Friday, September 14, 2007

पिता

आकाशगंगा से पथभ्रष्ट पुच्छलतारा कोई
जब गुज़रता है पृथ्वी के वायुमंडल से
ज्योतित पर वशीभूत
कितना लुभाती है उसकी आतिशी पूंछ
जो कि मीलों लम्बी हो सकती है
जितनी भी कोशिश कर लो
पकड़ में नहीं आती उसकी पूरी शख्सियत
कुल जमा हासिल राख और कंकड़ !
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पिता असहायता कब उतनी बुरी होती है
जितना कि झूठ
जैसे यही बात कि तुम्हारे सभी बच्चे
तुम्हारी नज़र में बराबर हैं -
पचने लायक है क्या तुम्हीं सोचो
तुमने और भी चार चार बच्चों को जन्म दिया
साजिश की बड़े बेटे के खिलाफ
यों तमाम उम्र तुमने भूल सुधार में गुज़ार दी
फिर भी दोषमुक्त नहीं हो सके ।
उस साजिश की पूरी एवजी वसूलते
शराब और गांजा और गाड़ी और फोन में
मस्त और तृप्त वह
सबको धकियाता कुचलता
आज भी अपने बच्चों के साथ
तुम्हारे ही कन्धों पर सवार होकर एंड लगा रहा है
और तुम उसके सैकड़ों अपराधों पर पर्दा
डालने की आज भी निरर्थक कोशिश कर रहे हो ।
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अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा ऐसा कहते हो तुम
जब नहीं होता कहने को कुछ भी ।
जानता हूँ
असाध्य संकटों से घिरी हुई है दुनिया
और मैं भी उन्हीं में शामिल हूँ
जो भूख से बिलबिला रहे हैं
मर रहे हैं मार रहे हैं
हवा में मुट्ठियां लहरा रहे हैं
पर ना भूख मिट रही है
और ना मौसम बदल रहा है ।
इन बड़ी लडाइयों के दरम्यान
एक और छोटी- सी लडाई है
जिसे लड़ रहा हूँ मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ
उस आदमखोर शहर में
जो जीवित बचे रहने की
पूरी गिज़ा वसूल करता है।
दस बाई दस की मेरी दुनियां का एक मालिक है
जिसने दस महीनों के लम्बे इंतजार के बाद
ज़ब्त कर ली है मेरी दुनियां
ज़ब्त कर ली है
मेरी गृहस्थी, मेरी किताबें, मेरे कागजात
मेरी कवितायेँ , मेरा सारा अतीत, मेरे सपने
मेरा संघर्ष, मेरे होने के सारे सबूत
और यह सब कुछ उसके लिए
दस महीनों के किराए से ज़्यादा अहमियत नही रखता
अहमियत तो तुम्हारे लिए भी नही रखता
मेरे पिता
क्योंकि तुम्हें साबित करनी है अपनी वफादारी
उस बेटे के सामने
जिसे दूसरों की तबाही में नज़र आता है अपना रास्ता ।
घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलता हुआ महीनों से
आगे- पीछे टकरा रहा हूँ सिर
यह तुम्हारा ही घर है जहाँ बुलाया था तुमने हमे
भूख, जलालत, साजिशें और
कातिलाना हमलों को झेलते हुए भी
अकारण जूझ रहा हूँ मैं
अनावश्यक है मेरा ग़ुस्सा
जब तुम कहते हो तो सच ही होगा
सचमुच जल्दबाजी कर रहा हूँ मैं
दस महीने होते ही कितने हैं,
आत्महत्या से पहले यों भी
सबकुछ सामान्य ही लगता है।
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पिता मेरी ही भूल थी
मैंने तुम्हारा सम्मान लौटाना चाहा
तुमने मुझे सज़ा दीं
मैंने तुम्हारी मुक्ति चाही-
तुमने मुझे ही जकड दिया।
हर बार मुझे बहलाकर तुम लौटाते रहे
तुमने कहा कि तुम समर्थ हो
सब कुछ तुम्हारी इच्छा से होता है
और फिर मैं मेरी पत्नी और बच्ची के साथ
भूख से और बीमारी से और लान्छ्नाओं से
तिल-तिल कर मरता रहा
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे ।
मेरी भूखी मरणासन्न बच्ची
बूँद-बूँद दूध को तरसती रही
चार दिनों तक
तेज बुखार में बड़बडाती उस बच्ची के लिए
दवा तक नही खरीद सका मैं
क्योंकि तुम्हारी इच्छा थी
क्योंकि तुम समर्थ थे
क्योंकि तुम्हारा एक अदद बेटा था
और थे उसके तीन अदद
बड़े कोमल और कुलीन बच्चे
जिनके लिए दूध की नदियाँ बहाईं थीं तुमने
आज भी कहते हैं बिना दूध के
एक दिन में मुरझा जाते हैं जो
आदत होती ही है बड़ी खराब चीज़ !
भूख और यातना से तोड़ कर मेरा वजूद
तुमने रखी रिहाई की एक घिनौनी शर्त
कि मैं कबूल कर लूं वे सब गुनाह
जो मैंने किये ही नहीं
तुमने शर्त रखी कि मैं
क्षमा याचना करूँ
उस बर्बर हिंस्र पशु से
जिसे शायद यह भी पता ना हो कि
सच का जूनून क्या बला है
और कि
यह दुनियां रोज़ बनती है
उसके घुच्ची दिमाग से परे ।
तुमने यही भूल की मुझे पहचानने मेँ
तुम नही जानते कि
एक अदना कम्युनिस्ट भी कितना मजबूत होता है
तुम भले ही भूल सको,
मैं कैसे भूल सकता हूँ यह सब मेरे पिता
जैसे करता रहा हूँ
आगे भी करता ही रहूँगा मूलोच्छेद
तुम्हारे जडीभूत सामंतवाद का
खोल डालूँगा तुम्हारे इस अन्धगह्वर के
दरवाज़े खिड़कियाँ
रोशनी आएगी पूरी की पूरी बेरोकटोक
और बाहर भाग जाएगी
सारी सीलन और सड़ान्ध !
पाखी.... मेरी नन्हीं बच्ची
तुमने और तुम सबने जिससे केवल नफरत की
एक दिन लौटेगी
वह जान रही होगी तुम सबकी असलियत
कैसे कर पाओगे उसका सामना
अपने-अपने चेहरों पर अपना घिनौना अतीत लिये
तुम सब दबे होगे जब
अपने ही असाध्य पापों के ब्याज से ।

राजेश चंद्र
--२३-२५ सितम्बर २००५ ( वीरपुर, सुपौल) ।

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