Tuesday, June 10, 2008

खाद्य असुरक्षा का आयात

देविंदर शर्मा

बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए भारत सरकार ने खाद्य तेलों और चावल के आयात शुल्क में भारी कटौती कर दी है. चावल पर आयात शुल्क पूरी तरह खत्म कर दिया गया है, जबकि क्रूड पाम आयल का आयात शुल्क 45 फीसदी से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है. क्रूड पाम आयल में क्रूड पामोलीन भी शामिल है.

पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा कि हम कृषि के क्षेत्र में बड़ी रियायतें देना चाहते हैं, किंतु दूसरे राष्ट्रों को भी अपने बाजार खोलने होंगे. दरअसल बुश का यह बयान इस परिप्रेक्ष्य में सामने आया कि अमेरिका और यूरोप पर कृषि अनुदान में बड़ी कटौती का दबाव पड़ रहा था. इसके बदले में वे चाहते हैं कि भारत और ब्राजील जैसे देश अपने बाजार खोलें. इस दिशा में भारत ने पहला कदम बढ़ा दिया है. भारत सरकार ने शुल्कों में कमी कर दी है और ऐसा करके राष्ट्रपति बुश को सकारात्मक संकेत दे दिया गया है. अपना वचन पूरा करने की बारी अब बुश की है.
आप अब भी सोच रहे होंगे कि विश्व व्यापार संघ की दोहा वार्ता सात वर्ष बीत जाने के बाद भी जहां कीतहां क्यों खड़ी है? इस संबंध में हाल-फिलहाल किसी प्रगति की उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि दोहा वार्ता इसलिए जहां की तहां पड़ी है, क्योंकि हम समझौता वार्ता का पालन सावधानी के साथ नहीं कर रहे हैं. मध्य मार्च में ब्राजील के मुख्य वार्ताकार राबर्ट एजेवेडो ने कहा कि दोहा वार्ता समझौते के जितने करीब है वैसी स्थिति पहले कभी नहीं रही.

भारत ने आयात शुल्क में जो कटौती की है वह काफी ज्यादा है. क्रूड पाम तेल के अलावा सरकार ने रिफाइंड पाम तेल की आयात दरों में भी कटौती कर दी है. यह 52.5 प्रतिशत से घटकर 27.5 पर आ गई है. सरसों के कच्चे तेल पर आयात शुल्क 75 फीसदी के बजाय 20 फीसदी और सरसों के रिफाइंड तेल पर 75 के स्थान पर 27.5 फीसदी कर दिया है. दूसरे शब्दों में कहें तो खाद्य तेलों पर सीमाबद्ध आयात शुल्क 300 प्रतिशत से घटकर प्रभावी रूप में 20 प्रतिशत हो गया है. अब विश्व व्यापार संगठन आयात शुल्क बढ़ाने के भारत के अधिकार को छीन लेगा, जिसका मतलब यह हुआ कि भविष्य में भारत को आयात शुल्क की दरों को 20 फीसदी तक ही रखना होगा.

विश्व व्यापार संगठन से जारी वार्ता के अनुसार बाधित शुल्क और लागू शुल्क के बीच का अंतर घटाने के प्रयास चल रहे हैं. यद्यपि भारत के पास खाद्य तेलों पर आयात शुल्क 300 प्रतिशत तक करने का अधिकार है, किंतु विश्व व्यापार संगठन इन्हें फिर से वर्तमान दरों पर स्थिर करना चाहता है. इसका मतलब यह कि आयात शुल्क की दरों को 20 फीसदी के स्तर से ऊपर नहीं उठाया जा सकता.
चावल पर आयात शुल्क समाप्त करने और खाद्य तेलों पर शुल्क में कमी लाने का फैसला ऐसे समय आया है जब गेहूं और दालों के आयात पर पहले ही शुल्क समाप्त किया गया है. इन चार प्रमुख जींसों, जिनमें तीन सबसे महत्वपूर्ण जींस शामिल हैं, को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के सागर में डूबने के लिए छोड़ दिया गया है. किसी भी सूरत में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में चावल और गेहूं के दाम आसमान छू रहे हों तो आयात शुल्क को शून्य करने का कोई तुक नहीं है.

यह हैरत की बात है कि चावल, गेहूं और दालों से आयात शुल्क समाप्त करने और खाद्य तेलों पर इसमें भारी छूट देने का फैसला उस समय आया है जब 8 हजार करोड़ रुपये की लागत से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान शुरू किया गया है. इसका उद्देश्य इन चार जींसों की उत्पादकता बढ़ाना है. 11वीं योजना के अंत तक चावल का उत्पादन एक करोड़ टन, गेहूं का 80 लाख टन और दालों का 20 लाख टन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि जब आयात के लिए दरवाजे खोल दिए गए हों तो अगले पांच साल में इतनी उत्पादकता बढ़ाना कैसे संभव है? आयात बढ़ाने का निर्णय निश्चित तौर पर उत्पादकता विरोधी कदम है.

यह विचित्र है कि चावल, गेहूं, दालों और खाद्य तेलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए समयबद्ध खाद्य सुरक्षा मिशन और सस्ते आयात के लिए आयात शुल्क में कटौती साथ-साथ कैसे चल सकते हैं? जहां तक खाद्य तेलों का संबंध है 1993-94 में इनके उत्पादन में भारत करीब-करीब आत्मनिर्भर था. इसके बाद जैसे-जैसे सरकार ने आयात शुल्क में कटौती करनी शुरू की, खाद्य तेलों का आयात कई गुना बढ़ गया और देखते ही देखते भारत खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक बन गया. सस्ते आयात के कारण भारत तिलहन की फसल बढ़ा पाने में नाकामयाब रहा. जो छोटे किसान बरसाती पानी से सिंचित जमीन पर तिलहन की फसल बो रहे थे, सस्ते आयात के कारण उन्होंने यह फसल बोनी बंद कर दी. सस्ते आयात से जीवीकोपार्जन का खतरा उत्पन्न हो जाता है. खाद्य तेलों का उदाहरण सामने है. 1997-98 में दस लाख टन खाद्य तेलों के आयात की तुलना में अब इनका आयात 59.8 लाख टन पर पहुंच गया है. इस प्रकार भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन गया है.

अगर हम इस रुझान को उलटना चाहते हैं तो सस्ते आयात को बंद करने और फिर तिलहन के किसानों के लिए उचित वातावरण तैयार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं है. देश के नीति-नियंता यदि इसे समझने से इनकार करेगे तो तिलहन का उत्पादन इसी प्रकार घटता रहेगा. आगामी वर्षो में खाद्य तेलों पर बचा हुआ आयात शुल्क भी समाप्त कर दिया जाएगा. आसियान देशों को भारत पहले ही वचन दे चुका है कि मुक्त व्यापार समझौते के तहत वह खाद्य तेलों पर आयात शुल्क समाप्त कर देगा. खाद्य सुरक्षा के लिए अति आवश्यक समझे जाने वाले गेहूं, चावल और दालों के लिए भारत पहले ही आयात शुल्क शून्य कर चुका है. इसका मतलब है कि मुक्त व्यापार के लिए चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण फसलों का बलिदान कर दिया गया है. आखिर हम किस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं? इन स्थितियों में क्या हम खाद्य सुरक्षा का सपना देख सकते हैं? सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि सस्ता आयात खाद्य सुरक्षा पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव डालता है. ऐसे समय जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की स्थापना की गई है, आयात शुल्क समाप्त करने से उत्पादन बढ़ने के बजाय घट जाएगा. इस नीति के पीछे कोई समझदारी दिखाई नहीं देती. अगर हम घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ाते तो बढ़ती मुद्रास्फीति के लिए खाद्य पदार्र्थो की आपूर्ति में बाधा खड़ी होने की बात करना बेइमानी है.

तात्पर्य यह है कि हम महंगाई के लिए यह दलील नहीं दे सकते कि मांग के अनुरूप खाद्य पदार्थों का उत्पादन नहीं हो पा रहा. भारत अगर खाद्य पदार्र्थो में आत्मनिर्भरता हासिल करना चाहता है तो उसे इन चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्र्थो पर फिर से पुरानी दर से आयात शुल्क लगाना होगा. यदि ऐसा नहीं किया जाता तो फिर यह कहने में कोई बुराई नहीं कि सरकार खाद्य असुरक्षा का आयात करने की इच्छुक है.
http://www.raviwar.com/ से साभार

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