बोल्डर वहां रखा था उसे हटवा दिया। किंतु सोचने वाली बात है कि मरम्मत का काम तो जनवरी से मार्च तक समाप्त हो जाना चाहिए। जुलाई-अगस्त में चिंता क्यों की गई? सिंचाई विभाग की यही कार्यशैली है। संधि के प्रावधान अपनी जगह हैं लेकिन व्यवहार में भ्रष्टाचार, लापरवाही एवं नेपाल के माआ॓वादियों के विरोध की ही मुख्य भूमिका है। संधि के अनुसार आपात स्थिति के लिए जितने बोल्डर एवं अन्य सामग्री वहां रहनी चाहिए, कभी नहीं रहती एवं कालाबाजार में बिक जाती है। ये कारण सभी परियोजनाओं पर लागू होती है। जाहिर है, भारत और नेपाल के बीच पुराने दौर की सद्भावना हो और दोनों के राजनीतिक प्रतिष्ठान तय करें तो मौजूदा संधियों के तहत भी ऐसी भयावह स्थिति को टाला जा सकता है। माआ॓वादियों के नेतृत्व में नई गठजोड़ सरकार के प्रधानमंत्री प्रचंड ने कोसी संधि को अन्यायपूर्ण कहकर इसकी समीक्षा की मांग की है। 1959 की गंडक संधि की समीक्षा की भी मांग है। 1996 की महाकाली पंचेश्वर परियोजना को ये नेपाल की तत्कालीन शेर बहादुर देउबा सरकार की भूल करार देते हैं। क्या संधियों की समीक्षा एवं इसमें बदलाव या इन्हें रद्द कर देने से इसका निदान निकल जाएगा? 19 दिसंबर 1966 को कोसी संधि में संशोधन करके नेपाल के लिए कोसी नदी, सन कोसी एवं उसकी अन्य सहायक नदियों के पानी का सिंचाई सहित अन्य प्रकार के उपयोगों के पूरे अधिकार का शब्द डाला गया। यानी नेपाल को इसका स्वामित्व मिल गया है। भारत को बैराज में उपलब्ध पानी को संतुलित करने का अधिकार मिला। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि कोसी संधि नेपाल के लिए बिल्कुल अन्यायपूर्ण है। मूल बात व्यवहार की है। वाल्मिकी नगर गंडक परियोजना को देख लीजिए, उसमें भी नेपाल अधिकारविहीन नहीं है। किंतु वहां भी यही आलम है- भ्रष्टाचार, आपसी तनाव। भारत पर अन्याय करने का आरोप। प्रश्न है कि किया क्या जाए?
साफ है कि दोनों देशों की सहमति से ही नदी जल समस्याओं का निदान हो सकता है। दोनों जो भी निर्णय करें लेकिन मरम्मत, रख–रखाव एवं गाद की सफाई का संयुक्त माकूल तंत्र खडा़ नहीं होगा तो कुछ नहीं हो सकता। बैराज में गाद बढ़ेगा तो नदी धारा बदलेगी। नेपाल के लिए भी अतिरिक्त पानी छोड़ने की मजबूरी होगी एवं इसका परिणाम हमारे यहां बाढ़ ही होगा। इसे आप नहीं टाल सकते। कहा जा रहा है कि कोसी बांध की उंचाई बढा़ना इसका निदान है। यानी बांध ऊंचा होने से ज्यादा पानी रूकेगा, जिससे बिजली भी ज्यादा बनेगी एवं सिंचाई के लिए सुरक्षित जल उपलब्ध रहेगा तथा बाढ़ भी नहीं आएगी। 2004 के कोसी बाढ़ के बाद दोनों देशों ने कोसी बांध की ऊंचाई बढा़ने वाली महापरियोजना जिसे सप्तकोसी बहुद्देश्यीय परियोजना कहते हैं, पर तेजी से कम करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार नेपाल के आ॓खलाढुंगा जिले में सन कोसी नदी पर एक बांध बनेगा, जिसकी ऊंचाई 269 से 335 मीटर की जानी है। इसमें नेपाल एवं बिहार में 6 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेतों की सिंचाई होगी। स्वयं नेपाल ने इसमें एक डायवर्जन का प्रस्ताव रखा था जिसमें सन कोसी का जल एक नहर के माध्यम से मध्य नेपाल के कमला नदी में आनी है। इससे जुड़े अन्य नहरों से मध्य नेपाल में कोसी नदी के पूरब बागमती तक के खेतों की सिंचाई की योजना है। भारत सरकार ने 29 करोड़ रूपया इसके प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर खर्च कर दिया है। संधि की समीक्षा का अर्थ इस परियोजना का खटाई में पड़ना है। शायद नेपाल की नई सरकार इसके लिए तैयार हो जाएगी।
नेपाल के विदेश मंत्री उपेंद्र यादव हाल में भारत में थे और उन्होंने कहा कि उनकी सरकार बड़ी बिजली परियोजनाओं के पक्ष में है। इनके अलावा तत्काल चार काम किया जाना चाहिए। एक, बीरपुर क्षेत्र के जो लोग नेपाल की आ॓र गए हैं, उनके पास भारत आने का एकमात्र विकल्प महेन्द्र राजमार्ग है। नेपाल अपने राहत शिविरों में इन्हें स्थान दे और इसका हिसाब रखे। भारत सरकार इसके लिए नेपाल से बात करे एवं अपने करीब 50–60 हजार नागरिकों के लिए उसे धन प्रदान कर दे। दूसरे, जो लोग उस रास्ते पुन: बिहार में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें आने दिया जाए। इसे स्थायी व्यवस्था का रूप मिले ताकि जब भी ऐसी स्थिति हो लोग उस मार्ग का उपयोग कर सकें। तीसरे, दोनों देशों के नदी जल विशेषज्ञों की सरकारी मॉनिटरिंग में बातचीत आरंभ की जाए और जो तय हो उसे लागू किया जाए। चौथे, नेपाल चाहता है तो नदी जल समझौतों की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए।
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जल प्रलय या आपराधिक लापरवाही
सावधानी हटी दुर्घटना घटी
सुरेंद्र किशोर (वरिष्ठ पत्रकार)
बिहार सरकार, भारत सरकार, नेपाल सरकार और पक्ष- विपक्ष के अधिकतर नेतागण, कोशी बाढ़ विपदा को लेकर सब के सब पीड़ित जनता व अन्य जानकार लोगों के सवालों के कठघरे में हैं। सवाल यह है कि समय रहते और मौका मिलने पर कितने लोगों ने ईमानदारी व कार्य कुशलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई? सबको बारी-बारी से इसका जवाब देना है। पर अभी तो सब एक-दूसरे पर आरोप लगाने में लगे हुए हैं या फिर अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश में हैं। उधर, पूर्वोत्तर बिहार के करीब 30 लाख बाढ़ पीड़ितों के रिलीफ व पुनर्वास का विशाल काम अभी लंबे समय तक जारी रहना है। यह विपदा इतनी बड़ी है कि इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण इतिहास में खोजे नहीं मिल रहा है। यह विपदा कितनी दैवी है और कितनी मानवनिर्मित, इस पर भी बहस जारी है। पक्ष-विपक्ष के नेताओं की आ॓र से जो बना–बनाया बयान रोज ब रोज परोसा जा रहा है, वह यह है कि हम नहीं बल्कि हमारे राजनीतिक विरोधी ही इसके लिए जिम्मेदार हैं।
ऐसे बयान पढ़ और सुनकर लोग बाग हैरान हैं। कोसी तटबंध विध्वंस के लिए जिम्मेदार तत्वों को लेकर रोज ब रोज नए-नए तथ्य भी मीडिया में आ रहे हैं। अब तक मिली जानकारियों के आधार पर मोटा- मोटी इस दुर्घटना की जो तस्वीर उभरती है, उसके अनुसार कमोवेश सभी संबंधित पक्ष जिम्मेदार लग रहे हैं। हालांकि कुछ बातें इतनी तकनीकी और पेचीदगी भरी है कि उनके आधार पर कोई उच्चाधिकारप्राप्त आयोग ही जांच के बाद किसी ठोस नतीजे पर पहुंच सकता है। इतनी बड़ी दुर्घटना के लिए कौन-कौन से तत्व व पात्र जिम्मेदार रहे हैं, इसकी जांच जरूरी मानी जा रही है। अन्यथा ऐसी किसी अन्य दुर्घटना की आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता।
मामला इतना संश्लिष्ट है कि एक ही सरकारी पत्र को आधार बना कर सत्ताधारी पक्ष अपना बचाव कर रहा है तो विरोध पक्ष कोसी तटबंध को टूटने से बचाने में विफल रहने के लिए सरकार पर बयानी हमला कर रहा है। वह पत्र वीरपुर, नेपाल स्थित जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार के मुख्य अभियंता सत्यनारायण का है। नौ अगस्त 2008 को मुख्य अभियंता ने काठमांडू स्थित संपर्क पदाधिकारी अरूण कुमार को लिखा कि ‘सूचित करना है कि आरक्ष, बन टप्पू प्रक्षेत्र, कुशहा, जिला–सुनसरी(नेपाल)कार्यालय के समीप पूर्वी बहोत्थान बांध के स्पर किलोमीटर 12.90 पर कोशी नदी के तीव्र प्रवाह के कारण भीषण कटाव जारी है। अंतत: बांध वहीं टूटा। रात-दिन बाढ़ संघर्षात्मक कार्य कराए जा रहे हैं। इस स्पर पर भारतीय भूभाग से आवश्यक बाढ़ सामग्री नेपाल प्रभाग में ले जाने में भंटावारी कस्टम, सुनसरी (नेपाल)द्वारा अनावश्यक विलंब किया जा रहा है। साथ ही स्थल पर कार्यरत मजदूरों को बनटप्पू आरक्ष सेना, कुशहा द्वारा कार्यस्थल से भगा दिए जाने के कारण बाढ़ संघर्षात्मक कार्य प्रभावित हो रहे हैं।
’मुख्य अभियंता ने लिखा कि ‘अत: स्थल को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से नेपाल प्रशासन से सहयोग की अपेक्षा की जा रही है। अनुरोध है कि इस संदर्भ में उच्चस्तरीय सहयोग हेतु समुचित कार्रवाई करना चाहेंगे।’ इस पत्र की प्रतियां उन्होंने पटना स्थित अपने विभाग के अफसरों को भेजी या नहीं, यह बात इस पत्र की फोटो कापी देखने से साफ नहीं है। पर बाद में सत्यनारायण ने जो चिटि्ठयां उन्होंने 14, 15 और 16 अगस्त 2008 को भेजीं, उनकी प्रतियां उन्होंने पटना में अपने उच्चाधिकारियों को भी भेजीं। तब तक स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी। तटबंध की रक्षा नहीं की जा सकी और इस बीच 18 अगस्त को तटबंध टूट गया। उससे बिहार के आधा दर्जन जिलों में जो प्रलयंकर बाढ़ आई, उसकी हृदय विदारक पीडा़ लोगबाग झेल रहे हैं। अनेकानेक पीड़ितों की दर्दनाक स्थिति टीवी पर देखकर देश-प्रदेश के अनेक लोग मर्माहत हैं।
इस बीच मुख्य अभियंता सत्यनारायण के पत्र को बिहार के सत्ताधारियों ने इस तरह अपने बचाव का हथियार बनाया कि उस पत्र के अनुसार मजदूरों को वहां काम नहीं करने दिया गया और कस्टम के लोगों ने भी आवश्यक बाढ़ सामग्री को स्थल पर ले जाने में अनावश्यक विलंब कराया। पर दूसरी आ॓र प्रतिपक्ष ने आरोप लगाया कि मुख्य अभियंता द्वारा बार-बार पत्र लिखे जाने के बावजूद बिहार सरकार ने समय रहते तटबंध को कटने से रोकने के लिए समुचित कदम नहीं उठाया। इसको लेकर राजद नेता और राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री जगदानंद ने कहा कि ‘बांध टूटा नहीं है बल्कि उसे तोडा़ गया है। उन्होंने कहा कि छह अगस्त से ही एफलक्स बांध में रिसाव शुरू हो जाने की जानकारी बिहार सरकार को थी। पर उसे रोकने के लिए कार्रवाई नहीं की गई। इसके लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उनकी सरकार कातिल है और उन्हें एक दिन जेल जाना पड़ेगा।’ बिहार जदयू के अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह ने कहा कि राजद गलतबयानी कर रहा है। राज्य सरकार ने पांच अगस्त से ही कोसी के कटाव वाले स्थल पर कटाव रोकने के लिए काम शुरू कर दिया था लेकिन नेपाल के स्थानीय लोगों और वहां के प्रशासन का सकरात्मक सहयोग नहीं मिल सका। नौ, चौदह, पंद्रह और सोलह अगस्त को नेपाल स्थित भारतीय दूतावास और केंद्र सरकार को पत्र लिखकर स्थिति से अवगत करा दिया गया था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी से बातचीत की। फिर भी केंद्र सरकार की आ॓र से सकारात्मक पहल नहीं की जा सकी।
याद रहे कि जहां कोसी का तटबंध टूटा है, वह स्थल नेपाल में है। वहां मरम्मत व दूसरे कार्यों को लेकर आए दिन माआ॓वादियों के विरोध का सामना बिहार सरकार के सिंचाई विभाग के अफसरों को करना पडा़ है। हाल के महीनों में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहा, इस कारण भी तटबंध पर काम करने में नेपाल सरकार पहले जैसा सहयोग नहीं दे सकी। 1993 में भी उसी स्थल पर कटाव का खतरा उपस्थित हुआ था। तब के सिचाई मंत्री जगदानंद और सिंचाई सचिव विजय शंकर दुबे के अथक प्रयास से कटाव नहीं होने दिया गया था। तब आज के सिंचाई मंत्री विजेंद्र यादव लालू मंत्रिमंडल के सदस्य थे और उस स्थल पर जगदानंद के साथ गए भी थे। वे उस स्थल की नाजुक स्थिति को देख चुके थे। फिर भी इस बार वे भरपूर तत्परता नहीं दिखा सके, इसको लेकर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है।
हाल में नेपाल के एक अखबार ‘सिंहनाद ’ में प्रकाशित एक खबर का शीर्षक था,‘ कोशी बाढ़ पर नेपाल सरकार द्वारा गलती स्वीकार’। उस खबर के अनुसार,‘माआ॓वादी के तमाम नेताओं और मंत्रियों द्वारा कोसी बांध के टूटने के पीछे भारत को दोषी ठहराने की होड़ चली लेकिन आज सरकार के प्रमुख अधिकारी ने स्वीकार किया कि बांध टूटने में भारत नहीं बल्कि नेपाल सरकार दोषी है। गृह मंत्रलय के प्रमुख सचिव उमेश कांत मैनाली ने कहा कि समय पर भारत सरकार और उनके अधिकारियों के साथ समन्वय नहीं किए जाने के कारण ही सप्त कोशी बांध टूट गया है। संविधान सभा के अध्यक्ष सुबास नेमांग द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक में गृह सचिव ने अपनी सरकार की कमी– कमजोरी को स्वीकारा।’ यानी इस बांध को बचाने की जिम्मेदारी देश-विदेश के जिन जिन तत्वों पर थी, उन लोगों ने यदि दूरदर्शितापूर्ण काम किए होते तो शायद ऐसी विपदा सामने नहीं आती।
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हमने ही तैयार किया जल बम
प्रस्तुति : सत्येंद्र शुक्ल
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आपदा प्रबंधन की आपदाएं
अपने समाज में भेड़ चाल की मानसिकता सबसे ज्यादा संगठित और सक्रिय दिखती है। संसद में पूछे जाने वाले सवालों की फेहरिस्त में यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि पिछले कई वर्षों से देश में बाढ़ के समाधान को लेकर बाढ़ग्रस्त राज्यों के सांसदों ने कोई सवाल नहीं पूछा। क्या यह माना जाए कि संसद सदस्यों ने बाढ़ को एक मौसम की तरह मान लिया है? संसद सदस्यों की मानसिकता पूरी सत्ता की मानसिकता है। यही मानसिकता तो राज करती है। एक खास पहलू और है। सत्ता की मानसिकता हर क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद खड़ी कर देती है। बाढ़ आपदाओं की सूची में सबसे निचले पायदान पर दिखती है। नई आपदाएं अब ऊपर की श्रेणी में पहुंच गई हैं। जिस तरह से आपदा की सूची में आपदाओं की एक वर्ण व्यवस्था बनती है, उसी तरह से आपदाओं से ग्रस्त इलाके की सूची में एक ऐसी ही व्यवस्था बनती है। उड़ीसा और गुजरात की आपदाओं पर दो भिन्न दृष्टिकोण देखे गए थे। अब बिहार और असम के मामले में भिन्नता देखी जा सकती है। आखिर यह मानसिकता क्यों जड़ जमाए हुए है? क्या बिना इस पर प्रहार किए आपदाओं को लेकर कोई सार्थक बात हो सकती है? इस तरह यह भी देखा जाए कि अब आपदाओं को रोकने के लिए योजना पर कम बातचीत होती है। आपदा प्रबंधन पर ही ज्यादा बातचीत होती है। ज्यादा बातचीत के सबूत के लिए पिछले दसेक वर्षों के दौरान संसद में सरकार से पूछे जाने वाले सवालों को आधार बनाया जा सकता है। कई आपदाएं प्राकृतिक होती हैं। लेकिन अब स्थिति यह बन गई है कि जो आपदाएं प्राकृतिक नहीं मानी जा सकती हैं, जिनके बारे में तय है कि वे आपदाएं आएंगी और उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है उन्हें भी प्राकृतिक आपदाओं की सूची का स्थायी हिस्सा मान लिया गया है। बाढ़ ऐसी आपदाओं में हैं। सूखा को भी उसमें शामिल किया जा सकता है। खेतों को पानी मिले इसके लिए सिचाई की व्यवस्था हो तो उसे दैविक प्रकोप मान लेने से बचा सकता है। लेकिन योजनाकारों के जेहन में यह बात बैठी हो कि लोगों के विचारों में इस तरह की आपदाओं को दैविक बने रहने दिया जाए और उसमें ही उसकी भलाई है तो ऐसी आपदाओं को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में ही स्थायी रूप से डालने की योजना बनती रहेगी। बिहार के कोसी आपदा को तो देखकर लगता है कि इस तरह की भी कोशिश हो सकती है कि बाढ़ के नाम पर बड़ी तबाही भी खड़ी की जा सकती है।
दरअसल व्यवस्था की एक मानसकिता होती है और वह हर स्तर पर सक्रिय रहती है। उसका उद्देश्य समानता मूलक कोई समाज खड़ा करने का नहीं है। ऐसी सत्ता में काबिज वर्ग को अपने हितों की ही चिंता होती है। हित यदि इस बात में है कि आपदाओं को नियंत्रित करने की योजना की बजाय आपदा प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जाए तो क्या देखने को मिल सकता है? संसद में यदि पिछले कई वर्षों से आपदा प्रबंधन के बारे में ही सवाल पूछे गए तो इसे इस दौर की मानसिकता की पड़ताल का आधार बनाना चाहिए। यह प्रबंधन बाजारवाद की भाषा के रूप में आता है। दूसरी आपदाओं के बाद उससे अपने हित साधने वाले वर्ग और इस तरह के प्रबंधन के बीच टकराव चल रहा है। इसलिए 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम के बनने के बाद जिले स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाने की योजना का ऐलान किया गया लेकिन देश के कई हिस्सों में तो उसका नाम तक नहीं पहुंचा है।
देश में कई ऐसी समस्याएं हैं जिनके बारे में समाधान की दिशा ही बदल दी गई है। लगता है कि समस्याएं समाधानों के टकराव में फंसी हुई हैं। सत्ता का जोर जिस तरह के समाधान पर होता है उसे समाज के अनुभव खारिज करते हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता अपने समाधानों के लिए या तो परिस्थितियां पैदा होने का इंतजार करती है या फिर स्थितियां तैयार करती है। बाढ़ जैसी समस्या का समाधान कैसे होगा? पहले समाज का अनुभव था कि नदियों की धाराओं के साथ छेड़छाड़ न किया जाए। छोटे बांध बनने चाहिए। बिहार में कोसी से जो तबाही हुई है उसमें बाढ़ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि बड़ा बांध बनना चाहिए। वहां साढे पांच हजार मेगावाट बिजली भी पैदा की जा सकती है। लेकिन अब बिजली के लिए सरकार परमाणु की तरफ चली गई है और बाढ़ और सूखा से बचने के लिए देश की सारी नदियों को जोड़ देने की योजना में भिड़ी हुई है। आपदाओं के नुकसान की भरपायी की प्रबंधकीय व्यवस्था कर रही है। पहले कहा जाता था कि आपदा के लिए फंड तैयार किया जाए। अब एक मंत्रालय बनाने पर जोर दिया जा रहा है। सुधारों की इस दिशा से अब तक क्या किसी ऐसी समस्या का समाधान हो सका है?
ढांचे विचारों से चलते हैं। विचारों में जब बाढ़ और सूखे को मौसम की तरह आपदाओं को मान लेने की मानसिकता है तो उसमें प्रबंधन का ठीक-ठाक ढांचा खड़ा हो पाएगा, यह कहना बड़ा मुश्किल है। इस बार बिहार की तबाही के बाद एक अनुभव यह हुआ कि बिहार के लिए कुछ पैसे अपनी जेब से देने को लोग तैयार तो दिखे लेकिन वे पैसे किसे दें ताकि वह सही जगह पर पहुंच सकें, यह भरोसा ही ऐसे लोगों के बीच से गायब था। पहले कम से कम लोग यहां तक भरोसा करते थे कि जो ऐसे काम के लिए पैसे लेगा और उसका सही उपयोग नहीं करेगा तो उसे अपने आप सजा मिलेगी। लेकिन परंपराओं, रूढियों, मान्यताओं, सामाजिक मान-मर्यादाओं पर जितने भी ढांचे खड़े थे सब टूट चुके हैं। कोई रिलीफ कमेटी की बात नहीं सुनी जाती।
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पहले भ्रष्टाचार अब बाढ़ में डूबा समाज
कोसी के कसूरवार
Tuesday, September 2, 2008
बाढ़ का हवाई सर्वे
Monday, September 1, 2008
एक चिट्ठी मोहल्ले में
अविनाश जी वीरपुर जहाँ से कोसी ने बिहार को रौंदना शुरू किया है, मेरी जन्मस्थली है। १८ अगस्त को जब कुसहा का तटबंध टूट चुका था और सुपौल के डी एम को इसकी ख़बर नहीं थी, उसके तीन-चार दिनों पहले ही लोगों को आने वाली विपदा का आभास हो गया था, और छिटपुट लोग अपने परिवारों के साथ सहरसा, फोरबिसगंज, पटना अथवा दिल्ली के लिए भागने लगे थे। मेरे बाबूजी माँ, दोनों बहुओं और बच्चों को लेकर आनन-फानन में सहरसा चले गए और घर पर केवल छोटा भाई रह गया। बड़े भाई साहब इधर अपने काम के सिलसिले में ज्यादातर यू पी में रहते हैं और अब भी वहीं थे। वीरपुर, भीमनगर, बलुआ बाज़ार, बिसनपुर, चैनपुर, तुलसीपट्टी , तिलाठी, नरपतगंज, प्रतापगंज, जयनगरा, सुरसर, बथनाहा, सीतापुर, भवानीपुर, अरिराहा, निर्मली, राघोपुर, कटैया आदि गाँव और हाट-बाज़ार सब उस तीस-चालीस किलोमीटर के दायरे में हैं जहाँ कोसी ने सबसे ज़्यादा रौद्र रूप दिखाया है और ये इलाके जो कभी नवधान्य, पटुआ, कास-पटेर, केला, आम-कटहल-लताम-जामुन-बेर-मखान, मूंग-खेसारी-आलू-कोबी-गेन्हारी-नोनहर-सजमनि-तोड़ी-मुनिगा, अड़हुल-जूही-सर्वजाया और माछ-भात से भरे-पूरे थे, अब इतिहास बन गए हैं। आपने बिल्कुल सही कहा है कि अब ये इलाके कभी नहीं बसेंगे।
१८ अगस्त को जब मृत्यु का यह सैलाब आया तो उसकी रफ्तार ऐसी थी जिसमे दोमंजिले-तिमंजिले मकान जड़ों से उखड़ गए, ९०-९५ प्रतिशत लोग अब भी अपने घरों में ही थे और आज इतने दिनों बाद भी जबकि पानी कहीं 1० फीट तो कहीं २० फीट की ऊंचाई तक भरा हुआ है, लोग अपने घरों से निकलने को तैयार नहीं हैं। ज्यादातर लोगों तक अभी कोई मदद नहीं पहुँची है और कई इलाकों में जाने को सेना भी तैयार नहीं है। बलुआ, बिसनपुर, वीरपुर, चैनपुर, छातापुर, प्रतापगंज आदि इलाकों में जहाँ दूर-दूर तक अट्टहास करती कोसी की जलधार के बीच मौत नाच रही है, लील रही है, विगत १८ अगस्त से हजारों जिंदगियां एक अंतहीन आस की डोर को पकड़े घिसट रही हैं। तिनका-तिनका सहेजकर बनाई अपनी दुनिया का मोह छुड़ाये नहीं छूटता। कैसे छोड़ जायें सबकुछ......चले भी जायें तो कैसे कटेगा जीवन? पहले ही किसने इनकी सुधि ली है जो अब लेगा? इन्हें किसी सरकार पर भरोसा नहीं है। मेरे छोटे वाले बहनोई साहब का पूरा परिवार जिसमे एक साल के बच्चे के साथ विधवा बहन, विवाहित छोटा भाई और वृद्ध माता-पिता हैं- १८ अगस्त से अपने गाँव बिसनपुर में फंसे हैं। आजतक उनके बारे में कोई सूचना नहीं मिल सकी है। बहनोई साहब जो मेरी बहन के साथ लुधियाना में रहते हैं, अपने सम्बन्धियों को फ़ोन कर-करके हताश हो गए हैं। कोई बिसनपुर जाकर जान जोखिम में डालने को तैयार नहीं।मैं ख़ुद उनको दिल्ली से फोन लगाता हूँ तो फट पड़ते हैं- किसी को चिंता नहीं है, सब अपना देखने में लगे हैं। फ़िर यह सोचकर कि वह ख़ुद घर के बड़े बेटे होकर भी नहीं पहुँच सके-एक तो अर्थाभाव और दूसरे मकान बदलने की अनिवार्यता की वजह से क्योंकि वर्त्तमान मकान मालिक काफी परेशान कर रहा है और इस हालत में मेरी बहन को दो छोटे बच्चों के साथ अकेले छोड़कर कैसे गाँव चले जायें? फ़िर भी वे कहते हैं- २-३ अगस्त तक मकान बदलकर निकल जाऊँगा।मुझे नहीं मालूम परिवार के अबतक सकुशल होने की कितनी उम्मीद उनके अन्दर बची है।
बड़े बहनोई साहब सपरिवार फोरबिशगंज, अररिया में हैं जहाँ से बाहर निकल पाना लगभग असंभव है। सरकार ने वहां शिविर लगाये थे पर विगत दो दिनों से बाढ़ का पानी प्रवेश कर जाने के बाद शिविर वहां से हटाये जाने की चर्चा चल रही है। करीब एक लाख शरणार्थी अभी वहां रह रहे हैं। फोरबिशगंज बाज़ार एक टापू की शक्ल ले चुका है और शायद एक दो दिन में वहां भी हालात बिगड़ने वाले हैं।
छोटे भाई को वीरपुर से निकालने के लिए बड़े भाई साहब २५ अगस्त को किसी तरह दस हज़ार में प्राइवेट नाव लेकर वीरपुर पहुंचे और रात भर नाव पर दोनों भाई सुबह का इंतजार करते रहे ताकि रास्ता भटकने अथवा बह जाने से बचें पर सुबह इतनी मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी कि अँधेरा छा गया और वहां से निकलना अनिवार्य हो गया। नाव तेज़ धार में बेकाबू होकर कुसहा की तरफ़ चली गयी और बड़ी मशक्कत के बाद वे लोग किसी तरह भंटाबाड़ी, नेपाल में किनारे पर पहुँच सके।वहां से किसी-किसी तरह सहरसा पहुंचे तब चार दिनों बाद सबके जान में जान आई।
पिताजी वीरपुर के ललित नारायण मिश्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद स्थानीय स्तर पर साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ चला रहे थे। बड़ी मुश्किल से एक दर्जन लोगों का परिवार चलाते हुए एक घर बना पाए थे। नौकरी ऐसी थी जिसमें कभी भी समय पर तनख्वाह नहीं मिली। अब पेंशन भी समय पर नहीं मिलता। २०-२५ बीघे पुश्तैनी खेत वहीं वीरपुर में थे जिसमें साल भर का अनाज उपज जाता था। अब सब कुछ एक इतिहास का हिस्सा है। छोटा भाई बेरोजगार है और बड़े भाई साहब बड़े होने नियतियाँ झेलते हुए पैंतालीस की उम्र में भूगोल नाप रहे हैं। मैं तो दिल्ली में सपरिवार माशा अल्लाह.....
सच यही है कि फिलहाल सहरसा में २००० रुपये किराये पर एक दो कमरों वाला मकान लेकर पूरा परिवार रह रहा है पर कबतक और आगे क्या होगा कुछ नहीं पता। न अनाज है, न बर्तन, न कपड़े, न बिस्तर, न चूल्हा और न अब आग ही बची है। सब बुझ गया ...बिखर गया...हवा हो गया। यह तो फ़िर भी एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसने इतनी भारी विपदा में भी जीने का जुगाड़ कर लिया पर क्या होगा उन लाखों निरीह, असहाय और पहले से ही असंभव जिंदगी जी रहे लोगों का जो सबंधु-बांधव पटना और दिल्ली और पंजाब और मुंबई और जाने कहाँ निकल पड़े हैं बची-खुची जिदगी की तलाश में.......... महानगरों की सड़कें, फुटपाथ, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, वेश्यालय, किडनियों के सौदागर और जाने कौन-कौन उनकी अगवानी में पलक-पांवडे बिछाए बैठे हैं...उन सबके लिए इस बार अच्छी फसल हुई है। फसल तो इस बार नीतीश बाबू के लिए भी सबसे अच्छी हुई है...जय हो कोसी मैया की।