Wednesday, September 10, 2008

बाढ़ पीड़ितों से भी तो पूछें समाधान की राह

भारत डोगरा
इस वर्ष भी पहले की तरह मानसूनी वर्षा के चलते देश का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित हुआ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और असम तक देश का एक बड़ा व घनी आबादी वाला हिस्सा है जहां हर साल बाढ़ की बढ़ती-बिगड़ती समस्या पूरे क्षेत्र के विकास परे बड़ा प्रश्नचिन्ह बन गई है। बिहार में कोसी की बाढ़ की विभीषिका और इसके चलते विस्थापित हुए लाखों लोग इसका एक उदाहरण है। पड़ोसी बांग्लादेश के एक बड़े क्षेत्र की भी यही स्थिति है। ऐसे में यह सवाल जटिल होता जा रहा है कि आखिर इस समस्या का स्थायी समाधान क्या हो।
इस विषय पर हाल के वर्षों में दो तरह के विचार सामने आए हैं। पहला विचार मुख्य रूप से इंजीनियरिंग दृष्टिकोण है जो बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों पर या उनके आसपास विभिन्न निर्माण कार्यों की वकालत करता है। यह सुझाव पानी का संग्रह करने वाले स्टोरेज बांध बनाने का या नदियों के आसपास तटबंध बनाने का है। दूसरी मुख्य विचारधारा पहली इंजीनियरिंग विचारधारा को चुनौती देती है और हमें यह बताती है कि तटबंधों व बड़े बांधों के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण करने की अपनी सीमाएं हैं। बिहार की कोसी नदी में भयंकर बाढ़ से पता चलता है कि बाढ़ से बचाव के लिए तटबंधों पर निर्भरता बहुत हानिकारक भी साबित हो सकती है। कई स्थानों पर इन इंजीनियरिंग समाधानों पर अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद बाढ़ की समस्या और विकट हुई है। अत: यह दृष्टिकोण बाढ़ के प्रति एक ऐसी सोच बनाने पर जोर देता है जो बाढ़ रोकने के लिए निर्माण कार्य करने के स्थान पर बाढ़ को अधिक सहनीय बनाने से संबंधित है। इस सोच में कुछ हद तक बाढ़ को सहने को कहा गया है तो कुछ हद तक पर्यावरण को इस तरह सुधारने के लिए कहा गया है जिससे बाढ़ का प्रकोप व उसकी विनाशक क्षमता कम हो जाए। उदाहरण के लिए, नदियों के कुछ पानी को तालाबों में भरा जा सकता है जिससे आगे के सूखे महीनों के लिए पानी भी जमा हो जाए व वर्षा का प्रकोप भी कम हो जाए। पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा, मिट्टी व जल संरक्षण से पर्वतीय तथा नीचे के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ व भूस्खलन का खतरा कम करने में सहायता मिलेगी।
कई बार जब दो तरह की विचारधाराएं सामने आती हैं तो उन्हें मिलाकर ऐसी नीति बनाने की कोशिश की जाती है जो सबको स्वीकार्य हो, पर यदि विचारधाराओं में बुनियादी फर्क है तो उन्हें मिलाने से एक ऐसा अजीब घालमेल भी बन सकता है जो अन्तर्विरोधों से भरा हो। ऐसी घालमेल की नीति हमें निश्चित तौर पर नहीं चाहिए।
कई बार यह कहा जाता है कि बाढ़ प्रभावित लोगों से इस बारे में राय प्राप्त करनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके विचार व्यापक स्तर पर प्राप्त करना हर हालत में जरूरी हैं, पर उनसे भी अलग-अलग विचार मिलेंगे इसके लिए तैयार रहना होगा। कई बार ऐसा होता है कि कोई तटबंध एक क्षेत्र को बाढ़ से बचाता है तो दूसरे क्षेत्र के लिए समस्या पैदा कर देता है। जो लोग अभी तटबंध के वास्तविक असर को नहीं देख पाए हैं वे उत्साह से इसकी मांग कर सकते हैं, जबकि जो लोग तटबंधों के असर को वर्षों तक झेल चुके हैं वे इन्हें हटाने की या तोड़ने की मांग भी कर सकते हैं। परिस्थितियों तथा लोगों के अनुभव के आधार पर काफी अलग–अलग विचार प्राप्त हो सकते हैं, अत: जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षण के स्थान पर लोगों से विस्तृत बातचीत के लिए आयोजित संवादों की अधिक जरूरत है। फिलहाल कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक सहमति बना कर इन पर तेजी से काम आगे बढ़ाना चाहिए। यह कार्य इस तरह का होना चाहिए जिससे निश्चित लाभ मिलेगा, कोई नुकसान नहीं होगा और शीघ्र ही बाढ़ की समस्या का संतोषजनक समाधान निकालने में मदद मिलेगी।सबसे पहली बात तो यह है कि नदियों के जल–ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण, वन–रक्षा व मिट्टी तथा जल–संरक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर होना चाहिए। यह कार्य बहुत सार्थक तो है पर साथ ही इसके नाम पर पहले ही बहुत भ्रष्टाचार हो चुका है। अत: इसे बहुत सावधानी से करना होगा ताकि हरियाली केवल सरकारी कागजों तक ही न सिमटी रह जाए।
दूसरी बात यह है कि जिन क्षेत्रों को तटबंधों व बड़े बांधों से ‘बाढ़-सुरक्षा’ दिए कई वर्ष बीत चुके हैं, ऐसे कुछ क्षेत्रों का निष्पक्ष व विस्तृत अध्ययन होना चाहिए जिससे यह निर्णयात्मक तौर पर स्पष्ट हो जाए कि इस तरह वास्तव में बाढ़ सुरक्षा के नाम पर अरबों रूपए भविष्य में भी खर्च करते रहना उचित है या नहीं? इन अध्ययनों में प्रभावित लोगों से विस्तृत बातचीत होनी चाहिए और इस संवाद को पूरा का पूरा प्रकाशित करना चाहिए। इस अध्ययन का तौर–तरीका और उसके परिणाम पूरी तरह पारदर्शी होने चाहिए।
बड़े बांधों के संचालन और प्रबंधन को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाना चाहिए जिससे लोगों को पूरी जानकारी उपलब्ध हो सके कि कब और किस स्थिति में कितना पानी इनसे छोड़ा जाता है और इसका बाढ़ की स्थिति पर क्या असर होता है।
बाढ़ से बार-बार प्रभावित होने वाली नदियों के मार्ग में ऐसे गहरे तालाब बनाने चाहिए या पुराने तालाबों की मरम्मत होनी चाहिए, जिनमें बाढ़ के समय नदियों का पानी एकत्र हो सके।
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बाढ़ से पहले के महीनों में ऐसे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिए जहां सरकारी अधिकारियों व मीडिया की उपस्थिति में लोग अपनी समझ के अनुसार बताएं कि उन्हें बाढ़ से सुरक्षा कैसे मिल सकती है, बाढ़ के समय उन तक बेहतर राहत कैसे पहुंच सकती है तथा बाढ़ राहत या नियंत्रण का पैसा उनके क्षेत्र में कैसे खर्च होता रहा है। लोगों से पूछना चाहिए कि बाढ़ नियंत्रण व राहत के काम पर खर्च हो रहे इस धन का क्या कोई बेहतर उपयोग हो सकता है। जिन गांवों में तटबंध अनेक वर्षों से बने हुए हैं वहां के लोगों से विस्तार से पूछना चाहिए कि क्या वे तटबंधों की मरम्मत व बेहतर रख-रखाव चाहते हैं या उनसे मुक्त होना चाहते हैं। इन सम्मेलनों में बाढ़ प्रभावित लोग जो कहते हैं उसे सही ढंग से डाक्यूमेंट किया जाना चाहिए ताकि नीति–निर्धारण से पहले उसे ध्यान में रखा जा सके। साथ ही बाढ़ राहत की तैयारी बेहतर होनी चाहिए। हैलीकाप्टरों व हवाई जहाजों से राहत सामग्री गिराने के स्थान पर इसे पर्याप्त नावों की समुचित व्यवस्था व स्थानीय मल्लाहों, नाविकों आदि के रोजगार के तहत दूर–दूर के गांवों में पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
बाढ़ से रक्षा के लिए विभिन्न राज्यों में तथा पड़ोसी देशों से बेहतर संवाद व सहयोग होना चाहिए। बाढ़ के बारे में केवल बाढ़ के समय सोचने की आदत को छोड़कर बाढ़ से रक्षा, बाढ़-राहत की तैयारी व अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए विकास की उचित नीतियां तैयार करने पर निरंतरता से कार्य होना चाहिए। परंपरागत बीजों में पर्याप्त खोजबीन कर ऐसे बीजों के बारे में पता लगाना चाहिए जो स्थानीय परिस्थितियों में अधिक पानी को सहने की क्षमता रखते हैं या अन्य तरह से इन क्षेत्रों के लिए अनुकूल हैं। ऐसे बीज यहां के किसानों को अधिक मात्रा में न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध होने चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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