Thursday, January 17, 2008

दूर तक जायेगी एक रोशनी उसके साथ


इस कविता के कवि हालाँकि इतने चर्चित नहीं रहे हैं कि उनका नाम सुनकर ही कविता पढ़ने की इच्छा जग जाये। एक अत्यंत प्रतिभावान कवि और उससे भी ज़्यादा संवेदनशील शख्सियत वाले युवा श्री राजीव झा आज गुमनामी झेल रहे हैं और हममें से अधिकांश साथी शायद ही उनका अता-पता बता सकें। इतनी प्रतिभा के बावजूद यदि वे नटरंग प्रतिष्ठान जैसे संगठन में पिछले कई सालों से दो-तीन हजार रुपये में काम कर रहे हैं , जहाँ भरपूर फंड्स रहने के बाद भी ज़रूरतमंद युवाओं से पांच सौ, हजार रुपये देकर महीने भर आठ घंटों तक काम करवाया जाता है तो यह हमारी भी संवेदनहीनता का परिचायक है। गौरतलब है कि यह संस्थान जिसके संस्थापक स्व.नेमिचंद्र जैन थे ,अब उनके परिवार के दूसरे सदस्य इसे अशोक वाजपेयी के सहयोग से चला रहे हैं। इस प्रतिष्ठान के बारे में फिर कभी बात करेंगे , आइये पहले राजीव की यह कविता पढ़ें-


कुछ दृश्य
अकेलेपन
में कौंधते हैं
स्वप्न में नहीं
सुबह नहाने के बाद
आइने से
वह आज फिर नहीं पोंछ पाई
उस चेहरे को
गुमसुम कोई चेहरा
किसी को कुछ कहता है
एक पुकार को सुनता हुआ

वह ऑफिस जा रही है
कुछ
सोचते हुए
काफी दूर तक जायेगी
एक रोशनी उसके साथ
यह याददाश्त है
जिसमें वह खुद को
ठीक से पहचानती है।

Tuesday, January 15, 2008

थिएटर मेरा पहला प्यार है: पंकज कपूर


रामकिशोर पारचा
फ़िल्म समीक्षक

पंकज कपूर का मानना है कि वो हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करते हैं
वरिष्ठ अभिनेता पंकज कपूर के करियर की कोई भी फ़िल्म देखें तो वही भूमिका उनकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ भूमिका लगेगी, पर पंकज ऐसा नही मानते.
वे चाहे धर्म जैसी फ़िल्म करें, व्यावसायिक सिनेमा की 'दस' या इसी हफ्ते रिलीज़ हुई फ़िल्म 'हल्ला बोल', वो हर चरित्र को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं.
हल्ला बोल की रिलीज़ और विशाल भारद्वाज की फ़िल्म ब्लू अम्ब्रेला के लिए सर्वश्रेष्ठ खलनायक का स्क्रीन अवार्ड दिए जाने पर उनसे हुई बातचीत के अंश.
ब्लू अम्ब्रेला के लिए आपको सर्वश्रेष्ठ खलनायक का अवार्ड मिलना सही है?
यह मुझे भी समझ नही आया कि यह किस कैटेगरी के तहत दिया गया है. वह तो नंदू नाम का सपने देखता सीधा इंसान है. मक़बूल और दस की भूमिकाएँ पूरी तरह नकारात्मक थीं.
अवार्ड का मतलब है आपके काम का सम्मान. पर उसका वर्गीकरण होना चाहिए. मैं नही जानता कि जूरी की क्या मजबूरियां होती होंगी. हम यूरोपीय या पश्चिम के सिनेमा या पुरस्कारों की बात करते हैं पर नही जानते सच्चाई क्या है.
हल्ला बोल से पहले आपके करियर की सर्वश्रेष्ठ कौन सी भूमिका है?
नहीं बता सकता. मेरे लिए मेरी हर भूमिका बच्चे की तरह है. मैं चाहे 'धर्म' करूँ या 'सहर', मैं हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करता हूँ.
पंकज कपूर ने हल्ला बोल में एक अलग तरह की भूमिका निभाई है
हल्ला बोल के सिद्धू की भूमिका ऐसे ही एक पूर्व डकैत मगर रंगकर्मी की है. मैं लोगों का शुक्रगुजार हूँ कि मैं उनकी तरह का काम कर पा रहा हूँ.
मैंने जब राजश्री की 'मैं प्रेम दीवानी' की तो लोगों ने कहा कि हिन्दी सिनेमा को एक नया पिता मिल गया है. हल्ला बोल में सिद्धू को देखकर लोग मेरी तुलना प्रेमनाथ से कर रहे हैं पर मैं अपनी तरह का काम ही कर रहा हूँ.
क्या यह मशहूर नुक्कड़ नाटककर्मी सफ़दर हाशमी या मॉडल जेसिका लाल की हत्याओं से प्रेरित कहानी है?
नहीं. फ़िल्म हमारे समाज का ही प्रतिबिम्ब हैं, उनमे अगर हमारे समाज और दुनिया के चेहरे नज़र आते हैं तो यह हमारे सिनेमा की कामयाबी है.
पर सतर के दशक में शुरू हुआ ऐसा नया सिनेमा आन्दोलन क्यों मर गया?
सत्तर का दशक सिनेमा के प्रयोगों के दौर था. उस समय हम फ्रांस, इटली के त्रुफो जैसा सिनेमा बनने कि कोशिश कर रहे थे पर अस्सी के दशक में तेज़ी से पनपा टीवी हमारे नए सिनेमा को खा गया.
इसमे पैसा नहीं था. टीवी ने पैसा और नाम दोनों दिया. अब वैसा टीवी भी नही रहा. तमाम चीजों और बाज़ारवाद के बावजूद उस समय वह आधार और रचनात्मकता के स्तर पर साहित्य और जड़ों से जुडा था.
यह फंतासी किस्म की ऐसी दुनिया दिखाता है जो हमसे नही मिलती. हाँ फ़िल्मों के मामले में हम आर्थिक और सामाजिक रूप से ज़रूर बदल गए हैं. इसे पूरी दुनिया देख और समझ रही है.
जब आप किसी साहित्यिक कृति पर बनने वाली फ़िल्म या शो में काम करते हैं तो इतने नेचुरल कैसे हो जाते हैं?
मेरे लिए मेरी हर भूमिका बच्चे की तरह है. मैं चाहे 'धर्म' करूँ या 'सहर', मैं हमेशा अपनी तरह काम करने की कोशिश करता हूँ
मकबूल शेक्सपीयर के मकबेथ और ब्लू अम्ब्रेला रस्किन बोंड की कृतियों पर आधारित फ़िल्में थीं.
मैंने कोशिश की कि उनकी मौलिकता को हानि न पहुँचे. मैं कोई तकनीक इस्तेमाल नहीं करता.
मैं किसी एक्टिंग स्कूल की नकल नही करता. फ़िल्मकार मुझे जो चारित्रिक आधार देते हैं, बस मैं उन्हें विकसित कर लेता हूँ. चाहे वे मेरे करमचंद का चरित्र हो या ऑफिस ऑफिस का मुसद्दी लाल.
मैं जब एक रूका हुआ फ़ैसला, खामोश और हल्ला बोल जैसे फ़िल्में कर रहा था तब भी मैंने यही अप्रोच रखी.
आपके और शाहिद के साथ काम करने को लेकर आजकल बहुत बातें हो रही रही हैं ?
मैंने अपनी जिन्दगी में कभी किसी से कुछ नहीं कहा और न शिकायत की. मैं नहीं चाहता कि आप जैसे वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकारों को ऐसे प्रकरणों और अफ़वाहों पर ध्यान देना चाहिए.
जहाँ तक हमारे साथ काम करने की बात हैं तो यदि कोई अच्छी पटकथा होगी तो ज़रूर करेंगे. पर मैं उनके साथ कोई फ़िल्म इसलिए नही करूंगा कि लोग मुझे उनके पिता की भूमिका में देखना चाहते हैं.
सुप्रिया के साथ भी मैंने 'धर्म' तभी की जब हमे लगा कि कोई कहानी और पटकथा वैसी है.
अब कौन सी फ़िल्म आएगी और थियेटर में वापसी कब होगी ?
फिलहाल एक फ़िल्म है गुड शर्मा. मैं थोड़ा चूजी हो गया हूँ. अब नए नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. लेकिन थियेटर मेरा पहला प्रेम है.


Wednesday, January 2, 2008

बिनायक सेन की कैद के मायने


अपूर्वानन्द
इसी महीने 10 दिसंबर को एक तरफ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जा रहा था तो दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक शख्स की कैद लंबी हो रही थी. ये शख्स हैं इस साल मई से छत्तीसगढ़ की रायपुर जेल में बंद पीयूसीएल नेता डॉ. बिनायक सेन जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने जमानत देने से इनकार कर दिया. 45 मिनट चली सुनवाई वहां मौजूद लोगों के लिए एक भयावह अनुभव था. अभियोजन पक्ष का दावा था कि सेन माओवादी हैं और उन्हें छोड़ने का मतलब होगा सरकार की जड़ें खोदने के लिए उन्हें खुली आजादी देना. परेशान करने वाली बात ये थी कि इस दावे की प्रामाणिकता जांचने की जरूरत ही नहीं समझी गई. डॉ सेन के कंप्यूटर रिकॉर्डों को तोड़मरोड़ कर पेश करते हुए सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि इसमें वे पत्र हैं जिनसे ये पता लगता है कि किस तरह डॉ सेन ने नागपुर में हथियारों का प्रशिक्षण कैंप आयोजित करने में मदद पहुंचाई. बचाव पक्ष के वकील राजीव धवन ने इस ओर ध्यान खींचने की कोशिश की कि पत्रों को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है और डॉ सेन खैरलांजी में एक दलित परिवार की हत्या से जुड़े तथ्यों की पड़ताल के लिए नागपुर गए थे. लेकिन अदालत का मानना था कि धवन का तर्क ट्रायल कोर्ट में देखेगा और उसके पास डॉ सेन को जमानत न देने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं.
इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात थी हमारे कुछ अनुभवी मित्रों का यह कहना कि अभियोजन पक्ष का काम ही है कि वह झूठ बोले और इसमें कुछ भी नया या अनोखा नहीं है कि सरकारी वकील ने डॉ सेन के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश किया.
जब सरकार ही झूठ बोलने पर उतर आए तो आप क्या करेंगे? क्या देश के उच्चतम न्यायालय ने ये सिद्धांत नहीं दिया है कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और जमानत से तब तक इनकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक ये स्वतंत्रता दूसरों के लिए खतरा न बन जाए? क्या फैसला सुनाने वाली खंडपीठ ने ये महसूस किया कि डॉ सेन के एक भी दिन जेल में रहने का मतलब है, छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में रहने वाले आदिवासियों के लिए मुसीबत और पीड़ा? वो आदिवासी जिनके लिए डॉ सेन ही एकमात्र मेडिकल सुविधा थे. क्या खंडपीठ ने ये सोचा कि डॉ सेन की गिरफ्तारी के फलस्वरूप धमतारी अस्पताल बंद हो गया है? और इसके साथ ही पढ़ने में आता है अदालत ने किसी फिल्म स्टार को सिर्फ इसलिए जमानत दे दी कि उसके ऊपर फिल्म उद्योग के करोड़ों रुपये लगे हुए हैं.
आम आदमी सीधे सवाल पूछता है : क्या जमानत दिए जाने पर डॉ सेन के भूमिगत होने का खतरा था? ये एक तथ्य है कि बंगाल में अपनी छुट्टियां बिताने के बाद डॉ सेन मई में रायपुर लौटे थे, ये पता होने के बावजूद कि स्थानीय मीडिया के सहयोग से छत्तीसगढ पुलिस उनके बारे में दुष्प्रचार कर रही है. उनके भाई ने उन्हें एक पत्र भी भेजा था जिसमें आशंका व्यक्त की गई थी कि लौटने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. लेकिन वह वापस आए और जैसी कि आशंका थी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अगर छत्तीसगढ़ पुलिस अदालत को जैसा बता रही थी वैसा होता तो डॉ सेन मई में ही भूमिगत हो जाते. उनका वापस आने और कानून का सामना करने का फैसला पर्याप्त आधार होना चाहिए था कि कोई भी अदालत उन्हें जमानत दे देती. केस की जानकारी रखने वालों के मुताबिक सरकार द्वारा ट्रायल कोर्ट में मामले को लटकाए रखने के लिए अपनाई गई चालबाजियां इस बात का सबूत हैं कि सरकार की दिलचस्पी केवल डॉ सेन को लंबे समय तक कैद रखने में है. इसका नतीजा ये हुआ कि सलवा जुडूम के नाम पर हो रहे सरकारी अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली एक ताकतवर और भरोसेमंद जुबान खामोश हो गई है. इसका मतलब ये भी है कि मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले समुदाय के सारे संसाधन अब अपने नेता को आजादी दिलाने में लग जाएंगे. नतीजतन सरकार को निर्बाध दूसरी ज्यादतियां करने की छूट मिल जाएगी.
छत्तीसगढ़ की सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह हर उस आवाज को खामोश कर दे जो पूंजीपतियों से उसके गठजोड़ को रोशनी में लाती हो. वह गठजोड़ जो गरीबों के संसाधनों को लूटने के लिए बना है. जब डॉ सेन ने छत्तीसगढ़ सरकार की जनविरोधी प्रकृति का भांडाफोड़ करना शुरू किया, जब उन्होंने सलवा जुडूम और एनकाउंटर के नाम पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो सरकार उसे बर्दाश्त न कर सकी. उसने डॉ सेन की जुबान बंद करने का फैसला कर लिया. सबसे आसान तरीका था उन्हें माओवादी घोषित कर देना.
डॉ सेन कितने दिन जेल में रहेंगे कहा नहीं जा सकता। जो निश्चित रूप से कहा जा सकता है वह ये है कि डॉ बिनायक सेन जैसे लोगों के जेल में बिताये गये हर दिन का मतलब है भारत में लोकतंत्र और आजादी के एक दिन का कम हो जाना. हमें ये जानने की आवश्यकता है कि छत्तीसगढ़ की जेलें डॉ सेन जैसे सैकड़ों लोगों से भरी हैं. ऐसे कई सीपीआई कार्यकर्ता हैं जिन्हें सिर्फ इस अपराध में माओवादी करार देकर जेल में ठूंस दिया गया कि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था. माओवादियों की हिंसावादी राजनीति का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन जब राज्य में किसी भी विपक्ष को माओवादी बता जेल में ठूंसा जाने लगे तो ऐसा उनकी राजनीति को निश्चित तौर पर थोड़ी सी वैधता प्रदान करता है. क्या सरकार ऐसा जानबूझकर कर रही है? क्या ये सरकार खुद भारत का अलोकतंत्रीकरण कर रही है?

तहलका हिन्दी से साभार

सुलगता ज्वालामुखी


हाशिये पर जी रहे हर तरह से शोषित और जातीय हिंसा के शिकार असम के आदिवासी अब कुछ भी चुपचाप सहने को तैयार नहीं दिखते...टेरेसा रहमान की रिपोर्ट...
पूर्वोत्तर के बड़े उग्रवादी संगठनों का एक कमजोर बंधु आदिवासी नेशनल लिबरेशन आर्मी (एएनएलए) ने खुद को असम के दबे-कुचले आदिवासियों का रहनुमा बना लिया है. इस संगठन ने कथित रूप से 13 दिसंबर को दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस में हुए एक विस्फोट को अंजाम दिया था और सरकार इसी वजह से अब इसे प्रतिबंधित करने पर विचार कर रही है. विस्फोट की घटना में पांच लोगों की मौत हो गई थी और कई घायल हुए थे. कहा जा रहा है कि ये पिछले महीने गुवाहाटी में स्थानीय लोगों द्वारा आदिवासियों को पीटने और एक आदिवासी महिला को नग्न करके घुमाए जाने की घटना का जवाब था.
असम में आदिवासी दरअसल उन मजदूरों के वंशजों को कहा जाता है जिन्हें करीब 160 साल पहले अंग्रेज़ चाय बागानों में काम करने के लिए यहां लाए थे. तभी से शांतिप्रिय आदिवासी समुदाय राज्य की आर्थिक तरक्की में चुपचाप अपना योगदान देते रहा है. बावजूद इसके ये हमेशा उपेक्षा का शिकार ही रहे. 1996 में बोडोलैंड इलाके में बोडो जनजाति और आदिवासियों के बीच हुए जातीय संघर्ष ने कई आदिवासियों को बेघर कर दिया. इनमें से कुछ अभी भी सहायता शिविरों में रहने को मजबूर हैं. इसके बाद आत्मरक्षा के लिए दो उग्रवादी संगठन बने- आदिवासी कोबरा मिलिट्री ऑफ असम (एसीएमए) और बिरसा कमांडो फोर्स(बीसीएफ). दोनों का इस समय सरकार के साथ संघर्षविराम समझौता चल रहा है.
हालिया बम धमाका इनका पहला बड़ा अभियान था मगर पिछले कुछ समय से इनकी मौजूदगी के निशान कोकराझार, उदलगुड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में भी मिलते रहे हैं.
इस समय एएनएलए एक मात्र सक्रिय आदिवासी संगठन है जिसकी कैडर संख्या 150-200 है. कथित रूप से एनएससीएन-आईएम के साथ नजदीकी रिश्ते वाले इस संगठन ने कर्बी, अंगलॉन्ग और गोलघाट ज़िलों में हत्या, अपहरण और चौथ वसूली की घटनाओं को अंजाम दिया है. हालिया बम धमाका इनका पहला बड़ा अभियान था मगर पिछले कुछ समय से इनकी मौजूदगी के निशान कोकराझार, उदलगुड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में भी मिलते रहे हैं.
कहा जाता है कि एएनएलए के ज्यादातर कार्यकर्ता पढ़े-लिखे हैं. एसीएमए का चीफ कमांडर कानू मुर्मू भी स्नातक है. उसने तहलका को बताया, "1996 के जातीय दंगो के बाद हमें सरकार से कोई सहायता नहीं मिली. सभी आदिवासी गांवों को खत्म कर दिया गया. यहां तक कि हमें सहायता शिविरों में भी कोई सुरक्षा नहीं मिली थी और बोडो उग्रवादी अक्सर हमें निशाना बनाया करते थे. हम भ्रमित थे. अपनी रक्षा करने के लिए मजबूरी में हमने हथियार उठाए और 500 लोगों का मजबूत समूह खड़ा किया"
बीसीएफ का चीफ कमांडर बीर सिंह मुंडा, मुर्मू से सहमत है. वो ज़ोर देकर कहता है कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति सरकार के उदासीन रवैए ने लोगों में असंतोष बढ़ाया, ये भावना पूरे भारत में फैल गई है. "हम आदिम जनजाति हैं और लगभग सभी राज्यों में हमें एसटी का दर्जा प्राप्त है. लेकिन असम में वो हमें आदिवासी का दर्जा देने के लिए ही तैयार नहीं हैं," वो कहता है.
चाय जनजातियों के पहले छात्र संगठन "छोटा नागपुरी छात्र सम्मेलन" की स्थापना 1950 में हुई थी जिसका मकसद समुदाय की परेशानियों का हल तलाशना था. आगे चलकर इसका नाम "असम चाय जनजाति छात्र एसोसिएशन" हो गया. इसके महासचिव पल्लब लोचन दास कहते हैं, "हम अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक तरीकों से लड़ने में यकीन रखते हैं. हमारे समुदाय की इच्छाएं बहुत लंबी-चौड़ी नहीं हैं. अगर किसी ने हथियार उठाया है तो इसकी वजह आत्मरक्षा है, किसी को प्रताड़ित करना नहीं. हम इन आतंकी संगठनो से कोई बड़ी उम्मीद भी नहीं करते हैं"
समाज विज्ञानी अमलेंदु गुहा कहते हैं कि जातीय गुटों की स्वायत्तता की मांग धीरे-धीरे अस्तित्व में आई है एकदम से नहीं. "हम एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हुए हैं मगर कोई कुछ नहीं कर रहा." वो आगे जोड़ते हैं, "शायद करने के लिए पहले ही देर हो चुकी है."

तहलका हिन्दी से साभार

आर्थिक मंदी से जूझेगा अमेरिका


आनंद प्रधान
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए वर्ष 2008 अच्छे संकेत लेकर नहीं आ रहा है। इस बात की आशंका लगातार प्रबल होती जा रही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को मंदी की चपेट में आने से रोकना संभव नहीं रह गया है। उन अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो मंदी को निश्चित बता रहे हैं और जो मंदी की भविष्यवाणी से सहमत नहीं हैं, वे भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाएगी।अर्थशास्त्रियों में मतभेद की एक बड़ी वजह मंदी की परिभाषा को लेकर है। लोकप्रिय मान्यता यह है कि लगातार दो तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट का अर्थ अर्थव्यवस्था का मंदी की चपेट में आना है। माना जा रहा है कि 2007 के मध्य में हाउसिंग क्षेत्र के बुलबुले के फूटने के बाद अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था जिस सब-प्राइम कर्ज और मार्गेज संकट से जूझ रही है, उसका वास्तविक असर 2008 में दिखेगा। वॉल स्ट्रीट के विश्लेषकों का अनुमान है कि अमेरिकी जीडीपी चौथी तिमाही में लुढ़ककर सिर्फ 1।5 फीसदी की चींटी की गति से बढ़ेगी। विश्लेषक उसके बाद कुछ और कमजोर तिमाहियों की आशंका से इनकार नहीं करते हैं। इसके बावजूद वाल स्ट्रीट मंदी की आसन्न सचाई स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वह मंदी की आशंका को 50 प्रतिशत से अधिक वजन या चांस देने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है वॉल स्ट्रीट के लिए मंदी एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे वह आखिरी क्षण तक नकारता रहता है। यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले 1990 और 2001 की मंदी के समय भी वॉल स्ट्रीट अर्थव्यवस्था के अच्छे स्वास्थ्य और ठीक-ठीक विकास दर के दावे कर रहा था लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली, इसलिए वर्ष 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति में थोड़ा धीमापन आने के बावजूद उसकी अच्छी सेहत के दावों को स्वीकार करना मुश्किल है। यह सच है कि बुश प्रशासन खासकर केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके और वित्तमंत्री पाल्सन अमेरिकी वित्तीय बाजार में फैली घबराहट, उथल-पुथल और गहराते संकट को दूर करने के लिए हर संभव मदद कर रहे हैं लेकिन उनके सभी प्रयास इस संकट के ‘ब्लैक होल’ में गुम हो जा रहे हैं।दरअसल, हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद वित्तीय बाजार में सब प्राइम और मार्गेज लोन के संकट के कारण हुए नुकसान को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। उसका आकार कितना बड़ा है, इसको लेकर लगाए जा रहे कयासों का दौर जारी है। खुद फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके ने संकट की शुरूआत में सब प्राइम और मार्गेज लोन के कारण 50 से 100 अरब डॉलर के नुकसान की आशंका जाहिर की थी लेकिन अब उन्होंने माना है कि यह नुकसान 150 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है। हालांकि यह अनुमान भी बहुत कम माना जा रहा है। ड्यूश बैंक के आकलन के अनुसार सब-प्राइम संकट से जुड़ा कुल नुकसान 400 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है जिसमें लगभग 130 अरब डॉलर का नुकसान बैंको के खाते में जाने का अनुमान है।आश्चर्य नहीं कि इस संकट के कारण कल तक वित्तीय बाजार के चमकते सितारे माने जाने वाले बैंक और वित्तीय संस्थाएं धूल-धूसरित नजर आ रही हैं। जाना-माना इन्वेस्टमेंट बैंक मेरिल लिंच, अमेरिका का सबसे बड़ा बैंक सिटी ग्रुप और दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओं में से एक मार्गन स्टेनली और यूबीएस, सभी संकट में त्राहिमाम करती नजर आ रही हैं। मेरिल लिंच को अपने 93 वर्षों के इतिहास में इतना बड़ा नुकसान कभी नहीं हुआ। उसने अपनी तीसरी तिमाही में 8.4 अरब डॉलर के नुकसान का एलान किया है और विश्लेषकों का अनुमान है कि चौथी तिमाही में भी उसे 8.6 अरब डॉलर गंवाने पड़ेंगे। मार्गन स्टेनली ने मार्गेज लोन डूबने के कारण लगभग 9.4अरब डॉलर के नुकसान की बात स्वीकार की है।इस वित्तीय संकट के कारण बैंको और वित्तीय संस्थाओं ने नए कर्ज देने और कर्ज की शर्तों को सख्त कर दिया है। इससे बाजार में काफी हद तक कजोर्ं के मामले में सूखे की स्थिति पैदा हो गई है। जाहिर है इस सबका असर उन अमेरिकी उपभोक्ताओं पर जरूर पड़ेगा, जिन्हें अपने भारी उपभोग के कारण विश्व अर्थव्यवस्था का ड्राइवर माना जाता है। हाल के सर्वेक्षणों में उपभोक्ताओं के विश्वास में अच्छी-खासी गिरावट देखी गयी है जिसका अर्थ है कि वे खरीददारी और उपभोग कम करेंगे और इसका सीधा असर वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर पड़ेगा। मांग में गिरावट के कारण न सिर्फ घरेलू कंपनियों और अमेरिकी बाजार में अपना माल निर्यात करने वाले देशों की आय पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि इसके कारण कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं होंगे। छंटनी होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। इससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग और घट जाएगी। इस तरह अर्थव्यवस्था मंदी में फंस जाएगी।यह किसी काल्पनिक स्थिति का बयान नहीं है। अमेरिकी हाउसिंग संकट सचमुच बहुत व्यापक और गहरा है। अमेरिका में कुल आवासीय हाउसिंग संपत्ति लगभग 21 अरब डॉलर की है जो कुल अमेरिकी पारिवारिक संपत्ति के एक तिहाई से अधिक है। इस आवासीय हाउसिंग संपत्ति की कीमत में 10 फीसदी की भी गिरावट अमेरिकी उपभोक्ताओं की खरीददारी को काफी प्रभावित कर सकती है। हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद प्रॉपर्टी बाजार की स्थिति यह हो गई है कि नए मकानों के निर्माण की शुरूआत की दर में अपने चरम स्तर से करीब 47 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है और जहां 2005 में आवासीय प्रापर्टी कुल जीडीपी का 6.3 प्रतिशत थी, वह घटकर 4.4 प्रतिशत रह गई है। नए मकानों की मांग घटने के कारण निर्माण उघोग को गहरा झटका लगा है। रही-सही कसर कच्चे तेल की रिकार्ड छूती कीमतों ने पूरी कर दी है।साफ है कि अमेरिका मंदी के जुकाम के वायरस की चपेट में आ चुका है और उसके लक्षण दिखने लगे हैं। ऐसे में, भारत जैसी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को मंदी का संक्रमण भले न हो लेकिन छींकने से कौन रोक सकता है। भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के कारण संभावित अमेरिकी मंदी का असर भारत पर भी जरूर पड़ेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इस आ॓र इशारा किया है। यूपीए सरकार 11 वीं पंचवर्षीय योजना में 9 से 10 फीसदी विकास दर हासिल करने के दावे जरूर कर रही है लेकिन इस बात के आसार अधिक हैं कि अगले साल विकास दर चालू वर्ष के 8.5 फीसदी के अनुमान से गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत तक पहुंच जाए। हालांकि इससे आसमान नहीं गिर पड़ेगा लेकिन अमेरिकी हाउंिसंग बुलबुले के फूटने के बाद भारत को अपने प्रॉपर्टी और रीयल एस्टेट बाजार के साथ शेयर और कुछ हद तक जिंस बाजार की ‘अतार्किक उत्साह’ सें भरी तेजी में बन रहे बुलबुले को लेकर जरूर सतर्क हो जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर से ज्यादा खतरा अंदर से है। 2008 में भारतीय शेयर बाजार और रीयल एस्टेट पर सबकी निगाहें होंगी।

राष्ट्रीय सहारा से साभार

An Open Appeal!!!

२९-१२-२००७
Dear friends and comrades ,

This is to inform you of the recent arrest of Prashant Rahi, a senior journalist of Uttarakhand, by the state police. Prashant was arrested on 15 th of this month in Dehradun and was allegedly charged of being a Maoist commander. The police secretly confined him for five days after which he was shown arrested from the forests of Hanspur Khatta on 21 st December. The police have charged him with various sections of IPC including 121, 121A, 124A, 153B, 120B. All the media carried the same version as stated by the police.

Just to give you a background, Prashant Rahi had been working in close association with the local people's struggles in Uttarakhand since last 17 years. He has been a journalist by profession. Started his career from Himachal Times, moved on to The Statesman and worked many years covering people's issues. He is a native of Maharashtra and pursued his education from Banaras Hindu University.

This incident is in continuance of the trend set by many innocent arrests in the last few months including that of Binayak Sen and some journalists in Kerala and Andhra Pradesh of targeting pro-people intellegentsia. The trend has become increasingly apparent in those parts of the country where people's movement is strong.

We firmly believe that this state action is a part of the efforts being carried out by the various state governments to secure hefty amount of funds from the central government in the name of combating naxalism. For this, it becomes imperative for them to prove that the state is inflicted with this insurgency.

We, the undersigned, strongly condemn the arrest of Prashant Rahi and call upon all the concerned individuals, civil society organisations, journalist unions, writers unions, people's movements and struggling groups to join hands in solidarity and support.


Rajendra Dhasmana (President, PUCL, Uttarakhand)
Manglesh Dabral (Poet and Journalist)
Pankaj Bisht (Editor, Samayantar)
Anand Swaroop Verma (Journalist and Human Rights Activist)
P.C. Tiwari (National Secretary, Indian Federation of Working Journalists)
Suresh Nautiyal (General Secretary, Uttarakhand Patrakar Parishad)
Anil Chaudhary (President, INSAF)
Jagdish Yadav (Photo Editor, Pioneer)
Harsh Dobhal (Managing Editor, Combat Law)
Gautam Navlakha (Consulting Editor, Economic and Political Weekly)
Ashish Gupta (Asamiya Pratidin)
Anil Chamadia (Journalist)
Jaspal Singh Siddhu (UNI)
A.K. Arun (Editor, Yuva Samwad)
Madan Kashyap (Poet)
Pankaj Singh (Poet and Journalist)
Karuna Madan (Journalist)
Piyush Pant (Editor, Lok Samwad)
Sarvesh (Photo Journalist)
Panini Anand (Journalist, BBC Hindi)
Avinash (Journalist, NDTV India)
Bhupen Singh (Journalist, STAR News)
Sukla Sen (CNDP India)
Aanchal Kapur (Kriti Team)
Vijayan MJ (Delhi Forum)
Sanjay Mishra (Special Correspondent, Dainik Bhaskar)
Prem Piram (Director, Jagar Uttarakhand)
Ashok Pandey (Poet)
Arvind Gaur (Director, Asmita Theatre Group)
Pankaj Chaturvedi (Poet)
Satyam Verma (Rahul Foundation)
Ranjit Verma (Advocate)
Bishambhar (Secretary, Roji Roti Bachao Morcha)
Ajay Prakash (Journalist, The Public Agenda)
Swatantra Mishra (Journalist, IANS)
Vandana (Special Correspondent, Nai Dunia)
Shree Prakash (INSAF)
Abhishek Srivastava (Freelance Journalist)
Rajeshwar Ojha (Asha Pariwar)
Raju (Human Rights Law Network)
Rajesh Arya (Journalist)
Kamta Prasad (Linguist and Translator)
Abhishek Kashyap (Writer)
Thakur Prasad (Managing Editor, Samprati Path)
Rajiv Ranjan Jha (Writer)
Srikant Dube (Journalist)
Rishikant (Journalist)
Pankaj Narayan(Journalist)
Rajesh Chandra (Poet & Cultural Activist)