Wednesday, June 11, 2008

विश्लेषण : साम्प्रदायिक हमलों के नए पहलू

अनिल चमड़िया
सत्ता से न्याय के लिए न्यायाधीश होसबेट सुरेश, न्यायाधीश कोलसे पाटिल, गुजरात में हाल तक पुलिस प्रमुख रहे आर। बी. श्रीकुमार, पत्रकार जॉन दयाल एवं तिस्ता सितलवाड़ 13 से 17 मई तक उड़ीसा के कंधमाल में लोगों की आपबीती सुनते रहे जिन्हें दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कई दिनों तक लगातार मारा-पीटा गया, लूटा गया। उनके घर-द्वार उजाड़े गए। भारतीय लोकतंत्र के सामने एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या देश में अल्पसंख्यकों को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा न्याय नहीं मिल सकेगा और जिनके खिलाफ उन पर हमले के आरोप हैं क्या उन्हें सजा नहीं मिल सकेगी? पिछले साठ वषा में ऐसे हमलों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। पहले चरण में यह देखा गया कि अल्पसंख्यकों के न्याय के लिए लोगों ने सत्ता की न्यायिक व्यवस्था से उम्मीदें बांधे रखीं। प्रशासन पर भरोसा किया। लेकिन जब प्रशासन और न्यायपालिका से उम्मीदें लगातार कम होती चली गई तो अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले की जांच और न्याय के लिए स्वतंत्र समितियां बनने लगी। इधर हाल के दौर में तो लगभग ऐसी हर घटना के बाद स्वतंत्र समितियों की जांच होती है। कारण स्पष्ट है कि ऐसी घटनाओं में प्रशासन की संलिप्तता आम होती जा रही है। न्यायपालिका की भूमिका न्यायिक दायरे से बाहर निकलती प्रतीत होती है।साम्प्रदायिक हमलों के संदर्भ में गुजरात के मुसलमान और उड़ीसा के ईसाइयों में एक जैसी स्थिति है। गुजरात में हिन्दुत्ववादियों ने मुसलमानों के खिलाफ अपनी प्रयोगशाला बनाई तो उडीसा में ईसाइयों के खिलाफ यह प्रयोगशाला बनी हुई है। 22 जनवरी 1999 को ग्राहम स्टुअर्स और उनके बच्चों को जिदा जलाया गया। देश में सर्वाधिक आदिवासी आबादी वाले इस राज्य में ईसाई बने आदिवासियों के साथ जिस नृशंसता से साम्प्रदायिक गुंडे पेश आए हैं वह भी कम दिल दहला देने वाला नहीं है। मंजूक्ता कांदी और ऐसी दर्जनों महिलाएं मिल जाएंगी जिनके जबरन बाल काटे गए और उन्हें ईसाई के बदले हिन्दू धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया गया। यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। 24 दिसंबर 2007 से लगातार कई दिनों तक कंधमाल में ईसाइयों पर न तो हमलों को रोका गया और न ही अब तक पीडितों को न्याय मिल सका है। यह एक स्थिति बनी हुई है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले की तैयारी की जानकारी सरकार को दी जाती है लेकिन हमले रूक नहीं पाते हैं। हमले इस तरह से होते हैं जैसे लगता है कि उसे सरकारी मशीनरी का समर्थन हासिल है। इसीलिए हमले जल्दी खत्म नहीं होते हैं। कंधमाल में यही हुआ था। आर्श्चजनक है कि इतने महीनों के बाद भी पीडितों के पास उनके लिए जरूरी सामान अब तक नहीं पहुंच पाया है। न्यायाधीश कोलसे पाटिल ने ट्रिब्यूनल की तरफ से बताया कि गिरजा घर, हॉस्टल और अस्पताल जैसे बर्बाद किए गए थे, वे अब भी वैसे ही हैं। सैकड़ों के पास मकान नहीं है। वे कैंपों में रह रहे हैं या फिर अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले रखी है। उनका मानना है कि यदि पन्द्रह दिनों के अंदर यहां कोई सहायता नहीं पहुंची तो मानसून के दौरान कुछ भी पहुंचाना संभव नहीं होगा। कंधमाल में प्रशासन खुद यह मान रहा है कि बाराखामा में ही केवल दो सौ मकान बनाए जाने की जरूरत है। और सबसे पहले उसने छतों के लिए एस्बेस्ट्स की खरीदकारी की प्रक्रिया शुरू की है।प्रशासन और सरकार द्वारा हमलों के बाद पीडितों के पक्ष में मदद का फैसला तो राजनीतिक होता है। लेकिन न्यायालय ने पीडितों को मदद पहुंचाने से ईसाई संगठनों को क्यों रोका? पहले 11 जनवरी 2008 को कंधमाल के कलक्टर ने ईसाई संगठनों को पीडितों की मदद करने से रोका। कलक्टर के इस आदेश के खिलाफ जब कटक स्थित उच्च न्यायालय में गुहार लगायी गई तो वहां से भी कहा गया कि कलक्टर ने ठीक किया है। बाद में यह मामला दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस पर घटना के लगभग तीन महीने के बाद सुनवाई हो सकी और कलक्टर के आदेश को उचित नहीं माना गया। ईसाइयों के संगठनों को ईसाइयों के बीच ही मदद से नहीं रोका गया बल्कि जब उड़ीसा में चक्रवात आया था तब भी ईसाई संगठनों को मदद करने से रोका गया। कहा गया कि वे सहायता की आड़ में धर्म परिवर्तन कराते हैं। लेकिन ये बात हिन्दुत्ववादी संगठनों पर लागू नहीं होती है। एक पहलू न्यायाधीश कोलसे बताते हैं। उडीसा में ये जो समस्या है वह केवल धर्म से नहीं जुड़ी है। यह र्आिथक क्रियाकलापों से ज्यादा जुड़ी है। जो समुदाय संसाधनों और सम्पदा के मामले में अमीर हंै उसका तरह-तरह से दोहन किया जाता है। हर छह महीने और साल भर में दंगे या हमले की वजह यहां आदिवासियों के पास अपार प्राकृतिक संपदा का होना है। दूसरे पहलू को तिस्ता बताती हैं। इस ट्रिब्यूनल के सामने कई महिलाएं पेश हुई। उनके अनुसार उडीसा में 1970 से पहले वे पूरी तरह से आजाद थी। अपनी परंपराएं थी। अपनी संस्कृति थी और उसमें भरपूर आजादी का अहसास था। लेकिन र्धािमक, राजनीतिक और उघोग धंधों में लगी ताकतों ने उनकी खुशियों को धीरे-धीरे खत्म कर दिया। तीसरा पहलू यह है कि इस इलाके में मिलजुल कर रहने और शांति बनाए रखने की क्षमता है। 1994 में विभिा आदिवासी जातियों की महिलाओं के नेतृत्व में ये देखा भी गया। लेकिन सरकार और उसकी मशीनरी अब इसमें जरा भी ध्यान देने को तैयार नहीं। हिन्दुत्ववादियों की संस्कृति को बढ़ने का पूरा मौका दिया जाता है। अब सवाल है कि हमलों के खिलाफ न्याय पाने के लिए अल्पसंख्यक क्या करें? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्थाओं को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। उड़ीसा में हुए हमले की रिपोर्ट तैयार की गई लेकिन राज्य और केन्द्र में बंटी सरकारों ने कुछ नहीं किया। अपने समाज में कई स्तरों पर अंर्तिवरोधी और विरोधाभासी स्थिति देखी जाती है। जैसे धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने वाले हिन्दुत्व की दो छाया तैयार कर लेते हैं। एक को कर बता देते हंै और दूसरे को नरम। लेकिन जब सवर्णवाद पर बात होती है तो उसमें नरम और कर दो छाया नहीं दिखती हंै। इसी तरह वामपंथियों और समाजवादियों से पूछें कि उनकी सक्रियता वाले राज्यों में जातिवाद की क्या भूमिका है तो वे अपने राज्यों को बिल्कुल भिा बताते हैं। प. बंगाल के बारे में वामपंथी कहते हंै तो उड़ीसा के बारे में रवि राय जैसे समाजवादी भी यही कहते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि वहां जातिवाद पर जब चोट की जाती है तो साम्प्रदायिकता का घाव निकल आता है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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