Tuesday, January 15, 2008

थिएटर मेरा पहला प्यार है: पंकज कपूर


रामकिशोर पारचा
फ़िल्म समीक्षक

पंकज कपूर का मानना है कि वो हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करते हैं
वरिष्ठ अभिनेता पंकज कपूर के करियर की कोई भी फ़िल्म देखें तो वही भूमिका उनकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ भूमिका लगेगी, पर पंकज ऐसा नही मानते.
वे चाहे धर्म जैसी फ़िल्म करें, व्यावसायिक सिनेमा की 'दस' या इसी हफ्ते रिलीज़ हुई फ़िल्म 'हल्ला बोल', वो हर चरित्र को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं.
हल्ला बोल की रिलीज़ और विशाल भारद्वाज की फ़िल्म ब्लू अम्ब्रेला के लिए सर्वश्रेष्ठ खलनायक का स्क्रीन अवार्ड दिए जाने पर उनसे हुई बातचीत के अंश.
ब्लू अम्ब्रेला के लिए आपको सर्वश्रेष्ठ खलनायक का अवार्ड मिलना सही है?
यह मुझे भी समझ नही आया कि यह किस कैटेगरी के तहत दिया गया है. वह तो नंदू नाम का सपने देखता सीधा इंसान है. मक़बूल और दस की भूमिकाएँ पूरी तरह नकारात्मक थीं.
अवार्ड का मतलब है आपके काम का सम्मान. पर उसका वर्गीकरण होना चाहिए. मैं नही जानता कि जूरी की क्या मजबूरियां होती होंगी. हम यूरोपीय या पश्चिम के सिनेमा या पुरस्कारों की बात करते हैं पर नही जानते सच्चाई क्या है.
हल्ला बोल से पहले आपके करियर की सर्वश्रेष्ठ कौन सी भूमिका है?
नहीं बता सकता. मेरे लिए मेरी हर भूमिका बच्चे की तरह है. मैं चाहे 'धर्म' करूँ या 'सहर', मैं हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करता हूँ.
पंकज कपूर ने हल्ला बोल में एक अलग तरह की भूमिका निभाई है
हल्ला बोल के सिद्धू की भूमिका ऐसे ही एक पूर्व डकैत मगर रंगकर्मी की है. मैं लोगों का शुक्रगुजार हूँ कि मैं उनकी तरह का काम कर पा रहा हूँ.
मैंने जब राजश्री की 'मैं प्रेम दीवानी' की तो लोगों ने कहा कि हिन्दी सिनेमा को एक नया पिता मिल गया है. हल्ला बोल में सिद्धू को देखकर लोग मेरी तुलना प्रेमनाथ से कर रहे हैं पर मैं अपनी तरह का काम ही कर रहा हूँ.
क्या यह मशहूर नुक्कड़ नाटककर्मी सफ़दर हाशमी या मॉडल जेसिका लाल की हत्याओं से प्रेरित कहानी है?
नहीं. फ़िल्म हमारे समाज का ही प्रतिबिम्ब हैं, उनमे अगर हमारे समाज और दुनिया के चेहरे नज़र आते हैं तो यह हमारे सिनेमा की कामयाबी है.
पर सतर के दशक में शुरू हुआ ऐसा नया सिनेमा आन्दोलन क्यों मर गया?
सत्तर का दशक सिनेमा के प्रयोगों के दौर था. उस समय हम फ्रांस, इटली के त्रुफो जैसा सिनेमा बनने कि कोशिश कर रहे थे पर अस्सी के दशक में तेज़ी से पनपा टीवी हमारे नए सिनेमा को खा गया.
इसमे पैसा नहीं था. टीवी ने पैसा और नाम दोनों दिया. अब वैसा टीवी भी नही रहा. तमाम चीजों और बाज़ारवाद के बावजूद उस समय वह आधार और रचनात्मकता के स्तर पर साहित्य और जड़ों से जुडा था.
यह फंतासी किस्म की ऐसी दुनिया दिखाता है जो हमसे नही मिलती. हाँ फ़िल्मों के मामले में हम आर्थिक और सामाजिक रूप से ज़रूर बदल गए हैं. इसे पूरी दुनिया देख और समझ रही है.
जब आप किसी साहित्यिक कृति पर बनने वाली फ़िल्म या शो में काम करते हैं तो इतने नेचुरल कैसे हो जाते हैं?
मेरे लिए मेरी हर भूमिका बच्चे की तरह है. मैं चाहे 'धर्म' करूँ या 'सहर', मैं हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करता हूँ
मकबूल शेक्सपीयर के मकबेथ और ब्लू अम्ब्रेला रस्किन बोंड की कृतियों पर आधारित फ़िल्में थीं.
मैंने कोशिश की कि उनकी मौलिकता को हानि न पहुँचे. मैं कोई तकनीक इस्तेमाल नहीं करता.
मैं किसी एक्टिंग स्कूल की नकल नही करता. फ़िल्मकार मुझे जो चारित्रिक आधार देते हैं, बस मैं उन्हें विकसित कर लेता हूँ. चाहे वे मेरे करमचंद का चरित्र हो या ऑफिस ऑफिस का मुसद्दी लाल.
मैं जब एक रूका हुआ फ़ैसला, खामोश और हल्ला बोल जैसे फ़िल्में कर रहा था तब भी मैंने यही अप्रोच रखी.
आपके और शाहिद के साथ काम करने को लेकर आजकल बहुत बातें हो रही रही हैं ?
मैंने अपनी जिन्दगी में कभी किसी से कुछ नहीं कहा और न शिकायत की. मैं नहीं चाहता कि आप जैसे वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकारों को ऐसे प्रकरणों और अफ़वाहों पर ध्यान देना चाहिए.
जहाँ तक हमारे साथ काम करने की बात हैं तो यदि कोई अच्छी पटकथा होगी तो ज़रूर करेंगे. पर मैं उनके साथ कोई फ़िल्म इसलिए नही करूंगा कि लोग मुझे उनके पिता की भूमिका में देखना चाहते हैं.
सुप्रिया के साथ भी मैंने 'धर्म' तभी की जब हमे लगा कि कोई कहानी और पटकथा वैसी है.
अब कौन सी फ़िल्म आएगी और थियेटर में वापसी कब होगी ?
फिलहाल एक फ़िल्म है गुड शर्मा. मैं थोड़ा चूजी हो गया हूँ. अब नए नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. लेकिन थियेटर मेरा पहला प्रेम है.


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