भाई प्रमोद रंजन की यह रिपोर्ट २४ अक्टूबर को उनके चिट्ठे संशयात्मा पर छपी है। इसमें उन्होंने बिहार के जन संहार की कुछ नयी गुत्थियाँ खोली हैं। देशकाल पर दुबारा इसे छापने का लोभ नहीं छोड़ सका।
राज्य सत्ता की जाति
प्रमोद रंजन
जो कुछ बताने जा रहा हूं वह एकबारगी तो मुझे भी अविश्वसनीय लगा. ज्यों-ज्यों कड़ियां जुड़ती गयीं, तस्वीर साफ होती गयी. यह बाढ़ आयी नहीं, लाई गयी है. कुशहा तटबंध तोड़ा तो नहीं गया लेकिन उसे टूटने का भरपूर मौका दिया गया. विपदा के बाद राहत कार्यों में सरकारी मशीनरी खुद ब खुद अक्षम साबित नहीं हुई, उसे अक्षम बनाये रखा गया. जातिवाद के लिए चर्चित बिहार में अंजाम दी गयी यह कथित लापरवाही, वास्तव में कम से कम आजाद भारत की सबसे बड़ी सुव्यवस्थित जाति आधारित हिंसा है. वर्ष २००८ के १८ अगस्त को कासी क्षेत्र में आयी बाढ़ में सरकारी आकड़ों के अनुसार कम से कम २५ लाख लोग तबाह हुए हैं. एक पुख्ता अनुमान के अनुसार लगभग ५० हजार लोग मारे गये हैं.
कोसी अंचल के दलित जब बिल में पानी जाने के बाद बिलबिलाती चींटियों की तरह मर रहे थे; यादवों के पशु, घर, खेत सब कोसी की धार में बहे जा रहे थे, ऐसे समय में सत्ताधारी दल जनता यूनाइटेड के राष्टीय प्रवक्ता के बयान ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार ने इन्हें बचाने की कोशिश क्यों नहीं कर रही. जदयू के राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने विपक्षी राष्टीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद की सक्रियता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 'भाई का दर्द भाई ही समझता है'. प्रेस को जारी इस बयान में तिवारी ने कहा कि चूंकि इसके पहले आयी बाढ़ से सहरसा, मधेपुरा (यादव बहुल जिले) नहीं प्रभावित होते थे इसलिए लालू इतने सक्रिय नहीं होते थे. 'भाई' की पीड़ा ने उन्हें इतना संवदेनशील बना दिया है कि वे इसके बीच कूद पड़े हैं. इस फूहड़ बयान के निहितार्थ गंभीर हैं. यह सच है कि बाढ़ग्रस्त इलाका यादव बहुल है, इसके अलावा वहां बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ों और दलितों की है. (सहरसा, सुपौल और मधेपुरा के बाढ़ग्रस्त इलाकों से गुजरते हुए, राहत शिविरों में बातचीत करते हुए, मुझे महसूस हुआ कि यहां दलितों की आबादी भी बहुत ज्यादा है)
लगभग ३० विधान सभा सीटों वाला बाढ़ से प्रभावित हुआ यह क्षेत्र लालू प्रसाद को बिहार की सत्ता में बनाये रखने का एक बड़ा कारण रहा था. लेकिन पिछली बार पासा पलट गया. कहते हैं कि उस समय इलाके के यादव लालू से नाराज हो गये थे. राष्टीय जनता दल के एक कद्दावर नेता बताते हैं कि 'राजद को बिहार की सत्ता से बेदखल करने में बड़ी भूमिका इस क्षेत्र की रही'. पिछले विधान सभा चुनाव में इन जिलों की अधिकांश सीटें राजद हार गया. अभी इस क्षेत्र की कुल २८-३० सीटों में से २२-२३ विधायक जदयू अथवा भाजपा के हैं. इसके बावजूद राजग की ओर से यह बयान आया कि यादव होने के कारण लालू इस क्षेत्र के लिए चिंतित हैं. बयान बताता है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में सिर्फ घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है. इसके पीछे जातिवाद का चरमावस्था है. ऐसा कुत्सित जातिवाद, जो यह हुंकार भरता फिर रहा है-यादवों, दलितों, अति पिछड़ों! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है.
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार में जाति-शत्रुओं के सफाये के लिए बाढ़ के रूप में सुव्यवस्थित हिंसा की नयी तकनीक लागू की गयी. इस तकनीक ने नरेंद्र मोदी के प्रयोगों को भी पीछे छोड़ दिया. नरेंद्र मोदी वंदे मातरम् गाने वालों को बख्श देने की बात करते हैं. लेकिन यहां लाखों लोग राज्य सत्ता को समर्थन देने के बावजूद सिर्फ इसलिए अपने हाल पर छोड़ दिये गये क्योंकि वे यादव थे, दलित थे. उन्होंने राजग को वोट किया था तो क्या, वे अवधिया कुरमी अथवा भूमिहार तो न थे. इसे नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्यसत्ता में आयी एक सवर्ण जाति की कुंठा के विस्फोट के रूप में भी देखा जा सकता है. लालू प्रसाद के शासन काल में यादवों के मातहत रहने का दंश उन्हें १७-१८ वर्षों से सता रहा था. उन्हें यह 'सुख' है कि कीड़े-मकोड़ों की तरह बिलबिलाओं सालों, देखते हैं, कौन क्या कर लेता है!
नेपाल में कुशहा के पास तटबंध टूटने की सूचना भीमनगर बैराज के पास तैनात मुख्य अभियंता सत्यनारायण ने नौ अगस्त को ही बिहार सरकार को दे दी थी. यह एक पूर्णतः प्रमाणित हो चुका तथ्य है, जिसका खुलासा इस इंजीनियर को डिमोट कर स्थानांतरित कर देने के बाद हुआ. इसके अलावा अन्य श्रोतों से भी तटबंध में रिसाव होने सूचना बिहार के सत्ताधीशों को थी. लेकिन इसे रोकने की कोशिश करने की बजाय तटबंध मरम्मती नाम 'माल' बनाने की कोशिशें की जाती रहीं. परिणाम यह हुआ कि १८ अगस्त को तटबंध टूट गया. (कुछ लोग इसके टूटने की तारीख और पहले बताते हैं) पानी लाखों लोगों का आशियाना उजाड़ते, हजारों की जान लेते रोजाना नये इलाकों की ओर बढ़ता गया.
तटबंध टूटने से छूटे लगभग डेढ़ लाख क्यूसेक पानी से १८, १९ और २० अगस्त को जिन बस्तियों की सीधी टक्कर हुई, वे तो उसी समय नेस्तानाबूद हो गयीं. झुग्गी-झोपड़ियों, दलितों के टोलों में तो न कोई आशियाना बचा, न जानवर, न एक भी आदमी. अगले ७-८ दिनों तक पानी कोसी की नयी (मुख्य) धार के आसपास के गांवों की ओर बढ़ता गया. लोग अकबकाए चूहों की तरह, जिधर राह मिली, भागने लगे. सब ओर पानी ही पानी. रास्ते का अता-पता नहीं. कोसी की विकराल, हहराती, कुख्यात तेज धारा. डूब कर मरने वालों में-पैदल भाग रहे लोगों, केले के पेड़ों, लोहे डघमों, धान उसनने वाले कटौतों आदि का सहारा लेकर निकलना चाह रहे लोगों की संख्या कितनी रही, यह हम कभी नहीं जान पाएंगे. कितनी निजी नावें पलटीं, कितनों को स्थानीय अपराधियों ने पानी में फेंका, कितनी महिलाओं के जेवर छीने गये, कितनों ने अस्मत गंवायी. क्या कभी सामने आएगा इनका आंकड़ा?
उधर यादव-दलित डूबते जा रहे थे और इधर सत्ताधारी जनता दल युनाइटेड प्रधानमंत्री से मिलने के लिए ५०० पृष्ठों का दस्तावेज तैयार कर रहा था. लेकिन यह कागजात बाढ़ से संबंधित नहीं थे. यह कागजात थे रेलमंत्री द्वारा कुछ कट्ठा जमीनें लिखवा कर रेलवे की नौकरियां बांटने के. १८ अगस्त को तटबंघ टूटने,सैकड़ों बस्तियों के बह जाने, हजारों लोगों के मारे जाने की सूचनाओं के बीच ६ दिन गुजारने के बाद-२३ अगस्त को-जनता दल यूनाइटेड के राष्टीय अध्यक्ष शरद यादव, राष्टीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी, प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह व केसी त्यागी जब भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बाल नकवी की अगुवाई में प्रधानमंत्री से मिले तो उनके सामने बाढ़ कोई मसला नहीं था. वे सिर्फ यह चाहते थे कि लालू प्रसाद को केंद्रीय मंत्रीमंडल से बाहर कर दिया जाए. मुख्यमंत्री ने बाढ़ क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण पहले २० अगस्त को और फिर २४ अगस्त को किया. तब तक भारी तबाही हो चुकी थी. 20 अगस्त को ही उन्होंने देखा कि पानी सैकड़ों बस्तियों को लीलता बढा जा रहा है. हजारों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन उनका ग्लेशियर सा हिंसक ठंडापन बरकरार था. बिना हो-हंगामे के जितना डूब सकें, डूबें हरामी!
२४ अगस्त को हवाई अड्डा पर प्रेस कांफ्रेस में तथा २६ अगस्त को रेडियो से जनता के नाम 'संदेश' देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बिहार में प्रलय आ गया है. लोग दान देने के लिए आगे आएं. हजारों लोगों की मौत के बाद, बाढ़ के ९ वें दिन रेडियो पर मुख्यमंत्री द्वारा पढे गये इस संदेश की भाषा में 'भावुकता' कूट-कूट कर भरी गयी थी. मुख्यमंत्री ने अपील की कि लोग बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों से बाहर निकलें. सरकार सब व्यवस्था करेगी!
जाहिर है, राज्य सरकार न सिर्फ तटबंध की सुरक्षा बल्कि बचाव-राहत कार्य में भी सुस्त बनी रही. सरकार के खैरख्वाह समाचार माध्यमों के माध्यम से अपना तीन साल पुराना तकिया कलाम दुहराते रहे कि यह सब कुछ पिछली सरकार का किया-धरा है. लालू ने तटबंध मरम्मती के लिए कुछ किया ही नहीं.
रेलकर्मी का जातिवाद
राज्य सत्ता ने ऐसा किया तो जाहिर है, यह अनायास नहीं रहा होगा। जाति बिहार के रग-रग में कूट-कूट कर भरी है. बिहार में भारी तबाही की खबर सुनकर मेधा पाटकर बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के दौरे पर पहुंचीं. उनके कार्यकर्ताओं द्वारा मुंबई से लायी जा रही राहत सामग्री (कपड़ों से भरी ३१ बोरियां) एक रेल कर्मी उदयशंकर सिंह ने बरौनी स्टेशन पर फेंक दी. ये कार्यकर्ता मेधा के नेतृत्व में मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी वासियों के हित में चलने वाले 'घर बचाओ' आंदोलन से जुड़े थे और नीची जातियों से आते थे. कार्यकर्ता लाल बाबू राय, अतीक अहमद, बाबुलाल और राजाराम पटवा ने इस संबंध में की गयी शिकायत में लिखा है कि 'सभी सामान फेंकने के बाद कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर सिंह ने अभद्र गालियां देते हुए कहा कि कहां से दलित हरिजन का कपड़ा उठा कर ले आया है. ऐसा बोलते उसने सफाई कर्मचारी से डिब्बे में झाड़ू लगवाया. उसके बाद गार्ड बॉक्स में रखे गोमूत्र एवं गंगाजल की शीशी निकाल कर गंगाजल एवं गोमूत्र का छिड़काव किया'.
मेधा पाटकर ने इस घटना की जानकारी मिलने के बाद इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि वह इस सूचना से बेहद व्यथित हैं. बिहार के जातिवाद के बारे में उन्होंने सुना तो था लेकिन यह आज के समय में भी इतना विकराल होगा, इनका अनुमान उन्हें न था. मेधा के चाहने पर एक समाचार पत्र में 'सामान फेंके जाने' की सूचना देती छोटी सी खबर छपी. लेकिन उसमें इस बात का जिक्र न था कि सामान क्यों फेंका गया. लालू प्रसाद ने मेधा को फोन किया और रेलवे के एक उच्चाधिकारी को उनसे माफी मांगने को कहा. गार्ड उमाशंकर सिंह सस्पेंड किया गया. जब लालू प्रसाद का फोन आया मेधा के साथ हम सुपौल जिला के छुरछुरिया धार के पास से लौट रहे थे. वहां सेना द्वारा चलाए जा रहे रेस्क्यू ऑपरेशन के पास राहत सामग्री वितरित करते हुए मेधा ने ३५-४० मौतें (सिर्फ उसी स्थान पर) रिकार्ड की थीं, जबकि उस समय तक राज्य सरकार बाढ़ में मरने वालों की कुल संख्या महज २५ बता रही थी. मेधा इस सबसे बेहद विचलित थीं. लालू प्रसाद ने भी उन्हें फोन पर बताया कि कम से कम ५० हजार लोग मरे हैं, सरकार लगातार झूठ बोल रही है. उनका कहना था कि नीतीश पुनर्निर्माण कार्य जनवरी-फरवरी तक शुरू करेंगे ताकि लोकसभा चुनाव में इसका लाभ ले सकें. मेधा ने लालू प्रसाद को कहा कि राष्टीय आपदा घोषित हो जाने के बावजूद इसे लेकर अभी तक केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक नहीं हुई है. जबकि नियमानुसार, राष्टीय आपदा को लेकर केंद्रीय मंत्रीमंडल की बैठक तुरंत होनी चाहिए थी, जिसमें पीड़ित क्षेत्रों के कृषि-स्वास्थ आदि मसलों पर निर्णय लिया जाता.
यह सब ५ सितंबर की बात है. 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं से दुर्व्यवहार करने वाला सस्पेंड हो चुका था. ६ सितंबर को इससे संबंधित समाचार भी सभी अखबारों में छपा. लेकिन मेधा चाहतीं थीं कि उस रेलकर्मी का जातिवादी व्यवहार भी अखबारों के माध्यम से सामने आये. उन्होंने मुझसे कहा कि सामान फेंकने से बहुत ज्यादा गंभीर और धक्का पहुंचाने वाली वह जातिवदी प्रवृति है. इसे अखबारों को उठाना चाहिए.लेकिन मेधा को बिहार की सवर्ण मीडिया की बारीक बुद्धि की जानकारी न थी. सिर्फ मेधा ही क्यों, मैं भी तो लगभग इससे अन्जान ही था, तभी तो इसके लिए असफल कोशिश की.
सघा विहीन सवर्णों का दुःख
बाढ़ क्षेत्र के दौरा करते हुए मैं अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए सहरसा में एक कायस्थ परिवार का कंप्यूटर इस्तेमाल करता रहा था. इस परिवार का मघेपुरा स्थित घर डूब चुका है, सहरसा में वे किराये पर रहते हैं. उनके सभी पड़ोसियों के गांवों में स्थित पैतृक मकान डूबे थे. इनमें अधिकांश कायस्थ थे. इन सबके अनेक परिजन सहरसा में ही राहत शिविरों में आश्रय लिये थे. अपनी छोटे-छोटे किराये के कमरों में वे कितनों को जगह देते? रोजाना दिन भर बाढ़ पीड़ितों का इनके यहां आना-जाना लगा रहता था.इनमें से कई परिवार ऐसे थे, जिनके मामा, चाचा, बहन या ससुराल के गांवों में लोग अब भी फंसे थे. उन्हें निकालने के लिए न कोई नाव पहुंच रही थी, न ही राहत सामग्री. वे चाहते थे कि मैं बतौर पत्रकार संबंधित जिले के जिलाधिकारी से बात कर उनके गांवों में नाव भिजवाने की व्यवस्था करूं. मैंने कोशिश भी की लेकिन नतीजा सिफर रहा. मुझे ऐसा तो नहीं लगा कि संबंधित जिलाधिकारी ने जानबूझ कर उन गांवों में नाव नहीं भेजी; पर मेरी असफलता पर उन किरायेदारों की राय रोचक थी. उनका कहना था कि कुछ भी कर लीजिये हम फारवडों के लिए यह सरकार कुछ भी नहीं करेगी.
९/११ बनाम ८/१८११ सितंबर
11 सितंबर को अमेरिका में हवाई हमले में लगभग ५ हजार लोग मारे गये थे. आज भी उनकी याद में मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है. क्या १८ अगस्त की याद में, जिसमें ५० हजार लोग मारे गये, भी मोमबत्तियां जलाई जाएंगी? क्या यह देश इसे एक काले दिन की तरह याद करेगा? उत्तर है-नहीं. कारण; हम-आप सब जानते हैं.
और अंत में
आज १२ सितंबर की सुबह है. दो दिन पहले ही बाढ़ क्षेत्र से पटना लौट आया हूं. अखबार देख रहा हूं. कई अखबारों में ११ सितंबर को अमेरिका में जलाई गयी मोमबत्तियों और उस हमले में मारे गये लोगों के परिजनों की व्थाएं छपीं हैं. पटना से प्रकाशित हिंदुस्तान में एक खबर है. 'केमिकल से नष्ट होंगे पशुओं के शव : सुशील मोदी'. सुशील कुमार मोदी भारतीय जनता पार्टी के राष्टीय उपाध्यक्ष व बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं. खबर इस प्रकार है- 'उपमुख्यमंत्री ने बताया कि केमिकल की खेप गुजरात से चल चुकी है. इसके जरिए पशुओं के शवों को मिनटों में नष्ट किया जा सकता है. इससे बदबू और महामारी फैलने की आशंका नहीं रहेगी.. पहली बार राज्य सरकार की ओर से व्यवस्थित ढ़ंग से राहत कार्य चलाया जा रहा है'.
केमिकल, पशुओं के शव के लिए? और मनुष्यों के उन हजारों शवों के लिए क्या, जो झाड़ियों, बांसबाड़ियों व उंची मेड़ों के किनारे पड़े सड़ रहे हैं. बाढ़ आए लगभग एक माह होने को आ रहा है. राज्य सरकार की ओर से मनुष्यों के शवों की चिंता करता कोई बयान अभी तक नहीं आया है. सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' se आ रहा है.(और शायद 'आइडिया' भी). राज्य सरकार की ओर से पहली बार 'व्यवस्थित ढंग' से राहत कार्य चलाया जा रहा है. इसी केमिकल से व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी 'मिनटों' में ठिकाने लगाया जाएगा. न बदबू होगी, न आक्रोश फैलेगा. आखिर कुछ समय बाद ही वहां कई हजार करोड़ रुपयों का पुननिर्माण कार्य करने जाना है... और, मनुष्य मरे भी कहां हैं? मरे तो शूद्र हैं. भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।
संशयात्मा से saabhar
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