Tuesday, September 9, 2008

पहले भ्रष्टाचार अब बाढ़ में डूबा समाज

निर्मल चंद्र
मधु, मखान, मक्खन, धान और पान से जुड़ी मिथिलांचल की संस्कृति के स्मृतियों में शामिल होने का दौर तो पहले ही शुरू हो गया था, अब इस इलाके का भूगोल भी बदल जाएगा। कोसी ने जो प्रलय ढाया है, उसे अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता। गैरजिम्मेदारी के आरोप में बिहार के जल संसाधन मंत्री विजेंद्र यादव कठघरे में खड़े किए जा रहे हैं। उधर, यादव कुसहा बांध की समय से मरम्मत न होने के लिए नेपाल सरकार और वहां के मजदूरों के असहयोग को कारण बता रहे हैं। उचित समय पर पहल न करने के लिए केंद्र सरकार को दोषी मानने वाले भी कम नहीं हैं। बहरहाल, ये सारे आरोप-प्रत्यारोप तो कोसी बांध के रख-रखाव या मरम्मत को लेकर ही चल रहे हैं, पर असल सवाल तो अब भी यही है कि विकास के नाम पर विनाशलीला को आमंत्रण देने की मजबूरी को किस तरह की अक्लमंदी मानी जाए। इस पड़ताल के लिए कोसी परियोजना से जुड़े कुछ ऐतिहासिक पक्षों और तथ्यों की छानबीन जरूरी है।


ब्रितानी शासन के दिनों में पूर्णिया जिला अंग्रेज हाकिमों के बीच ‘काला पानी’ के नाम से कुख्यात था। कोसी को बिहार का शोक कहा जाता है पर तब यह मान्यता यहां रहने वालों की नहीं बल्कि यहां नियुक्त होने वाले अधिकारियों की थी। इस पूरे इलाके में आवागमन की सुविधा न के बराबर थी। पूर्णिया, कटिहार और मानसी रेलवे स्टेशनों से प्राय: बगैर किसी साधन के नदी-नालों को पारकर अररिया, मधेपुरा और सहरसा जाना पड़ता था। यहां पदस्थापित होने वाले अंग्रेज अधिकारी तो अपने परिवार को यहां लाने के बारे में सोच ही नहीं सकते थे। खुद भी वे यहां के हवा-पानी का बहुत अभ्यस्त नहीं होने के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाते थे। बता दें कि तब का पूर्णिया जिला ही आज छह जिलों पूर्णिया, अररिया, सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और कटिहार में बंट गया है।


भौगोलिक रूप से यहां की बनावट भले थोड़ी भिन्न हो, पर यह पूरा इलाका शुरू से काफी संपन्न रहा है। गांव-गांव में महिलाएं देवकपास से बारीक सूत कातती थीं। विद्यापति के गीत गूंजते थे और इसके साथ घरों की दीवारों तक पर सजती थी मिथिला पेंटिग। प्रकृति की गोद में खेलने वाले नदियों की आरती उतारते थे और दीप प्रवाहित कर बाढ़ का स्वागत करते थे। लोग नाव खेने की कला में तो पारंगत थे ही तैरने की उनकी निपुणता भी विलक्षण थी। बाढ़ के दिनों में कोसी की मुक्त धारा मीलों फैलकर बहती थी। बाढ़ क्षेत्र में ऊंचे झौवे और कास के कारण धारा में तीव्रता नहीं होती थी। इलाके में सघन अमराइयां और बांस के बीट थे, जो प्रवाह के अवरोधक थे। पोखरों और बड़े-बड़े तालाबों की भरमार थी, जो जल प्रकोप को जल संचयन का रूप देते थे। तालाबों के ऊंचे मुहार बाढ़ के समय जान-माल को आश्रय देते थे। बांस के टाट और फूस से बने घर बाढ़ और भूकंप निरोधी थे। बाढ़ में फूस के छप्पर को वृक्ष से बांधकर लोग स्वयं और सामान की हिफाजत कर लेते थे। इस क्षेत्र में धान की एक किस्म बाढ़ के साथ बढ़ती थी। किसान नाव पर सवार होकर इसकी बाली की कई बार कटाई करते थे। सब मिलाकर यह पूरा क्षेत्र सुरक्षित, संपन्न और स्वावलंबी था।


आजादी के बाद विकास की नई बयार बही। नेपाल की सीमा पर कोसी किनारे के बलुआ के जमींदार ललित नारायण मिश्र और उनका पूरा परिवार राज्य और केंद्र में खासे दबंग नेताओं की जमात में शामिल थे। इन लोगों ने इस क्षेत्र को विकास की नई ऊंचाइयां प्रदान करने का निश्चय किया। बाढ़ का नियंत्रण और यातायात की सुविधा के लिए ऊंची सड़कें, पूल-पुलिया, गांवों में पक्के मकान, स्कूल व अस्पताल आदि की बुनियादी सुविधाओं के लिए कोसी की धारा को नियंत्रित करने की कवायद शुरू हुई इस तरह कोसी बांध की महत्वाकांक्षी योजना शुरू हुई। इस क्षेत्र में स्वर्ग उतारने का सपना जगाया गया। स्थानीय लोगों ने भी विकास की नई इबारत लिख रहे नेताओं को पलकों पर बिठाया। इलाके के बुजुगा और दूरदर्शी सोच के लोगों को इस आशंका को निर्मूल ठहराया गया कि कोसी से छेड़छाड़ खतरनाक साबित हो सकता है। सिघिया प्रखंड के मुसहरिया गांव के बुजुर्ग नेता शेर खान ने तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिह से अपनी निकटता का लाभ उठाते हुए योजना की समीक्षा के लिए विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की टीम गठित कराने में सफल हुए। इस टीम में विदेशों से भी कई जानकारों को शामिल किया गया था। टीम ने अपनी रिपोर्ट में कोसी योजना के खतरों को सही ठहराया। पर इससे भी विकास की राह बढ़ चुके नेताओं के पग नहीं रूके। यही नहीं शेर खान जैसों के विरोध को इलाके की जनता ने दकियानूसी ठहराया। फिर क्या था बांध बनना शुरू हुआ। श्रमदान के लिए स्कूल और कॉलेज के छात्रों की बड़ी सेना गुलजारीलाल नंदा के नेतृत्व में भारत सेवक समाज के बैनर तले जुटी। राष्ट्र निर्माण के लिए तब युवकों का जुनून देखते ही बनता था। बाद में बड़ा धक्का तब लगा जब सुनने में आया कि युवा नेता शालीग्राम की हत्या श्रमदान की व्यवस्था के हिसाब में हेरा-फेरी के विरोध में आपत्तिा करने पर करवाई गई। तटबंध के साथ बराज बनाने के काम में इंजीनियरों, आ॓वरसियरों और दूसरे अधिकारियों की बड़ी फौज लगी। सरकारी काम में भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गई। बांध और बैराज के लिए जो इंजीनियरों की टीम बनी, उसने बराज के पश्चिमी किनारे यानी नेपाल की सीमा पर भूदान की परती जमीन पर निर्मली का नया बाजार बसा दिया। फिर क्या था, एक तरफ अधिकारियों को नियमित भुगतान मिलने लगे, वहीं स्मगलिग की नई धारा प्रवाहित हुई। यह पूरा इलाका स्वर्ग तो क्या बनता ललित नारायण मिश्र के गांव में हवाई पी जरूर बन गई। बलुआ बाजार आज अंतरराष्ट्रीय तस्करी के केंद्र के रूप में जाना जाता है।


भ्रष्टाचार के जिस रेत से विकास की इमारतें बनाई गईं, वह आज ढह रही है। तब जिन लोगों के विरोध की आवाजें नहीं सुनी गईं, उनकी आशंका आज सच साबित हुई। अदूरदर्शी विकास का खामियाजा आज यह पूरा क्षेत्र भुगत रहा है। बालू के जमाव और तटबंधों की उचित देखरेख नहीं होने से कोसी ने अपनी दिशा ही बदल ली। आज जब एक साथ चालीस लाख लोग बाढ़ की चपेट में फंसे हैं तो आगे के लिए यह सबक सबको सीख लेना चाहिए कि विकास की बड़ी योजनाओं का लालच न सिर्फ हम भ्रष्टाचार के दीमक को खुराक देते हैं बल्कि यह आम लोगों की तबाही के लिए भी रास्ता खोल देताहै। प्रकृति के साथ जीने वाला समाज अगर प्रकृति को हाथ में लेकर आगे बढ़ना चाहेगा तो विनाशलीला तय है।

http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार

1 comment:

संगीता पुरी said...

प्रकृति के स्वभाव के साथ तालमेल बनाकर काम करना अधिक सफलतादायक होता है . प्रकृति के स्वभाव के विरूद्ध काम करने वालों को असफलता मिलना निश्चित होता है।