कोसी हमारे सामने सचमुच सप्राण सत्ता की तरह खड़ी है। ध्वंस की असह्य लीला दिखाती– उग्र और उग्र उससे भी ज्यादा उग्र। शायद देखती है कि मनुष्य कितना सहन कर सकता है। इस इलाके के अनगिनत लोग हर साल कोसी को जोड़ा छागर कबूलते हैं। मल्लाह हमेशा से इन्हें फूल-दूब और अक्षत चढा़कर ही अपनी नाव खोलते रहे हैं, इस मन्नत के साथ कि ईश्वर न करे कि कोसी अपना वास्तविक तांडव दिखाने पर तुल जाए।’ मिथिलावासी बांग्ला के अमर रचनाकार स्व. विभूतिभूषण मुखोपाध्याय की ये पंक्तियां उनकी दशकों पूर्व लिखित बांग्ला पुस्तक ‘कुशी प्रांगणेर चिठी’ के पृष्ठों में आज फिर नये सिरे से धड़क रही हैं और नीतीश सरकार के सुशासन में हाहाकार करती कोसी की लहरों के बीच तबाह हजारों–हजार कोसीवासियों की चीख भी जैसे उनका साथ नहीं दे रही है। तकरीबन तीन सौ साल बाद कोसी ने फिर से अपना रौद्र रूप दिखाया है। अद्भुत संयोग है कि भारत–नेपाल के तालमेल से नियंत्रित इस प्रचंड नदी का पूर्वी बांध विगत 18 अगस्त,2008 को नेपाल के कुसहा में तभी टूटा जब नेपाल के प्रधान मंत्री पद पर प्रचंड शपथ ग्रहण कर रहे थे।
आज जबकि संपूर्ण कोसी अंचल स्लेट पर खड़िया से बने चित्र की तरह पानी से लगभग धूमिल और मिट चुका है तथा बचा-खुचा अंश भी नष्ट होने की प्रतीक्षा कर रहा है, बजाय कारगर राहत कार्य और पुनर्वास की दृढ़ इच्छाशक्ति के बिहार सरकार हवा में छाती पीट रही है और केंद्र से लेकर विभिन्न प्रांतों की सरकारों से अपने दान पात्र में चेक बटोर रही है। पर इस बात का जवाब आज भी बिहार सरकार के पास नहीं है कि जब 4 अगस्त से ही कोसी में कटाव परिलक्षित होने लगा था और खतरे की घंटी बजने लगी थी तो सूबे की सरकार और उनके अमले कहां थे ? वर्षों–वर्ष से यह स्थायी दस्तूर था कि सावन-भादो के पहले बाढ़ से सुरक्षा के मद्देनजर पहले से ही क्रेट्स, बी।ए। वायर एवं अन्य आवश्यक सामग्रियां जुटा कर डाल दी जाती थीं। पर राज्य में न्याय के साथ विकास के लिए सदा-सर्वदा चिंतित रहने वाली सरकार ने पता नहीं क्यों इस बार ऐसी तैयारियों की आवश्यकता महसूस नहीं की। लिहाजा, 4 अगस्त से 17 अगस्त तक कोसी का स्पर टूटता रहा। दरअसल, मुख्य बांध के पहले स्पर ही क्षतिग्रस्त होता है। लेकिन राज्य का तंत्र एक भीषण सुनिश्चित प्रलय से मुंह मोड़ कर सोया रहा। हाय–तौबा तब शुरू हुई जब पानी नाक के ऊपर चला गया। मुख्य मं®ी नीतीश कुमार ने ‘दैव–दैव आलसी पुकारा’ वाले मुहावरे को चरितार्थ करते हुए कहा, ‘अब भगवान ही बिहार की रक्षा कर सकते हैं।’ बिहार के आला अधिकारीगण अब लगातार सफाई में कह रहे हैं कि सुरक्षात्मक दृष्टि से कार्य करने जब बांध पर सरकारी मुलाजिम गए तो नेपाल के माआ॓वादियों ने कार्य नहीं होने दिया। अगर इस स्थिति को एक क्षण के लिए सच मान भी लिया जाए तो भी यह सवाल उठता है कि क्या बिहार सरकार को समय रहते इन परिस्थितियों की सूचना केंद्र सरकार को नहीं देनी चाहिए थी?
कोसी बांध की रक्षा में सीमावर्ती नेपाल से कोई अवरोध था तो केंद्र नेपाल पर तब दबाव भी बना सकता था। पर प्रलय की प्रतीक्षा की जाती रही। अब प्रलयजनित विनाश पर नाना विवाद और आरोप–प्रत्यारोप का दौर तेज है। पर इसका कोई औचित्य नहीं। श्मशान में सिर्फ शोक का स्थान होता है विवाद और बहसों का नहीं। आज से तकरीबन ढाई दशक पहले 1985 में भी कुसहा में ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हुई थी और तत्कालीन बिहार सरकार ने एक सप्ताह में एड़ी-चोटी एक कर कोसी में सुरक्षात्मक कार्रवाई की थी। पर इस बार ऐसा तिल भर भी प्रयास नहीं किया गया। वैसे भी राज्य के अभियंताओं के पास उतने संसाधन नहीं कि वे कुछ कर सकते। सरकार तो खैर चैन से बैठी ही थी। जेनरल रिजर्व इंजीनियर फोर्स (जीआरईएफ) के हवाले करने की बात भी ठंडी पर गई। सेना बुलाने में भी खासा विलंब हुआ। नावों का इंतजाम नगण्य। इस विभीषिका में तबाह हो चुके लोगों को यही मलाल है कि समय रहते अगर प्रभावित होने वाले इलाकों को खाली करने की हिदायत दी गई होती तो आज जान-माल की इस सीमा तक क्षति न हुई होती। प्रभावित सुपौल जिले के प्रतापगंज की 40 वर्षीया झलिया देवी अब किसके पास और क्या फरियाद लेकर जाएगी, जिसके पति खेखन मंडल और दो बच्चे कोसी की तेज धार में बह गए। सिमराही के राहत शिविर में छाती पीट रही झलिया देवी के जीने का मकसद खत्म हो चुका है। सुपौल जिले के छातापुर के करीमन मियां के बीवी–बच्चे को निगल चुकी है कोसी। झलिया और करीमन जैसे लोग बेशुमार हैं जिनका जीवन पूरी तरह आशा रहित हो चुका है।
कोसी में फिलहाल तो बांध बांधना मुमकिन नहीं। जब पानी कुछ कम होगा तभी शायद यह संभव हो सके। वैसे रो-पीटकर कुसहा में मरम्मती का काम चल रहा है। कुसहा को बांधकर फिर से कोसी को अपनी जगह लाने की जद्दोजहद जारी है। अनेक स्वयंसेवी संगठन, राजनीतिक दलों की विभिन्न शाखाएं अनाज, मोमबत्ती, कपड़ों और रूपयों का संग्रह करने में प्राणपण से सक्रिय हैं। यह बिहार का शोकोत्सव है। अशोक के बिहार को लगता है शोक का उत्सव ही सुहाता है। लुटे-पिटे भूखे लोगों का आर्तनाद ही इस उत्सव का संगीत है। इसलिए पहली सितंबर को कोसी के भूखे-बर्बाद लोगों ने राहत कार्य के नाम पर चक्कर मार रही सरकारी गाड़ियों और अनाज के भंडार पर हमला किया। कई दिनों से उनके बच्चों को एक दाना भी नसीब नहीं हुआ था। प्रलय के एक पखवारे बाद भी यह तस्वीर क्या यह बताने के लिए काफी नहीं कि राज्य सरकार का पूरा तंत्र अब भी किस तरह जार-जार है? देश भर से जल, थल और नभ के जवानों ने अपने दो दिनों का राशन इन बाढ़ पीड़ितों को देना तय किया है, जो अनाज तकरीबन 10,000 टन होगा। पर उम्मीद कम है कि सरकार का तार-तार तंत्र जरूरतमंदों के बीच इसे वितरित करा भी पाएगा।
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार
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