Thursday, September 11, 2008

बाढ़ राहत कैंपः एक दृश्य

(भाई रेयाज़-उल-हक़ ने बथनाहा, फारबिसगंज से यह रिपोर्ट रविवार को भेजी है जो उसके १० सितम्बर के मुखपृष्ठ पर छपी है। रेयाज-उल ने इससे पहले भी बिहार के इस सरकार प्रायोजित जनसंहार की जीवंत तस्वीरें हमें दिखाई हैं और इसके लिए हमें उनका ऋणी होना ही चाहिए। पूरा मीडिया आज जिस किस्म की ठकुरसुहाती में संलिप्त है , इस घने अंधेरे वक़्त में ऐसे जीवट और साहसिक काम से रेयाज ने हमें सचमुच झकझोर दिया है। उनके साथ रविवार को भी साधुवाद सहित। )

२४ घंटे पहले एक बच्चे को जन्म देने के बाद से सविता देवी ने कुछ भी नहीं खाया है। दो घंटे पहले उसे चूडा-गुड़ दिया गया था खाने को, वह एक किनारे पड़ा हुआ है, अब भी –अछूता। बथनाहा के सशस्त्र सीमा बल कैंप के पास स्थित राहत शिविर मे यूनिसेफ व राज्य स्वास्थ्य समिति के तंबू में पड़ी सविता पसीने से नहाई हुई अपने बच्चे को चुप कराने का असफल प्रयास कर रही है।
उसके पास बैठी आंगनबाड़ी सेविका वंदना झा समझाती है- “ प्रसूता को खाने में कम से कम मसूर की दाल, चावल आदि तो मिलना ही चाहिए। यह भी नहीं मिला तो कैसे होगा ? खिचड़ी दी जा रही है, वह भी बिना दाल-सब्जी के। इस तरह तो ये लोग मार ही देंगे।”वंदना थोड़ी गुस्से में हैं और अपनी नाराज़गी शिविर का निरीक्षण करने आए जिलाधिकारी को भी दिखा चुकी हैं– थोड़ी देर पहले. और उनका गुस्सा वाजिब भी है. इतना समय बीत जाने पर भी मां-बच्चा को न कोई दवा मिली है और न ढंग का आहार. सविता में खून की कमी है– इसका भी शिविर में कोई उपाय नहीं है. वंदना जहां अपनी अन्य सहयोगियों के साथ दवा मांगने गयीं तो उन्हें डांट कर भगा दिया गया. मेडिकल कैंप प्रभारी कहते हैं कि उनके यहां कमी किसी चीज़ की नहीं है. तो फिर सविता को दवाएं क्य़ों नहीं दी जा रहीं ? वे इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझते. कैंप प्रभारी कैलाश झा अपने तंबू में वाउचरों और लोगों में उलझे हुए हैं. वे कहते हैं – “ कैंप में कमी किसी चीज़ की नहीं है. जितना हो सकता है, हम कर रहे हैं.”.... तो फिर सिर्फ खिचड़ी और चूड़ा-गुड़ क्यों बंट रहा है ?वे कहते हैं– “ किसी ने हमसे इसकी मांग ही नहीं कि उसे दाल-चावल दिया जाए.”लेकिन किसी ने मांग नहीं की, सिर्फ इसीलिए उसे लगभग बिना दाल वाली खिचड़ी खिलायी जानी चाहिए ? लोग बताते हैं कि वे कई बार कह चुके हैं कि उन्हें सब्जी दी जाए, ढंग से चावल-दाल दिया जाए. लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं है।
शंभू शर्मा सुपौल के छातापुर से आये हैं. सौभाग्य से उन्हें कैंप में काम मिल गया है स्टोर में. सुबह 6 से रात 11 बजे तक ड्यूटी करने के बाद वे 50 रुपये पाते हैं. उन्होंने दिहाड़ी बढ़ाने की बात की तो कहा गया कि काम करना है तो करो नहीं तो टेंट में जाकर बैठो. वे 'भीतर’ की बातें जानते हैं– कब, क्या, कितना आया और कितना बंटा.
दोपहर में बंटी मोटे चावल की खिचड़ी और बेस्वाद चोखा खाते हुए वे स्टोर की ओर हाथ उठाते हैं – “ देखिए, उसमें 20 बोरी चना रखा हुआ है। मैंने कल राशन इंचार्ज को कहा कि इसे खुला देते हैं, कल इसे भी बाटेंगे तो उसने मना कर दिया. सब कुछ आता है, लेकिन हमें सिर्फ खिचड़ी मिलती है. स्टोर में सब चीज़ है– फल है, एक क्विंटल बिस्कुट है. कोक का पैकेट है. लेकिन बंटता कुछ नहीं. वह सब अधिकारी और गार्ड लोग यूज़ करता है.” सुरक्षा ड्यूटी पर लगे अवर निरीक्षक राधाकृष्ण रजक इस सबको गलत बताते हैं. लेकिन आंगनबाड़ी सेविकाएं जो बताती हैं, उससे शंभु की बातें पुष्ट होती हैं. वंदना, सुमन व पार्वती समेत दूसरी सेविकाएं सुबह आठ बजे शिविर में आई हैं. अभी तक उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिला है. वे कहती हैं– “हम यह नहीं चाहते के हमें खाना मिले. लेकिन बुरा तो तब लगता है जब गार्ड और अन्य अधिकारी पीड़ितों के लिए आये बिस्कुट और फल खुद खा जाते हैं.”सविता ने अपने बच्चे के सिराहने लोहे का हंसिया रख छोड़ा है – बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए. काश ! यह इस तंत्र की संवेदनहीनता को भी दूर भगा पाता.
http://www.raviwar.com/ से साभार

1 comment:

संगीता पुरी said...

काश ! यह इस तंत्र की संवेदनहीनता को भी दूर भगा पाता.
तंत्र के सिरहाने लोहे का हंसिया कौन रखे ?