आनंद प्रधान
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए वर्ष 2008 अच्छे संकेत लेकर नहीं आ रहा है। इस बात की आशंका लगातार प्रबल होती जा रही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को मंदी की चपेट में आने से रोकना संभव नहीं रह गया है। उन अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो मंदी को निश्चित बता रहे हैं और जो मंदी की भविष्यवाणी से सहमत नहीं हैं, वे भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाएगी।अर्थशास्त्रियों में मतभेद की एक बड़ी वजह मंदी की परिभाषा को लेकर है। लोकप्रिय मान्यता यह है कि लगातार दो तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट का अर्थ अर्थव्यवस्था का मंदी की चपेट में आना है। माना जा रहा है कि 2007 के मध्य में हाउसिंग क्षेत्र के बुलबुले के फूटने के बाद अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था जिस सब-प्राइम कर्ज और मार्गेज संकट से जूझ रही है, उसका वास्तविक असर 2008 में दिखेगा। वॉल स्ट्रीट के विश्लेषकों का अनुमान है कि अमेरिकी जीडीपी चौथी तिमाही में लुढ़ककर सिर्फ 1।5 फीसदी की चींटी की गति से बढ़ेगी। विश्लेषक उसके बाद कुछ और कमजोर तिमाहियों की आशंका से इनकार नहीं करते हैं। इसके बावजूद वाल स्ट्रीट मंदी की आसन्न सचाई स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वह मंदी की आशंका को 50 प्रतिशत से अधिक वजन या चांस देने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है वॉल स्ट्रीट के लिए मंदी एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे वह आखिरी क्षण तक नकारता रहता है। यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले 1990 और 2001 की मंदी के समय भी वॉल स्ट्रीट अर्थव्यवस्था के अच्छे स्वास्थ्य और ठीक-ठीक विकास दर के दावे कर रहा था लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली, इसलिए वर्ष 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति में थोड़ा धीमापन आने के बावजूद उसकी अच्छी सेहत के दावों को स्वीकार करना मुश्किल है। यह सच है कि बुश प्रशासन खासकर केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके और वित्तमंत्री पाल्सन अमेरिकी वित्तीय बाजार में फैली घबराहट, उथल-पुथल और गहराते संकट को दूर करने के लिए हर संभव मदद कर रहे हैं लेकिन उनके सभी प्रयास इस संकट के ‘ब्लैक होल’ में गुम हो जा रहे हैं।दरअसल, हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद वित्तीय बाजार में सब प्राइम और मार्गेज लोन के संकट के कारण हुए नुकसान को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। उसका आकार कितना बड़ा है, इसको लेकर लगाए जा रहे कयासों का दौर जारी है। खुद फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके ने संकट की शुरूआत में सब प्राइम और मार्गेज लोन के कारण 50 से 100 अरब डॉलर के नुकसान की आशंका जाहिर की थी लेकिन अब उन्होंने माना है कि यह नुकसान 150 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है। हालांकि यह अनुमान भी बहुत कम माना जा रहा है। ड्यूश बैंक के आकलन के अनुसार सब-प्राइम संकट से जुड़ा कुल नुकसान 400 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है जिसमें लगभग 130 अरब डॉलर का नुकसान बैंको के खाते में जाने का अनुमान है।आश्चर्य नहीं कि इस संकट के कारण कल तक वित्तीय बाजार के चमकते सितारे माने जाने वाले बैंक और वित्तीय संस्थाएं धूल-धूसरित नजर आ रही हैं। जाना-माना इन्वेस्टमेंट बैंक मेरिल लिंच, अमेरिका का सबसे बड़ा बैंक सिटी ग्रुप और दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओं में से एक मार्गन स्टेनली और यूबीएस, सभी संकट में त्राहिमाम करती नजर आ रही हैं। मेरिल लिंच को अपने 93 वर्षों के इतिहास में इतना बड़ा नुकसान कभी नहीं हुआ। उसने अपनी तीसरी तिमाही में 8.4 अरब डॉलर के नुकसान का एलान किया है और विश्लेषकों का अनुमान है कि चौथी तिमाही में भी उसे 8.6 अरब डॉलर गंवाने पड़ेंगे। मार्गन स्टेनली ने मार्गेज लोन डूबने के कारण लगभग 9.4अरब डॉलर के नुकसान की बात स्वीकार की है।इस वित्तीय संकट के कारण बैंको और वित्तीय संस्थाओं ने नए कर्ज देने और कर्ज की शर्तों को सख्त कर दिया है। इससे बाजार में काफी हद तक कजोर्ं के मामले में सूखे की स्थिति पैदा हो गई है। जाहिर है इस सबका असर उन अमेरिकी उपभोक्ताओं पर जरूर पड़ेगा, जिन्हें अपने भारी उपभोग के कारण विश्व अर्थव्यवस्था का ड्राइवर माना जाता है। हाल के सर्वेक्षणों में उपभोक्ताओं के विश्वास में अच्छी-खासी गिरावट देखी गयी है जिसका अर्थ है कि वे खरीददारी और उपभोग कम करेंगे और इसका सीधा असर वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर पड़ेगा। मांग में गिरावट के कारण न सिर्फ घरेलू कंपनियों और अमेरिकी बाजार में अपना माल निर्यात करने वाले देशों की आय पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि इसके कारण कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं होंगे। छंटनी होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। इससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग और घट जाएगी। इस तरह अर्थव्यवस्था मंदी में फंस जाएगी।यह किसी काल्पनिक स्थिति का बयान नहीं है। अमेरिकी हाउसिंग संकट सचमुच बहुत व्यापक और गहरा है। अमेरिका में कुल आवासीय हाउसिंग संपत्ति लगभग 21 अरब डॉलर की है जो कुल अमेरिकी पारिवारिक संपत्ति के एक तिहाई से अधिक है। इस आवासीय हाउसिंग संपत्ति की कीमत में 10 फीसदी की भी गिरावट अमेरिकी उपभोक्ताओं की खरीददारी को काफी प्रभावित कर सकती है। हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद प्रॉपर्टी बाजार की स्थिति यह हो गई है कि नए मकानों के निर्माण की शुरूआत की दर में अपने चरम स्तर से करीब 47 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है और जहां 2005 में आवासीय प्रापर्टी कुल जीडीपी का 6.3 प्रतिशत थी, वह घटकर 4.4 प्रतिशत रह गई है। नए मकानों की मांग घटने के कारण निर्माण उघोग को गहरा झटका लगा है। रही-सही कसर कच्चे तेल की रिकार्ड छूती कीमतों ने पूरी कर दी है।साफ है कि अमेरिका मंदी के जुकाम के वायरस की चपेट में आ चुका है और उसके लक्षण दिखने लगे हैं। ऐसे में, भारत जैसी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को मंदी का संक्रमण भले न हो लेकिन छींकने से कौन रोक सकता है। भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के कारण संभावित अमेरिकी मंदी का असर भारत पर भी जरूर पड़ेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इस आ॓र इशारा किया है। यूपीए सरकार 11 वीं पंचवर्षीय योजना में 9 से 10 फीसदी विकास दर हासिल करने के दावे जरूर कर रही है लेकिन इस बात के आसार अधिक हैं कि अगले साल विकास दर चालू वर्ष के 8.5 फीसदी के अनुमान से गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत तक पहुंच जाए। हालांकि इससे आसमान नहीं गिर पड़ेगा लेकिन अमेरिकी हाउंिसंग बुलबुले के फूटने के बाद भारत को अपने प्रॉपर्टी और रीयल एस्टेट बाजार के साथ शेयर और कुछ हद तक जिंस बाजार की ‘अतार्किक उत्साह’ सें भरी तेजी में बन रहे बुलबुले को लेकर जरूर सतर्क हो जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर से ज्यादा खतरा अंदर से है। 2008 में भारतीय शेयर बाजार और रीयल एस्टेट पर सबकी निगाहें होंगी।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए वर्ष 2008 अच्छे संकेत लेकर नहीं आ रहा है। इस बात की आशंका लगातार प्रबल होती जा रही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को मंदी की चपेट में आने से रोकना संभव नहीं रह गया है। उन अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो मंदी को निश्चित बता रहे हैं और जो मंदी की भविष्यवाणी से सहमत नहीं हैं, वे भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाएगी।अर्थशास्त्रियों में मतभेद की एक बड़ी वजह मंदी की परिभाषा को लेकर है। लोकप्रिय मान्यता यह है कि लगातार दो तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट का अर्थ अर्थव्यवस्था का मंदी की चपेट में आना है। माना जा रहा है कि 2007 के मध्य में हाउसिंग क्षेत्र के बुलबुले के फूटने के बाद अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था जिस सब-प्राइम कर्ज और मार्गेज संकट से जूझ रही है, उसका वास्तविक असर 2008 में दिखेगा। वॉल स्ट्रीट के विश्लेषकों का अनुमान है कि अमेरिकी जीडीपी चौथी तिमाही में लुढ़ककर सिर्फ 1।5 फीसदी की चींटी की गति से बढ़ेगी। विश्लेषक उसके बाद कुछ और कमजोर तिमाहियों की आशंका से इनकार नहीं करते हैं। इसके बावजूद वाल स्ट्रीट मंदी की आसन्न सचाई स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वह मंदी की आशंका को 50 प्रतिशत से अधिक वजन या चांस देने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है वॉल स्ट्रीट के लिए मंदी एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे वह आखिरी क्षण तक नकारता रहता है। यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले 1990 और 2001 की मंदी के समय भी वॉल स्ट्रीट अर्थव्यवस्था के अच्छे स्वास्थ्य और ठीक-ठीक विकास दर के दावे कर रहा था लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली, इसलिए वर्ष 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति में थोड़ा धीमापन आने के बावजूद उसकी अच्छी सेहत के दावों को स्वीकार करना मुश्किल है। यह सच है कि बुश प्रशासन खासकर केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके और वित्तमंत्री पाल्सन अमेरिकी वित्तीय बाजार में फैली घबराहट, उथल-पुथल और गहराते संकट को दूर करने के लिए हर संभव मदद कर रहे हैं लेकिन उनके सभी प्रयास इस संकट के ‘ब्लैक होल’ में गुम हो जा रहे हैं।दरअसल, हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद वित्तीय बाजार में सब प्राइम और मार्गेज लोन के संकट के कारण हुए नुकसान को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। उसका आकार कितना बड़ा है, इसको लेकर लगाए जा रहे कयासों का दौर जारी है। खुद फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके ने संकट की शुरूआत में सब प्राइम और मार्गेज लोन के कारण 50 से 100 अरब डॉलर के नुकसान की आशंका जाहिर की थी लेकिन अब उन्होंने माना है कि यह नुकसान 150 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है। हालांकि यह अनुमान भी बहुत कम माना जा रहा है। ड्यूश बैंक के आकलन के अनुसार सब-प्राइम संकट से जुड़ा कुल नुकसान 400 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है जिसमें लगभग 130 अरब डॉलर का नुकसान बैंको के खाते में जाने का अनुमान है।आश्चर्य नहीं कि इस संकट के कारण कल तक वित्तीय बाजार के चमकते सितारे माने जाने वाले बैंक और वित्तीय संस्थाएं धूल-धूसरित नजर आ रही हैं। जाना-माना इन्वेस्टमेंट बैंक मेरिल लिंच, अमेरिका का सबसे बड़ा बैंक सिटी ग्रुप और दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओं में से एक मार्गन स्टेनली और यूबीएस, सभी संकट में त्राहिमाम करती नजर आ रही हैं। मेरिल लिंच को अपने 93 वर्षों के इतिहास में इतना बड़ा नुकसान कभी नहीं हुआ। उसने अपनी तीसरी तिमाही में 8.4 अरब डॉलर के नुकसान का एलान किया है और विश्लेषकों का अनुमान है कि चौथी तिमाही में भी उसे 8.6 अरब डॉलर गंवाने पड़ेंगे। मार्गन स्टेनली ने मार्गेज लोन डूबने के कारण लगभग 9.4अरब डॉलर के नुकसान की बात स्वीकार की है।इस वित्तीय संकट के कारण बैंको और वित्तीय संस्थाओं ने नए कर्ज देने और कर्ज की शर्तों को सख्त कर दिया है। इससे बाजार में काफी हद तक कजोर्ं के मामले में सूखे की स्थिति पैदा हो गई है। जाहिर है इस सबका असर उन अमेरिकी उपभोक्ताओं पर जरूर पड़ेगा, जिन्हें अपने भारी उपभोग के कारण विश्व अर्थव्यवस्था का ड्राइवर माना जाता है। हाल के सर्वेक्षणों में उपभोक्ताओं के विश्वास में अच्छी-खासी गिरावट देखी गयी है जिसका अर्थ है कि वे खरीददारी और उपभोग कम करेंगे और इसका सीधा असर वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर पड़ेगा। मांग में गिरावट के कारण न सिर्फ घरेलू कंपनियों और अमेरिकी बाजार में अपना माल निर्यात करने वाले देशों की आय पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि इसके कारण कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं होंगे। छंटनी होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। इससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग और घट जाएगी। इस तरह अर्थव्यवस्था मंदी में फंस जाएगी।यह किसी काल्पनिक स्थिति का बयान नहीं है। अमेरिकी हाउसिंग संकट सचमुच बहुत व्यापक और गहरा है। अमेरिका में कुल आवासीय हाउसिंग संपत्ति लगभग 21 अरब डॉलर की है जो कुल अमेरिकी पारिवारिक संपत्ति के एक तिहाई से अधिक है। इस आवासीय हाउसिंग संपत्ति की कीमत में 10 फीसदी की भी गिरावट अमेरिकी उपभोक्ताओं की खरीददारी को काफी प्रभावित कर सकती है। हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद प्रॉपर्टी बाजार की स्थिति यह हो गई है कि नए मकानों के निर्माण की शुरूआत की दर में अपने चरम स्तर से करीब 47 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है और जहां 2005 में आवासीय प्रापर्टी कुल जीडीपी का 6.3 प्रतिशत थी, वह घटकर 4.4 प्रतिशत रह गई है। नए मकानों की मांग घटने के कारण निर्माण उघोग को गहरा झटका लगा है। रही-सही कसर कच्चे तेल की रिकार्ड छूती कीमतों ने पूरी कर दी है।साफ है कि अमेरिका मंदी के जुकाम के वायरस की चपेट में आ चुका है और उसके लक्षण दिखने लगे हैं। ऐसे में, भारत जैसी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को मंदी का संक्रमण भले न हो लेकिन छींकने से कौन रोक सकता है। भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के कारण संभावित अमेरिकी मंदी का असर भारत पर भी जरूर पड़ेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इस आ॓र इशारा किया है। यूपीए सरकार 11 वीं पंचवर्षीय योजना में 9 से 10 फीसदी विकास दर हासिल करने के दावे जरूर कर रही है लेकिन इस बात के आसार अधिक हैं कि अगले साल विकास दर चालू वर्ष के 8.5 फीसदी के अनुमान से गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत तक पहुंच जाए। हालांकि इससे आसमान नहीं गिर पड़ेगा लेकिन अमेरिकी हाउंिसंग बुलबुले के फूटने के बाद भारत को अपने प्रॉपर्टी और रीयल एस्टेट बाजार के साथ शेयर और कुछ हद तक जिंस बाजार की ‘अतार्किक उत्साह’ सें भरी तेजी में बन रहे बुलबुले को लेकर जरूर सतर्क हो जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर से ज्यादा खतरा अंदर से है। 2008 में भारतीय शेयर बाजार और रीयल एस्टेट पर सबकी निगाहें होंगी।
राष्ट्रीय सहारा से साभार
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