Monday, June 16, 2008

असमय : समाजवाद की टपकन

मुद्राराक्षस
पूंजीवादी अर्थतंत्र का एक दिलचस्प सिद्धान्त है कि जब उत्पादन और समृद्धि का घड़ा लबालब भर जाता है, तब उसमें थोड़ी सी टपकन शुरू हो जाती है। टपकने वाली बूंदें उन लोगों पर गिरती हैं जो अभाव की नारकीय जिंदगी गुजार रहे होते हैं यानी भूखे तक नेवाला पहुंचने की शर्त यह है कि सुखासीन समाज का पेट भरे, तिजोरी भरे और भंडार भरे। जब गोदामों में अनाज भरा जाता है तो सड़क पर भी कुछ दाने बिखरते हैं। यह एक आर्थिक विद्रूप ही है कि पूंजीवादी अर्थतंत्र का यह अमानवीय सिद्धांत उस भारत का प्रिय मंत्र है जिसने संविधान के अनुसार समाजवाद की हलफ उठायी हुई है। यानी भारत में समाजवाद पूंजी से भरे घड़े से टपकती बूंदों से बनेगा।
जिस आर्थिक गैर बराबरी से संघर्ष के लिए दुनिया के बड़े बुद्धिजीवियों ने समाजशास्त्र नाम की एक नयी विधा ही तैयार की थी उस गैर बराबरी को अब समाजवादी संविधान वाले भारत में राजकीय संरक्षण मिल गया है। वर्तमान व्यवस्था ने मान लिया है कि देश में ऊपर रहेंगे समृद्धि की टंकियां भरने में कामयाब होने वाले सुखासीन, और नीचे के नरक में रहेंगे वे तमाम अभावग्रस्त लोग जो इंतजार करेंगे कि ऊपर से बूंद टपकें। भारत में समाजवाद टपकने के लिए देश की तीन चौथाई से ज्यादा गरीब आबादी को इंतजार करना होगा कि ऊपर वाले सुखासीनों का घड़ा खूब भर जाय। यह स्थिति बेहद दर्दनाक है लेकिन सत्ता के लिए सुखद।
सुखासीन समुदाय के लिए हाल में चिंता के समाचार आये। दो समाचार। एक समाचार यह कि जनता ने पानी लूट लिया और दूसरा यह कि अनाज लूटा गया। भुखमरी और प्यास से बेहाल इसी बुंदेलखंड के एक मित्र से मुलाकात हुई। वे बुंदेलखंड के उस बांदा शहर के हैं जो देश के अद्वितीय वाघ सारंगी की जमीन है। मित्र खुद भी सारंगीवादन में नाम कमा चुके हैं और मुम्बई में रहने लगे हैं। मैने पूछा- क्या बांदा अपने शहर की याद ताजा करने गये थे ? खासे खुश मिजाज मित्र यकायक चुप हो गये। उनका चेहरा एक बेरंग खाल के पुतले जैसा हो गया। सिंथेसाइजर आ जाने के बाद से मुम्बई में सारंगी के लिए काम भी लगभग टपकन में ही तब्दील हो चुका है। अपने घर के नाम पर उनका दर्द समझा जा सकता है जहां अब एक लंबे अरसे से संसाधनों की एक बूंद भी नहीं टपकी थी। इस घटना पर वे न हंस सकते थे न रो सकते थे कि मुम्बई में रहने की वजह से वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बोतलबंद पानी पीने लगे थे। घर पहुंचे तो उनकी बोतल में मुश्किल से कुछ घूंट पानी बचा था। उनके बच्चों ने उस एक चुल्लू पानी का जिस तरह सावधानी से बटवारा किया वह दहलाने वाला दृश्य था। जिस भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसकी टपकन पर देश को जिंदा रखा जा सकता है, वहां घर में परिवार के सदस्य अब एक दूसरे से पानी का एक गिलास लूट लें तो हैरानी क्या है ?
हाल में मेरे मित्र डा. वी. के. सिंह ने ट्रेड यूनियनों के एक संयुक्त अभियान की चन्द बुलेटिनें दी। ट्रेड यूनियनों ने, खासतौर से बैंकों की यूनियनों ने फैसला लिया है कि वे 4 अगस्त को प्रदर्शन करके हड़ताल का नोटिस देंगे और बैंक भी 20 अगस्त 2008 की आम हड़ताल में शिरकत करेंगे। यह हड़ताल भी निश्चित रूप से भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ी घटना होनी है। एक बार फिर आर्थिक टपकन से बेहाल देश सामूहिक असंतोष और गुस्से का इजहार करने जा रहा है। यहां हमें याद करना चाहिए कि अमरीका में नेशनल एसोसिएशन आफ मैन्युफैक्चरर्स के अध्यक्ष कोला पार्कर ने 1956 में अपने भाषण में कहा था कि देश को ट्रेड यूनियनों के संगठनों की दासता से छुटकारा लेना चाहिए और सरकार के प्रभुत्व को खत्म करना चाहिए। बाद में हम देखते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सार्थकता और सरकार के अधिकारों को बाकायदगी के साथ समाप्त या सीमित किया और इस काम को पूरा करने में विश्वबैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने बड़ी भूमिका निभायी। यहां यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि एक समय जब हम मनकापुर के कारखाने के कामगारों की यूनियन के सम्मेलन के लिए जा रहे थे तो रास्ते में जार्ज फर्नाण्डिस ने बताया कि जब वे भारत सरकार की आ॓र से विश्वबैंक से वार्ता करने पहुंचे तो किसी भी बातचीत से पहले बैंक के अधिकारियों ने कटुता के साथ सवाल किया कि जार्ज ने एक अमरीकी शीतल पेय कम्पनी पर प्रतिबंध क्यों लगाया ? यह इस बात का सुबूत है कि विश्वबैंक जैसे अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन किस तरह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पोषण करते हैं।
हमारे देश में तमाम प्रतिरोधों के बावजूद हमारी सरकारें 1990 के बाद से लगातार व्यवस्थित रूप से कोला जी पार्कर की इच्छा के अनुसार सरकार की स्वायत्तता लगातार घटाती रही है और देश जानता है कि ट्रेड यूनियन संगठनों के अधिकार निरर्थक बनाये हंै। अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को हर तरफ से पीछे के दरवाजे से भी देश के सामान्य जन की कीमत पर लाभ पहुंचाए जा रहे हैं। आल इंडिया बैंक इम्प्लाइज एसोसिएशन की जो बुलेटिन हमने देखी उसके कुछ तथ्य आश्चर्यजनक है। राष्ट्रीयकृत बैंकों में अब भी न चुकाये गये बड़े उधार बढ़ते जा रहे हैं। 2006-07 में ही यह रकम उन्नीस हजार छह सौ करोड़ और हो गयी जबकि छोटे कर्ज के लिए गुण्डे भेजे जाते हैं। ऐसी हाईकास्ट जमा राशियां बैंक ले रहे हैं जिन पर 12 फीसदी तक ब्याज दिया जा रहा है, जबकि आम जमाकर्ता न्यूनतम ब्याज से निराश किया जा रहा है। जाहिर है कि जहां समृद्धि का घड़ा भरपूर भरा जा रहा है वहीं आम के धीरज का घड़ा भी भर चुका है और आने वाला समय बताएगा कि देश कौन चलाएगा कोला जी। पार्कर की संतानें या देश की जनता।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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