Friday, June 13, 2008

आतंक की खिलाफत का आतंक

सलिल त्रिपाठी
आतंकवाद के खिलाफ विश्व स्तर पर जारी जंग में निर्दोषों को प्रताड़ित करने के कई खौफनाक उदाहरण देखने को मिले हैं। इन घटनाओं से साबित हुआ है कि कई देशों के अधिकारी आतंकवाद के खिलाफ जंग में अपनी उपयोगिता साबित करने के लिए कितने उतावले है। 2002 में अमेरिकी अधिकारियों ने न्यूयॉर्क के जॉन एफ केनेडी हवाई अड्डे से एक टेलीकॉम इंजीनियर माहेर अरार को अल-कायदा से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया और उसे उसके घर कनाडा की बजाय सीरिया भेज दिया(अरार का जन्म सीरिया में हुआ था और वो कनाडियाई नागरिक है)। सीरिया में उन्हें कठोर यातनाएं दी गई। बाद में अरार को कनाडियन सरकार से मुआवज़े के रूप में एक करोड़ डॉलर की रकम मिली क्योंकि कनाडा के अधिकारियों ने अमेरिका को इस मामले में सही जानकारियां नहीं दी थीं। अरार ने अब अमेरिकी सरकार के खिलाफ दावा किया है जो कि उसे लगातार वांछितों की सूची में रखे हुए है।
अधिकारियों के इस तरह के अति उत्साह और उससे जाने-अनजाने में हुई गलतियों के पीड़ितों की सूची में भारतीय डॉक्टर मोहम्मद हनीफ भी शामिल है जिसे साल भर पहले ऑस्ट्रेलिया में गिरफ्तार किया गया था। इसकी वजह थी उसके कुछ रिश्तेदारों द्वारा इंग्लैंड में एक असफल आत्मघाती हमला। डॉ. हनीफ के खिलाफ आरोप की वजह बना था उनका वो सिम कार्ड जो धमाकों के एक संदिग्ध के पास से बरामद हुआ था और हनीफ द्वारा बुक करवाया गया भारत की यात्रा का एक तरफ का टिकट। उसके पास हर बात का सही जवाब था लेकिन पूर्व ऑस्ट्रेलियन प्रधानमंत्री जॉन हावर्ड के प्रशासन के राजनेता ये दिखाने के लिए बहुत उत्सुक थे कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने में उनकी भूमिका सबसे बड़ी है। इसकी परिणति निर्दोष डॉक्टर के खिलाफ अदालती कार्रवाई के रूप में हुई।
आंकड़ो ने ऑस्ट्रेलियाई राजनेताओं के बारे में चौंकाने वाले तथ्यों को उजागर कर दिया। ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन द्वारा अपने सैनिकों की विदेश में तैनाती के खिलाफ देश में लगातार बढ़ रहे विरोध को खत्म करने और इसके लिए समर्थन हासिल करने के लिए हताशा में ये चाल चली गई थी।
हावर्ड की हार के बाद अधिकारियों ने सूचना के अधिकार के तहत किए गए आवेदन पर हनीफ मामले से जुड़े आंकड़ों का जखीरा जारी किया। इन आंकड़ो ने ऑस्ट्रेलियाई राजनेताओं के बारे में चौंकाने वाले तथ्यों को उजागर कर दिया। ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन द्वारा अपने सैनिकों की विदेश में तैनाती के खिलाफ देश में लगातार बढ़ रहे विरोध को खत्म करने और इसके लिए समर्थन हासिल करने के लिए हताशा में ये चाल चली गई थी। सरकारी अधिकारियों ने अभियोजन और नौकरशाहों पर कानून के साथ खिलवाड़ करने के लिए दबाव डाला। मंशा ये थी कि यदि वो डॉ. हनीफ के ऊपर आतंकवाद के आरोप साबित कर देंगे तो इससे हॉवर्ड की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मज़बूती साबित होगी जिसका फायदा उन्हें आगामी चुनावों में हो सकता था।
डॉ. हनीफ को ब्रिस्बेन हवाई अड्डे पर 2 जुलाई 2007 को गिरफ्तार किया गया था। ऑस्ट्रेलियाई क़ानूनों के तहत अगर ऑस्ट्रेलियाई फेडरल पुलिस (एएफपी) किसी को जेल में रखने के पर्याप्त कारण न दिखा सके तो 72 घंटे के बाद उसे रिहा करना पड़ता है। जज को संतुष्ट कर सकने वाले पुख्ता प्रमाणों के अभाव में एएफपी ने प्रिवेंटिव डिटेंशन ऑर्डर (पीडीओ) की संभावना तलाशी। हावर्ड प्रशासन द्वारा पारित किए गए आतंकवाद विरोधी कानूनों ने इसे संभव बनाया मगर ये कानून काफी विवादित हैं और मानवाधिकारवादियों ने इसका जमकर विरोध किया था। पीडीओ के तहत किसी व्यक्ति को भी हिरासत में लिया जा सकता है भले ही उसके खिलाफ कोई मामला दर्ज न हो।
जारी कागज़ातों, जो अब इंटरनेट पर भी मौजूद हैं, से साफ पता चलता है कि एएफपी को 3 जुलाई को ही पता चल गया था कि उसे किसी तरह के सबूतों और सबूतों की सुरक्षा के लिए हनीफ को गिरफ्तार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मगर एक सप्ताह बाद भी डॉ. हनीफ सलाखों के पीछे थे।
11 जुलाई को एक फेडरल पुलिस अधिकारी ने दावा किया कि डॉ. हनीफ को अभी भी नज़रबंद रखने की जरूरत है क्योंकि ये सबूतों को सुरक्षित रखने, हासिल करने और जांच पूरी करने के लिए जरूरी है। 14 जुलाई को एक दूसरे अधिकारी ने दावा किया कि अगर हनीफ को आजा़द कर दिया गया तो वो खुद को अपराधी साबित कर सकने वाले प्रमाणों को नष्ट कर देगा, जिसे पुलिस अभी तक नहीं हासिल कर पायी है। कुछ दिनों के भीतर ही ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन अप्रवासी मामलों के मंत्री केविन एंड्र्यूज़ ने पुलिस द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों का "बारीक विश्लेषण" कर हनीफ का वीसा रद्द कर दिया। ताज़ा जारी हुए दस्तावेजों से साफ हुआ है कि पुलिस ने उस वक्त हनीफ का वीसा रद्द करने की कोई राय ही नहीं दी थी।
हनीफ के खिलाफ लगातार कमज़ोर पड़ते जा रहे मामले के बाद न्यायपालिका ने उन्हें छोड़ने का हुक्म दे दिया जिससे सरकार की खासी किरकिरी हुई--डॉ. हनीफ का सिमकार्ड ग्लासगो की बजाय लिवरपूल में मिला था और वो वन-वे टिकट पर भारत अपने नवजात बच्चे को देखने के लिए आ रहा था। सीधी-साधी सफाई अक्सर सबसे सही तरीका होता है, लेकिन उन लोगों के लिए नहीं जो षडयंत्र खोजने पर ही तुले हों।
अति तो तब हो गई जब एएफपी ने डॉ. हनीफ के मामले की जांच में 600 अधिकारियों को तैनात कर दिया। सरकार को इसमें 75 लाख डॉलर की चपत लगी। उन्होंने 300 गवाहों के बयान लिए, 349 नमूने इकट्ठे किए। इस अभियान में 249 संघीय अधिकारी शामिल थे, 22 जांच वारंट जारी किए गए, टेलीफोन कॉल्स टेप की गई, इलेक्ट्रॉनिक निगरानी मशीनें स्थापित की गई और साथ ही सैंकड़ो गीगाबाइट आंकड़े कंप्यूटर पर इकट्ठा किए गए। ऑस्ट्रेलिया की खुफिया सेवा से लेकर तमाम शीर्षस्थ विभाग इस काम में लगे रहे।
एएफपी ने डॉ. हनीफ के मामले की जांच में 600 अधिकारियों को तैनात कर दिया। सरकार को इसमें 75 लाख डॉलर की चपत लगी। उन्होंने 300 गवाहों के बयान लिए, 349 नमूने इकट्ठे किए।
इसके बावजूद अधिकारियों के हाथ, हनीफ को सूली पर टांगने का कोई सबूत नहीं लग सका। उनका वीसा निरस्त किए जाने के पीछे भी एक कुटिल सोच छिपी थी- ये प्रशासन को उसे अवैध प्रवास के लिए हिरासत में लेने की छूट दे देता। (2002 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन के उच्चायुक्त की तरफ से जस्टिस भगवती को ऑस्ट्रेलिया के बंदीगृहों की जांच के लिए नियुक्त किया गया था और उन्होंने इन्हें अपमानजनक और अमानवीय करार दिया था।)
किस चीज़ ने हावर्ड प्रशासन को इस तरह से बर्ताव करने के लिए प्रेरित किया? उन्हें कठिन चुनावों का सामना करना था (इसमें उन्हें बुरी तरह मात खानी पड़ी) और अगर एक भारतीय मुस्लिम डॉक्टर को जेल में रख कर चुनाव जीता जा सकता है तो फिर इसमें बुराई ही क्या है? वैसे भी हावर्ड सालों से बुश समर्थक रहे हैं तो उनका कुछ तो असर उन पर होगा ही। 11 सितंबर 2001 को वो वाशिंगटन में थे और जॉर्ज बुश के साथ आतंकवाद से टक्कर लेने की खबरों में जगह पा गए जिसने एकाएक ही उन्हें आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका का एक मुख्य समर्थक बना दिया था। अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में हावर्ड, बुश प्रशासन के विदेशों में सैनिक अभियानों के पक्ष में सिर्फ दृढ़ता से खड़े ही नहीं रहे बल्कि पर्यावरण से जुड़े जलवायु परिवर्तन, क्योटो प्रोटोकॉल जैसे मुद्दों पर भी बुश प्रशासन की नीतियों के अंध समर्थक बने रहे।
उनको अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों से भी कोई खास लगाव नहीं रहा है। न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में हमलों से पहले भी हॉवर्ड इन्हें तोड़ने मरोडने की कोशिशें करते रहे हैं। 2001 में नार्वे के एक जहाज जिसका नाम ताम्पा था, ने एक इंडोनेशियन नौका मिली जिसमें 400 अफगानी शरणार्थी सवार थे। ये घटना ऑस्ट्रेलियाई तट के पास की थी। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ऑस्ट्रेलिया इन शरणार्थियों के लिए जिम्मेदार था। लेकिन हॉवर्ड ने उन्हें प्रवेश करने से ही रोक दिया। नॉर्वे के अधिकारियों के दबाव के बावजूद उन्होंने ऐसा किया।
ऑस्ट्रेलिया औसतन साल भर में 10,000 शरणार्थियों को शरण देता है, लेकिन कुछ नेताओं को ये बात पसंद नहीं है। वन नेशन पार्टी की नेता पॉलिन हैन्सन का कहना है कि अप्रवास से जुड़े मुद्दों पर ऑस्ट्रेलिया का रुख लंबे समय से बहुत नर्म रहा है। पूर्व में फिश-एंड-चिप्स की दुकान चलाने वाली हैन्सन को 1990 में उस समय कुख्याति मिली जब उन्होंने एशिया से आने वाले विस्थापितों के खिलाफ एक अभियान छेड़ा। हालांकि वो अपने अभियान में असफल रहीं लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया के चतुर नेताओं ने उनके कथनों का उपयोग ऑस्ट्रेलिया को एक नस्लवादी देश साबित करने के लिए किया।
केविन रूड ने देश की कमान संभालने के बाद इसमें बदलाव का वादा किया था। लेकिन हनीफ के मामले में शर्मिंदगी उठाने के बाद भी फेडरल पुलिस का अभी भी यही मानना है कि इस तरह के मामलों से निपटने के लिए उन्हें किसी बुनियादी बदलाव की कोई जरूरत नहीं है। शुरुआती संकेत भी उत्साहजनक नहीं है- रूड की लेबर पार्टी ने इलेक्शन से ठीक पहले कहा था कि वह हनीफ मामले की दुबारा से जांच कराएगी। लेकिन अब अटॉर्नी जनरल ने हनीफ को किसी भी तरह का मुआवजा दिए जाने से इनकार किया है।
हनीफ के पीछे पड़ने की वजह बिल्कुल साफ थीं- किसी को फंसाओं, उसके खिलाफ केस बनाओ फिर सबूतों का ढेर लगाकर ऐसा माहौल तैयार करो जिससे राज्य की निगरानी, नज़रबंदी, पूछताछ और धमकाने की ताकतों में बढ़ोत्तरी संभव हो सके। लेकिन भारत इस मामले में खुद कुछ भी कैसे कह सकता है जब इसका अपना रिकॉर्ड भी कुछ अलग नहीं है। बिनायक सेन का उदाहरण हम सबके सामने ही है।
www.tehelkahindi.com से साभार

1 comment:

सखावत अली said...

बहुत शान्दार लेख. लेखक और ब्लोगर को बधाई.