Saturday, September 15, 2007

चूहे कर रहे हैं अंतरिक्ष की सैर


मास्को (भाषा), शनिवार, 15 सितंबर 2007
एक के बाद एक पिंजड़े, उनमें बंद चूहों की प्रजाति के 10 जर्बिल और साथ में अनाज, बादाम, काजू एवं सूखे अंगूर। जी हाँ, रेगिस्तानों में पाए जाने वाले चूहों की यह प्रजाति अंतरिक्ष में सैर सपाटे के लिए जो जा रहे हैं।

अभियान अधिकारी अनफिसा काजकोवा ने बताया कि दस जर्बिलों का यह दल शुक्रवार को कजाखिस्तान के बैकानूर अंतरिक्ष केन्द्र से फोटोन एम अंतरिक्ष यान से रवाना हुआ। जर्बिलों का यह दल दस दिन तक सैर करेगा।

दर असल दीर्घकालीन अंतरिक्ष यात्रा के शरीरक्रिया वैज्ञानिक और जीववैज्ञानिक प्रभावों के आकलन के लिए जर्बिलों के इस दल को शामिल किया गया है। यह मंगल यात्रा की तैयारी है।

अंतरिक्ष यात्रा के दौरान दिन और रात की कृत्रिम स्थितियाँ तैयार की जाएँगी और तापमान को नियंत्रित किया जाएगा। इन स्थितियों में जर्बिलों की फिल्म तैयार की जाएगी।

(स्रोत - वेबदुनिया)

सोमालिया में हजारों बच्चों पर मौत का खतरा



सोमालिया में हजारों बच्चों पर मौत का खतरा
न्यूयॉर्क (भाषा), शुक्रवार, 14 सितंबर 2007
संयुक्त राष्ट्र के एक नए सर्वेक्षण के अनुसार संघर्ष एवं सूखा प्रभावित मध्य और दक्षिणी सोमालिया में करीब 13500 बच्चे इस कदर कुपोषण के शिकार हैं कि उनके सम्मुख मृत्यु का खतरा पैदा हो गया है जबकि करीब 70 हजार अन्य कुपोषित हैं।

संयुक्त राष्ट्र की बाल एजेंसी के सोमालिया में प्रतिनिधि क्रिश्चियन बालस्लेव ओलेसेन ने कहा इन बच्चों पर तत्काल ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि उनका बचना सुनिश्चित किया जा सके।

उन्होंने कहा कि यूनीसेफ इस बात से बहुत चिंतित है कि नागरिक संघर्ष जारी रहने इन इलाकों में सीमित मानवीय पहुँच खाद्यान्न असुरक्षा और जर्जर अर्थव्यवस्था के कारण उनकी संख्या बढ़ सकती है।

सोमालिया में कुपोषण की समस्या नई नहीं है। यह देश गुटीय संघर्ष के कारण तार तार हो चुका है और 1991 में मुहम्मद सियाद बारे के शासन को समाप्त किये जाने के बाद से कोई केंद्रीय सरकार काम नहीं कर रही है।

वास्तव में मई में राजधानी मोगादिशु की सीमा से लगे मध्य और निचले शेबेले क्षेत्र में कराए गए व्यापक पोषण सर्वेक्षण में पहले ही संकेत मिल चुका है कि पांच साल से कम उम्र के 17 प्रतिशत बच्चे जबर्दस्त कुपोषण के शिकार हैं और यह स्तर संयुक्त राष्ट्र विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की आपात सीमा से ऊपर है।

(स्रोत - वेबदुनिया)

Friday, September 14, 2007

पिता

आकाशगंगा से पथभ्रष्ट पुच्छलतारा कोई
जब गुज़रता है पृथ्वी के वायुमंडल से
ज्योतित पर वशीभूत
कितना लुभाती है उसकी आतिशी पूंछ
जो कि मीलों लम्बी हो सकती है
जितनी भी कोशिश कर लो
पकड़ में नहीं आती उसकी पूरी शख्सियत
कुल जमा हासिल राख और कंकड़ !
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पिता असहायता कब उतनी बुरी होती है
जितना कि झूठ
जैसे यही बात कि तुम्हारे सभी बच्चे
तुम्हारी नज़र में बराबर हैं -
पचने लायक है क्या तुम्हीं सोचो
तुमने और भी चार चार बच्चों को जन्म दिया
साजिश की बड़े बेटे के खिलाफ
यों तमाम उम्र तुमने भूल सुधार में गुज़ार दी
फिर भी दोषमुक्त नहीं हो सके ।
उस साजिश की पूरी एवजी वसूलते
शराब और गांजा और गाड़ी और फोन में
मस्त और तृप्त वह
सबको धकियाता कुचलता
आज भी अपने बच्चों के साथ
तुम्हारे ही कन्धों पर सवार होकर एंड लगा रहा है
और तुम उसके सैकड़ों अपराधों पर पर्दा
डालने की आज भी निरर्थक कोशिश कर रहे हो ।
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अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा ऐसा कहते हो तुम
जब नहीं होता कहने को कुछ भी ।
जानता हूँ
असाध्य संकटों से घिरी हुई है दुनिया
और मैं भी उन्हीं में शामिल हूँ
जो भूख से बिलबिला रहे हैं
मर रहे हैं मार रहे हैं
हवा में मुट्ठियां लहरा रहे हैं
पर ना भूख मिट रही है
और ना मौसम बदल रहा है ।
इन बड़ी लडाइयों के दरम्यान
एक और छोटी- सी लडाई है
जिसे लड़ रहा हूँ मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ
उस आदमखोर शहर में
जो जीवित बचे रहने की
पूरी गिज़ा वसूल करता है।
दस बाई दस की मेरी दुनियां का एक मालिक है
जिसने दस महीनों के लम्बे इंतजार के बाद
ज़ब्त कर ली है मेरी दुनियां
ज़ब्त कर ली है
मेरी गृहस्थी, मेरी किताबें, मेरे कागजात
मेरी कवितायेँ , मेरा सारा अतीत, मेरे सपने
मेरा संघर्ष, मेरे होने के सारे सबूत
और यह सब कुछ उसके लिए
दस महीनों के किराए से ज़्यादा अहमियत नही रखता
अहमियत तो तुम्हारे लिए भी नही रखता
मेरे पिता
क्योंकि तुम्हें साबित करनी है अपनी वफादारी
उस बेटे के सामने
जिसे दूसरों की तबाही में नज़र आता है अपना रास्ता ।
घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलता हुआ महीनों से
आगे- पीछे टकरा रहा हूँ सिर
यह तुम्हारा ही घर है जहाँ बुलाया था तुमने हमे
भूख, जलालत, साजिशें और
कातिलाना हमलों को झेलते हुए भी
अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा
जब तुम कहते हो तो सच ही होगा
सचमुच जल्दबाजी कर रहा हूँ मैं
दस महीने होते ही कितने हैं,
आत्महत्या से पहले यों भी
सबकुछ सामान्य ही लगता है।
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पिता मेरी ही भूल थी
मैंने तुम्हारा सम्मान लौटाना चाहा
तुमने मुझे सज़ा दीं
मैंने तुम्हारी मुक्ति चाही-
तुमने मुझे ही जकड दिया।
हर बार मुझे बहलाकर तुम लौटाते रहे
तुमने कहा कि तुम समर्थ हो
सब कुछ तुम्हारी इच्छा से होता है
और फिर मैं मेरी पत्नी और बच्ची के साथ
भूख से और बीमारी से और लान्छ्नाओं से
तिल-तिल कर मरता रहा
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे ।
मेरी भूखी मरणासन्न बच्ची
बूँद-बूँद दूध को तरसती रही
चार दिनों तक
तेज बुखार में बड़बडाती उस बच्ची के लिए
दवा तक नही खरीद सका मैं
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे
क्योंकि तुम्हारा एक अदद बेटा था
और थे उसके तीन अदद
बड़े कोमल और कुलीन बच्चे
जिनके लिए दूध की नदियाँ बहाईं थीं तुमने
आज भी कहते हैं बिना दूध के
एक दिन में मुरझा जाते हैं जो
आदत होती ही है बड़ी खराब चीज़ !
भूख और यातना से तोड़ कर मेरा वजूद
तुमने रखी रिहाई की एक घिनौनी शर्त
कि मैं कबूल कर लूं वे सब गुनाह
जो मैंने किये ही नहीं
तुमने शर्त रखी कि मैं
क्षमा याचना करूँ
उस बर्बर हिंस्र पशु से
जिसे शायद यह भी पता ना हो कि
सच का जूनून क्या बला है
और कि
यह दुनियां रोज़ बनती है
उसके घुच्ची दिमाग से परे ।
तुमने यही भूल की मुझे पहचानने मेँ
तुम नही जानते कि
एक अदना कम्युनिस्ट भी कितना मजबूत होता है
तुम भले ही भूल सको,
मैं कैसे भूल सकता हूँ यह सब मेरे पिता
जैसे करता रहा हूँ
आगे भी करता ही रहूँगा मूलोच्छेद
तुम्हारे जडीभूत सामंतवाद का
खोल डालूँगा तुम्हारे इस अन्धगह्वर के
दरवाज़े खिड़कियाँ
रोशनी आएगी पूरी की पूरी बेरोकटोक
और बाहर भाग जाएगी
सारी सीलन और सड़ान्ध !
पाखी.... मेरी नन्हीं बच्ची
तुमने और तुम सबने जिससे केवल नफरत की
एक दिन लौटेगी
वह जान रही होगी तुम सबकी असलियत
कैसे कर पाओगे उसका सामना
अपने-अपने चेहरों पर अपना घिनौना अतीत लिये
तुम सब दबे होगे जब
अपने ही असाध्य पापों के ब्याज से ।

राजेश चंद्र
--२३-२५ सितम्बर २००५ ( वीरपुर, सुपौल) ।

भूगोल

पन्ने पर एक तरफ
कभी लिखी थी एक कविता समय सत्य
और उसमे लिखा था
सबसे अहम सवालों के बारे में।
पन्ने पर दूसरी तरफ
पत्नी ने लिखी एक और ज़रूरी कविता-
धनियाँ का पत्ता, मिर्च, अदरक,
लहसुन, जीरा, प्याज और एक किलो आलू ।

अब जबकि समय भी बदल गया है और उसका सत्य भी
और तमाम ज़रूरी सवाल
हाशियों पर चुटकुला बन रहे हैं,
ऊब और अनास्था के बीच
छिपाते हुए थोडी-सी आंच
और गढ़ते हुए जीने का कोई माकूल तर्क
दोनों कविताओं के बीच का भूगोल
हाँफते हुए नाप रहा हूँ।


राजेश चन्द्र

Friday, September 7, 2007

फिर लौटेंगे तालिबान


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

यह मानसून फिर से
बीजों के बंद कपाट खोलेगानवांकुर फूटेंगे
धीरे-धीरे पसर जायेगी सांस की धूप
झमाझम बारिश की तर्ज़ पर झूमते हुए
इन्द्रधनुषी अलंकारों से सुसज्जित
दिशाओं से उतरेंगे
केसर के रंग के ध्वजारोही
और आतंकित होने का अवकाश दिए बिना ही
वामन डग भरते नांप लेंगे
ज़्यादा से ज़्यादा उजास ।
साँसों को पहली अचरज से ताकतीं अबोध आँखें
जान भी नहीं पाएंगी
कि कब उनके सामने खडी हो गयी
एक दुर्भेद्य दीवार और जब तन्द्रा टूटेगी
उन अनभ्यस्त हाथों मेँ होगी
अनुशासन की कोई प्रावेशिक किताब
धीरे-धीरे जो उन्हें भूलभुलैयों की तरफ ले जायेगी
पहले उन्हें सड़क की बाईं या दाईं तरफ चलना सिखाया जायेगा
फिर रंगों की सुरक्षित परिभाषा दी जायेगी
इस तरह जब तैयार कर लेंगे वे अपनी चारदीवारियां
और गले मिलते हुए हरियाली गायेंगे
दबे पाँव , चौकन्ने
संसद, विधानसभाओं ,मठों, मंदिरों
अकादमियों, सम्मेलनों, परिषदों और सभा भवनों की
आरामदेह कुर्सियों से कूदेंगे
कई-कई १०८,१००८ प्रख्यात, सुकीर्त
मार्त्तंड , प्रचंड
स्वामी,आचार्य ,जोशी , मोदी और वाजपेयी
और लीलते -चरते सारी हरियाली को
प्रमुदित मन से आप्त वाक्यों मेँ डकारेंगे-
जो अमरीका के साथ नहीं है-आतंकवादी है
जो भाजपा के साथ नहीं है-देशद्रोही है
जो हिंदू नहीं है-विदेशी जासूस है
फिर वे स्त्रियों से कहेंगे-घर के अन्दर जाओ
घरों से फौरन हटा ली जायेंगी खिड़कियाँ
और दरवाजे बाहर से बंद रहेंगे
फिर वे शूद्रों के गले मेँ ढोल बांधकर कहेंगे
गाँव से बाहर जाओ
और तब मौत की तरह के ख़ुफ़िया सन्नाटे को तोड़ता
तेजोमय चिर-प्रतीक्षित अटल रामराज्य आएगा
दुंदुभी बजाता, शंखनाद करता, जयघोष कराता
और तब एक गौरवमय अतीत वाले
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्र की
कटी हुई जीभ वाली भूखी भीड़
या तो पूंछ हिलायेगी, या फिर झंडी
और लाउडस्पीकर की गगनभेदी चिल्लाहट
"जय श्री राम " के साथ
पीठ पर कोड़े खाता
एक पूरा का पूरा देश सुर मिलाएगा-
गों-गों-गों ।

राजेश चन्द्र
१७-०१-२००२