अनिल चमड़िया
अपने समाज में भेड़ चाल की मानसिकता सबसे ज्यादा संगठित और सक्रिय दिखती है। संसद में पूछे जाने वाले सवालों की फेहरिस्त में यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि पिछले कई वर्षों से देश में बाढ़ के समाधान को लेकर बाढ़ग्रस्त राज्यों के सांसदों ने कोई सवाल नहीं पूछा। क्या यह माना जाए कि संसद सदस्यों ने बाढ़ को एक मौसम की तरह मान लिया है? संसद सदस्यों की मानसिकता पूरी सत्ता की मानसिकता है। यही मानसिकता तो राज करती है। एक खास पहलू और है। सत्ता की मानसिकता हर क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद खड़ी कर देती है। बाढ़ आपदाओं की सूची में सबसे निचले पायदान पर दिखती है। नई आपदाएं अब ऊपर की श्रेणी में पहुंच गई हैं। जिस तरह से आपदा की सूची में आपदाओं की एक वर्ण व्यवस्था बनती है, उसी तरह से आपदाओं से ग्रस्त इलाके की सूची में एक ऐसी ही व्यवस्था बनती है। उड़ीसा और गुजरात की आपदाओं पर दो भिन्न दृष्टिकोण देखे गए थे। अब बिहार और असम के मामले में भिन्नता देखी जा सकती है। आखिर यह मानसिकता क्यों जड़ जमाए हुए है? क्या बिना इस पर प्रहार किए आपदाओं को लेकर कोई सार्थक बात हो सकती है? इस तरह यह भी देखा जाए कि अब आपदाओं को रोकने के लिए योजना पर कम बातचीत होती है। आपदा प्रबंधन पर ही ज्यादा बातचीत होती है। ज्यादा बातचीत के सबूत के लिए पिछले दसेक वर्षों के दौरान संसद में सरकार से पूछे जाने वाले सवालों को आधार बनाया जा सकता है। कई आपदाएं प्राकृतिक होती हैं। लेकिन अब स्थिति यह बन गई है कि जो आपदाएं प्राकृतिक नहीं मानी जा सकती हैं, जिनके बारे में तय है कि वे आपदाएं आएंगी और उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है उन्हें भी प्राकृतिक आपदाओं की सूची का स्थायी हिस्सा मान लिया गया है। बाढ़ ऐसी आपदाओं में हैं। सूखा को भी उसमें शामिल किया जा सकता है। खेतों को पानी मिले इसके लिए सिचाई की व्यवस्था हो तो उसे दैविक प्रकोप मान लेने से बचा सकता है। लेकिन योजनाकारों के जेहन में यह बात बैठी हो कि लोगों के विचारों में इस तरह की आपदाओं को दैविक बने रहने दिया जाए और उसमें ही उसकी भलाई है तो ऐसी आपदाओं को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में ही स्थायी रूप से डालने की योजना बनती रहेगी। बिहार के कोसी आपदा को तो देखकर लगता है कि इस तरह की भी कोशिश हो सकती है कि बाढ़ के नाम पर बड़ी तबाही भी खड़ी की जा सकती है।
दरअसल व्यवस्था की एक मानसकिता होती है और वह हर स्तर पर सक्रिय रहती है। उसका उद्देश्य समानता मूलक कोई समाज खड़ा करने का नहीं है। ऐसी सत्ता में काबिज वर्ग को अपने हितों की ही चिंता होती है। हित यदि इस बात में है कि आपदाओं को नियंत्रित करने की योजना की बजाय आपदा प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जाए तो क्या देखने को मिल सकता है? संसद में यदि पिछले कई वर्षों से आपदा प्रबंधन के बारे में ही सवाल पूछे गए तो इसे इस दौर की मानसिकता की पड़ताल का आधार बनाना चाहिए। यह प्रबंधन बाजारवाद की भाषा के रूप में आता है। दूसरी आपदाओं के बाद उससे अपने हित साधने वाले वर्ग और इस तरह के प्रबंधन के बीच टकराव चल रहा है। इसलिए 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम के बनने के बाद जिले स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाने की योजना का ऐलान किया गया लेकिन देश के कई हिस्सों में तो उसका नाम तक नहीं पहुंचा है।
देश में कई ऐसी समस्याएं हैं जिनके बारे में समाधान की दिशा ही बदल दी गई है। लगता है कि समस्याएं समाधानों के टकराव में फंसी हुई हैं। सत्ता का जोर जिस तरह के समाधान पर होता है उसे समाज के अनुभव खारिज करते हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता अपने समाधानों के लिए या तो परिस्थितियां पैदा होने का इंतजार करती है या फिर स्थितियां तैयार करती है। बाढ़ जैसी समस्या का समाधान कैसे होगा? पहले समाज का अनुभव था कि नदियों की धाराओं के साथ छेड़छाड़ न किया जाए। छोटे बांध बनने चाहिए। बिहार में कोसी से जो तबाही हुई है उसमें बाढ़ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि बड़ा बांध बनना चाहिए। वहां साढे पांच हजार मेगावाट बिजली भी पैदा की जा सकती है। लेकिन अब बिजली के लिए सरकार परमाणु की तरफ चली गई है और बाढ़ और सूखा से बचने के लिए देश की सारी नदियों को जोड़ देने की योजना में भिड़ी हुई है। आपदाओं के नुकसान की भरपायी की प्रबंधकीय व्यवस्था कर रही है। पहले कहा जाता था कि आपदा के लिए फंड तैयार किया जाए। अब एक मंत्रालय बनाने पर जोर दिया जा रहा है। सुधारों की इस दिशा से अब तक क्या किसी ऐसी समस्या का समाधान हो सका है?
ढांचे विचारों से चलते हैं। विचारों में जब बाढ़ और सूखे को मौसम की तरह आपदाओं को मान लेने की मानसिकता है तो उसमें प्रबंधन का ठीक-ठाक ढांचा खड़ा हो पाएगा, यह कहना बड़ा मुश्किल है। इस बार बिहार की तबाही के बाद एक अनुभव यह हुआ कि बिहार के लिए कुछ पैसे अपनी जेब से देने को लोग तैयार तो दिखे लेकिन वे पैसे किसे दें ताकि वह सही जगह पर पहुंच सकें, यह भरोसा ही ऐसे लोगों के बीच से गायब था। पहले कम से कम लोग यहां तक भरोसा करते थे कि जो ऐसे काम के लिए पैसे लेगा और उसका सही उपयोग नहीं करेगा तो उसे अपने आप सजा मिलेगी। लेकिन परंपराओं, रूढियों, मान्यताओं, सामाजिक मान-मर्यादाओं पर जितने भी ढांचे खड़े थे सब टूट चुके हैं। कोई रिलीफ कमेटी की बात नहीं सुनी जाती।
www.rashtriyasahara.com से साभार
No comments:
Post a Comment