Friday, June 13, 2008

जारी है शहर का संघर्ष

अभय कुमार दुबे
आज़ादी के बाद से ही भारतीय समाज को अपने जिस शहर की तलाश थी, उसका एक अंश अब उसे मिल गया है। समाज के केंद्र पर नजर डालने से यह बात और अधिक साफ हो सकती है। इससे पहले ही नहीं बल्कि हमेशा से भारत गांवों का देश था और शहर के साथ उसका संवाद ज्यादा से ज्यादा दोयम दर्जे पर चला करता था। अपेक्षाकृत स्वायत्त और एक-दूसरे से कटी हुई जातिगत इकाइयों में बंटे ग्रामीण समाज का भारतीय शहरों से केवल कामकाजी रिश्ता ही हो सकता था। इसी सामाजिक हकीकत के कारण हमारी आधुनिकता के गांधी और अन्य वाहकों ने नए गांव की स्थापना और विकास को राष्ट्र-निर्माण की परियोजना का मुख्य कार्यभार निर्धारित किया। जाहिर है कि नया गांव बनाने के लिए जाति और धर्म की संस्थागत अभिव्यक्तियों का आधुनिकीकरण बहुत जरूरी था। यह भी आवश्यक था कि जाति-धर्म के साथ-साथ संयुक्त परिवार भी छोटे और एकक परिवारों में टूट जाए। आज उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की पीढ़ी के राष्ट्र-निर्माता अगर होते तो उन्हें दिखाई देता कि वे जैसा चाहते थे वैसा होने का सिलसिला शुरू हो चुका है, लेकिन समाज का यह परिवर्तन गांव नहीं बल्कि शहर की जमीन पर घटित हो रहा है। बजाय इसके कि गांव हमारे शहरों की औपनिवेशिक आधुनिकता को बदलते, आजादी के बाद परवान चढ़ी हमारी अपनी औघोगिक आधुनिकता ने धीरे-धीरे ही सही पर निश्चित रूप से राष्ट्रीय और सामाजिक कल्पनाशीलता के केंद्र से गांव को प्रतिस्थापित करके उसकी जगह शहर को बिठा दिया। बजाय इसके कि गांव शहर का स्वप्न बनता, शहर ने गांव के सपने की जगह ले ली। नया गांव उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन इस प्रक्रिया में नया शहर उपलब्ध होने लगा जिसकी सार्वदेशिकता के आग्रह जाति, धर्म और परिवार को पहले जैसा नहीं रहने दे रहे हैं। जिस तरह गांव कभी शहर को अपने ढंग से छू कर नागरिकता के आधुनिक रूपों को अपने मुकाबले नाकाफी साबित कर देता था, उसी तरह शहर अब न केवल गांव को अपनी आ॓र खींच रहे हैं बल्कि खुद गांव की तरफ हाथ बढ़ाते हुए दिखने लगे हैं।
कहना न होगा कि शहर ने इस मुकाम तक आने के लिए बहुत संघर्ष भी किया है। उसका यह संक्रमण आसान नहीं रहा है। आजादी के बाद के पहले तीन दशकों में तो ऐसा लग रहा था कि भारतीय शहर गांवों को एक अधिक बेरहम और कंक्रीट का संस्करण बन कर रह जाएंगे। चूंकि शहर औघोगिक आधुनिकता की दावेदारियों के केंद्र थे, इसलिए गांव से रोजगार या शिक्षा की तलाश में आए निचली और अछूत जातियों के पुत्नों ने यहां की पक्की सड़कें नापते हुए कोशिश की कि उत्पीड़नकारी जातिगत अनुभव से उनका पीछा छूट जाए। इस प्रयास के पहले दौर के नतीजे बहुत तकलीफदेह निकले। बाबूराव बागुल के आम्बेडकरवादी दलित नायक ने जब बंबई की जमीन पर राष्ट्रीय नागरिकता का दावा करते हुए उसकी आड़ में अपनी जाति छिपाने की कोशिश की तो उसे बेभाव की खानी पड़ी। ऐसा लगा कि मनुपुत्नों ने शहरों में भी अपनी चौकियां गांव जैसी मजबूती से ही स्थापित कर रखी हैं। इसी तरह कम से कम अस्सी के दशक की शुरूआत तक शहरी आबादी और बसावट धार्मिक आधार पर विकसित बस्तियों में ही अपनी सामुदायिकता प्राप्त करती रही। चाहे अहमदाबाद का अपेक्षाकृत देशी स्थापत्य हो, या कलकत्ता का औपनिवेशिक विन्यास हो, हर जगह मुसलमानों के घेटो अपने अंधेरों में अलग रहे, और उनकी निगाहों ने हिंदू बस्तियों और मुहल्लों को राष्ट्रीय विकास के ज्यादा बड़े हिस्सों का उपभोग करते देखा। इन दोनों मुख्तलिफ सामाजिक वजूदों एक लगभग तयशुदा बारंबारता के साथ आपस में टकरा कर सांप्रदायिकता की राजनीति को खूब पानी दिया। परिवार की संस्था ने शहरी प्रभावों से बेअसर रहने के लिए एक अनूठा हथकंडा अपनाया। वह सिर्फ दिखावे के लिए छोटी-छोटी न्यूक्लियर इकाइयों में टूटा, और बड़ी चालाकी से संयुक्त परिवार के सरअंजाम ने एक विस्तारित परिवार की शक्ल ले ली। नातेदारियों की कौटुम्बिक व्यवस्था की जकड़ कायम रही।
यह पूरा दौर शहर पर गांव की विकृतियों के बोलबाले का दौर था। इस अफसोसनाक हालात में बदलाव की शुरूआत तब हुई जब नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण की आहटें सुनाई दीं और वैश्विक पूंजी के दबाव में ग्रामीण समाज की शहरी अभिव्यक्तियों को भारतीय औघोगिक आधुनिकता के नए चरण का साक्षात्कार करने के लिए मजबूर होना पडा़। औघोगिक विकास में आए जबरदस्त उछाल ने शहरों को पहली बार वास्तव में नए अवसरों का केंद्र बनाया और जीवन-स्थितियों के लिहाज से गांव और शहर के बीच बहुत बड़ा फर्क लगने लगा। औघोगिक विकास को अपना भौगोलिक प्रसार करने के लिए गांवों की जमीनों की जरूरत हुई। कांट्रेक्ट फार्मिंग, लीज़ फार्मिंग से लेकर एसईज़ेड तक तरह-तरह के नए रूपों के तहत औघोगिक प्रबंधन ने हाथ बढ़ा कर गांव को छूना प्रारंभ कर दिया। ग्रामीण समाज का खेती की जमीन से पारंपरिक रिश्ता टूटने लगा।
शहर में आए इस परिवर्तन से जाति, धर्म और परिवार की संरचनाएं अछूती नहीं रह सकती थीं। आम्बेडकर के मूक नायक ने महसूस किया कि अब उसके लिए अपनी जाति छिपाना जरूरी नहीं है, क्योंकि जातिसूचकता के कारण उसे उस तरह के नुकसान नहीं हैं जिनका अंदेशा उसे गांव में या गांव से प्रभावित शहर में दिखाई महसूस होता था। यही वह दौर था जब हिंदी फिल्मों में पहली बार दलित जातिसूचक नामों के नायक की उपस्थिति दर्ज हुई। यह नायक बागुल के नायक की तरह नागरिकता की तलाश में शहर नहीं आया था, बल्कि वह नए बनते हुए शहर में नागरिकता का स्वाभाविक धारक था। यही वह समय था जब अहमदाबाद जैसे शहर के मुसलमान घेटो ने मुद्दतों बाद अपनी चारदीवारियों के पार झांकने की कोशिश की। यही वह समय था जब भारतीय परिवार ने पहली बार सच्चे न्यूक्लियर परिवार की आहटें सुनी, क्योंकि विस्तारित परिवार की परंपरा का वाहक बनी हुई स्त्नी भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने के लिए पहले के मुकाबले कहीं बड़ी मात्ना में बाजार की तरफ निकल गई थी। मोबाइल क्रांति, ऑटोमोबाइल क्रांति और मनोरंजन क्रांति के संचारी पहलुओं ने परिवार के बाहर इतने प्राइवेट स्पेस बना दिए कि रिश्तों की बुनियादी संरचनाओं को भी परिवर्तन के दौर से गुजरने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अभी भारत को उसके हिस्से के शहर का एक हिस्सा ही मिला है। अभी शहर का बहुत बड़ा, तकरीबन दो तिहाई हिस्सा उपलब्ध होना बाकी है। आज के शहर में परिवर्तन है तो उसके खिलाफ ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता और बहुसंख्यकवादी राजनीति के विकृत रूपों की हिंसक प्रतिक्रिया भी बार-बार अपना सिर उठती है। सामुदायिकता के परंपरागत रूपों को ऐसे समुदाय से प्रतिस्थापित करने का कार्यभार सम्पूर्ण नहीं हुआ है जो आधुनिक और सेकुलर होने के साथ-साथ जेंडर लोकतंत्न की अभिव्यक्तियों से सम्पन्न होंगे। इस सामुदायिकता की उपलब्धि के लिए शहर का संघर्ष अभी जारी है। वह नए चरण में पहुंचने की तैयारी कर रहा है।
लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम में सम्पादक हैं।
www.rashtriyasahara.com से sabhar

No comments: