Monday, September 1, 2008

एक चिट्ठी मोहल्ले में

( अविनाश जी के मोहल्ले पर छपे चिट्ठे http://mohalla.blogspot.com/2008/08/blog-post_31.htmlपर एक चिट्ठी)
अविनाश जी वीरपुर जहाँ से कोसी ने बिहार को रौंदना शुरू किया है, मेरी जन्मस्थली है। १८ अगस्त को जब कुसहा का तटबंध टूट चुका था और सुपौल के डी एम को इसकी ख़बर नहीं थी, उसके तीन-चार दिनों पहले ही लोगों को आने वाली विपदा का आभास हो गया था, और छिटपुट लोग अपने परिवारों के साथ सहरसा, फोरबिसगंज, पटना अथवा दिल्ली के लिए भागने लगे थे। मेरे बाबूजी माँ, दोनों बहुओं और बच्चों को लेकर आनन-फानन में सहरसा चले गए और घर पर केवल छोटा भाई रह गया। बड़े भाई साहब इधर अपने काम के सिलसिले में ज्यादातर यू पी में रहते हैं और अब भी वहीं थे। वीरपुर, भीमनगर, बलुआ बाज़ार, बिसनपुर, चैनपुर, तुलसीपट्टी , तिलाठी, नरपतगंज, प्रतापगंज, जयनगरा, सुरसर, बथनाहा, सीतापुर, भवानीपुर, अरिराहा, निर्मली, राघोपुर, कटैया आदि गाँव और हाट-बाज़ार सब उस तीस-चालीस किलोमीटर के दायरे में हैं जहाँ कोसी ने सबसे ज़्यादा रौद्र रूप दिखाया है और ये इलाके जो कभी नवधान्य, पटुआ, कास-पटेर, केला, आम-कटहल-लताम-जामुन-बेर-मखान, मूंग-खेसारी-आलू-कोबी-गेन्हारी-नोनहर-सजमनि-तोड़ी-मुनिगा, अड़हुल-जूही-सर्वजाया और माछ-भात से भरे-पूरे थे, अब इतिहास बन गए हैं। आपने बिल्कुल सही कहा है कि अब ये इलाके कभी नहीं बसेंगे।
१८ अगस्त को जब मृत्यु का यह सैलाब आया तो उसकी रफ्तार ऐसी थी जिसमे दोमंजिले-तिमंजिले मकान जड़ों से उखड़ गए, ९०-९५ प्रतिशत लोग अब भी अपने घरों में ही थे और आज इतने दिनों बाद भी जबकि पानी कहीं 1० फीट तो कहीं २० फीट की ऊंचाई तक भरा हुआ है, लोग अपने घरों से निकलने को तैयार नहीं हैं। ज्यादातर लोगों तक अभी कोई मदद नहीं पहुँची है और कई इलाकों में जाने को सेना भी तैयार नहीं है। बलुआ, बिसनपुर, वीरपुर, चैनपुर, छातापुर, प्रतापगंज आदि इलाकों में जहाँ दूर-दूर तक अट्टहास करती कोसी की जलधार के बीच मौत नाच रही है, लील रही है, विगत १८ अगस्त से हजारों जिंदगियां एक अंतहीन आस की डोर को पकड़े घिसट रही हैं। तिनका-तिनका सहेजकर बनाई अपनी दुनिया का मोह छुड़ाये नहीं छूटता। कैसे छोड़ जायें सबकुछ......चले भी जायें तो कैसे कटेगा जीवन? पहले ही किसने इनकी सुधि ली है जो अब लेगा? इन्हें किसी सरकार पर भरोसा नहीं है। मेरे छोटे वाले बहनोई साहब का पूरा परिवार जिसमे एक साल के बच्चे के साथ विधवा बहन, विवाहित छोटा भाई और वृद्ध माता-पिता हैं- १८ अगस्त से अपने गाँव बिसनपुर में फंसे हैं। आजतक उनके बारे में कोई सूचना नहीं मिल सकी है। बहनोई साहब जो मेरी बहन के साथ लुधियाना में रहते हैं, अपने सम्बन्धियों को फ़ोन कर-करके हताश हो गए हैं। कोई बिसनपुर जाकर जान जोखिम में डालने को तैयार नहीं।मैं ख़ुद उनको दिल्ली से फोन लगाता हूँ तो फट पड़ते हैं- किसी को चिंता नहीं है, सब अपना देखने में लगे हैं। फ़िर यह सोचकर कि वह ख़ुद घर के बड़े बेटे होकर भी नहीं पहुँच सके-एक तो अर्थाभाव और दूसरे मकान बदलने की अनिवार्यता की वजह से क्योंकि वर्त्तमान मकान मालिक काफी परेशान कर रहा है और इस हालत में मेरी बहन को दो छोटे बच्चों के साथ अकेले छोड़कर कैसे गाँव चले जायें? फ़िर भी वे कहते हैं- २-३ अगस्त तक मकान बदलकर निकल जाऊँगा।मुझे नहीं मालूम परिवार के अबतक सकुशल होने की कितनी उम्मीद उनके अन्दर बची है।
बड़े बहनोई साहब सपरिवार फोरबिशगंज, अररिया में हैं जहाँ से बाहर निकल पाना लगभग असंभव है। सरकार ने वहां शिविर लगाये थे पर विगत दो दिनों से बाढ़ का पानी प्रवेश कर जाने के बाद शिविर वहां से हटाये जाने की चर्चा चल रही है। करीब एक लाख शरणार्थी अभी वहां रह रहे हैं। फोरबिशगंज बाज़ार एक टापू की शक्ल ले चुका है और शायद एक दो दिन में वहां भी हालात बिगड़ने वाले हैं।
छोटे भाई को वीरपुर से निकालने के लिए बड़े भाई साहब २५ अगस्त को किसी तरह दस हज़ार में प्राइवेट नाव लेकर वीरपुर पहुंचे और रात भर नाव पर दोनों भाई सुबह का इंतजार करते रहे ताकि रास्ता भटकने अथवा बह जाने से बचें पर सुबह इतनी मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी कि अँधेरा छा गया और वहां से निकलना अनिवार्य हो गया। नाव तेज़ धार में बेकाबू होकर कुसहा की तरफ़ चली गयी और बड़ी मशक्कत के बाद वे लोग किसी तरह भंटाबाड़ी, नेपाल में किनारे पर पहुँच सके।वहां से किसी-किसी तरह सहरसा पहुंचे तब चार दिनों बाद सबके जान में जान आई।
पिताजी वीरपुर के ललित नारायण मिश्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद स्थानीय स्तर पर साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ चला रहे थे। बड़ी मुश्किल से एक दर्जन लोगों का परिवार चलाते हुए एक घर बना पाए थे। नौकरी ऐसी थी जिसमें कभी भी समय पर तनख्वाह नहीं मिली। अब पेंशन भी समय पर नहीं मिलता। २०-२५ बीघे पुश्तैनी खेत वहीं वीरपुर में थे जिसमें साल भर का अनाज उपज जाता था। अब सब कुछ एक इतिहास का हिस्सा है। छोटा भाई बेरोजगार है और बड़े भाई साहब बड़े होने नियतियाँ झेलते हुए पैंतालीस की उम्र में भूगोल नाप रहे हैं। मैं तो दिल्ली में सपरिवार माशा अल्लाह.....
सच यही है कि फिलहाल सहरसा में २००० रुपये किराये पर एक दो कमरों वाला मकान लेकर पूरा परिवार रह रहा है पर कबतक और आगे क्या होगा कुछ नहीं पता। न अनाज है, न बर्तन, न कपड़े, न बिस्तर, न चूल्हा और न अब आग ही बची है। सब बुझ गया ...बिखर गया...हवा हो गया। यह तो फ़िर भी एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसने इतनी भारी विपदा में भी जीने का जुगाड़ कर लिया पर क्या होगा उन लाखों निरीह, असहाय और पहले से ही असंभव जिंदगी जी रहे लोगों का जो सबंधु-बांधव पटना और दिल्ली और पंजाब और मुंबई और जाने कहाँ निकल पड़े हैं बची-खुची जिदगी की तलाश में.......... महानगरों की सड़कें, फुटपाथ, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, वेश्यालय, किडनियों के सौदागर और जाने कौन-कौन उनकी अगवानी में पलक-पांवडे बिछाए बैठे हैं...उन सबके लिए इस बार अच्छी फसल हुई है। फसल तो इस बार नीतीश बाबू के लिए भी सबसे अच्छी हुई है...जय हो कोसी मैया की।

2 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

इस बार बाढ़ ने निशब्द कर दिया

महेन्द्र मिश्र said...

बेहद दुखद स्थिति है . इस तबाही से लाखो परिवारों को घर परिवार संपत्ति से हाथ धोना पड़ा है , जब टी.वी. देखता हूँ इस बाढ़ को देखकर रौगटे खडे हो जाते है . सभी को सहानुभूति के साथ बिहारवासियो की मदद करना चाहिए .