अपूर्वानन्द
इसी महीने 10 दिसंबर को एक तरफ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जा रहा था तो दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक शख्स की कैद लंबी हो रही थी. ये शख्स हैं इस साल मई से छत्तीसगढ़ की रायपुर जेल में बंद पीयूसीएल नेता डॉ. बिनायक सेन जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने जमानत देने से इनकार कर दिया. 45 मिनट चली सुनवाई वहां मौजूद लोगों के लिए एक भयावह अनुभव था. अभियोजन पक्ष का दावा था कि सेन माओवादी हैं और उन्हें छोड़ने का मतलब होगा सरकार की जड़ें खोदने के लिए उन्हें खुली आजादी देना. परेशान करने वाली बात ये थी कि इस दावे की प्रामाणिकता जांचने की जरूरत ही नहीं समझी गई. डॉ सेन के कंप्यूटर रिकॉर्डों को तोड़मरोड़ कर पेश करते हुए सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि इसमें वे पत्र हैं जिनसे ये पता लगता है कि किस तरह डॉ सेन ने नागपुर में हथियारों का प्रशिक्षण कैंप आयोजित करने में मदद पहुंचाई. बचाव पक्ष के वकील राजीव धवन ने इस ओर ध्यान खींचने की कोशिश की कि पत्रों को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है और डॉ सेन खैरलांजी में एक दलित परिवार की हत्या से जुड़े तथ्यों की पड़ताल के लिए नागपुर गए थे. लेकिन अदालत का मानना था कि धवन का तर्क ट्रायल कोर्ट में देखेगा और उसके पास डॉ सेन को जमानत न देने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं.
इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात थी हमारे कुछ अनुभवी मित्रों का यह कहना कि अभियोजन पक्ष का काम ही है कि वह झूठ बोले और इसमें कुछ भी नया या अनोखा नहीं है कि सरकारी वकील ने डॉ सेन के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश किया.
जब सरकार ही झूठ बोलने पर उतर आए तो आप क्या करेंगे? क्या देश के उच्चतम न्यायालय ने ये सिद्धांत नहीं दिया है कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और जमानत से तब तक इनकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक ये स्वतंत्रता दूसरों के लिए खतरा न बन जाए? क्या फैसला सुनाने वाली खंडपीठ ने ये महसूस किया कि डॉ सेन के एक भी दिन जेल में रहने का मतलब है, छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में रहने वाले आदिवासियों के लिए मुसीबत और पीड़ा? वो आदिवासी जिनके लिए डॉ सेन ही एकमात्र मेडिकल सुविधा थे. क्या खंडपीठ ने ये सोचा कि डॉ सेन की गिरफ्तारी के फलस्वरूप धमतारी अस्पताल बंद हो गया है? और इसके साथ ही पढ़ने में आता है अदालत ने किसी फिल्म स्टार को सिर्फ इसलिए जमानत दे दी कि उसके ऊपर फिल्म उद्योग के करोड़ों रुपये लगे हुए हैं.
आम आदमी सीधे सवाल पूछता है : क्या जमानत दिए जाने पर डॉ सेन के भूमिगत होने का खतरा था? ये एक तथ्य है कि बंगाल में अपनी छुट्टियां बिताने के बाद डॉ सेन मई में रायपुर लौटे थे, ये पता होने के बावजूद कि स्थानीय मीडिया के सहयोग से छत्तीसगढ पुलिस उनके बारे में दुष्प्रचार कर रही है. उनके भाई ने उन्हें एक पत्र भी भेजा था जिसमें आशंका व्यक्त की गई थी कि लौटने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. लेकिन वह वापस आए और जैसी कि आशंका थी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अगर छत्तीसगढ़ पुलिस अदालत को जैसा बता रही थी वैसा होता तो डॉ सेन मई में ही भूमिगत हो जाते. उनका वापस आने और कानून का सामना करने का फैसला पर्याप्त आधार होना चाहिए था कि कोई भी अदालत उन्हें जमानत दे देती. केस की जानकारी रखने वालों के मुताबिक सरकार द्वारा ट्रायल कोर्ट में मामले को लटकाए रखने के लिए अपनाई गई चालबाजियां इस बात का सबूत हैं कि सरकार की दिलचस्पी केवल डॉ सेन को लंबे समय तक कैद रखने में है. इसका नतीजा ये हुआ कि सलवा जुडूम के नाम पर हो रहे सरकारी अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली एक ताकतवर और भरोसेमंद जुबान खामोश हो गई है. इसका मतलब ये भी है कि मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले समुदाय के सारे संसाधन अब अपने नेता को आजादी दिलाने में लग जाएंगे. नतीजतन सरकार को निर्बाध दूसरी ज्यादतियां करने की छूट मिल जाएगी.
छत्तीसगढ़ की सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह हर उस आवाज को खामोश कर दे जो पूंजीपतियों से उसके गठजोड़ को रोशनी में लाती हो. वह गठजोड़ जो गरीबों के संसाधनों को लूटने के लिए बना है. जब डॉ सेन ने छत्तीसगढ़ सरकार की जनविरोधी प्रकृति का भांडाफोड़ करना शुरू किया, जब उन्होंने सलवा जुडूम और एनकाउंटर के नाम पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो सरकार उसे बर्दाश्त न कर सकी. उसने डॉ सेन की जुबान बंद करने का फैसला कर लिया. सबसे आसान तरीका था उन्हें माओवादी घोषित कर देना.
डॉ सेन कितने दिन जेल में रहेंगे कहा नहीं जा सकता। जो निश्चित रूप से कहा जा सकता है वह ये है कि डॉ बिनायक सेन जैसे लोगों के जेल में बिताये गये हर दिन का मतलब है भारत में लोकतंत्र और आजादी के एक दिन का कम हो जाना. हमें ये जानने की आवश्यकता है कि छत्तीसगढ़ की जेलें डॉ सेन जैसे सैकड़ों लोगों से भरी हैं. ऐसे कई सीपीआई कार्यकर्ता हैं जिन्हें सिर्फ इस अपराध में माओवादी करार देकर जेल में ठूंस दिया गया कि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था. माओवादियों की हिंसावादी राजनीति का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन जब राज्य में किसी भी विपक्ष को माओवादी बता जेल में ठूंसा जाने लगे तो ऐसा उनकी राजनीति को निश्चित तौर पर थोड़ी सी वैधता प्रदान करता है. क्या सरकार ऐसा जानबूझकर कर रही है? क्या ये सरकार खुद भारत का अलोकतंत्रीकरण कर रही है?
इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात थी हमारे कुछ अनुभवी मित्रों का यह कहना कि अभियोजन पक्ष का काम ही है कि वह झूठ बोले और इसमें कुछ भी नया या अनोखा नहीं है कि सरकारी वकील ने डॉ सेन के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश किया.
जब सरकार ही झूठ बोलने पर उतर आए तो आप क्या करेंगे? क्या देश के उच्चतम न्यायालय ने ये सिद्धांत नहीं दिया है कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और जमानत से तब तक इनकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक ये स्वतंत्रता दूसरों के लिए खतरा न बन जाए? क्या फैसला सुनाने वाली खंडपीठ ने ये महसूस किया कि डॉ सेन के एक भी दिन जेल में रहने का मतलब है, छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में रहने वाले आदिवासियों के लिए मुसीबत और पीड़ा? वो आदिवासी जिनके लिए डॉ सेन ही एकमात्र मेडिकल सुविधा थे. क्या खंडपीठ ने ये सोचा कि डॉ सेन की गिरफ्तारी के फलस्वरूप धमतारी अस्पताल बंद हो गया है? और इसके साथ ही पढ़ने में आता है अदालत ने किसी फिल्म स्टार को सिर्फ इसलिए जमानत दे दी कि उसके ऊपर फिल्म उद्योग के करोड़ों रुपये लगे हुए हैं.
आम आदमी सीधे सवाल पूछता है : क्या जमानत दिए जाने पर डॉ सेन के भूमिगत होने का खतरा था? ये एक तथ्य है कि बंगाल में अपनी छुट्टियां बिताने के बाद डॉ सेन मई में रायपुर लौटे थे, ये पता होने के बावजूद कि स्थानीय मीडिया के सहयोग से छत्तीसगढ पुलिस उनके बारे में दुष्प्रचार कर रही है. उनके भाई ने उन्हें एक पत्र भी भेजा था जिसमें आशंका व्यक्त की गई थी कि लौटने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. लेकिन वह वापस आए और जैसी कि आशंका थी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अगर छत्तीसगढ़ पुलिस अदालत को जैसा बता रही थी वैसा होता तो डॉ सेन मई में ही भूमिगत हो जाते. उनका वापस आने और कानून का सामना करने का फैसला पर्याप्त आधार होना चाहिए था कि कोई भी अदालत उन्हें जमानत दे देती. केस की जानकारी रखने वालों के मुताबिक सरकार द्वारा ट्रायल कोर्ट में मामले को लटकाए रखने के लिए अपनाई गई चालबाजियां इस बात का सबूत हैं कि सरकार की दिलचस्पी केवल डॉ सेन को लंबे समय तक कैद रखने में है. इसका नतीजा ये हुआ कि सलवा जुडूम के नाम पर हो रहे सरकारी अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली एक ताकतवर और भरोसेमंद जुबान खामोश हो गई है. इसका मतलब ये भी है कि मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले समुदाय के सारे संसाधन अब अपने नेता को आजादी दिलाने में लग जाएंगे. नतीजतन सरकार को निर्बाध दूसरी ज्यादतियां करने की छूट मिल जाएगी.
छत्तीसगढ़ की सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह हर उस आवाज को खामोश कर दे जो पूंजीपतियों से उसके गठजोड़ को रोशनी में लाती हो. वह गठजोड़ जो गरीबों के संसाधनों को लूटने के लिए बना है. जब डॉ सेन ने छत्तीसगढ़ सरकार की जनविरोधी प्रकृति का भांडाफोड़ करना शुरू किया, जब उन्होंने सलवा जुडूम और एनकाउंटर के नाम पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो सरकार उसे बर्दाश्त न कर सकी. उसने डॉ सेन की जुबान बंद करने का फैसला कर लिया. सबसे आसान तरीका था उन्हें माओवादी घोषित कर देना.
डॉ सेन कितने दिन जेल में रहेंगे कहा नहीं जा सकता। जो निश्चित रूप से कहा जा सकता है वह ये है कि डॉ बिनायक सेन जैसे लोगों के जेल में बिताये गये हर दिन का मतलब है भारत में लोकतंत्र और आजादी के एक दिन का कम हो जाना. हमें ये जानने की आवश्यकता है कि छत्तीसगढ़ की जेलें डॉ सेन जैसे सैकड़ों लोगों से भरी हैं. ऐसे कई सीपीआई कार्यकर्ता हैं जिन्हें सिर्फ इस अपराध में माओवादी करार देकर जेल में ठूंस दिया गया कि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था. माओवादियों की हिंसावादी राजनीति का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन जब राज्य में किसी भी विपक्ष को माओवादी बता जेल में ठूंसा जाने लगे तो ऐसा उनकी राजनीति को निश्चित तौर पर थोड़ी सी वैधता प्रदान करता है. क्या सरकार ऐसा जानबूझकर कर रही है? क्या ये सरकार खुद भारत का अलोकतंत्रीकरण कर रही है?
तहलका हिन्दी से साभार
1 comment:
उच्चतम न्यायालय में इस मामले की सुनवाई का संक्षिप्त विवरण राजस्थान पीयूसीएल की बैठक में मिला था। अब जब सारी सचाई सामने है, उच्चतम न्यायालय को स्वयं इस मामले में रिव्यू करना चाहिए। अन्यथा विनायक सेन की जमानत नहीं होना हमारी न्याय प्रणाली पर ऐसा धब्बा है जो कभी साफ नहीं होगा।
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