कोसी द्वारा जल प्लावन के विकराल रूप धारण करने की खबरें जैसे ही आनी लगी, नेपाल को खलनायक के रूप में पेश किया जाने लगा। कोसी का उद्गम स्रोत नेपाल है और बांध भी कुसहा में टूटा। इस नाते नेपाल की आ॓र उंगली उठनी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन क्या वाकई नेपाल इस प्रलय सदृश स्थिति के लिए जिम्मेदार है? केवल कोसी ही नहीं, बिहार खासकर उत्तर बिहार की बाढ़ का मुख्य स्रोत ही नेपाल है। चाहे वह बूढ़ी गंडक हो या बागमती, कमला हो या भूतही बलान, सभी का उद्गम स्थल नेपाल है। भारत-नेपाल के बीच इन नदियों के प्रयोग एवं परियोजनाओं पर अलग–अलग संधियाँ हैं। यहां हम कोसी पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे तो दोनों देशों की नदी जल से जुड़ी सारी बातें स्पष्ट हो जाएंगी।
1954 की कोसी संधि में भारत ने कोसी परियोजना की रूपरेखा बनाने से लेकर निर्माण, संचालन, रख–रखाव आदि की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है। नेपाल तब बहुत कुछ करने की हालत में नहीं था और दोनों के बीच विश्वास इतने गहरे थे कि एक बार कोसी परियोजना तय हो गई तो फिर केवल औपचारिकता के लिए संधि की गई। यह आपसी सहयोग की भावना से की गई विश्वास पर आधारित संधि थी। कहा जाता है कि संधि के अनुसार नेपाल के लिए करने को बहुत कुछ बचता नहीं है। उसे व्यवहार में केवल भारत को काम करने की, वहां आवश्यक बोल्डर बगैरह रखने की अनुमति देनी है। यह पूरा सच नहीं है। बिहार सरकार बांधों की मरम्मत में कोताही बरत रही थी तो नेपाल ने पानी के बहाव की मॉनिटरिंग एवं बाढ़ की चेतावनी देने की जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। उनकी सोच शायद यह थी कि यह उनके लिए बडा़ खतरा साबित नहीं होगा। नेपाल में लंबे समय तक के राजनीतिक गतिरोध के कारण समस्या गंभीर हुई। माआ॓वादियों की यंग कम्युनिस्ट लीग एवं जनशक्ति सेना ने इंजीनियरों व ठेकेदारों को मरम्मत का काम करने नहीं दिया। यानी माआ॓वादियों के उभार से भारत के ठेकदारों व इंजीनियरों के लिए काम करना मुश्किल हुआ है। किंतु इसमें बाधा संधि नहीं आपसी व्यवहार है।
दरअसल, सारी नदी परियोजनाएं, सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार की शिकार हैं और वे नेपाल तक विस्तारित हैं। बिहार में सिंचाई विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काम करने वालों ने स्वीकार किया है कि प्रतिवर्ष निर्माण एवं मरम्मती के नाम पर निर्गत होने वाली 250–300 करोड़ रूपये का 30 प्रतिशत से भी कम खर्च होता है और शेष इंजीनियरों, नेताओं व अधिकारियों की जेब में चला जाता है। नेपाल के दबंग लोगों ने भी इसमें हिस्सेदारी मांगनी शुरू की। माआ॓वादियों के उभार के बाद मांग इतनी बढ़ गई कि ठेकेदार के लिए इसे पूरा करना संभव नहीं हुआ। दूसरी आ॓र माआ॓वादी नदी परियोजनााओं के विरूद्ध अभियान भी चलाए हुए थे और उन्होंने जो थोडा़ बहुत बोल्डर वहां रखा था उसे हटवा दिया। किंतु सोचने वाली बात है कि मरम्मत का काम तो जनवरी से मार्च तक समाप्त हो जाना चाहिए। जुलाई-अगस्त में चिंता क्यों की गई? सिंचाई विभाग की यही कार्यशैली है। संधि के प्रावधान अपनी जगह हैं लेकिन व्यवहार में भ्रष्टाचार, लापरवाही एवं नेपाल के माआ॓वादियों के विरोध की ही मुख्य भूमिका है। संधि के अनुसार आपात स्थिति के लिए जितने बोल्डर एवं अन्य सामग्री वहां रहनी चाहिए, कभी नहीं रहती एवं कालाबाजार में बिक जाती है। ये कारण सभी परियोजनाओं पर लागू होती है। जाहिर है, भारत और नेपाल के बीच पुराने दौर की सद्भावना हो और दोनों के राजनीतिक प्रतिष्ठान तय करें तो मौजूदा संधियों के तहत भी ऐसी भयावह स्थिति को टाला जा सकता है। माआ॓वादियों के नेतृत्व में नई गठजोड़ सरकार के प्रधानमंत्री प्रचंड ने कोसी संधि को अन्यायपूर्ण कहकर इसकी समीक्षा की मांग की है। 1959 की गंडक संधि की समीक्षा की भी मांग है। 1996 की महाकाली पंचेश्वर परियोजना को ये नेपाल की तत्कालीन शेर बहादुर देउबा सरकार की भूल करार देते हैं। क्या संधियों की समीक्षा एवं इसमें बदलाव या इन्हें रद्द कर देने से इसका निदान निकल जाएगा? 19 दिसंबर 1966 को कोसी संधि में संशोधन करके नेपाल के लिए कोसी नदी, सन कोसी एवं उसकी अन्य सहायक नदियों के पानी का सिंचाई सहित अन्य प्रकार के उपयोगों के पूरे अधिकार का शब्द डाला गया। यानी नेपाल को इसका स्वामित्व मिल गया है। भारत को बैराज में उपलब्ध पानी को संतुलित करने का अधिकार मिला। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि कोसी संधि नेपाल के लिए बिल्कुल अन्यायपूर्ण है। मूल बात व्यवहार की है। वाल्मिकी नगर गंडक परियोजना को देख लीजिए, उसमें भी नेपाल अधिकारविहीन नहीं है। किंतु वहां भी यही आलम है- भ्रष्टाचार, आपसी तनाव। भारत पर अन्याय करने का आरोप। प्रश्न है कि किया क्या जाए?
साफ है कि दोनों देशों की सहमति से ही नदी जल समस्याओं का निदान हो सकता है। दोनों जो भी निर्णय करें लेकिन मरम्मत, रख–रखाव एवं गाद की सफाई का संयुक्त माकूल तंत्र खडा़ नहीं होगा तो कुछ नहीं हो सकता। बैराज में गाद बढ़ेगा तो नदी धारा बदलेगी। नेपाल के लिए भी अतिरिक्त पानी छोड़ने की मजबूरी होगी एवं इसका परिणाम हमारे यहां बाढ़ ही होगा। इसे आप नहीं टाल सकते। कहा जा रहा है कि कोसी बांध की उंचाई बढा़ना इसका निदान है। यानी बांध ऊंचा होने से ज्यादा पानी रूकेगा, जिससे बिजली भी ज्यादा बनेगी एवं सिंचाई के लिए सुरक्षित जल उपलब्ध रहेगा तथा बाढ़ भी नहीं आएगी। 2004 के कोसी बाढ़ के बाद दोनों देशों ने कोसी बांध की ऊंचाई बढा़ने वाली महापरियोजना जिसे सप्तकोसी बहुद्देश्यीय परियोजना कहते हैं, पर तेजी से कम करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार नेपाल के आ॓खलाढुंगा जिले में सन कोसी नदी पर एक बांध बनेगा, जिसकी ऊंचाई 269 से 335 मीटर की जानी है। इसमें नेपाल एवं बिहार में 6 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेतों की सिंचाई होगी। स्वयं नेपाल ने इसमें एक डायवर्जन का प्रस्ताव रखा था जिसमें सन कोसी का जल एक नहर के माध्यम से मध्य नेपाल के कमला नदी में आनी है। इससे जुड़े अन्य नहरों से मध्य नेपाल में कोसी नदी के पूरब बागमती तक के खेतों की सिंचाई की योजना है। भारत सरकार ने 29 करोड़ रूपया इसके प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर खर्च कर दिया है। संधि की समीक्षा का अर्थ इस परियोजना का खटाई में पड़ना है। शायद नेपाल की नई सरकार इसके लिए तैयार हो जाएगी।
नेपाल के विदेश मंत्री उपेंद्र यादव हाल में भारत में थे और उन्होंने कहा कि उनकी सरकार बड़ी बिजली परियोजनाओं के पक्ष में है। इनके अलावा तत्काल चार काम किया जाना चाहिए। एक, बीरपुर क्षेत्र के जो लोग नेपाल की आ॓र गए हैं, उनके पास भारत आने का एकमात्र विकल्प महेन्द्र राजमार्ग है। नेपाल अपने राहत शिविरों में इन्हें स्थान दे और इसका हिसाब रखे। भारत सरकार इसके लिए नेपाल से बात करे एवं अपने करीब 50–60 हजार नागरिकों के लिए उसे धन प्रदान कर दे। दूसरे, जो लोग उस रास्ते पुन: बिहार में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें आने दिया जाए। इसे स्थायी व्यवस्था का रूप मिले ताकि जब भी ऐसी स्थिति हो लोग उस मार्ग का उपयोग कर सकें। तीसरे, दोनों देशों के नदी जल विशेषज्ञों की सरकारी मॉनिटरिंग में बातचीत आरंभ की जाए और जो तय हो उसे लागू किया जाए। चौथे, नेपाल चाहता है तो नदी जल समझौतों की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए।
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार
No comments:
Post a Comment