Friday, June 20, 2008

विश्लेषण : हमारे लोकतंत्र की क्वालिटी पर सवालिया निशान

अभय कुमार दुबे
ठीक जिस समय भारत नई सहस्राब्दी में अपने दूसरे आम चुनाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है, उसी समय दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के बीच यह बहस छिड़ गई है कि क्या भारतीय लोकतंत्र भूमंडलीकरण के नए दबावों को झेल पाएगा? इसी प्रश्न को इस तरह से भी पेश किया जा सकता है कि क्या भारत लोकतंत्र, विकास और भूमंडलीकरण की त्रिकोणीय जटिलता को सुलझाता हुआ नई सदी में नए मुकामों को हासिल करने में कामयाब होगा? इस बहस में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं। उनके साथ अन्य विकासशील देशों के बौद्धिक प्रतिनिधियों का भी योगदान है। खास बात यह है कि बहस लोकतंत्र की विश्वव्यापी मौजूदगी और निरंतर हो रहे प्रसार की पृष्ठभूमि में हो रही है। भारतीय लोकतंत्र तो कसौटी पर कसा ही जा रहा है। साथ ही लोकतंत्र के संस्थागत स्वरूप और उसके दार्शनिक विचार की भी जांच-पड़ताल हो रही है। बहस की इस विशेषता ने भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को सारी दुनिया में लोकतंत्र के भविष्य से जोड़ दिया है। बहस में दी गई दलीलों से लगता है कि अगर भूमंडलीकरण के दबावों के कारण भारत में लोकतंत्र नई मंजिलों की तरफ सफर जारी करने में नाकाम रहा, तो सारी दुनिया में लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्थाओं की उपयोगिता पर सवालिया निशान लग सकता है।
ऐसी बहस गुजरी सदी में पचास और साठ के दशक के दौरान भी चली थी। 1947 में एक आजाद देश के रूप में अपनी यात्रा शुरू करते समय सिद्धांत और व्यवहार की दृष्टि से भारत के सामने केवल लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था और विकासमूलक प्रतिमान का ही समीकरण था। यह एक सीधा-सादा समीकरण था, जिसके इर्द-गिर्द होने वाले तर्क-वितर्क में केवल दो ही कोण हुआ करते थे। विशेषज्ञों की मान्यता थी कि अगर अंतरराष्ट्रीय माहौल अनुकूल रहा और परंपरागत समाज के आधुनिकीकरण और सेकुलरीकरण की प्रक्रिया ठीक से चली, तो यह नवोदित राष्ट्र उत्तरोत्तर प्रगति करता चला जाएगा। कुल मिलाकर समझा जाता था कि लोकतंत्र के सफल या विफल होने में भारतीय समाज की आत्मगत स्थिति बहुत अहम भूमिका निभाएगी। चूंकि पश्चिमी विचारकों को भारतीय समाज के लोकतांत्रिक मिजाज के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी, और उनके बौद्धिक मानस पर मार्क्स द्वारा प्रवर्तित ‘एशियाई मोड ऑफ प्रोडक्शन’ की थियरी हावी थी, इसलिए उनमें से ज्यादातर भारत में लोकतंत्र की कामयाबी की संभावनाओं को शक की निगाह से देखते थे। इसी संशय के चलते साठ के दशक के अंत तक सारी दुनिया में बार-बार भारतीय लोकतंत्र का शोक-गीत गाया गया। इनमें सबसे ज्यादा खरजदार आवाज अमेरिकी थिंक टैंक के सदस्य सेलिग हैरिसन की थी, जिन्होंने तो यह तक घोषित कर दिया था कि 1967 का चुनाव भारत का अंतिम लोकतांत्रिक चुनाव होगा। इसके बाद ‘अपकेंद्रीय’ अर्थात फूटपरस्त शक्तियां हावी हो जाएंगी और देश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। सैलिग हैरिसन आज भी बौद्धिक रूप से सक्रिय हैं और उनकी राय अमेरिकी हलकों में महत्वपूर्ण मानी जाती है। पता नहीं, वे अपनी उस भविष्यवाणी को किस निगाह से देखते होंगे, पर मौजूदा बहस में उनकी अनुपस्थिति इस बात का सबूत है कि एशियाई समाजों और खासतौर से भारत के बारे में उनसे कोई राय देने की अपेक्षा नहीं की जाती।
जाहिर है, बहस का परिप्रेक्ष्य बदल चुका है। अब बातचीत लोकतंत्र के रहने या न रहने पर केंद्रित न होकर लोकतंत्र की क्वालिटी पर हो रही है। नब्बे के दशक के शुरूआती बरसों में अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर भूमंडलीकरण का आगमन हुआ, जिसके कारण विकास और लोकतंत्र का पहले से चला आ रहा संबंध बदल दिया। इससे पहले पूरी बीसवीं सदी में लोकतंत्र को एक सर्वश्रेष्ठ मानवीय विचार के रूप में पेश करके एक जीवन-शैली के रूप में ग्रहण किया जाता रहा था। माना जाता था कि विकास जरूरी है, पर वह लोकतांत्रिक आग्रहों की जगह नहीं ले सकता। निरंकुश राज्य व्यवस्थाओं द्वारा किए जाने वाले विकास को नीची निगाह से देखने की प्रवृत्ति थी। लेकिन, भूमंडलीकरण के आगमन ने आर्थिक समृद्धि की धारणा को एक नई अहमियत प्रदान कर दी और एक विचार के रूप में लोकतंत्र अपनी अपरिहार्यताओं से बेदखल होता हुआ लगा।
इससे पहले लोकतंत्र की क्वालिटी अधिकतर राजनीतिक अधिकारों की अक्षुण्णता, राजनीतिकरण की प्रक्रिया की गहराई, संस्थाओं के शासन और शांतिपूर्ण नेतृत्व परिवर्तन की क्षमता के आधार पर आंकी जाती थी। अर्थशास्त्री अपनी तरफ से विकास दर की बात बोलते रहते थे, लेकिन अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से राजनीति के हाथों में थी। जब भी यह बात चलती थी कि नीति निर्माण की प्रक्रिया किसके हाथ में होनी चाहिए, तो विशेषज्ञों की दावेदारियां खारिज कर नीतियों के सूत्रीकरण की जिम्मेदारी राजनेताओं के हाथों देने पर ही मतैक्य बनता था।
भूमंडलीकरण के आगमन ने इस स्थिति को बदल दिया है। पूंजी के उन्मुक्त प्रवाह ने राष्ट्रीय सीमाओं और सम्प्रभुता के महत्व को पहले जैसा नहीं रहने दिया है। तेजी से उभरते और फैलते मध्यवर्ग की मान्यता बनती जा रही है कि लोकतंत्र अपने आप में कोई ऐसी नियामत नहीं है, जिसके ऊपर आर्थिक समृद्धि के आग्रह कुर्बान किए जा सकें। राजनीतिक अधिकार और राजनीतिकरण, संस्थाओं के शासन आदि बातें धीरे-धीरे किताबी ज्ञान की परिधि में सिमटती जा रही हैं। लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की गुणवत्ता का फैसला करने का केवल एक ही मानक बनता जा रहा है, और वह है विकास दर का आंकड़ा। अगर नागरिक समाज कोई बाजार के हंगामे के बीच अपना कोई स्थापित अधिकार खो देता है, तो उसकी ज्यादा परवाह नहीं की जाती। इस रवैये का परिणाम यह हुआ है कि नीतियों के निर्माण में विशेषज्ञों (टेक्नोक्रेटों और अन्य नौकरशाहों) की भूमिका प्रधान होती जा रही है और विधायिकाओं में सक्रिय नेतागणों से अपेक्षा की जाती है कि वे उन नीतियों पर बहस की खानापूरी करने के बाद मुहर लगवा देंगे। यह स्थिति केवल भारत की नहीं है। दरअसल, आर्थिक विकास का स्तर जिस देश में जितना ज्यादा है, लोकतंत्र को एक जीवन-शैली मानने का आग्रह वहां उतना ही कमजोर हो गया है। अमेरिकी लोकतंत्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां के नागरिक समाज के हाथों से प्रत्येक वर्ष कोई न कोई अधिकार खिसक जाता है। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र की क्वालिटी के मानक बदलने के इस सिलसिले का मुकाबला किया जा सकता है; इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में है। और, यह कोई कमजोर नहीं बल्कि एक मजबूत ‘हां’ है। इसके पीछे दलील यह है कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने अभी तक ऐसी कोई विधिसम्मत संरचना नहीं बना पाई है, जो राष्ट्र-राज्य जैैसी संरचना को प्रतिस्थापित कर सके। एक छोटे से छोटा राष्ट्र-राज्य अपनी जटिलताओं के लिहाज से किसी भी बड़े से बड़े मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन से अधिक मुश्किल संरचना है। नागरिक और उसके होने का विचार आज भी राष्ट्र और उसके होने की सीमाओं में स्थित है। भूमंडलीकरण के नाम पर जो कुछ है, उसकी गढं़त राष्ट्र की जमीन पर ही हो रही है। भूमंडलीकरण राष्ट्र के अस्तित्व की सर्वोच्चता को प्रश्नांकित तो कर सकता है, पर उसकी जगह लेने की क्षमता विकसित करने से वह अभी बहुत दूर है। सारी दुनिया में आज तक एक ही भूमंडलीय संगठन है और वह है विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीआ॓)। बाकी सभी राष्ट्रीय हैं या अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रेतर (भूमंडलीय नहीं) हैं। इसलिए पहलकदमी अब भी राष्ट्र के हाथों में है। आज भले ही लगता रहे कि भूमंडलीकरण राष्ट्र की सीमाएं नए सिरे से निर्धारित कर रहा है, पर ज्यादा से ज्यादा दो दशक बाद अंतिम रूप से राष्ट्र ही तय करता नजर आएगा कि भूमंडलीकरण की सीमाएं क्या होनी चाहिए।
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम के संपादक है)
www.rashtriyasahara.com से साभार

No comments: