Tuesday, September 2, 2008

बाढ़ का हवाई सर्वे

ऊपर से बिहार डूबता हुआ बड़ी तसल्ली देता है। ये बिहारी हैं ही इसी लायक। पानी जबतक कंठगत नहीं होता मन मारे बैठे रहते हैं, जैसे ब्रह्मानंद मिल गया हो। ब्रह्मानंद तो वास्तव में अब जाके मिला है, सीधा साक्षात्कार जो हो रहा है ईश्वर से। इंतजाम बड़ा पक्का था। क्या गणित बिठाया था ऐन चुनाव से पहले। ऐसा मणिकांचन संयोग बड़ा दुर्लभ होता है। अच्छे-अच्छे धाकड़ भूतपूर्व भी चकरा गए होंगे कि ऐसी कमाल की कारगर सूझ तब क्यों नहीं आई थी जब बागडोर अपने पास थी। बैठे-बिठाये लक्ष्मी अपने पैरों चलकर कैसे न्योछावर हुई जा रही है दुश्मनों पर- यह देख कर कलेजा मुंह को आता है। दोहाई कोसी मइय्या..... पहले कहाँ थी......
अब बिहारियों को इस बात से क्या लेना-देना कि किसकी गलती से ऐसा प्रलय आया। अरे पहले अपने माय-बाप, नाना-दादा, नानी-दादी, बीवी-बाल-बच्चों का श्राद्ध करेंगे , तर्पण करेंगे, हंडिया-बर्तन, चूल्हा-लकड़ी, माल-जाल, खुरपी-दबिया, सुतरी-संठी, खढ़-पतार, नार-पुआर, कल-इनार का बंदोबस्त करेंगे, जलखै-कलेवा के लिए भलमानुषों के आगे दांत निपोड़ेंगे, और इतना सबकुछ कर लेने की कुव्वत अब शायद किसी माइ के लाल बिहारी में नहीं बच पायेगी। और यह सब भी तभी तो कर पाएंगे जब पानी उतरेगा। आने वाले महीने और भयानक होंगे ऐसा कोसी कछार पर रहने वाले तमाम लोग जानते हैं। कोसी मइय्या अक्टूबर-नवम्बर के महीने में हर साल उफान पर होती हैं और तब उसकी गर्वोन्मत्त-रक्तपिपासु जलधार गरजती-हुंकारती-अट्टहास करती हुई दिशाओं को ध्वस्त-ध्वांत-मर्दित करने को उतावली हो जाती है। नहीं इसे नदी नहीं कहना, यह एक जीवित किंवदंती ही है। कोसी को बाँधने की कोशिश आत्महत्या है, नरमेध है- क्या इसे समय ने साबित नहीं किया? कोसी की कई संततियों ने चीख-चीखकर, निहोरा कर, गुहार लगा कर उन दिनों में भी बहेलियों को रोकने की पुरजोर कोशिश की थी जब वे दाने डाल रहे थे, सपने दिखा रहे थे कि उत्तरी बिहार स्वर्ग बन जाएगा, कि सबके खेत को पानी, हर हाथ को काम मिलेगा, हर घर को सस्ती बिजली मिलेगी। लोगों ने इन सपनों की असलियत महज दो-चार साल में ही देख ली। न बिजली मिली, न खेतों को पानी। कोसी ने अपने स्वभाव के अनुसार सबकुछ रेत से पाट दिया। खेत या तो बहते रहे या सूखते रहे। लोगों की नियति बिल्कुल नहीं बदली। सरकारें आती रहीं-जाती रहीं, इंजीनियर आते रहे-जाते रहे, ठेकेदार आते रहे-जाते रहे, हर साल रेत निकालने, तटबंध को ऊँचा करने की नौटंकी होती रही और करोड़ों का वार-न्यारा होता रहा। जैसे कोसी सदानीरा रही, यह व्यापार भी सदाबहार रहा। वीरपुर के कोसी प्रोजेक्ट और कटैया के हाइडल पॉवर संयंत्र से हर साल करोड़ों का लोहा, बेशकीमती मशीनें चोरी-छिपे बेची जाती रहीं। पिछले कई सालों से न तो नदी-नहरों की सफाई हुई न तटबंधों की मरम्मत। हर साल जुलाई से नवम्बर तक लोग रात-रातभर जागते रहे, कि पता नहीं कल का सूरज देख पाएंगे भी या नहीं। सब जानते थे कि यह डैम अपनी ज़िंदगी पूरी कर चुका है, तटबंधों की इतनी औकात नहीं रह गयी कि कोसी के प्रबल प्रहार के सामने टिक सकें। सब जानते थे कि जो हुआ है उसकी मियाद बहुत पहले ही आ गयी थी। अगर कोई नहीं जानता था तो वह सरकार थी।
छतों पर पिछले दस-पन्द्रह दिनों से फंसे हुए लोग कितने अच्छे वोटर हो सकते हैं। मरो अब, ज़िंदगी बचाओगे या उसकी कुल जमा पूंजी? कुछ लोगों के लिए इसका जवाब कितना आसान है जैसे इस बात का जवाब कि भारत अमरीका परमाणु करार क्यों ज़रूरी है। बचाव की नाव भी जात और राजनीतिक पक्ष बताकर मिल रही है, आगे राहत और पुनर्वास का बड़ा और चमत्कारी खेल तो बाकी ही है। देश की कम्युनिस्ट पार्टियों का बिहार में भविष्य नहीं है यह समझ कर ही वे काम करेंगे। लाशों की सही गिनती करते वक़्त और पुनर्वास के ठेके के समय उनकी उपस्थिति ज़रूर रहेगी। अभी ये उनके मतलब का विषय नहीं है। अभी पोलित ब्यूरो की दस-बीस बैठकें होंगी तब बिहार की बाढ़ पर एक विद्वतापूर्ण और जनपक्षधर वक्तव्य आ सकेगा। आख़िर जनता बड़ी उम्मीद से उनकी तरफ़ देखती रहती है और उन्हें इस बड़ी भारी जिम्मेदारी का अहसास भी तो रहा करता है। जल्दबाजी में कही गयी कोई बात या उठाया गया कोई कदम ऐतिहासिक गलती भी साबित हो सकता है सो संभलकर भइय्या...
जो लोग अपने परिजनों को बाढ़ में डूबे घरों-गाँवों से बाहर निकालने के लिए अफसरों के सामने नाक रगड़ रहे हैं उन्हें तब कितनी मुश्किल हो रही है जब अफसर परिवार के सदस्यों की उम्र और उनको बचाने की अहमियत पर बहस करते हुए यह शर्त रख रहा है कि हम किसी एक सदस्य को निकाल सकते हैं अब जल्दी बताओ कि किसे निकालना है। अवाक्-से लोगों को धकेलते हुए अफसर कहता है जा घर जाकर सोचना फ़िर आना। यहाँ हमारे पास इतना वक़्त नहीं है बहुत काम हैं। चौदह-पन्द्रह दिनों से छतों पर फंसे लोग वैसे भी एक-एककर कम होते जा रहे हैं। लाशों के परिजन उसे कोसी मइय्या को समर्पित कर रहे हैं।
मुझे अंगरेजी फ़िल्म "टाइटैनिक" का अन्तिम दृश्य याद आ रहा है जब मृत्यु की गहन खामोशी में नाव पर आ रहे बचाव दल के मुख्य नाविक की आवाज़ लहरों पर तरंगित होती है....कोई जीवित बचा है वहां.... कोई मेरी आवाज़ सुन पा रहा है....हम आपको बचाने आए हैं....प्लीज हमें जवाब दीजिये..............धीरे धीरे यह आवाज़ सरकार और विपक्ष का कोरस बन जाती है।

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