Friday, June 13, 2008

लोकतांत्रीकरण का पूरक है शहरीकरण

इम्तियाज अहमद
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से शहर और संस्कृति का गहरा संबंध रहा है। ऐसी अवधारणा रही है की शहर की संस्कृति उच्च स्तर की होती है और गांव की संस्कृति सामान्य होती है। यदि इस दृष्टिकोण से देखें तो निश्चय ही शहर का संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसी कारण शहर को संस्कृति का स्रोत माना जाता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति के विकास में गांवों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन दोनों सभ्यताओं ने गांवों के प्रभाव को समाहित कर उनको नया रूप दिया जो धीरे–धीरे वापस गांव पहुंचा। आधुनिक दौर में शहरीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने के कारण आज गांव की संस्कृति आसानी से शहर में पहुंच पाई है और उसी के साथ शहरों का प्रभाव गांवों पर भी उसी तेजी से बढ़ा है। आर्थिक विकास का प्रक्रिया और उदारीकरण के बाद रफ्तार और ज्यादा तेज हुई है जिसका नतीजा यह हुआ है कि शहरों की वस्तुएं और फैशन भी तेजी से गांवों तक पहुंच रही है। आज गांव के सामान्य युवा और युवतियां शहर से इतने प्रभावित हैं कि लेकमे जैसी सौन्दर्य के साधन बनाने वाली कंपनियां गांवों में अपना बाजार तलाश रही है। शहरीकरण के कुछ दुष्प्रभाव भी नजर आने लगे हैं। संयुक्त परिवार की व्यवस्था का पतन हुआ है। इसके कारण सामाजिक सुरक्षा का आधार टूटा है। इसका सबसे गहरा प्रभाव वृद्धावस्था के लोगों पर पड़ा है। एकाकी परिवार के कारण उन्हें सामाजिक असुरक्षा और अकेलेपन का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि गांव में कत्ल या डकैती की वारदातें नहीं होती है। लेकिन शहर में अपराधीकरण की प्रक्रिया व्यापक होने के कारण प्रौढ़ अवस्था के लोगों को खास तौर से निशाना बनना पड़ता हैं शहरीकरण की प्रक्रिया प्रबल होने के कारण सामाजिक रिश्तों में घोर परिवर्तन आया है। पारंपरिक सामाज में व्यक्ति को सामाजिक रिश्तों से सहारा ही नहीं बल्कि प्रतिकूल परिस्थितयों का सामना करने में मदद भी मिलती थी। शहरीकरण के कारण रिश्तों में परिवर्तन के कारण आज व्यक्ति सामाजिक सहारा घर में नहीं ढूंढ पाता है। ऐसे में व्यक्ति दोस्तों का सहारा तलाश करता है या फिर संस्थानों के पास जाता है। जिसका कि सामाज में अभाव है। कुल मिला के नतीजा यह हुआ है की शहर आकर्षण का केन्द्र तो बना है लेकिन अकेलेपन के स्रोत के रूप में भी सामने आया है। शहरीकरण के संस्कृति पर प्रभाव को समझने के लिए दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पारंपरिक रूप से लोग गांव से छोटे शहरों या कस्बों में पलायन करते थे और बाद में बड़े शहरों की आ॓र रूख किया जाता था। लेकिन उदारीकरण के कारण जिस तरह से जीवन साधन कमजोर हुए हैं, लोगों को सीधे बड़े शहरों की आ॓र पलायन करना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज बड़े शहरों में जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा पहचानहीन हो गया है। इसी कारण यदि एक तरफ शहरी जिन्दगी में अराजकता बढ़ी है तो दूसरी आ॓र धार्मिकता प्रबल हुई है। अपनी पहचानहीनता और अकेलेपन पर काबू पाने के लिए आदमी धार्मिक संस्थाओं से अपने को जोड़ लेता है।
दूसरी आ॓र शहर की संस्कृति का गांव और छोटे–छोटे कस्बों में पहुंचने के कारण गांव और कस्बे के लोग भी उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। जहां पहले शहरियों का दबदबा था। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण क्रिकेट की दुनिया में मिलता है। पहले मुम्बई, दिल्ली या दूसरे शहरों से ही क्रिकेट की दुनिया में लोग आते थे। यह परिस्थिति बदल गयी है। इसमें कितनी भूमिका राजनीति की है और कितनी शहरीकरण की, कहना संभव नहीं है। लेकिन यह इस बात का प्रतीक जरूर है कि शहरों की संस्कृति सार्वजनिक हो रही है। लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया को इससे मदद ही मिलेगी।
प्रस्तुति :कुमार विजय
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार

No comments: