Wednesday, January 2, 2008

सुलगता ज्वालामुखी


हाशिये पर जी रहे हर तरह से शोषित और जातीय हिंसा के शिकार असम के आदिवासी अब कुछ भी चुपचाप सहने को तैयार नहीं दिखते...टेरेसा रहमान की रिपोर्ट...
पूर्वोत्तर के बड़े उग्रवादी संगठनों का एक कमजोर बंधु आदिवासी नेशनल लिबरेशन आर्मी (एएनएलए) ने खुद को असम के दबे-कुचले आदिवासियों का रहनुमा बना लिया है. इस संगठन ने कथित रूप से 13 दिसंबर को दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस में हुए एक विस्फोट को अंजाम दिया था और सरकार इसी वजह से अब इसे प्रतिबंधित करने पर विचार कर रही है. विस्फोट की घटना में पांच लोगों की मौत हो गई थी और कई घायल हुए थे. कहा जा रहा है कि ये पिछले महीने गुवाहाटी में स्थानीय लोगों द्वारा आदिवासियों को पीटने और एक आदिवासी महिला को नग्न करके घुमाए जाने की घटना का जवाब था.
असम में आदिवासी दरअसल उन मजदूरों के वंशजों को कहा जाता है जिन्हें करीब 160 साल पहले अंग्रेज़ चाय बागानों में काम करने के लिए यहां लाए थे. तभी से शांतिप्रिय आदिवासी समुदाय राज्य की आर्थिक तरक्की में चुपचाप अपना योगदान देते रहा है. बावजूद इसके ये हमेशा उपेक्षा का शिकार ही रहे. 1996 में बोडोलैंड इलाके में बोडो जनजाति और आदिवासियों के बीच हुए जातीय संघर्ष ने कई आदिवासियों को बेघर कर दिया. इनमें से कुछ अभी भी सहायता शिविरों में रहने को मजबूर हैं. इसके बाद आत्मरक्षा के लिए दो उग्रवादी संगठन बने- आदिवासी कोबरा मिलिट्री ऑफ असम (एसीएमए) और बिरसा कमांडो फोर्स(बीसीएफ). दोनों का इस समय सरकार के साथ संघर्षविराम समझौता चल रहा है.
हालिया बम धमाका इनका पहला बड़ा अभियान था मगर पिछले कुछ समय से इनकी मौजूदगी के निशान कोकराझार, उदलगुड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में भी मिलते रहे हैं.
इस समय एएनएलए एक मात्र सक्रिय आदिवासी संगठन है जिसकी कैडर संख्या 150-200 है. कथित रूप से एनएससीएन-आईएम के साथ नजदीकी रिश्ते वाले इस संगठन ने कर्बी, अंगलॉन्ग और गोलघाट ज़िलों में हत्या, अपहरण और चौथ वसूली की घटनाओं को अंजाम दिया है. हालिया बम धमाका इनका पहला बड़ा अभियान था मगर पिछले कुछ समय से इनकी मौजूदगी के निशान कोकराझार, उदलगुड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में भी मिलते रहे हैं.
कहा जाता है कि एएनएलए के ज्यादातर कार्यकर्ता पढ़े-लिखे हैं. एसीएमए का चीफ कमांडर कानू मुर्मू भी स्नातक है. उसने तहलका को बताया, "1996 के जातीय दंगो के बाद हमें सरकार से कोई सहायता नहीं मिली. सभी आदिवासी गांवों को खत्म कर दिया गया. यहां तक कि हमें सहायता शिविरों में भी कोई सुरक्षा नहीं मिली थी और बोडो उग्रवादी अक्सर हमें निशाना बनाया करते थे. हम भ्रमित थे. अपनी रक्षा करने के लिए मजबूरी में हमने हथियार उठाए और 500 लोगों का मजबूत समूह खड़ा किया"
बीसीएफ का चीफ कमांडर बीर सिंह मुंडा, मुर्मू से सहमत है. वो ज़ोर देकर कहता है कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति सरकार के उदासीन रवैए ने लोगों में असंतोष बढ़ाया, ये भावना पूरे भारत में फैल गई है. "हम आदिम जनजाति हैं और लगभग सभी राज्यों में हमें एसटी का दर्जा प्राप्त है. लेकिन असम में वो हमें आदिवासी का दर्जा देने के लिए ही तैयार नहीं हैं," वो कहता है.
चाय जनजातियों के पहले छात्र संगठन "छोटा नागपुरी छात्र सम्मेलन" की स्थापना 1950 में हुई थी जिसका मकसद समुदाय की परेशानियों का हल तलाशना था. आगे चलकर इसका नाम "असम चाय जनजाति छात्र एसोसिएशन" हो गया. इसके महासचिव पल्लब लोचन दास कहते हैं, "हम अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक तरीकों से लड़ने में यकीन रखते हैं. हमारे समुदाय की इच्छाएं बहुत लंबी-चौड़ी नहीं हैं. अगर किसी ने हथियार उठाया है तो इसकी वजह आत्मरक्षा है, किसी को प्रताड़ित करना नहीं. हम इन आतंकी संगठनो से कोई बड़ी उम्मीद भी नहीं करते हैं"
समाज विज्ञानी अमलेंदु गुहा कहते हैं कि जातीय गुटों की स्वायत्तता की मांग धीरे-धीरे अस्तित्व में आई है एकदम से नहीं. "हम एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हुए हैं मगर कोई कुछ नहीं कर रहा." वो आगे जोड़ते हैं, "शायद करने के लिए पहले ही देर हो चुकी है."

तहलका हिन्दी से साभार

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