Wednesday, September 10, 2008

कोसी की बाढ़ नहीं सरकार प्रायोजित जनसंहार

उत्तरी बिहार में पिछले १८ अगस्त से महाविनाश का जो तांडव चल रहा है उसे बाढ़ या प्राकृतिक आपदा कहने वाले या तो सरकारी मुलाजिम होंगे या फिर नीतिश के रिश्तेदार। मुख्यमंत्री ने जितने संगठित, सुनियोजित और दुर्लभ आक्रामकता के साथ इस भयावह जनसंहार को अंजाम दिया है उसका दूसरा उदाहरण इतिहास के बर्बर और जघन्य कालों में भी नहीं मिल सकता। क्या अब और ठहरकर सोचने का वक़्त है कि हम कैसे काल में जी रहे हैं ? क्या ऎसी सरकारों और इनके मुखियाओं के विरुद्ध आदिम ज़माने की बर्बर कार्रवाइयों के अलावा कोई विकल्प एक आम आदमी के पास बचता है ?
बिहार में पिछले १८ अगस्त से जनसंहार हो रहा है। आदमी के पास बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जा रहा, नहीं छोड़ा गया। या तो उसे डूबकर मरना है, या भूख से। अगर तब भी नहीं मरा तो सरकारी नावें बीच धार में उसे डुबो रही हैं। जितनी नावें लोगों को बचाने (मारने) में लगी हैं उससे ज़्यादा उनके खाली पड़े घरों को लूटने में लगी हैं। बिहार के सभी सामंतों, बाहुबलियों, अपहर्ताओं, डकैतों, लुटेरों, ठेकेदारों, बलात्कारियों को इस सरकारी महाअभियान में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गयी हैं और वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे हैं। जितने व्यापक पैमाने पर सरकार अपने लक्ष्य हासिल कर पा रही है उससे पता चलता है कि सरकार ने इस महाजनसंहार को अंजाम देने के लिए गंभीर पूर्वाभ्यास किया था। तभी तो एक तरफ सरकार इतनी ढिठाई के साथ इस जनसंहार के मामले में ख़ुद को पाक-साफ़ बताने में लगी है और पूरा सरकारी अमला हरबे-हथियार लेकर इस मामले में अपने सिवाय हर दूसरे को जिम्मेदार बता रहा है - तो दूसरी तरफ सबकुछ गँवा चुके, उजड़े-विस्थापित, स्वजन-सम्बन्धियों के मृत्युशोक से भरे, भूखे-बीमार, असहाय-निराश्रित लोगों के साथ बर्बरतम सलूक किया जा रहा है। उनकी बहू-बेटियों को बेइज्जत किया जा रहा है, बीमार बच्चों के लिए दवाइयाँ नहीं दी जा रहीं, भूख से बिलबिलाते बुजुर्गों, महिलाओं और गरीब-लाचार लोगों को खाना नहीं दिया जा रहा। सरकारी राहत शिविरों के वधस्थलों से जान बचाकर जो लोग परिवार लेकर अपने घर-गाँव लौट जा रहे हैं सरकारी सेना ''हांका'' देकर उन्हें वहां से भगा रही है। इन राहत(!) शिविरों की इससे बढ़कर और क्या असलियत होगी कि लोगों को अपने डूबे हुए घर इनसे ज़्यादा निरापद लग रहे हैं। सेना कैसी हुआ करती है इसका कड़वा अनुभव नेपाल की सीमा से लगे जिलों के लोगों ने अटल बिहारी के समय से ही लिया है।
सशस्त्र सीमा बल (यानि एस एस बी) की पिछले लगभग ७-८ वर्षों से उपस्थिति ने यहाँ के सीधे-सादे और अत्यन्त शांतिप्रिय जनजीवन में जितना ज़हर घोला है उससे समस्त क्षेत्र पहले ही सशंकित-आतंकित था/है। न केवल सुपौल, अररिया या अन्य सीमावर्ती जिलों के, बल्कि नेपाल के लोगों का जीवन भी इन सुरक्षा बलों ने दूभर कर रखा है। तस्करी रोकने एवं आई एस आई के तंत्र को ध्वस्त करने के लिए तैनात किए गए इन बलों ने यहाँ के सामाजिक जीवन को ही ध्वस्त किया है और भोले-भाले, निरीह लोगों को धमकाया है, यातनाएं दी हैं। गौरतलब है कि सुपौल के इन सीमावर्ती इलाकों में मुस्लिम समुदाय के लोगों की बहुतायत है और इनमें से ज्यादातर या तो खेतिहर मजदूर हैं या फिर कारीगरी का काम करने वाले। मुस्लिम समुदाय के अनगिनत युवक और महिलाएं इन बलों की ज्यादतियों के शिकार हुए हैं, पर इसकी शिकायत वे कहाँ करें यह एक बड़ा सवाल है। विरोध करने का एक बड़ा खतरा तो यह भी है कि इससे इन्हें आई एस आई का पक्षधर बता दिया जाए, जो कि होना ही है, और बदले में दुगुनी प्रतिहिंसा इन्हें झेलनी पड़ेगी। देश भर में सुरक्षा बलों ने नागरिक समुदायों पर जितने ज़ुल्म ढाए हैं इसकी मिसाल देने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। एस एस बी का जितना आतंक और गुंडाराज यहाँ चल रहा है उसकी गवाही इस इलाके का हर बच्चा-बच्चा दे सकता है। जनता और सरकार के संसाधनों को लूटने की खुली छूट पाए इन सुरक्षा बलों ने खूब पैसा तो बनाया ही है, यहाँ की बहुमूल्य वन सम्पदा की भी ये खुले आम तस्करी कर रहे हैं। वीरपुर, छातापुर, नरपतगंज, राघोपुर, करजाइन, बलुआ आदि इलाकों के बहुमूल्य शीशम के लाखों पेंड़ जो वन-विभाग के अंतर्गत आते थे , इन सुरक्षा बलों द्वारा कटवाकर गायब कर दिए गए हैं और पूरा इलाका पेंड़ विहीन होता जा रहा है।
कहने का तात्पर्य यह कि जिन सुरक्षा बलों का यह रूप यहाँ के लोगों ने देखा-महसूस किया है आज उसीकी रहनुमाई में रहने के लिए भला कैसे लोग तैयार होंगे? बिहार के इन इलाकों के लोगों का नेपाल की तराई क्षेत्र के लोगों के साथ जितना अपनापा रहा था, शादी-ब्याह, मुंडन-उपनयन, हाट-बजार, नैहर-ससुराल का जो अभिन्न-प्रगाढ़ रिश्ता था उसे ख़त्म करने में इन बलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और यहाँ के जन जीवन में साम्प्रदायिकता का बीजारोपण किया। आज सरकार इन लोगों को फिर सुरक्षा बलों के हवाले कर रही है। दरअसल जिंदा बचे लोगों को पूरी तरह कुचलने का यह अमोघ अस्त्र है सरकार की यही सोच है।
देशभर के-दुनिया भर के लोग जो एक सरकार द्वारा प्रायोजित मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करना चाह रहे हैं उनके सामने कोई चारा-कोई रास्ता नहीं है। उन्हें अपनी मदद उस सरकार के हवाले करने पर मजबूर होना पड़ रहा है जिसके बारे में अब हर कोई यह समझ रहा है कि यह नरमेध उसने ही रचा है। कैसे पहुचेगी कोई मदद, कौन पहुँचायेगा इन निरीह लोगों तक कोई मदद जब पूरी सरकार, सरकारी अमले, गुंडों-बलात्कारियों की पूरी सरकार समर्थित सेना चीलों-गिद्धों की तरह हर मदद पर बाज-झपट्टा मारने, अपने पैने दांत गाड़ने को तत्पर है।
सचमुच अब केवल भगवान के आसरे हैं ये लाखों-लाख लोग। आने वाले पांछ-छः महीनों में घर वापसी के कोई आसार नहीं। घर वापसी के बाद भी क्या होगा सब जानते हैं। क्या खाना है, कैसे जीना है किसी को पता नहीं। जो वापसी का सपना त्यागकर निकल पड़े हैं पटना, दिल्ली, मुंबई, पंजाब, हरियाणा और जाने कहाँ-कहाँ सचमुच में कहाँ जा रहे हैं ये लोग? इनके बच्चे, इनकी महिलाएं क्या करेंगी, क्या होगा इनका? सम्भव है इनमें से ज्यादातर बच्चे-औरतें देशी-विदेशी सेक्स-मंडियों में पहुच जायें, भीख मांगें, पुलिस के दैहिक मानसिक शोषण का शिकार बनें और ये मर्द नशा करें, अपराध करें, जेल जायें और इनका एनकाउंटर कर दिया जाए। बिल्कुल सम्भव है और यही तो इस देश के ग़रीबों का राजपथ है, इससे बचकर कहाँ जायेंगे?

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