Tuesday, June 10, 2008

पश्चिमी देशों ने बोये विनाश के बीज

अवधेश कुमार
पर्यावरण अब गोष्ठियों , सेमिनारों से बाहर निकलकर अगर व्यावहारिक चिंता का विषय बना है तो यह स्वाभाविक है। वास्तव में अब दुनिया के सामने पूरी पृथ्वी के साथ इससे जुड़े वायुमंडल को बचाने की चुनौती खड़ी है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य यह है कि खतरे को समझने एवं उसके समाधान की ईमानदार चिंता के बावजूद मूल कारणों को समझने की कोशिश ही नहीं हो रही है। जब मूल कारणों की ही अनदेखी होगी तो फिर वास्तविक समाधान हो ही नहीं सकता। धरती के बढ़ते बुखार को दूर करने के लिए जितने आयोजन हुए हैं उनमें धीरे–धीरे शिरकत करने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है और वातावरण में परिलक्षित हो रहे भयानक परिवर्तनों के लक्षण के प्रति सामूहिक भय एवं इससे बचने की सर्वसम्मत इच्छा भी अभिव्यक्त हुई है। कुछ समय पहले तक यह स्थिति नहीं थी। पिछले वर्ष दिसंबर में इंडोनेशिया की राजधानी बाली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के पूर्व अनेक प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की गईं थीं। किंतु 190 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा करीब दो सप्ताह तक तपती धरती पर विचार करके सर्वसम्मत निष्कर्ष तक पहुंचना ही दुनिया के लिए महत्वपूर्ण परिघटना है। सबसे बड़ी बात अमेरिका का बाली कार्ययोजना पर राजी होना था। जो अमेरिका पहले नाक पर मक्खी नहीं बैठने दे रहा था वह 190 देशों की कतार में खड़ा हो गया यह साधारण परिवर्तन नहीं है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पर्यावरण के उग्र स्वरूप के विनाशकारी प्रभावों को सभी ने समझा है एवं इसे दूर करने या कम करने के प्रति आम सहमति जैसी बन चुकी है।लेकिन क्या इससे दुनिया के मंडराते भयावह पर्यावरण संकट के खतरे से मुक्त होने की संभावना भी बन रही है? धरती के बढ़ते बुखार के लिए कार्बन सहित अन्य हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को मुख्य खलनायक माना गया है। अभी तक न इसके स्तर को निश्चित सीमा तक कम करने के प्रति सहमति बनी है और न इसके लिए समय सीमा ही निर्धारित हुई है। 2009 के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की आ॓र सबकी नजर लगी हुई है। किंतु वहां से किसी प्रकार की चमत्कार की उम्मीद बेमानी है। इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक विश्लेषणों में भविष्य की जैसी भयानक तस्वीर प्रस्तुत की गई है उसके बाद किसी भी देश द्वारा वातावरण में आ रहे खतरनाक परिवर्तनों को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं है, पर मूल बात इससे अलग है। आखिर ये विषैले गैस उत्सर्जित क्यों हो रहे हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इनके लिए जिम्मेवार वही बातें हैं जिन्हें हम विकास का मानक बना चुके हैं। विकास के इन मानकों को दोषी मानने को कोई तैयार नहीं है। जब विकास के लिए चारों आ॓र उद्योग लगेंगे तो उनसे धुंआ, अवशिष्ट ,कचरा आदि तो बाहर आएगा ही। जब नदियों पर बड़े–बड़े बांध बनेंगे, जब चमचमाती चौड़ी पक्की सड़कों के जाल बिछेंगे, जब हवाई अड्डों का संजाल खड़ा होगा, जब रेलवे का विस्तार होता रहेगा, जब अत्यधिक फसल के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग होगा तब तक कोई पर्यावरण को समस्त जीव मंडल के बिल्कुल अनुकूल बनाने की सोच भी नहीं सकता। भारत एवं चीन में बढ़ता ऊर्जा खपत एवं कार्बन उत्सर्जन दुनिया भर के लिए मुद्दा बना हुआ है लेकिन इन दोनों का तर्क है कि पश्चिमी देशों ने लंबे समय से आर्थिक विकास के नाम पर उत्सर्जन किया है, इसलिए वे ज्यादा कटौती करें एवं उन्हें समय दिया जाए। भारत एवं चीन की जगह दूसरा विकासशील देश होता तो उसका तर्क भी यही होता एवं दुनिया के लिए उसे बिल्कुल अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं हो सकता है। आखिर विकास का हक सबको है। आपने विकास कर लिया और दूसरे को नसीहत दीजिए कि पर्यावरण के लिए आप विकास की गति पर विराम लगा दो तो कैान इसे स्वीकार करेगा! बाली कार्ययोजना में कहा गया है कि आर्थिक एवं सामाजिक विकास तथा गरीबी में कमी विश्व की प्राथमिकतायें हैं। लेकिन वहां गठित कार्यसमूह इसके लिए विकास का कोई नया ढांचा लाएंगे जिसमें वातवारण बिल्कुल प्रकृति के हवाले रहेगा एवं मनुष्य के द्वारा उसके साथ छेड़छाड़ नहीं होगी ऐसी आशा नहीं की जा सकती है। 1992 के वायुमंडल परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ढ़ांचे (युनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज) में ग्रीनहाउस गैसों को स्थिरांक पर लाने का निर्णय हुआ था।कहा गया था कि इससे वायुमंडल प्रणाली में मनुष्य के अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप का अंत होगा। आज तक यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका। दुनिया के लिए विकास एवं संपन्नता का मानक निर्धारित करने वाले पश्चिमी देश यह स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वर्तमान आर्थिक विकास एवं वातावरण को प्रकृति निर्धारित अवस्था में लाने का लक्ष्य एक साथ पाया ही नहीं जा सकता है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि विकास एवं सुविधाओं की वर्तमान तकनीकों की जगह नई तकनीकों एवं सामग्रियां लाने से यह हो सकता है। यह नितांत ही अनैतिक एवं अव्यावहारिक दलील है। पृथ्वी एवं इससे जुड़े पूरे वायुमंडल को बचाने के लिए प्रमुख चुनौती तेल, प्राकृतिक गैस एवं कोयले से निकलने वाले कार्बन डाईऑक्साइड का अंत करना है। वर्तमान विकास प्रणाली इन ईंधनों पर ही टिकी है। आज विश्व की कुल वाणिज्यिक ऊर्जा खपत में इनका अंशदान 80 प्रतिशत है। इनकी बजाए वैकल्पिक ऊर्जा प्रयोग करने की बात हम सालों से सुन रहे हैं। बिजली पैदा करने या बिजली प्रतिष्ठानों में ताप पैदा करने में, मोटरगाड़ी एवं उघोगों में इस ऊर्जा का 75 प्रतिशत खपत हो जाता है। दूसरी तकनीकों का प्रयोग करके या कम ईंधन पर चलने वाली मोटरगाड़ियों का निर्माण करके हम कार्बन उत्सर्जन में थोड़ी बहुत कमी ला सकते हेंैं सम्पूर्ण पर्यावरण को बचा नहीं सकते।वास्तव में संकट की जड़ तो पश्चिमी देशों द्वारा निर्धारित विकास मानकों एवं उन पर आधारित जीवन प्रणाली मे निहित है। मनुष्य के संदर्भ में पश्चिम की पूरी विचारधारा उसके शरीर सुख के इर्द–गिर्द ही घूमती है। इसी से औघोगिक क्रांति की उत्पत्ति हुई और उसके बाद पूंजीवाद एवं बाजार पैदा हुआ। इसने जीवन शैली के रूप में अत्यधिक भोग साधन एकत्रित करने और उसका प्रयोग करने का सूत्र दिया। पूरी विकास प्रक्रिया इसी दुष्चक्र का शिकार है। अगर पृथ्वी एवं पूरे पर्यावरण को बचाना है तो फिर इस जीवन शैली को अस्वीकार करना होगा। उसकी जगह मनुष्य के तौर पर जो लक्ष्य भारतीय सभ्यता ने लंबी चिंतन प्रक्रिया के बाद निर्धारित किए उनको पुनर्स्थापित करना होगा। दुर्भाग्य यह है कि जीवन को शरीर तक सीमित न मानने वाली भारतीय सभ्यता के मानक इसकी चकाचौंध में हाशिए पर चले गए हैं। भारतीय सभ्यता ने शरीर को नश्वर मानकर केवल उसके सुख को त्याज्य करार दिया है। इसमें मनुष्य के लिए ऐसी जीवन प्रणाली अपनाने की स्थापित परंपरा थी जिसमें उसका प्रकृति के साथ पूर्ण साहचर्य कायम रहे। प्रकृति के तांडव से लटकते विनाश खतरे के अंत का सूत्र तो इस जीवन प्रणाली में निहित है किंतु जब भारत के नीति निर्माता ही अपनी महान सभ्यता से आत्मग्लानिबोध से ग्रस्त इन विनाशकारी पश्चिमी मानकों को स्वीकार कर पूरा विकास ढ़ांचा उसी दिशा में सशक्त करने की कोशिश कर रहे हैं तो फिर इसकी आ॓र किसी का ध्यान जाएगा तो कैसे?


http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार

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