Monday, June 30, 2008

समाज : भ्रष्टाचार और भारत

विभांशु दिव्याल
एक अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र एजेंसी है ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल। यह एजेंसी अपने सर्वेक्षण के आधार पर प्रतिवर्ष समूचे विश्व का भ्रष्टाचार सूचकांक जारी करती है। इस बार इसने अभ्रष्ट, भ्रष्ट, अतिभ्रष्ट 180 देशों की सूची जारी की है। इनमें यूरोप, अमेरिका, एशिया, अफ्रीका सभी महाद्वीपों के देश शामिल हैं। महाद्वीपों के हिसाब से यूरोप सबसे कम भ्रष्ट है तो एशिया, अफ्रीका सबसे अधिक भ्रष्ट। अधिक समृद्ध देश कम भ्रष्ट हैं तो समृद्धि विहीन देश सर्वाधिक भ्रष्ट। यानी गरीबी और भ्रष्टाचार प्रतिबद्ध पति-पत्नी की तरह दिखाई देते हैं जो एक-दूसरे को जिंदा रखने के लिए एक-दूसरे को कस कर पकड़े रहते हैं। डेनमार्क, फिनलैंड, न्यूजीलैंड, सिंगापुर और स्वीडन जैसे देश सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लगभग भ्रष्टाचार रहित देशों में हैं तो अफ्रीका का सोमालिया और एशिया का म्यांमार सबसे निचली पायदान पर आकर भ्रष्टतम देशों में से हंै।इस सूची में भारत और चीन जैसी एशिया की महाशक्तियां लगभग मध्य में हैं- क्रमश: 74वें और 71वें स्थान पर। पिछले वर्ष दोनों 72वें स्थान पर थे। यानी चीन ने एक स्थान ऊपर चढ़कर सुधार दर्ज किया है तो भारत ने दो स्थान नीचे उतर कर गिरावट दर्ज की है। भारत के अन्य पड़ोसियों की स्थिति भी किसी भी तरह संतोषजनक नहीं है। केवल भूटान अपवाद है जो 41वें स्थान पर है, अन्यथा मालदीव 90वें, श्रीलंका 96वें, नेपाल 135वें स्थान पर है और पाकिस्तान इन सबसे आगे जाकर 140वें स्थान पर हैं। पाकिस्तान को पछाड़ने वाले देशों में रूस भी है जो 145वें स्थान पर है जबकि उसका शीतयुद्ध कालीन प्रबल प्रतिद्वंद्वी अमेरिका 20वें स्तान पर है।भ्रष्टाचार मापने के सामान्य पैमानों में राजनेताओं, सैन्य और नागर अधिकारियों, प्रशासनिक अभिकरणों, सार्वजनिक विभागों, जनसंस्थानों, निकायों और निजी प्रतिष्ठानों के कार्य-व्यवहार के तौर तरीके तथा जनता के प्रति उनके दायित्व के निर्वाह को नियंत्रित करने वाले कारक आदि आते हैं। जाहिर है कि भ्रष्टाचार सार्वजनिक या सामान्य व्यक्ति के हित और अधिकार की कीमत पर निजी हित, स्वार्थ या लिप्सा की पूर्ति के लिए की गई कुचेष्टा है जो समूचे एशिया और अफ्रीका में गहराई तक परिव्याप्त है। भ्रष्टाचार सर्वाधिक उन देशों में है जहां सार्वजनिक हित स्पष्टत: परिभाषित नहीं है या उन्हें सत्ता समूहों के हितों का पर्याय मान लिया गया है। यानी जहां नियामक शक्तियां सत्ता समूहों की सनकों से संचालित होती हैं। दरअसल, ऐसी व्यवस्थाओं में सत्ता और संपत्ति पर कब्जे की लड़ाई ही व्यक्ति के मूल व्यवहार को नियंत्रित करती है। और क्योंकि इनके पास सार्वस्वीकृत तथा व्यक्ति के अधिकार और कर्त्तव्यों को निर्धारित करने वाले सामाजिक तौर पर स्थापित मूल्य नहीं होते इसलिए व्यक्ति या हित समूह किसी भी नियम-कानून को धता बताने या फिर उसका मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते।अब अगर देशों के भ्रष्टाचार सूचकांक का सरसरी तौर पर विश्लेषण करें तो इस स्थिति को पैदा करने वाले या बनाए रखने वाले कारकों को देखा-समझा जा सकता है। इनमें से कुछ हैं राजनीतिक तौर पर वैचारिक अस्पष्टता या वैचारिक संक्रमण, धर्म का आधुनिक राज्य व्यवस्था में दखल, कबीलाई सांस्कृतिक समूहों के आपसी टकराव, पारंपरिक व्यवस्थाओं की आधुनिक सांस्कृतिक-आर्थिक परिवर्तनों से तालमेल बिठाने में असफलता आदि और सर्वोपरि दुनिया की कथित आर्थिक महाशक्तियों द्वारा अपने हित में ऐसी सभी परिस्थितियों का दोहन। दुनिया के एक बड़े हिस्से की गरीबी और उससे सीधा जुड़ा भ्रष्टाचार आर्थिक महाशक्तियों के क्रूर सैन्य और आर्थिक शोषण की पैदाइश है।सोवियत संघ वाला रूस एक राज शैली से दूसरी कथित पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त शैली में संक्रमित होने के दंश से अभी तक नहीं उबर पाया है। वहां अचानक लागू हुए खुलेपन ने जहां एक आ॓र व्यवस्थाबद्ध सामान्य जन को हतप्रभ किया तो दूसरी आ॓र दबे-ढके हित समूहों को खुलकर खेलने का औचक-अवसर उपलब्ध कर दिया। आज ये हित समूह इतने धृष्ट हो गये हैं कि इन पर लगाम लगाने में सरकारी तंत्र के हाथ पैर फूल रहे हैं। वैचारिक संक्रमण के कारण इन पर लगाम लगाए रखने वाला जन प्रतिरोध ठंडा पड़ गया है। इसी तरह पाकिस्तान, ईरान जैसे देशों में अत्यधिक भ्रष्टाचार इस्लामी और इस्लाम प्रेरित सैनिक या असैनिक सत्ताओं में आधुनिक जीवन की मांगों के प्रति एक स्पष्ट वैचारिक अवधारणा के न होने के कारण हैं। यहां भी विभिन्न हित समूह अपने-अपने हितों के अनुसार राज्य शक्ति की व्याख्या करते हैं और उसी के अनुसार अपने संघर्ष की दिशा तय करते हैं जो अंतत: भ्रष्टाचार को उनके जीवन का हिस्सा बना देता है और भ्रष्टाचार नियंत्रक शक्ति का स्खलन कर देता है।भारत के संदर्भ में रिपोर्ट में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा की गई है जो संविधान के मूलभूत ढांचे को बनाये रखने तथा इस ढांचे के विरूद्ध कार्य करने वाली किसी भी भ्रष्टाचार पोषक ताकत को दंडित करने का काम बखूबी कर रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की पैठ भ्रष्टाचार नियंत्रण में बहुत सीमित है और दूसरी आ॓र लोकतांत्रिक व्यवस्था दिनोंदिन भ्रष्ट स्वार्थ समूहों की गिरफ्त में आ रही है। भारत में भ्रष्टाचार अगर पाकिस्तान से कम प्रतीत होता है तो उसका एक कारण यह है कि भारत की साठ प्रतिशत जनता को भ्रष्टाचार में शामिल होने का अवसर ही उपलब्ध नहीं है। यह जनता केवल भ्रष्टाचार की शिकार है। सूरत यही रही तो आगामी वर्षों में गिरावट और तेज होगी। भारत डेनमार्क के करीब नहीं, पाकिस्तान के करीब किसकेगा।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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