Monday, June 16, 2008

पाखंड से उबरें विकसित देश

वंदना शिवा
पर्यावरणविद् एवं सामाजिक कार्यकर्ता
ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा अभी भी आम लोगों के बीच अपनी जगह नहीं बना पाया है। इसे लेकर आम लोगों में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मंचों से सचमुच कुछ करने की जरूरत है। अभी तक पर्यावरण चिंतन के लिए जो भी बैठकें हुई हैं उनमें ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम की भयावहता पर ही अधिक चर्चा होती है। सुधार के प्रयास कम किए जाते हैं। क्योटो एग्रीमेंट जैसे प्रयास विकसित देशों और विश्व बैंक का ढ़कोसला मात्र बन कर रह गई है। इस समझौते पर दस्तखत करने वाले देशों के लिए एक खास समय सीमा में प्रदूषण के स्तर को कम करने की शर्त है लेकिन विकसित देशों ने कार्बन ट्रेडिंग के नाम पर इससे बचने का रास्ता निकाल लिया है। विकसित देश कार्बन ट्रेडिंग के नाम पर विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ावा देने में जुटे हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश पेट्रोलियम और शेल जैसी कंपनियां भारत में आकर जैट्रोफा के बायोडीजल प्लांट लगा रही हैं। मैं ग्लोबल वार्मिग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार विकसित देशों की दोमुंही नीतियों को ही मानती हूं। देखने वाली बात है कि वे अपने हित में विकासशील व गरीब देशों में ऑटो व थर्मल प्लांट लगाने तथा अन्य ऐसे कई उघोगों को बढ़ावा देने में जुटे रहते है। इनसे काफी प्रदूषण फैलता है। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी ऐसी कई योजनाओं के लिए पैसे उपलब्ध करा रही हैं जिनसे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा है।
मौसम में आ रहे बदलावों की जानकारी, प्रभाव और उससे निबटने को लेकर किसी भी तरह के रिपोर्ट को हमें गंभीरता से लेने की आदत बनानी चाहिए। रिपोर्टों पर चाहे वे संयुक्त राष्ट्र की हो या किसी अन्य संस्था की, गहन विचार विमर्श होने चाहिए। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हमारी जानकारियां तो विगत दिनों में काफी बढ़ी है, फिर भी अपेक्षित जागरूकता न तो शासकीय स्तर पर बना है और न ही आम लोगों में सचेतता आर्ई है। देशों के शीर्ष राजनीतिक स्तर पर तो इसे लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति सी बनी रहती है। होना तो यह चाहिए कि वहां से पर्यावरण को बचाने के लिए आदर्श माहौल की व्यवस्था के सूत्न निकले। अभी तो देखने में यही आता है कि राजनीतिक नेतृत्व ही सुधार प्रक्रिया में रोड़े अटकाने में जुटा है। अमेरिका को ही लें, बुश प्रशासन क्योटो संधि पर हस्ताक्षर करने से बचता है। उनकी दलील है कि इससे अमेरिका के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। जाहिर है बुश के जाने के बाद नीतियों में परिवर्तन हो सकता है, इसलिए हमें आशान्वित रहना चाहिए। आखिर बुश की ही पार्टी के अर्नाल्ड श्वार्जनेगर जो अभी कैलीफोर्निया के गवर्नर हैं, ने अपने स्टेट में पर्यावरण रक्षण की शानदार नीतियां बनाई हैं, जिनसे अर्थव्यवस्था को भी कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा।
दरअसल मौसम में आ रहा बदलाव आज की सबसे बड़ी समस्या है। निर्विवाद तौर पर धरती का तापमान बढ़ रहा है। मौसम तंत्र के तीव्र गति से गड़बड़ाने के अंदेशे हैं। रिपोर्ट बताती है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो अगली सदी तक तापमान में औसतन 3 दशमलव 5 डिग्री सेल्शियस की बढा़ेत्तरी हो सकती है। इससे ग्लेशियर पिघलेंगे और समुद्र तटीय शहरों के अस्तित्व पर खतरा हो जाएगा। प्रशांत महासागर के तो कई द्वीप पूरी तरह से डूब जाएंगे। फिर पेयजल में करीब 10 प्रतिशत की कमी हो जाएगी और 20 से 30 फीसदी पशु–पौधों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएगी। खाघ उत्पादन में भी भारी कमी आएगी और बाढ़, तूफान, सूखे तथा बीमारियों में वृद्धि होगी। कुल मिला कर पूरा तंत्र चौपट हो जाएगा और हम क्रमश: विलुप्तता की आ॓र बढ़ेंगे। खैर इन आशंकाओं को हकीकत बनने से रोकने की जुगत हमारे हाथों में है बशर्ते कि खतरे को हम शिद्दत से समझें। विकसित, विकासशील व पिछड़े देशों को एक दूसरे पर दोषारोपण करने से बचते हुए मिलजुल कर गंभीर प्रयास करना होगा। जाहिर है जहां एनर्जी कंजम्शन अधिक हैं प्रयास भी उन्हें ही अधिक करने होंगे। भारत हो भी चाहिए कि वो आपने कार्बन उत्सर्जन में हर हालत में 2050 तक 4 प्रतिशत की कटौती लाए। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही आज सबसे बड़ी चुनौती है। क्योटो प्रोटॉकाल से लेकर पर्यावरण को लेकर जितने भी सम्मेलन हुए हैं सब में यही बात उभर सामने आई है कि ऊर्जा की खपत पर लगाम लगाया जाए और ऐसे तकनीकों का विकास हो जो ऊर्जा संरक्षण पर जोर देता हो। इसके लिए कम बिजली खपत करने वाले लाइटिंग उपकरण और कम ईंधन वाली गाड़ियों का निर्माण होना चाहिए। कंप्यूटर, एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर जैसे 20 सर्वाधिक बिजली खाने वाले उपकरणों की जगह कम खपत वाले विकल्पों को अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाए जाएं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस का विकल्प हाइड्रोजन को ईंधन स्रोत के रूप में बढ़ावा देना हो सकता है। हमें फॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल पर तुरंत रोक लगाकर ऊर्जा के दूसरे विकल्पों पर गौर करना होगा। निसंदेह इस मुद्दे पर जरा सी भी ढ़िलसिलाई अपनी तबाही को निमंत्रण देने जैसा ही साबित होगा। भारत जैसे जैव विविधता वाले देश को तो ग्लोबल वार्मिंग से काफी खतरे हैं। गंगा, हिमालय, सुंदरवन, तटीय शहर कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अगर हम नहीं चेते तो दिन प्रतिदिन विनाश की आ॓र ही बढ़ेंगे।प्रस्तुति: प्रेम चंद यादव

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