Thursday, August 28, 2008

बिहार बेहाल : नेता-मंत्री फिर मालामाल

बिहार के १३ जिलों के ३० लाख से अधिक लोग कोशी की विभीषिका झेल रहे हैं । सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया, पूर्णिया, कटिहार आदि जिले पूरी तरह तबाह हो गए हैं। १० दिनों से लोग एक मुर्दा, भ्रष्ट, पतित और इंसानी उम्मीदों, बेबसियों, हाहाकारों-चीत्कारों से खेलने वाली , उनका मखौल उडाने वाली सरकार की लफ्फाजियां, उसकी नंगई देख रहे हैं। एक भयानक किस्म का ज्वालामुखी आज हर बिहारी के अन्दर उबल रहा है। बिहार ने अबतक भ्रष्टतम मुख्यमंत्रियों को झेला है पर यह मुख्यमंत्री तो सबसे अधिक बेशर्म साबित हुआ जिसने लाखों लोगों को मौत के हवाले कर दिया और ख़ुद राजधानी में बैठकर रंगरेलियां मनाता रहा, डूबते लोगों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की, भूख से बच्चे मरते रहे, लाशें सड़ती रहीं, पर इस मुख्यमंत्री का विलास नहीं छूटा। हद तो यह है कि उधर लोग मौत का आतंक झेल रहे हैं , स्वजनों को अपनी आंखों के सामने एक-एककर मरते देख रहे हैं, और यह मुख्यमंत्री, यह सरकार झूठ पर झूठ बोले जा रही है कि सेना बचाव कर रही है, कि लोग युद्धस्तर पर निकाले जा रहे हैं, कि इतने हेलीकॉप्टर खाने के पैकेट गिरा रहे हैं , कि किसी को भूख से मरने नहीं दिया जाएगा। या खुदा.........कितना झूठ.....कितना फरेब....और वह भी किससे? उसी जनता से जिसने एक राई को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया।
मुख्यमंत्री का सारा ध्यान केन्द्र से मिलने वाले उस मुंहमांगे पैसे की तरफ़ था जिससे उनकी और उनके गिद्ध मंडली की सात पीढियाँ निहाल हो जाने वाली थीं। खुदा के मेहर से केन्द्र ने एक हज़ार करोड़ की मुंहमांगी रकम दे दी, जितना माँगा उससे ज़्यादा अनाज दे दिया। शायद अब कोई बाढ़ पीड़ित भूख से नहीं मरेगा, कोई डूबेगा नहीं, किसी को सुरक्षित स्थान (जो अब बिहार में बचा नहीं) तक पहुँचने के लिए जिला प्रशासन को दस हज़ार की रिश्वत नहीं देनी होगी, इतने पैसों से तो बिहार की गरीबी को कई बार ख़त्म किया जा सकेगा, सभी बाढ़ पीडितों के पक्के मकान बन जायेंगे, हर घर में ३-४ महीनों तक खाने लायक अनाज आ जाएगा, बिहार से किसी को पलायन कर दूसरे राज्यों के कृतघ्नों से दुत्कार और मार नहीं सहनी होगी , सबको रोज़गार मिल जाएगा, हर साल आने वाली बाढ़ से भी निजात मिल सकेगी।
........क्या आज बिहार या देश में कोई आदमी अपने कलेजे पर हाथ रखकर कह सकेगा कि उपरोक्त अपेक्षाओं में से कोई एक भी पूरा होने वाला है? कि उपरोक्त अपेक्षाओं को पूरा कर लेने के लिए क्या पहले से ही कम पैसे बिहार को दिए गए हैं? क्या कोई बच्चा भी यह बताने में ज़रा भी वक़्त लेगा कि इन पैसों का क्या होने वाला है? ये ऐसे लोगों का दौर है जो सबकुछ डकार जाने के बाद भी रहनुमा बने रहते हैं। सबको हिस्सा मिलेगा, पत्रकार, चैनल कर्मी , सम्पादक, विधायक, सांसद, मुखिया, पार्षद, जिलाधीश, एसडीओ, बीडीओ , थाना प्रभारी सबको। जिसने सरकार से जितनी वफादारी निभाई होगी उसी हिसाब से उसकी बोली लगेगी। पेरल जाई जनता चुआओल जाई तेल....जय हिंद...जय बिहार...जय लालू...जय पासवान.....जय नीतीश......जय मनमोहन...

















सभी चित्र इंटरनेट से साभार।




Monday, August 25, 2008

ब्लॉगिंग की दुनिया के मिरासियो, नीरो की संतानों

यह तुम सबके लिए भी एक शोकगीत है मृतात्माओं। तुम जिन्होंने उस इकलौते वैकल्पिक माध्यम की भी हत्या कर दी जो शायद इस तेज़ी से बदलती और अमानवीय होती दुनिया में पूरी तरह गैरज़रूरी मान लिए गए लाखों-करोड़ों असहाय और उत्पीड़ित जनों की आवाज़ बन सकता था। दुनिया की तमाम सरकारों, तमाम पार्टियों, तमाम दृश्य-श्रव्य और शाब्दिक माध्यमों ने जिस प्रकार पूँजी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है वैसे समय में तुम्हारे लिए यही सही था कि तुम भी वक़्त आने पर जबड़े खोल कर दिखा दो कि तुम्हारे मुंह में भी भेड़िये के दांत हैं ,कि तुम भी इंसानी जज्बातों के कोई मामूली बहेलिये नहीं हो, कि बदले में थोड़ी सी जूठन तुम्हारी तरफ़ भी उछाल दिया जाए।
पूरा उत्तर बिहार कोशी के पेट में समा चुका है सुपौल,सहरसा,अररिया,मधेपुरा,कटिहार, किशनगंज,पूर्णिया,खगडिया,बेगूसराय जिलों का कहीं पचास तो कहीं शत प्रतिशत इलाका जलमग्न है। एक लाख से अधिक लोगों के डूबकर मरने की चर्चा हो रही है, पन्द्रह-बीस लाख लोग पूरी तरह तबाह हो गए हैं,लाखों लोग ऊंची जगहों पर विगत दस-बारह दिनों से भूखे-प्यासे बाट जोह रहे हैं कि अब तो कोई मदद के लिए उनकी तरफ़ बढेगा,पर हर नए दिन भूख, भय और निराशा उनमें से ज्यादातर को मौत के मुंह में पहुँचा रही है। जो भी जिंदा है, जहाँ है वही फंसा हुआ है चारों तरफ़ दस से बीस मीटर हिलकोरें मारते हुए पानी का महासमुद्र है,सड़ रही हजारों-हज़ार इंसानी लाशों का अम्बार है,भूख-प्यास से मरते हुए बच्चों, औरतों,बुजुर्गों एवं अन्य लोगों का चीत्कार-हाहाकार है, आर्तनाद है, पर कहीं कोई मीडिया नहीं है,कोई सरकार नहीं है,कोई प्रशासन नहीं है, कोई मददगार हाथ नहीं है। ख़बर है कि सुपौल जो बाढ़ में सबसे ज़्यादा तबाह हुआ है, जहाँ सबसे ज़्यादा लोग मरे हैं या मर रहे हैं वहां जिलाधिकारी और कुछ ठेकेदारों-पूंजीपतियों की तरफ़ से कुछ नावों और मोटर बोटों का इंतजाम किया गया है जो इन इलाकों में फंसे हुए जीवित लोगों को बाहर निकालने के एवज में पाँच से दस हज़ार की रकम ले रहे हैं और खूब कमाई कर रहे हैं।
लाशें सड़ रही हैं महामारी फ़ैल चुकी है, नीतीश सरकार पर मुर्दनी छाई है जैसे नीतीश को सांप सूंघ गया हो। सरकार कभी कहती है ये बाढ़ नेपाल के असहयोग का परिणाम है,कभी मुकर जाती है,कभी कहती है सेना बचाव-कार्य में लगा दी गयी है पर उसका आपदा-प्रबंधन विभाग ही इसका ज़ोरदार खंडन कर देता है,कभी कहती है बाढ़-प्रभावित लोग काफी हिंसक हो गए हैं और राहत पहुंचाने वाले प्रतिनिधियों की हत्या कर देने पर उतारू हैं इसलिए कोई सरकारी अमला आगे आने को तैयार नहीं। ये मुख्यमंत्री कहीं सन्निपात का रोगी तो नहीं? ये किस तरह की लफ्फाजी है, ये कैसा बकवास है? पूरा मीडिया-तंत्र जैसे लकवाग्रस्त हो गया है-पटना से लेकर दिल्ली तक। मैंने सुना है दिल्ली की मीडिया में भी बिहारी पत्रकारों की बहुतायत है, फ़िर क्या वजह है कि यहाँ के अखबारों, चैनलों में अबतक इतनी भयावह आपदा की कोई नोटिस नहीं ली गयी? क्या हो गया है इन बिहारी पत्रकारों को क्या ये सब इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि अपने ही स्वजनों, सम्बन्धियों,जिला-जवारियों का चीत्कार इन्हें सुनाई नहीं दे रहा। क्या ये सभी उसी हत्यारी हुकूमत की जारज संतानें बन गए हैं जो आज बिहार की गद्दी पर गाव-तकिया लगाकर विराजमान है और पूरा विपक्ष जो इस आस में चुपचाप है कि अच्छा है सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़क रहा है, या कि इस शर्मिन्दगी में दड़बों में घुस गया है कि हमने भी तो यही सब किया था जब हमारी सत्ता थी।
ख़बर यह भी आ रही है(अफवाह नहीं)कि कोशी के नेपाल वाले हिस्से में तटबंध का एक और बड़ा हिस्सा (मुझे जगह का नाम बताया गया था जो मैं याद नहीं रख सका)लगभग ध्वस्त हो चुका है, जिसकी मरम्मत का कोई प्रयास फिलहाल शुरू नहीं हुआ। इस ख़बर से इलाके में काफी दहशत फ़ैल गयी है और जिन छिटपुट इलाकों में अबतक पानी का कहर नहीं पहुँचा था अब वहां भी लोग मौत के खौफ में जी रहे हैं-जैसे फोरबिशगंज और सहरसा के जिला केन्द्रों के आसपास रहने वाले। कहा जा रहा है कि अगर यह तटबंध उस स्थान पर टूटा तो बिहार के कई जिलों से जीवन का नामोनिशान ही शायद मिट जाए।
खैर नीतीश बिल में छुपे हैं,लालू और उनकी पार्टी इंसानी लाशों के अन्तिम आंकडों के आने तक चुप रहने की नीति अपना रही है। पूरा प्रांतीय और राष्ट्रीय मीडिया जगत जनता के नहीं सरकार और विपक्ष के सुर में बोल रहा है-और मालपुए के इंतजार में है। मुझे ब्लॉगिंग की दुनिया के तथाकथित जनपक्षधरों (सफेदपोश बगुलों)से भी गहरी निराशा है खासकर बिहारी ब्लॉगरों से। क्या हो गया है इन्हें, कैसी ठकुरसुहाती और व्यभिचार(साहित्यिक,सांस्कृतिक,पत्रकारीय,वाग्वैलासिक) में संलिप्त हैं। इनके विषय देखिये तो छिः उबकाई आती है .......यहाँ भी कितना घिनौना व्यापार चल रहा है। मैंने अपनी एक कविता में लिखा था कभी....उधृत करने की धृष्टता कर रहा हूँ....
"....मेरे समय के लेखक, पत्रकार,
प्रोफेसर और कविगण
कार,कॉर्डलैस और कंडोम से लैस हैं
दुराचारी सत्ता और जनता के बीच डैस हैं
इनके डूबने के लिए
चुल्लू भर पानी अब भी इसलिए कम है,
क्योंकि इन्हें आत्मा का नहीं
थोड़ी सुविधाएँ और जुटा लेने का गम है।"

Saturday, August 23, 2008

यमुना पुश्ता के आसपास रह रहे बेघर-बेसहारा बच्चे, सरकार, समुदाय और मीडिया

(यमुना पुश्ता और पुरानी दिल्ली के इलाकों में रहने वाले बेघर-बेसहारा बच्चों के बीच काम करने के अपने लगभग डेढ़ वर्षों के दरम्यान मैंने काफी नज़दीक से इन बच्चों की असंभव दुनिया को महसूस करने की कोशिश की थी और आज मैं ख़ुद को ऐसा दावा करने की स्थिति मै पाता हूँ कि जब तक आप इन बच्चों के साथ उनकी रोज़मर्रा की जद्दोज़हद में शिरकत नहीं करते तब तक आप उनकी ज़िन्दगी की वास्तविकताओं का अनुमान भी नहीं लगा सकते। और इतना कर पाना भी एकदम आसान नहीं है, मैंने ऐसे दर्जनों कार्यकर्ताओं(कर्मचारियों) को इनके आसपास मंडराते देखा है जो महीनों गुज़र जाने के बाद भी अपनी समझ को संस्कारों से ऊपर नहीं ले जा पाते। ज्यादातर लोग यहाँ अपनी उसी नफरत और हिकारत को अन्दर छिपाए हुए काम करते रहते हैं जिसे वे समाज से ग्रहण करते हैं। यह हिकारत की भावना उन्हें सचमुच में बच्चों से एक अदृश्य(उनकी समझ से) दूरी बनाये रखने के लिए प्रेरित करती है और वे अंत तक निरपेक्ष बने रह जाते हैं। मैंने जो समझा है उसके हिसाब से ये बच्चे घरेलू बच्चों से अतुलनीय रूप से ज़्यादा संवेदनशील,शंकालू,आक्रामक और मेधावी होते हैं तथा zindagee ke निर्मम प्रहार उन्हें इतना परिपक्व बना देते हैं कि वे पहली नज़र में ही आप का नजरिया भांप लेते हैं कि आप उनके विषय में क्या सोचते हैं। इन बच्चों की ज़िंदगी में जिस एक चीज़ का सबसे बड़ा अभाव रहता है वह है सम्मान। जिस दुनिया में वे रहते हैं वहां हर कोई या तो उनका इस्तेमाल करता है या फिर उनसे बेइंतहा नफरत करता है। जब ये बच्चे अपने घरों को पीछे छोड़कर फुटपाथ की दुनिया में कदम रखते हैं तो स्थानीय समुदाय, छोटे व्यवसाइयों, ढाबा मालिकों, सेक्स रैकेटों, ड्रग्स के सौदागरों, पुलिस और पहले से सड़क पर रह रहे बड़े बच्चों के भयावह शोषण का शिकार होते हैं। ऊपर से सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों के बहेलिये भी इन बच्चों पर घात लगाये रहते हैं। इतने मज़बूत घेराव में जीते और सबकुछ बर्दाश्त करते हुए ये बच्चे किस मनःस्थिति में पहुँच जाते होंगे इस बात का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। इन बच्चों के साथ मैंने जितना वक़्त गुज़ारा वह पुलिस और अस्पताल और तमाम किस्म के शिकारियों के साथ लड़ते-भिड़ते हुए गुज़ारा, इतने अनुभवों को समेट पाना मेरे लिए कठिन है और बातें क्रम में नहीं आ पा रहीं हैं, पर कुछ खंडों में बातें ज़रूर आपतक पहुचाने की कोशिश करूंगा)
जब
हम पूरी दुनिया में बच्चों की हालत पर दृष्टिपात करते हैं तो हम एक असंभव दुनिया से रूबरू होते हैं। तीसरी दुनिया के देशों में और खासकर भारत में तो हालत और भी बदतर है और बच्चों की विशाल आबादी अत्यंत कठिन और अमानवीय परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रही है। ये बच्चे जीवन की बुनियादी सुविधाओं एवं अधिकारों से भी वंचित हैं और इनके बारे में सोचते ही अन्दर एक हाहाकार भर जाता है। पूँजी के अनियंत्रित बहाव,महानगर केन्द्रित विकास और गरीबी के परिणामस्वरूप राष्ट्रव्यापी विस्थापन का भयानक संकट नया नहीं था, पर ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण ने दुनिया के कमजोर और मेहनतकश वर्गों को और भी असहाय, और भी बेहाल कर दिया और गैरबराबरी की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है कि उसे पाटना दिन पर दिन असंभव होता जा रहा है। आर्थिक विपन्नता और उपभोक्तावाद ने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न तो किया ही है, इसे संवेदनहीन और असहिष्णु भी बना दिया है। इसका सबसे बडा खामियाजा बच्चों को ही भुगतना पड़ा और आज अगर केवल महानगर दिल्ली की ही बात करें तो लाखों बच्चे सूदुर प्रांतों से आकर यहां के सड़कों, फुटपाथों, रेलवे प्लेटफार्मों और खुले पार्कों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। इनके साथ न तो किसी आत्मीय या अभिभावक का संरक्षण है और न ही समाज उनपर विश्वास करता है। इनके साथ ही अगर दिल्ली की झुग्गी बस्तियों से आए उन बच्चों को भी जोड़ लिया जाए जिनका अधिकांश समय दिल्ली की सड़कों पर गुजरता है और परिवार के साथ उनका संपर्क नहीं के बराबर है तो यह आँकड़ा अविश्वसनीय लगने लगता है। ये बच्चे चाहे स्थानीय हों अथवा बाहर से भाग कर आए, उनकी स्थिति में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। ये बच्चे कूड़ा चुनते हैं, भीख माँगते हैं, बूट पॉलिश करते हैं, नशा करते हैं और दैहिक मानसिक शोषण का शिकार होते हैं। इन बच्चों में बड़े पैमाने पर लड़कियाँ भी शामिल हैं जो फुटपाथों पर वेश्यावृत्ति करने को बाध्य हैं। मंदिरों और गुरुद्वारों में मुफ्त बँटने वाले भोजन के कारण बच्चे काफी संख्या में उन इलाकों में केन्द्रित हो जाते हैं। गन्दगी में रहने, शारीरिक -मानसिक प्रताड़ना, पौष्टिकता से रहित भोजन, नशे की अधिकता और सर्दी गर्मी बरसात में खुले में रहने से ये बच्चे सहज ही बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हो जाती है। इन परिस्थितियों में रहते हुए इन बच्चों के लिए शिक्षा अथवा अन्य अधिकारों की बात करना बेमानी है। जब तक इन बच्चों के लिए जीवन की बुनियादी सुविधाओं और सुरक्षा एवं संरक्षण का पक्का इंतजाम न किया जाए तथा इनके प्रति सामाजिक नजरिये में परिवर्तन न लाया जाए,इन्हें मुख्यधारा में लाने का लक्ष्य हासिल नही किया जा सकता। चुनौती सचमुच बहुत बड़ी है और इसे अब और अनदेखा नही किया जा सकता।
यमुना पुश्ता क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक स्थिति
यमुना पुश्ता का इलाका यमुना नदी के किनारे लाल किला, विजय घाट, आइएसबीटी बस अड्डा और कश्मीरी गेट तक फैला हुआ है। इस इलाके की सामाजिक संरचना निम्न मध्यवर्गीय है और यहां की संस्कृति के केन्द्र में हिन्दू धर्मावलम्बियों की आस्था और उससे अनुस्यूत् कर्मकाण्ड हैं जिनसे यहां का जनसमुदाय किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है। खास तौर से प्राचीन हनुमान मंदिर और निगमबोध घाट की अवस्थिति स्थानीय समुदाय के व्यवसाय और सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को प्रभावित निर्देशित करती है। अधिकांशतः लोग मंदिर के इर्द-गिर्द मिष्टान्न,पूजन-सामग्री,धार्मिक प्रतीकों-मूर्तियों के उत्पादन-विपणन कार्य में संलग्न हैं या फिर मंदिर की सफाई, अन्य जन सुविधाओं एवं परिवहन व्यवस्था में हैं। मंगलवार और शनिवार को यहां हजारों श्रद्धालुओं का जमाव रहता है अतः पूरे क्षेत्र में अच्छी व्यावसायिक चहल-पहल रहती है। खैरात बाँटने की पुरानी परंपरा ने इस मंदिर के आसपास आलसी मुफ्तखोरों की एक विशाल जमात तैयार की है जो इन दो दिनों में सुबह से लेकर रात तक पूरी-कचौरी,मिठाइयों,फलों,कम्बल एवं दूसरी चीजों के लिए धमाचौकड़ी मचाती रहती है। विविधतापूर्ण भोजन-सामग्रियों नशीली वस्तुओं एवं भीख की सहज उपलब्धता ने सुदूर प्रांतों से भागकर आए अथवा निकटवर्ती इलाकों के सैकड़ों बच्चों को मन्दिर व इसके आसपास के पार्कों को अपना स्थायी ठिकाना बनाने को मजबूर किया है, जहां वे भयावह नारकीय जीवन जी रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 800 लोग इस हनुमान मंदिर और निकटस्थ मंदिरों में बँटनेवाले खैरात और भीख के सहारे जीवनयापन कर रहे हैं,जिनमें 350से अधिक 16 साल की उम्र तक के बच्चे हैं। बाकी लोगों में असहाय औरतें, विकलांग और वृद्ध शामिल हैं। बच्चों के इतने बडे जमाव के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि यहां से अन्तर्राज्यीय बस अड्डा, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, जामा मस्जिद, मीना बाजार, लाल किला, चांदनी चौक बाजार आदि काफी नजदीक हैं, जहां दिन में बड़ी तादाद में बाल श्रमिकों के लिए काम की गुंजाइश रहती है, पर शाम होते ही वहां के पार्कों और दूसरे खाली स्थानों में पुलिस की दबिश बढ़ जाती है जिस वजह से बच्चे यमुना बाज़ार के खुले पार्कों और घाटों की ओर रुख करते हैं जहां रात में हजारों की तादाद में बेघर, बेसहारा और मुसीबतजदा लोग मौसम,भूख और पुलिस की मार सहते हुए रात काटते हैं। इनके साथ ही सैकड़ों ऐसे लोगों की भी यह शरणस्थली बनी हुई है जिनका काम नशीली वस्तुओं का विक्रय-विनिमय, ठगी, जुआ-खेलना, चोरी, लूटपाट आदि है। कुछ लोग अवैध रूप से विडियो पर अश्लील फिल्में दिखाने का कारोबार कर रहे हैं, जहां दर्शकों में छोटे बच्चों की बहुतायत रहती है तो कुछ लोग अबोध बच्चों को भयाक्रांत कर अथवा लालच देकर उनका दैहिक शोषण करने-करवाने का संगठित उद्योग चला रहे हैं। जाहिर है,इतने बड़े पैमाने पर गैरकानूनी गतिविधियाँ बगैर पुलिस के सहयोग और संरक्षण के नही चलायी जा सकतीं।



शहरीकरण और विकास के नाम पर एक दशक पहले यमुना पुश्ता और आसपास की झुग्गी बस्तियों को उजाड़ने की दमनात्मक कार्रवाई का आतंक आज भी यहां की आबोहवा में गूँजता महसूस होता है। आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य के पुनर्वास के सरकारी मुहावरों की सच्चाई तब यहां सामने आ गई जब उजाड़े गए विस्थापितों ने अपना सबकुछ गँवाने के बावजूद एक सर्वथा अपरिचित स्थान बवाना जाकर पुनर्वासित होना कबूल नहीं किया और सांस्कृतिक एवं स्थानिक मोहवश फुटपाथ की भयावह जिन्दगी को नियति मानकर अपना लिया। इस अमानवीय विस्थापन की यही स्वाभाविक परिणति हो सकती थी कि आज इन परिवारों की अधिकांश स्त्रियाँ पेट के लिए देह-व्यापार के पेशे में संलग्न हैं और बच्चे भीख मांगने को विवश। क्षेत्र के दैनिक जन जीवन का सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक अन्वेषण करते हुए हमने लक्ष्य किया कि पूरे परिदृश्य में सबसे ज्यादा मुसीबत में बच्चे हैं-उनमें भी वैसे बच्चे जो पूरी तरह सड़क पर हैं और जिन्हें किसी आत्मीय या अभिभावक का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है। 300 से 350 बच्चों की इस आबादी में 5 से लेकर 18 साल तक के बच्चों की अधिकता है। इन बच्चों में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे नशा करते हैं और कुछ ही बच्चों ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त की है। 40 प्रतिशत बच्चे भीख मांग रहे हैं और 50-60 प्रतिशत बच्चे कूड़ा चुनने, ढाबों में काम करने जैसे कार्यों में लगे हुए हैं। भयावह नारकीय परिस्थितियों में जी रहे इन बच्चों को न तो भोजन उपलब्ध है न रहने का ठिकाना। चार-पाँच प्रतिशत बच्चे भी स्वास्थ्य के सामान्य स्तर तक नही पहुँचते हैं। हाँ यह बात बिल्कुल तय है कि शत-प्रतिशत बच्चे पुलिस की ज्यादतियों के शिकार होते हैं। इन बच्चों की तत्काल सबसे बड़ी आवश्यकता भोजन और सुरक्षित आवास की है। खास बात यह है कि लगभग 60-70 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर करते हैं, पर परिस्थितियाँ इन्हें एक जगह टिककर रहने नहीं देतीं, और इनका बिखराव जारी रहता है। इन्हें इनके भोजन, आवास, शिक्षा , स्वास्थ्य और रोजगार के अधिकार के लिए जागरूक और संगठित करना एक बड़ी चुनौती है, जिसे आगे बढ़कर स्वीकार करना एक सभ्य समाज और संवेदनशील सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए, किन्तु वास्तविकता यह है कि भयावह परिस्थितियों में जी रहे इन बच्चों की तरफ से सरकार तो सर्वथा उदासीन है ही, गैरसरकारी संस्थाओं का रवैया भी आपराधिक है। ज्यादातर संस्थाएँ बच्चों का इस्तेमाल कर देशी-विदेशी धनदाताओं से करोड़ों का अनुदान प्राप्त करने में सफल हो जाती हैं। यह शोध का विषय हो सकता है कि दर्जनों बाल अधिकार संस्थाओं और बच्चों के नाम पर प्रतिवर्ष खर्च होने वाले हजारों-लाखों डॉलर की राशि के बावजूद आज तक कितने बच्चों की जिन्दगियों में बदलाव आ सका है।

Friday, August 22, 2008

नीतीश बाबू "नंगटा" हो जाइये यही वक़्त है

भीमनगर बराज से १०-१२ किलोमीटर दूर कुशहा में पूर्वी कोशी तटबंध के करीब १००० मीटर तक ध्वस्त हो जाने से बिहार के सुपौल, सहरसा, अररिया, किशनगंज, कटिहार और खगडिया जिले में भीषण तबाही हुई है। सुपौल जिले के वीरपुर, बसंतपुर, बलुआबाज़ार, बिसनपुर, बसमतिया, राघोपुर, सिमराही, करजाइन, हृदयनगर, सीतापुर, नरपतगंज, प्रतापगंज आदि इलाकों में जान-माल की भारी क्षति हुई है। पाँच लाख से भी ज़्यादा लोग विगत दस दिनों से बाढ़ में फंसे हुए हैं, हजारों लोग पानी के तेज़ बहाव में बह गए हैं- हजारों लापता हैं। वीरपुर और इसके आसपास के इलाकों में लोगों के घरों में औसतन १० फीट से ज़्यादा पानी भरा हुआ है। यहाँ की अधिकांश आबादी खेती-किसानी पर निर्भर थी और लगभग सभी घरों में माल-मवेशी थे। इस बाढ़ में कितने मवेशी डूबे या मरे हैं इसका हिसाब लगाने की कोई कोशिश अभी नहीं हुई है। अभी तो इंसानी लाशों को ही गिनना बाकी है।
खास बात यह है कि अन्य सभी पिछली सरकारों की तरह नीतीश की सरकार भी बाढ़ को बिहार में कमाई करने का सबसे बड़ा और सुरक्षित जरिया मानती है। सभी जानते हैं कि बिहार बाढ़ का पर्याय है और यहाँ हर साल कहीं न कहीं बाढ़ आती है। जानकार लोग तो यह भी कहते हैं कि बिहार में हर साल बाढ़ आती नहीं बल्कि लाई जाती है ताकि यहाँ के हुक्मरान, सरकारी अमले, नेता-मंत्रीगण, पत्रकार, बाबू लोग जमकर अपनी सात पुश्तों के लिए बसंत बुन सकें। पुलिस और गुंडे मिलकर बाढ़ में घिरे घरों में घुसकर लोगों के खून-पसीने की कमाई जमकर लूटते हैं और हर सफेदपोश बगुले तक उनका हिस्सा पहुचाते हैं। तटबंध अगर नहीं टूट रहे हों तो तोड़ दिए जाते हैं, पुल ऐसे बनाये ही जाते हैं जो थोड़ा सा भी दबाव न झेल सकें। बाढ़ आती है- तो सारे जिम्मेदार बिलों में छिप जाते हैं बाबू से लेकर मुख्यमंत्री तक। सारा का सारा मीडिया मुख्यमंत्री और सत्ता की नंगी गोद में चिपटकर लौलीपौप चाभने लगता है। उसे भी आदमी की चीखें सुनाई नहीं देती। तबाही जितनी होगी कमाई भी उसी अनुपात में होगी। सो जब तक दबा सकते हो बाढ़ की ख़बरों को दबाओ, घरों को उजड़ने दो, इंसानों को मरने दो। फिक्र क्या है, यहाँ तो चित भी अपनी है और पट भी अपनी। पहले बाढ़ की होली खेलेंगे फ़िर राहत की दीवाली मनाएंगे। क्या स्टेट है अपना बिहार भी- मज़े करो नीतीश जी आपके पौ-बारह हैं ...........वरना मुख्यमंत्री की कुर्सी में और भला धरा ही क्या है?
ये बाढ़-वाढ़ सब विरोधियों की साजिश है जनता की चुनी हुई अबतक की सबसे जिम्मेदार सरकार को बदनाम करने की साजिश। जब नीतीश जी विपक्ष में थे तब भी विपक्ष की साजिश से ही बिहार में बाढ़ आती थी। खैर नीतीश बाबू(ये बाबुओं की जो प्रजाति है इसने बहुत नाम कमाया है) ने एक नया तुक्का छोड़ा है। उनका कहना है कि नेपाल के इलाक़े में स्थित तटबंध को मज़बूत करने के लिए इंजीनियर भेजे गए थे लेकिन स्थानीय लोगों ने उन्हें सहयोग नहीं दिया। इधर विपक्षी दलों का आरोप है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी नाकामी छिपाने के लिए ये बयान दे रहे हैं। दरअसल बाढ़ से पहले ही तटबंध का जायजा लेने के लिए टीम भेजी गई थी जिसने कहा था कि तटबंध टूटने का ख़तरा नहीं है। क्यों कहते कि खतरा है- यह तो आ बैल मुझे मार वाली बात हो जाती। भइया बड़े भाग मुख्यमंत्री पद पावा..........पिछली बार निगोड़ी लक्ष्मी आते-आते रह गयी थी। मुझे क्या लल्लू समझ रखा है ? अगर ये साबित भी हो जाए कि मुझे इस तबाही का पहले से पता था ....तो क्या उखाड़ लोगे ?
बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर यह ख़बर दी गयी है कि समय पर राहत नहीं पहुँचने के कारण प्रभावित लोगों में भारी रोष है। सहानुभूति जताने पहुँचे एक विधायक पर लोग टूट पड़े और उनका एक हाथ टूट गया। इसी तरह पटना से विशेष प्रतिनिधि के तौर पर पहुँचे दो अधिकारियों को भी लोगों ने खदेड़ दिया और पुलिस वालों पर भी लोगों का गुस्सा फूटा। गुरुवार को सेना के हेलीकॉप्टर की मदद से खाने की सामग्री पहुँचाने की कोशिश की गई लेकिन सिर्फ़ दो सौ पैकेट गिराए गए। आम जनता में गुस्से को देखते हुए सरकार के प्रवक्ता पिछले दो दिनों से कह रहे थे कि अब राहत और बचाव कार्य में सेना की मदद ली जाएगी। लेकिन राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव आरके सिंह ने बीबीसी को बताया कि सेना के किसी जवान को राहत कार्य में नहीं लगाया गया है। आपदा विभाग का कहना है कि राज्य में बाढ़ से अब तक 40 लोगों की जानें गई हैं और 11 ज़िले के 900 गाँव इसकी चपेट में हैं।
...............जितने मुंह उतनी बातें...........सत्ता इसीका तो फायदा उठाती है। सच को अफवाह और अफवाह को सच बनाती है। वास्तव में अबतक न तो प्रशासन और न ही सरकार ने लोगों की सुधि लेने की कोशिश की है। इतनी भयावह बाढ़ में जो लाखों लोग ऊँची जगहों पर बीवी बाल बच्चों को लिए इस आस में पल गिन रहे हैं कि कोई तो आएगा उनके पास नए जीवन का संदेश लेकर ....कोई तो उनके भूखे बच्चों को सूखी रोटी का एक टुकडा देगा ......कोई तो बताएगा कि पास वाले गाँव में उनके स्वजन-सम्बन्धियों में से कितने लोग जीवित बच रहे हैं....कौन बताये इन निरीह लोगों को कि तुम्हारी जिंदगियों की कीमत इन हुक्मरानों के लिए कुछ भी नहीं है...कि तुम्हारी कराहों और बेबसियों से वे अपने और अपनी समस्त पीढियों के लिए बसंत बुनेंगे। कि इसी दिन के लिए तो वे अपनी आत्माओं को वेश्या बनाते रहते हैं।
....यही वक़्त है...अपनी किस्मत चमकाने का, कुछ कर जाने का यही वक़्त है नीतीश जी ..........अपने मतलब का वक़्त पहचानने की आपकी कला का लोहा तो जयप्रकाश बाबू भी मानते थे...बड़ी पारखी नज़र थी उनकी!....इस बाढ़ उत्सव के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...आपके बच्चे जियें.....

Wednesday, August 20, 2008

भारत के माओवादी भी चुनाव लड़ें

आलोक प्रकाश पुतुल
झापा, नेपाल से लौटकर
नेपाल की सीमा में घुसते ही मेचीनगर में जब हमारा ड्राइवर कस्टम की औपचारिकता निभा रहा था तो मैंने वहीं चहलकदमी कर रहे नेपाल पुलिस के जवान से आहिस्ता से पूछा-“कल तक जिन माओवादियों को आप लोग चुन-चुन कर मारते थे, अब उनकी सरकार बन रही है. क्या सोचते हैं ? ”उसने पहले तो अजीब-सा चेहरा बनाया फिर हंसते हुए कहा-“अब उनको शलामी करेंगे.”
लेकिन इस एक वाक्य के जवाब को हमारे गोरखा ड्राइवर ने यात्रा के दौरान बाद में पूरा किया, जब मैंने उससे भी यही सवाल पूछा कि यहां कि पुलिस क्या करेगी ? उसने मुस्कुराते हुए कहा “ इंडिया में भी तो डाकू लोग, गुंडा लोग पार्लियामेंट में मेंबर बन जाता है। उनका तो कोई आईडोलॉजी भी नहीं होता।”मुझे लगा कि सवाल पूछने में अब थोड़ी सावधानी बरतनी होगी.हम नेपाल के झापा जिले में थे. झापा यानी माओवादियों का इलाका. हाल के चुनाव में नेकपा माओवादी के विश्वदिप लिङदेन लिम्बु, धर्म प्रसाद धिमिरे और गौरी शकर खडका इस इलाके से चुनाव जीत कर काठमांडू पहुंचे हैं.
माओवादी गांव शांतिनगर
घने जंगलों वाले इलाकों से होते हुए सड़क किनारे एक स्कूल का बोर्ड देख कर हमने गाड़ी रुकवाई. लिटिल ऑक्सफोर्ड इंग्लिश स्कूल. पड़ोस के सोनसरी जिले से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने गांव शांतिनगर लौटे दीपेंद्र प्रधान 160 बच्चों वाला यह बोर्डिंग स्कूल चलाते हैं.उनके छोटे से कार्यालय की दीवार पर नेपाल नरेश स्व. वीरेंद्र विक्रम शाह और उनकी पत्नी की एक उखड़ी हुई तस्वीर टंगी हुई है. नेपाल में अब माओवादी सरकार को लेकर दीपेंद्र प्रधान मुस्कराते हुए कहते हैं- “ मैं सोचता हूं कि हमारे देश को इसकी आवश्यकता थी, इसलिए ऐसा हुआ.इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है”
दीपेंद्र बताते हैं- “ हमारे गांव में कभी कोई नहीं आता था, कोई पुलिस वाला नहीं। आप जिस रास्ते से आए हैं, वो हाईवे है लेकिन अगर य़हां कोई मर भी जाता, अगर कोई किसी को शूट भी कर दे तो यहां कोई नहीं आता था न सेना, न पुलिस. ये हालत इलेक्शन से दो साल पहले तक थी. नेपाली जनता को लगा कि इतने साल तक सबको अपना समझ के वोट दिय़ा तो एक बार माओवादियों को ट्राई करने में क्या हर्ज है. इसलिए जनता ने माओवादियों को वोट दिया. मैंने भी माओवादियों को वोट दिया.मुझे उम्मीद है कि वे कुछ करेंगे. अगर ये इसमें असफल रहे तो दो साल बाद फिर चुनाव होगा.”वे बताते हैं कि किस तरह माओवादियों ने उनके गांव में नहर लाई और किस तरह माओवादियों के कारण इलाके में चोरी की घटनाएं खत्म हो गईं. दीपेंद्र के पास माओवादियों के पक्ष में कई बाते हैं.लेकिन तीन महीने पहले दुलाबाड़ी से ब्याह कर शांतिनगर में आने वाली गांव की एक बहु ने इस बार चुनाव में भाग नहीं लिया. जिंस-टॉप पहने हुए इस बहु ने हाथों को घुमाते हुए पूछा- “किसी के जीतने से क्या होता है ? जो जीतता है, वो तो राजगद्दी में बैठता है. वो थोड़ी हमसे चावल-दाल के बारे में पूछता है.”
बेरोजगारी
शांतिनगर गांव में दूर-दूर तक धूसर वीरान जमीन नजर आती है. कहीं-कहीं कुछ पेड़ नजर आते हैं, थोड़े से नारियल के थोड़े कुछ और पेड़. कुछ नौजवान एक कच्चे घर के बरामदे में लुडो खेल रहे हैं. घर और पड़ोस की कुछ बुजुर्ग महिलाएं भी वहीं खेल देख रही हैं. हमारे वहां बैठते और दुआ सलाम करते भीड़ इकट्ठी होने लगती है. गांव के लोगों से बात करें तो सबके मन में राजा औऱ पुरानी सरकार के प्रति एक आक्रोश साफ नजर आता है. राजा के लिए गांव के एक नौजवान कहते हैं-उसका घड़ा भर चुका था.गांव में अधिकांश लोगों के पास खेती के लिए जमीन नहीं है. जो खेत हैं, वे सरकार के हैं. सरकार के कब्जे वाले. खेती की संभावना भी नहीं है क्योंकि सिंचाई के साधन नहीं हैं. गांव वालों की मानें तो गांव के 90 फिसदी घर गिरवी हैं, साहूकार के पास. गांव के हर घर से कोई न कोई नौजवान काम करने के लिए दूसरे देश में है. अधिकांश भारत में. कागज पत्तर बनवाने औऱ रोजगार के लिए एजेंट को एक लाख दस हजार नेपाली रुपए देने पड़ते हैं. भारतीय़ मुद्रा में कोई 70 हजार.भीड़ में से एक नौजवान कहते हैं- “ हमारे यहां की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है. हमारे लोग बाम्बे से बिहार तक काम की तलाश में जाते हैं लेकिन अभी तो प्रचंड जी का सरकार बना है, अभी तो उनसे उम्मीद करने ठीक नहीं है लेकिन हमें विश्वास है कि वे हमारी समस्याओं को दूर करेंगे.”लेकिन माओवादियों के बारे में तो कहा जाता है कि वे उग्रवादी हैं, आतंक फैलाते हैं ? उनसे कैसी उम्मीद ?“ ये सब गलत इश्यू बनाए गए हैं. हम भी माओवादी हैं.” एक नौजवान आत्मविश्वास के साथ भीड़ में खड़े औऱ बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं- “ये भी माओवादी है, वो भी माओवादी है, हम सब माओवादी है. ये जनता ही माओवादी है.”
हम सब माओवादी है.
वे बताते हैं कि गांव के सभी लोगों ने माओवादियों को ही वोट भी दिया. भीड़ में कुछ पुरुष-स्त्री स्वर उभरते हैं- “ हम भी माओवादी...माओवादी...!”आतंकवादी मत कहिए
भीड़ में शामिल एक प्रौढ़ कहते हैं- “हम लोगों ने बहुत आशा के साथ माओवादियों को चुना है. हमने नेपाली कांग्रेस को देखा, नेकपा को देखा, राजी की पार्टी को भी देखा. लेकिन किसी ने हमारा दुख नहीं समझा. हमें गांव में रोजगार चाहिए. हम अपने दुख-दर्द को लेकर बाहर जाते हैं. हम भी अपने मां-पिता के साथ रहना चाहते हैं, अपने बच्चों के साथ रहना चाहते हैं.”गांव के कमल भंडारी कहते हैं- “ वो आतंकवादी इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि वे सरकार से जीत गए हैं. गरीब आदमी के पास घास नहीं है, कपास नहीं है. कल कारखाना नहीं है. सरकार के पास तो सब कुछ है लेकिन हम लोगों को देता नहीं है. माओवादी सब ठीक करेंगे .”
गांव में दुकान चलाने वाले बुजर्ग अभिकेसर मानते हैं कि माओवादियों ने चुनाव में आ कर अपनी ताकत दिखा दी है. उन्हें इस बात से बहुत दुख होता जब कोई माओवादियों को आतंकवादी कहता है. अमरीका से खासे नाराज अभिकेसर के अनुसार माओवादी जनता के साथ हैं और वे जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में जनता को कोई आतंकवादी कहे, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता. देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ अभिकेसर कहते हैं- “ भारत में जिस तरह आज माओवादी आंदोलन चल रहा है, एक समय नेपाल में भी ऐसा ही था. जिस तरह से यहां के माओवादियों ने हथियार छोड़ कर, जनता को साथ लेकर पार्लियामेंट में गए, वहां के माओवादी भी ऐसा ही करें, आपके साथ कितनी जनता है, ये दिखा दें. अगर जनता आपके साथ है तो वहां भी नेपाल जैसा ही होगा न ? अगर जनता आपके साथ है तो क्यों डरते हैं.” अभिकेसर ठहाके लगाते हुए कहते हैं- “ अगर जनता आपके साथ नहीं है तो फिर छोड़िए.”
www.raviwar.com से साभार

Thursday, August 14, 2008

कानून का अभाव और पानी की लूट

विभूति रंजन
शहरों का बेतहाशा फैलाव होने, अंधाधुंध पेड़ों के कटने, प्रदूषण बढ़ने और इस कारण बदलते ऋतु चक्र ने पानी की जरूरत और उसकी मांग के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी है। इस जल समस्या के कारण देश के अधिकांश किसान इसकी कमी का रोना रो रहे हैंं, तो कुछ निजी कम्पनियां ऐसी भी हैं जो इसका व्यापार कर देश एवं विदेश से भारी मात्रा में धन कमाने में लगी हैं। विश्व बैंक पानी के इस अनैतिक व्यापार को बढ़ावा देने में लगा है। आज देश भर में अधिकृत रूप से 19 शहरों में पानी का व्यापार फल-फूल रहा है। लगभग चालीस शहरों में पानी का निजीकरण तथा उसका व्यापार हो रहा है। निजी कम्पनियां जहां जल वितरण की बागडोर अपने हाथों में लेकर मालामाल हो रही हैं, वहीं वहां रह रहे लोगों को प्रकृति के इस अमूल्य उपहार के लिये पैसे खर्चने पड़ रहे हैं। जब उन्हें पीने के लिये ही पानी खरीदना पड़ रहा है, तो खेती के लिये जल की उपलब्धता के विषय में बात करना ही व्यर्थ है। आज विश्व भर में तेजी से बढ़ रहे उघोग धंधों के दृष्टि से देखा जाय तो यह आज सबसे तेजी से बढ़ता हुआ उघोग है। भारत में बोतल बन्द पानी की मांग दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। विभिन्न संगठनों की रिर्पोटों को देखा जाय तो बोतल बन्द पानी का यह व्यापार भारत ही नहीं पूरे विश्व में तेजी से अपने पांव पसार रहा है। पानी का यह व्यापार अमेरिका में 8।2 प्रतिशत, मैक्सिको में 8।8 प्रतिशत, चीन में 20 प्रतिशत, ब्राजील में 15।4 प्रतिशत, फ्रांस में 4.2 प्रतिशत,जर्मनी में 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। हमारे देश में बोतल बन्द पानी का कारोबार 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। पानी के व्यापार के चलते निजी कम्पनियां भारी मुनाफा कमा कर आगे बढ़ रही हंै। आंकड़े बताते हैं कि पूरे विश्व में पानी का यह बाजार फिलहाल 800 अरब अमेरिकी डॉलर का है। जो वर्ष 2010 में बढ़कर 2000 अरब अमेरिकी डॉलर का हो जायेगा। भारत में पानी के व्यापार की परियोजनाओं पर अकेले विश्व बैंक ने करोड़ों डॉलर का ऋण उपलब्ध कराया है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को उनकी ही शर्तो पर दिया गया है। आंकड़े बताते हंै कि आने वाले समय में पानी का यह विश्वव्यापी संकट लगभग 40 देशों को लील लेगा। आगे चलकर दिन प्रतिदिन बढ़ रही जनसंख्या के हिसाब से पर्याप्त मात्रा में पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा। वर्तमान में ही करीब छ: अरब लोग जल संसाधनों के लिये एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। दूसरी तरफ सन् 2050 तक विश्व में लगभग 8 अरब लोगों को पानी के अभाव में ही अपना जीवन बिताना पड़ेगा।वर्तमान में केवल उत्तर प्रदेश के ही 6000 गांवों में पानी उपलब्ध नहीं है। देश भर में चल रही नदी घाटी परियोजनाओं वाले क्षेत्रों में पानी की कमी से लगभग 25 करोड़ लोगों पर खतरा मंडरा रहा है। जल समस्या की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर गुजरात एवं कच्छ के क्षेत्र में नये खोदे गए 10 में से 6 कुओं में भी 1200 फुट की गहराई से कम पर पानी ही नही मिलता। बाजार में शीतल पेय का धंधा कर रही कंपनियों ने भी कुछ कम कहर नही बरपाया है। जहां–जहां भी ये कम्पनियां गईं वहां के जलस्तर को इन्होंने सबसे निचले स्तर पर लाकर ही छोड़ा। पानी के इस अंधाधुंध दोहन को लेकर बार-बार जनता सड़क पर तो निकलती है, लेकिन आज तक कोई भी आन्दोलन समेकित रूप से सफल होते नहीं दिख रहा है। हां, संतोष के लिये कुछ स्थानों पर जनता का आन्दोलन सफल होते हुए भी दिखाई दिखाई दिया है, लेकिन इसे पूरे जल समस्या को जोड़कर नही देखा जा सकता है। दूसरी तरफ भारत के चारों महानगरों को देखें तो नजारा कुछ और ही है। यहां जल समस्याओं को लेकर नित नयी बाते सामने आती है। यहां की सरकार पानी के लिये दूसरे राज्यों के सामने हाथ फैलाये खड़ी नजर आती है। लेकिन उपलब्ध पानी का समुचित उपयोग करने के प्रति इनकी कोई गंभीरता नही दिखाई देती। ये शहर मिलकर प्रतिदिन करीब 90 हजार करोड़ लीटर गंदा पानी निकालते हैं। लेकिन इनमें से करीब 25 करोड़ लीटर का ही शोधन हो पाता है। शेष पानी को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। दिल्ली में फैली पानी की पाइपलाइनों के रिसाव के कारण प्रतिदिन लाखों गैलन पानी रिस जाता है जिसका कोई नामलेवा नहीं है। देश में सन 1955 में पानी की उपलब्धता प्रतिव्यक्ति के हिसाब से 5227 घन मीटर थी, जो सन 2025 तक घट कर 1500 घन मीटर हो जायेगी। देश के कई स्थानों पर तो 1200 फुट तक की गहराई तक पानी नही मिलता।निजी कंपनियों द्वारा पानी का दोहन रोकने के लिये हमारे देश में कोई कानून नहीं है। इसे रोकने के लिये कड़े कानून बनाने होंगे। साथ ही, देश के हर वर्ग के लोगों को इसके दुरूपयोग से बचना होगा। सरकार को भी बर्बाद हो रहे पानी के शोधन पर गंभीर रूप से सार्थक पहल करनी होगी। सिर्फ विज्ञापन दिखा देने से कुछ नही होने वाला।
www.rashtriyasahara.com से साभार

Monday, August 11, 2008

झूठा एक अकेला मैं

विभांशु दिव्याल
उफ सच का यह विकट तूफान
यह कराल उफान, यह फेनिल सैलाब
यह दहलावक नाद, दिशाओं को गुंजाता चीत्कार
कानों को जमा देने वाला सच का यह हाहाकार
सच का यह असीम अपराजेय वितान
इससे पहले किसने कब बुना
इससे पहले किसने कब देखा-सुना
यहां सब सच बोलते हैं
जब भी जुबान खोलते हैं सच के लिए खोलते हैं
अमर लालू पासवान अचूक सच बोलते हैं
माया, उमा, सुषमा समूह सच बोलते हैं
शाहिद, अतीक प्रतीक सच बोलते हैं
इनके अधिवक्ता,उनके प्रवक्ता सच बोलते हैं
आसमान सच बोलता है जमीन सच बोलती है
सीडी सच बोलती है, प्रति-सीडी सच बोलती है
मीडिया इस सच की जुगाली करता है
टेलीविजन इसी सच को निगलता-उगलता है
अखबार इसी सच से लिपटकर छपता है
युग की निष्पक्षता इसी सच की बगल बच्ची है
सच जिस आ॓र झुकता है उसी आ॓र करवट बदलता है
सच से चौंधियाई आंखों को कुछ गलत दिखाई नहीं देता
सच से आप्लावित कानों को कुछ भी गलत सुनाई नहीं देता
यह महान सच कर्म और दुष्कर्म में भेद नहीं करता
भूखे और भरे पेट में फर्क नहीं करता
यही सच कानून का कवच बनता है
इसी सच से न्याय का चंवर डुलता है
अपराध होते हैं मगर कोई अपराध नहीं करता
बम फूटते हैं मगर कोई बम नहीं फोड़ता
लोग मरते हैं मगर कोई लोगों को नहीं मारता
इस सच के न कोई तूती आड़े आती है
न कोई नक्कारान कोई विचार आड़े आता है
न कोई विचारधारा
किसका कलेजा है जो इस सच की आंखों में आंखें डाले
किसकी हिम्मत है जो इस सच की जड़ों को खंगाले
कौन है जो इस सच के बचकर निकल जाए
कौन है जो इसके महाबाजार से बिना बिके बिला जाए
क्या है जो इसके विराट व्यापार में बिना चले चला जाए
यह सच नसों में घुल रहा है
यह सच लोगों की सांसों में बुझ रहा है
यह इस काल-खंड का सच है, इस समय का सच है
यही जाति, संप्रदाय, धर्म, राजनीति का सच है
परंपरा का सच है, उन्नति-विकास-प्रगति का सच है
व्यवसायों, निकायों, नीतियों का सच है
यही नेतृत्व का सच है यही अनुयाइयों का सच है
यह सच इस देश के वर्तमान का सच है
इसकी व्यवस्था और इसकी पहचान का सच है
यह राज सत्ता और उसके राज का सच है
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक समाज का सच है
यह सच बुरी तरह डराता है
गहरी जुगुप्सा जगाता है
कोई है जो मुझे और मेरे जैसों को
इस सच के गहन गर्त में गिरने से संभाले
जो हमें सच के इस प्रलयंकारी प्रवाह से बाहर निकाले
कोई है जो हमारा आर्तनाद सुने
हमारी प्रार्थना पर कान दे
हमारी विवशता को समझे हमारी मजबूरी पर ध्यान दे
हे ईश्वर, या खुदा तुझे क्या पुकारें
तू तो स्वयं इनका पैरोकार है
इस दौर का यह डरावना सच
तेरा और तेरे कारिंदों का हथियार है
तू इनकी पूजा इनकी इबादत से खुश हो जाएगा
वैसे भी तू करना चाहे तो क्या कर पाएगा
या तो पस्त हो जाएगा
या फिर इस सच के संचालकों का साथ निभाएगा
यहां अकेला मैं हूं जो झूठ देख रहा हूं,
सुन रहा हूं, कह रहा हूं
क्या सचमुच कहीं कोई है जो उम्मीद जगाएगा
जो मुझे और मेरे झूठ को इस डरावने सच से बचाएगा !
www.rashtriyasahara.com से साभार

मीडिया : डर का बाजार

सुधीश पचौरी
डर का बाजार नए सिरे से गर्म किया जा रहा है। यह काम कथित धर्ममूलक चैनल तो करते ही रहते हैं, इन दिनों इस धंधे में कुछ खबर चैनल बढ़त ले रहे हैं। यह सब बातें समाचार कर्म के सामान्यतया मान्य लक्ष्यों के विपरीत नजर आती हैं। भारतीय आसमान में धर्ममूलक चैनलों का पहले से ही बोलबाला है। इनकी संख्या आधा दर्जन के करीब है। इनकी दर्शक जनता अलग है। इनमें तरह-तरह के बाबा, स्वामी और योगी आदि आते-जाते हैं। कथाएं कहते, प्रवचन-उपदेश देते रहते हैं। धर्म विषयक चैनल जगत प्रपंच को डरावना बताते हैं। काया को माया बताते हैं और ईश्वर आराधना के विविध तरीके बताते रहते हैं। डर की दुकानें यहां भी लगती हैं। ये दुकानें परंपरागत कही जा सकती हंै। नास्तिक की नजर में धर्मानुभव भक्त्यानुभव उस अनजाने-अनकहे डर के आगे दिलासा देने वाले मानवकृत उपाय हंै जो सबके जीवन में आदतन रहते हैं। धर्ममूलक चैनलों में भक्ति या धर्म भावना किसी भव्य लीला की तरह, तमाशे की तरह दी जाती है। इन चैनलों में रोज प्रवचनादि करने वाले सैकड़ों बाबा लोग बहुत सजे-धजे चमकदार सिंहासन पर शोभित होते हैं। अच्छे सांउड सिस्टम होते हैं। सामने उनके मघ्यवर्गीय खाते-पीते घरों के शिष्य गण, आगंतुक श्रद्धालु जन बैठे होते हैं। उनमें से अनेक बाबा जी के विशेष पंथ में दीक्षित तक होते हैं। गंडा ताबीज बंधाते हैं, कथामृत-उपदेशामृत का पान करते रहते हैं। कीर्तन और गाने बजाने पर नाच उठते हैं। ये चैनल धर्म के इस कारोबार में खासी कमाई करते हैं और इन दिनों महत्वपूर्ण बाबाओं के लाइव टेलिकास्ट भी किया करते हैं। इनके कैमरामैन सुंदर चेहरों की आ॓र युवतियों की आ॓र खास मौकों पर फोकस किया करते हैं। इनमें कथारस तो नाम मात्र को रहता है। गीत-संगीत, नाच-गाने ज्यादा रहते हैं। बाबा लोग, उनकी संगीत मंडली फिल्मी गानों की धुन पर भजनादि गाती रहती हैं अब तो ऐसे चैनल ‘बॉडी फिटनेस’ के, ‘जिम’ के सामान और ब्यूटी प्रसाधनों के विज्ञापन भी देने लगे हैं। इस तरह की इनकी धर्म विषयक लीलाएं अपने लीला रूप में डर का निर्माण करते-करते भी आनंदकारी और कई बार कॉमिक तमाशा लगा करती हैं।
सवाल उठता है कि खबर चैनल ऐसे विषयों में क्यों आगे आने लगे हैं? क्यों कई चैनल पौराणिक कथाओं को सामान्य तीर्थाटन की खबर बनाने की जगह दिव्य मिथक कथाओं को यथार्थ जैसा बनाते हैं? विश्वसनीय बनाने के लिए कथित ‘वैज्ञानिक जांच’ आदि तक का जिक्र करते रहते हैं ताकि दर्शक उनकी प्रामाणिकता पर संदेह न करें। इन दिनों ऐसे चैनलों के कुछ कैमरे पुराण कथाओं को, मिथकों को सीधे फील्ड में खोजते फिरते हैं। कैमरों के जरिए ढूंढ़ते नजर आते हैं। और उन्हें अक्सर हर जगह कुछ न कुछ मिल ही जाता है जैसे एक चैनल ने परशुराम का धनुष खोज निकाला तो दूसरे ने रावण की गोलियां निकाल डाली। किसी ने रावण की तपस्या की जगह खोज डाली और किसी ने सीता जी की अशोक वाटिका ही ख्ोाज निकाली! किसी दिन कोई मंदोदरी के कक्ष तक में प्रवेश कर जाएगा।
हाल में आठ अगस्त दो हजार आठ के दिन ‘आठ आठ आठ’ के संयोग को लेकर जिस तरह कई चैनलों ने अंक ज्योतिष का सहारा लेकर प्रलयोन्मादी हड़कंप मचाया वह तो डर का पूरा कोरस ही रहा। कई हिंदी खबर चैनल आठ-आठ के अंक के संयोग पर ऐसी ऐसी भविष्यवाणियां देने लगे मानो आठ अगस्त के दिन या उसके बाद किसी भी दिन दुनिया में प्रलय हो जाएगी। सृष्टि विनाश तय समझिए। एक चैनल ने माया सभ्यता को लेकर जो बातें की वह सिर्फ प्रलयलीला की तरह ही रहीं। इन दिनों ही शनिवार को कम से कम दो खबर चैनल बाबाओं को बिठाकर शनि माहात्म्य पर लंबी चर्चाएं कराते हंै उनके साथ राशिफल जोड़कर सबको शनि के दिन क्या करना है, क्या पहनना है, खाना है- आदि व्यवस्था देते रहते हैं।
पिछले दो-तीन महीने से बड़े देवता और बड़े मिथक के रूप में शनिदेव का निर्माण किया जा रहा है। इससे शनिदेव संबंधी भक्ति उघोग जुड़ा है। पिछले कई बरस से दक्षिण दिल्ली में एक शनि मंदिर के बडे़ पोस्टर लगे रहे और जिस दिन शनि की सबसे बड़ी पूजा का दिन बताया गया उस दिन उस मंदिर में अभूतपूर्व भीड़ पहुंची। खूब चढ़ावा आया। इस नए मिथक्करण के काम में ऐसे बाबाओं को प्रसारित करने वाले चैनलों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। शनिदेव डराने वाले देवता माने जाते हैं। ज्योतिष में उनकी ढइया और साढ़े साती कष्टकारी अवस्था कही जाती है। उनके शमन के उपाय भी बताए जाते हैं। धर्ममूलक चैनल ऐसे कार्यक्रम देते हैं तो ठीक लगता है लेकिन यही काम जब खबर चैनल करने लगते हैं तो ऐसे मिथक खबर की तरह सच बनने लगते हैं।खबर चैनलेंा की विश्वसनीयता उनके समकालीन होने, यथार्थवादी दिखने तथा तथ्यसम्मत होने में निहित रहती है। वे जो भी दिखाते हैं उसे तथ्यगत और तर्कसंगत माना जाता है। उनकी प्रामाणिकता खबर की समग्र ‘तर्कसंगति’ में ही बनती है। मिथक को सच की तरह देकर ये खबर चैनल मिथक को ‘तर्क संगति’ देकर उसे प्रामाणिक की तरह बनाते हैं और मिथक-मानसिकता को बल प्रदान देते हैं। इस तरह यह नवीन धार्मिक एजंडे बनाते हैं जिनकी अनुगूंजें और छायाएं नित्य नए बनने वाले धार्मिक समूहों की नरम-गरम गतिविधियों में सुनाई दिखाई देती हैं। समाज में हर तरफ धार्मिक महोच्चार के स्वर और मिथक प्रसारण के वर्तमान उघम के बीच कोई अनकही या कि निहित परस्परता दिख पड़ती है। यही समकालीन डर की राजनीति है जो विकासमूलकता के विरोध में जाती है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

हाशिए पर सिमटे समाज सुधार आंदोलन

भारत डोगरा
भारत जैसे विकासशील देश के लिए जहां आर्थिक विकास जरूरी है, वहीं समाज में प्रचलित विभिन्न बुराइयों, रूढ़ियों व तनावों को दूर करने के प्रयास भी आवश्यक हैं। हाल के वर्षों में आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केन्द्रित हुआ है, जबकि समाज–सुधार को पहले की अपेक्षा कम महत्व मिल रहा है। कुछ महत्वपूर्ण समाज-सुधारों के बारे में अब तो यह मान्यता हो रही है कि यह पुरानी बात हो गई है, अब यह ‘फैशन’ के अनुकूल नहीं है। उदाहरण के लिए, समाज के एक बड़े हिस्से में शराब के चलन को ऐसी मान्यता ही नहीं प्रतिष्ठा भी मिली है, जो पहले कभी नहीं थी। शराब की किस ब्रांड का सेवन किया जाए, इसे प्रतिष्ठा की बात माना जा रहा है। इस तरह की बदलती सोच के बावजूद यह सवाल उठाना जरूरी है कि क्या शराब से होने वाली शारीरिक, मानसिक व सामाजिक स्वास्थ्य की क्षति कम हो गई है? इस बारे में उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों को देखें, तो इस बारे में पहले से अधिक प्रामाणिक जानकारियां उपलब्ध हैं कि शराब कितनी तबाही मचाती है। अत: समाज-सुधार आंदोलन के लिए जरूरी है कि वह ‘फैशन’ या ‘चालू’ बातों से प्रभावित न होकर सामाजिक बुराइयों के बारे में सही व सच्ची जानकारी को आम लोगों तक पहुंचाने का कार्य निरंतरता से करे।
निश्चय ही, शराब व नशीले पदार्थों के विरूद्ध अभियान समाज-सुधार का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसे अभियानों का हमारे देश में प्रेरणादायक इतिहास भी रहा है, पर अब हमें आगे यह भी सोचना है कि इनसे अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिली और इनके बावजूद शराब का चलन क्यों बढ़ता गया। पिछले अनुभव से एक सबक यह मिला है कि शराब की दुकानों या ठेकों को हटाने के आंदोलन महत्वपूर्ण तो हैं, पर अपने आपमें पर्याप्त नहीं हैं। कई बार शराब विरोधी आंदोलन केवल यहीं तक सिमट कर रह गए, तो उन्हें दीर्घकालीन सफलता नहीं मिल सकी। अत: शराब व अन्य नशीले पदार्थों के विरूद्ध निरंतरता से कार्य करना जरूरी है। इसके लिए गांवों व शहरी बस्तियों में नशा विरोधी समितियां बनानी चाहिए, ताकि यह कार्य निरंतरता से चलता रहे।
समाज-सुधार के लिए केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं होता है। दहेज विरोधी कानून काफी सख्त बनाया गया, तो भी यह समस्या कम नहीं हुई अपितु बढ़ती गई। इतना ही नहीं, कानून का दुरूपयोग कर कुछ निर्दोष लोगों, विशेषकर वृद्ध महिलाओं को भी सजा दिलवा दी गई। इस अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि कानून की भूमिका महत्वपूर्ण होते हुए भी सीमित ही है। समाज–सुधार का असली कार्य तो जागृत, सक्रिय नागरिकों द्वारा ही होता है जो भले-बुरे में भेद कर सकते हैं, इस कानून का दुरूपयोग रोक सकते हैं और कानून को उसके वास्तविक उद्देश्यों के अनुकूल लागू करने में सहायक हो सकते हैं। दहेज के खिलाफ चाहे कानून बन गया हो, पर समाज में बढ़ती लालच व उपभोक्तावाद के कारण दहेज ने जोर पकड़ा है। समाज में अच्छे आचरण के स्थान पर शान-शौकत व आकर्षक वस्तुओं के आधार पर प्रतिष्ठा प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस कारण शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर खर्च भी बहुत बढ़ा है। ये अवसर जहां धनी वर्ग को अपने धन-प्रदर्शन का मौका देते हैं, वहीं इसके कारण उन परिवारों पर भी अधिक खर्च का दबाव पड़ता है, जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है। अनेक परिवारों के लिए तनाव व आर्थिक संकट का सबसे बड़ा कारण यह बन गया है कि वे बेटों या बेटियों के विवाह व दहेज के खर्च की व्यवस्था कैसे करेंगे! साथ ही, समाज में बढ़ रही लालच व झूठी शान-शौकत के गिरे हुए मूल्यों पर प्रहार करना समाज-सुधार आंदोलन के लिए बहुत जरूरी है।
महिलाओं के विरूद्ध हिंसा को रोकना, उन्हें शिक्षा के तथा विविध क्षेत्रों में अपनी क्षमताओं को विकसित करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाना समाज-सुधार आंदोलन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां हैं। यह कार्य अधिक व्यापक स्तर पर हो सकेगा और इसमें कम कठिनाइयां आएंगी, यदि पश्चिमी देशों की सोच को नासमझी से न अपनाया जाए और अपने समाज की स्थितियों के अनुकूल कार्य किया जाए। हमारे परंपरागत समाज में जहां महिलाएं कुछ अवसरों से वंचित रही हैं, वहीं कई मामलों में उन्हें विशेष सुरक्षा व प्रतिष्ठा भी दी गई। इस परंपरागत समाज में महिलाएं शराब जैसी कई बुराइयों से बची रहीं, जबकि पश्चिमी समाज के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। परिवारों को बनाने-सहेजने में महिलाओं की बहुत मजबूत भूमिका हमारे यहां रही है।
परंपरागत समाज की सबसे बड़ी बुराई जाति पर आधारित भेदभाव व छुआछूत की प्रथा रही है। छुआछूत के विरूद्ध अब कड़ी कानूनी व्यवस्था है और विकास की प्रक्रिया में इसका चलन भी कम हुआ है। फिर भी कई स्थानों में आज भी छुआछूत के प्रचलन के चिंताजनक समाचार मिलते हैं। अत: छुआछूत जैसे कलंक दूर करने के व इससे जुड़ी विकृत सोच दूर करने के प्रयास आज भी जरूरी हैं। छूआछूत के अतिरिक्त जातियों में बहुत ऊंच–नीच की मान्यताएं चलती रहती हैं। समाज–सुधार आंदोलन को जाति, नस्ल, रंग किसी भी स्तर पर ऊंच–नीच के विरूद्ध माहौल बनाना चाहिए, ताकि कोई भी व्यक्ति केवल अपने आचरण, चरित्र व कार्य के आधार पर ही परखा जाए।
युवाओं द्वारा माता–पिता व बुजुर्गों को सम्मान देने की हमारी परंपरा बहुत समृद्ध रही है, उससे हमारे समाज को बल मिलता है। वृद्धावस्था में कोई उपेक्षित न हो, इस पर और जोर देना चाहिए, पर साथ ही युवाओं को अपने जीवन–साथी के चुनाव में और स्वतंत्रता मिलने की जरूरत है। सह–शिक्षा का प्रचलन बढ़ना चाहिए। स्कूल–कॉलेज, गांव–बस्ती में लड़के–लड़कियां खुले व स्वस्थ वातावरण में मिलें, बातचीत करें तो इससे समाज की प्रगति ही होगी। यदि इस खुले माहौल में कोई जाति से बाहर विवाह करना चाहे, तो उस पर परिवार या जाति–पंचायत द्वारा कोई रोक नहीं लगानी चाहिए। शादी–विवाह के पहले लड़का–लड़की एक दूसरे को देखें व बातचीत करें, यह प्रवृत्ति बढ़नी चाहिए। कम आयु के बच्चों को विवाह में धकेलने की प्रवृत्ति के विरूद्ध समाज को जागृत कर इसे रोकना चाहिए। लिंग–आधारित भ्रूण–हत्या के विरूद्ध समाज में व्यापक जागृति लाकर इस सामाजिक कलंक को समाप्त करना चाहिए।
इसी तरह आधुनिक तकनीकी के युग में अन्य समस्याएं अधिक विकट हुई हैं। इंटरनेट व कम्प्यूटरों के इस दौर में अश्लील सामग्री के प्रसार की समस्या बहुत विकट हुई है, उसे नियंत्रित करना जरूरी है। इन समाज–सुधार के कार्यों को समग्रता व निरंतरता से होना चाहिए। इन प्रयासों में महिलाओं की असरदार भागीदारी आवश्यक है। सभी सरकारों को चाहिए कि इन समाज–सुधार प्रयासों के प्रति प्रोत्साहन व सहायता की नीति अपनाए।
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Friday, August 8, 2008

यह तो महात्मा गांधी का रास्ता नहीं

संदीप पांडेय
रायपुर में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, 2005 की वापसी तथा इस अधिनियम के तहत गिरफ्तार तमाम निर्दोष लोगों, जैसे डॉ. विनायक सेन, अजय टीजी, साई रेड्डी, आदि, की रिहाई हेतु आयोजित दस दिवसीय उपवास पर एक लेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक एवं साहित्यकार विश्वरंजन ने टिप्पणी की है कि यदि गांधी आज जीवित होते तो शायद बस्तर के जंगलों में अकेले जा कर माओवादियों से कहते कि, 'मित्र! हिंसा छोड़ो, जो तुमसे असहमत हैं, उन्हें मारना छोड़ो, हम तुम्हें अब नहीं मारने देंगे. तुम्हे आदिवासियों को मारने के पूर्व हमें मारना पड़ेगा. हम उफ्फ तक नहीं करेंगे. हम हाथ तक नहीं उठाएंगे...
यह बात तो विश्वरंजन जी भी स्वीकार करेंगे कि राज्य की जो पुलिस व सेना के रूप में हिंसक शक्ति है वह नक्सलवादियों या किसी भी गैर राज्य हिंसक शक्ति से बड़ी है। विश्वरंजन जी जो बात गांधी के मुंह से गांधीवादियों के लिए कहलवाना चाहते हैं वही बात हम विश्वरंजन जी की पुलिस व उसके द्वारा समर्थित 'सलवा जुडूम नामक गैर संवैधानिक सशस्त्र बल के लिए कहना चाहेंगे। विश्वरंजन जी के अनुसार गांधी किसी भी हालत में उस समूह के साथ नहीं खड़े होते जिसका बुनियादी फलसफा हिंसा और आतंक पर टिका हुआ है। इसीलिए हम विश्वरंजन साहब को बताना चाहते हैं कि हम उनकी पुलिस, सलवा जुडूम व उनकी सरकार के साथ नहीं खड़े हैं.
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि नक्सलवादियों द्वारा की गई हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है। कुल मिलाकर विश्वरंजन जी जब नक्सलवादी हिंसा की बात करते हैं तो वे यह नहीं भुला सकते कि नक्सलवादी हिंसा असल में राज्य हिंसा के जवाब में प्रति हिंसा है। इस राज्य हिंसा में प्रत्यक्ष हिंसा तो शामिल है ही जिसके अंतर्गत लोग पुलिस सेना व सलवा जुडूम द्वारा की गई हिंसात्मक कार्रवाईयों के शिकार हुए हैं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण वह अप्रत्यक्ष हिंसा है जिसके तहत एक लंबी अवधि के दौरान आम लोगों को उनकी न्यूनतम मजदूरी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज, मूलभूत चिकित्सा व अन्य सुविधाओं से वंचित कर उन्हें घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर किया गया है।
यह शोषण व भ्रष्टाचार की व्यवस्था तो विश्वरंजन साहब नक्सलवाद से पुरानी समस्याएं हैं और आपकी राज्य व्यवस्था ने स्थिति को ठीक करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया। बिना नक्सलवाद के मूल कारणों का विश्लेषण किए तथा नक्सलवाद के पनपने में राज्य व्यवस्था की भूमिका की बात किए बिना नक्सलवाद को सिर्फ कोसने से कुछ काम नहीं चलेगा। नक्सलवाद के पनपने का सीधा-सीधा मतलब है कि राज्य असफल रहा है. यदि राज्य ने अपने सभी नागरिकों को उनकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साधन उपलब्ध कराए होते तथा उन्हें सम्मान व सुरक्षा के साथ जीने का मौका उपलब्ध कराया होता तो शायद हमें आज नक्सलवाद की समस्या का सामना ही न करना पड़ता. नक्सलवाद की समस्या के निश्चित सामाजिक आर्थिक-राजनीतिक कारण हैं और उसका समाधान भी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों में ही ढूंढ़ना होगा. नक्सलवाद की समस्या का समाधान सलवा जुडूम कतई नहीं हो सकता. राज्य व्यवस्था को अपने चरित्र में परिवर्तन लाना पड़ेगा. उसे सिर्फ संपन्न वर्ग, जिसमें अब ठेकेदार, कंपनियां व माफिया भी शामिल हैं, के संरक्षक की भूमिका छोड़कर आम गरीब वंचित नागरिकों का हितैषी बनना पड़ेगा.
इस बात में तो कोई शक है ही नहीं कि गांधी कभी भी नक्सलवादियों के हिंसा व आतंक के फलसफे का समर्थन नहीं करते लेकिन, विश्वरंजन साहब ने आज जिस शासन-प्रशासन तंत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उसका भी कभी समर्थन नहीं करते। गांधी की ग्राम स्वराज्य व्यवस्था में तो हिंसा व आतंक के तरीकों का इस्तेमाल करने वाली पुलिस व सेना का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। वह पुलिस जो आम नागरिकों के लिए दहशत का प्रतीक है को गांधी कभी स्वीकार करते ही नहीं. आपके थानों में जहां आम इंसान अपमानित होता है, साधारण सी प्राथमिकी भी दर्ज नहीं होती, 'पहुंच वाले अपराधी खुले घूमते हैं तथा निर्दोष लोगों को पकड़ कर जेलों में डाल दिया जाता है ऐसी व्यवस्था के मुखिया हैं आप यदि आज एक संवेदनशील साहित्यकार हैं तो हम आपसे यह तो उम्मीद नहीं ही करेंगे कि आप एक फासीवादी सरकार की सेवा करते हुए उसके फासीवादी तरीकों को जायज ठहराएंगे.चलिए हमारी हिम्मत नहीं है कि हम जाकर बस्तर के जंगलों में नक्सलवादियों को अहिंसा का पाठ पढ़ा सके, लेकिन आपके पास तो पूरा तंत्र है. किसी भी गांधीवादी की संस्था से बहुत ज्यादा साधन आपके पास हैं. नक्सलवाद से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने आपको असीमित साधन उपलब्ध कराए हैं.आप ही कुछ गांधीवादी तरीकों का प्रयोग क्यों नहीं करते? क्या आप पुलिस की व्यवस्था को और मानवीय बना सकते हैं? क्या आप प्रदेश के पुलिस मुखिया होने के नाते ऐसा माहौल बना सकते हैं कि आज गरीब नागरिक को पुलिस से डर न लगे और वह पुलिस को मित्र के रूप में स्वीकार कर सके? जब आम इंसान थानों में जाए तो उसका स्वागत गालियों से न हो बल्कि उसे सम्मानपूर्वक बैठाया जाए. क्या आपकी पुलिस लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के साथ अन्य सरकारी योजनाओं, जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, वृध्दावस्था- विधवा पेंशन, गरीबों के लिए आवास, भूमिहीनों के लिए पट्टे, मूलभूत शिक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पूरा-पूरा लाभ, बिना किसी भ्रष्टाचार के, उपलब्ध करा सकती है.फिलहाल तो लोगों को छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत न्यूनतम एक सौ दिनों का रोजगार नहीं मिल रहा. व्यापक स्तर पर धांधली अलग है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम भी एक राष्ट्रीय कानून है. क्या इस कानून की खुलेआम धाियां उड़ाने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों-जनप्रतिनिधियों- ठेकेदारों के खिलाफ आज छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम या गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून के तहत कोई कार्रवाईयां कर सकते हैं? क्या पुलिस प्रभावशाली लोगों की संरक्षक बने रहने के बजाए इस देश के आम इंसान के मौलिक एवं कानूनी अधिकारों की संरक्षक बन सकती है? मौलिक सवाल यह है कि क्या आज इस व्यवस्था में मूलचूल परिवर्तन लाने वाले कोई कदम उठा सकते हैं? सलवा जुडूम का प्रयोग तो कोई भी कर सकता है क्योंकि शासक वर्ग की मानसिकता में जनता के किसी उभार को कुचलने के लिए हिंसक रास्ता ही सहज रूप से आता है. किंतु क्या हम आप जैसे संवेदनशील अधिकारी से उम्मीद करें कि वह कोई सृजनात्मक अहिंसक प्रयोग करेगा जिसे वार्क में गांधीवादी श्रोणी में रखा जा सके?हमारी जो क्षमता है उससे हम सरकार की सभी जन विरोधी नीतियों के खिलाफ बोलते रहेंगे. नक्सलवादियों की हिंसा का हम समर्थन नहीं करते. किंतु राज्य की ताकत व भूमिका नक्सलवादियों से बड़ी है. राज्य से हम उम्मीद करते हैं कि वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां ठीक से निभाएगा. हमारा मानना है कि राज्य ही नक्सलवाद की समस्या के उभरने के लिए जिम्मेदार है तथा वही अपनी नीतियों में परिवर्तन कर इस समस्या पर काबू भी पा सकता है. हमारे लिए छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम व गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम के खिलाफ संघर्ष लोकतंत्र को बचाने संघर्ष है. समस्या पेचीदी है तथा समाधान भी आसान नहीं है यह आप भी जानते हैं. अत: नक्सलवाद की समस्या पर बहस को सिर्फ हिंसा-अहिंसा के पक्ष या विरोध में बहस तक सीमित न करें. अच्छा होगा यदि आप अपने कौशल का प्रयोग नक्सलवाद की समस्या के मानवीय समाज में लगाएं. जब तक आपके तरीके नहीं बदलते तब तक हम आपकी सरकार के खिलाफ बोलते रहेंगे तथा उपवास जैसे कार्यक्रमों का भी आयोजन करेंगे.आपको याद है न गांधी ने क्या कहा था स्वराज्य के बारे में. स्वराज्य का मतलब सिर्फ कुछ लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेना नहीं बल्कि बहुसंख्यक जनता के अंदर यह शक्ति पैदा होना है कि वह कुछ लोगों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार कर सके. सलवा जुडूम सत्ता का दुरुपयोग है. लोगों के हाथ में हथियार देना कोई बुध्दिमानी पूर्ण कार्रवाई नहीं कही जाएगी. क्या हम इतिहास से यह सबक नहीं सीखेंगे कि जब भी गैर राज्य शक्तियों को हथियारों से लैस किया गया है वह कुछ समय के बाद अनियंत्रित हो जाती है तथा समाज के लिए घातक हो जाती हैं.आखिर सलवा जुडूम के माध्यम से लोगों को गांव छोड़कर शिविरों में रहने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है? लोगों को उनके गांवों, खेतों, जंगलों से उजाड़कर उन्हें अपनी आजीविका के लिए भी मोहताज बनाकर हम उन्हें कैसी सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं? छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों में धनी है. फिर भी विडम्बना यह है कि लोग गरीब एवं लाचार.गांधी के ग्राम स्वराज्य विचार के मुताबिक तो गांवों को ही सिर्फ यह अधिकार है कि वे अपनी व्यवस्था कैसे बनाएं. गांवों में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन कैसे होगा, गांव में शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा की व्यवस्था कैसी होगी यह तय करने का अधिकार स्थानीय लोगों को ही है. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ सरकार अपने प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय लोगों का अधिकार समाप्त कर पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के लिए उन्हें इन संसाधनों के खुले दोहन की छूट देना चाहते है.क्या आप इस तथाकथित विकास के समर्थक हैं विश्वरंजन जी? यह विकास तो गांधी के विचारों के अनुकूल है नहीं. यदि आप नक्सलवादियों को नहीं समझा सकते तो कम से कम उन पूंजीपतियों को ही समझा दे कि जनता के प्राकृतिक संसाधनों से अपनी गिध्द दृष्टि हटा ले. यदि आप ये भी नहीं कर सकते तो गांधी के प्रिय विषय मद्यनिषेध पर तो कुछ पहल ले ही सकते हैं. क्या आप सरकार द्वारा शराब को बढ़ावा देने के कार्यक्रम जिससे फायदा सिर्फ शराब माफियों का हो रहा तथा आम इंसान का परिवार बरबाद हो रहा को रोकने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं?
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Thursday, August 7, 2008

जीवित रहेगा नक्सलवाद

महाश्वेता देवी
लेखिका व सामाजिक चिंतक
नक्सलवाद की प्रासंगिकता और इसके प्रति जन रूझानों में कोई कमी नहीं आई है। लगता है, 70 के दशक से कहीं अधिक इसकी जरूरत आज है। विगत 10–15 सालों में भूखे, गरीबों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। राजनीतिक–आर्थिक तंत्र पूरी तरह अमीरों के हवाले हैं। यह आंदोलन और आगे बढ़ेगा, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में बहुसंख्यक लोग हाशिये पर खड़े हैं और उनका तीमारदार कोई नहीं है। सरकार भी मान रही है कि नक्सलवाद का प्रसार लगातार बढ़ रहा है और अभी यह देश के एक-तिहाई से अधिक क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमा चुका है, लेकिन सरकार नक्सलवाद को लेकर हमेशा यह दुविधा पालती रही है कि इसे कानून-व्यवस्था की समस्या माना जाए या सामाजिक–आर्थिक समस्या। समस्या यह है कि सरकार नक्सलियों के दमन की नीति पर चलती रही और उन समस्याओं पर बिल्कुल गौर नहीं किया, जिनके आलोक में नक्सलवाद का उदय हुआ था।
नक्सलवाद लोगों के दिलों में इसलिए जगह बनाए हुए है, क्योंकि इसके आंदोलनकर्मियों का अपना कोई हित नहीं होता। उन्हें न तो सत्ता चाहिए और न वोट। वे वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले आत्म-त्यागी लोग हैं। उनमें गजब का साहस है। उनके बलिदानी व्यक्तित्व में मुझे आदर्श नजर आता है। उनका आंदोलन ईमानदार, आकर्षक व अच्छे उद्देश्यों के लिए है। यही कारण है कि मेरी लेखनी में भी यह प्रमुखता से मौजूद है। फिर आपको यह समझना होगा कि उल्फा, बोडो, एनएससीएन की तरह यह कोई पृथकतावादी आंदोलन नहीं है। फिर नक्सली संगठनों को स्थानीय स्तर पर समर्थन भी पृथकतावादी संगठनों से काफी अधिक प्राप्त है। नक्सलवाद की जड़ें इसलिए भी मौजूद हैं कि नक्सल संगठनों ने बिल्कुल निचले स्तर से अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं। जैसे छत्तीसगढ़ में सबसे पहले आदिवासियों को बिचौलियों और तेंदू पत्ता के ठेकेदारों के खिलाफ एकजुट किया गया। जमीनी स्तर पर यह आंदोलन शुरू हुआ, इसलिए सरकार के लिए आज यह एक बड़ी चुनौती बन गई। राज्य व्यवस्था के अपराधीकरण और पंगु होने का नतीजा ही है कि नक्सलवाद का प्रसार तेजी से हो रहा है।
जिन मुद्दों पर यह आंदोलन शुरू हुआ था, वे आज भी मौजूद हैं इसलिए कोई कारण नहीं कि इस आंदोलन की जड़ें कमजोर हो जाएं। आज देश में 56 नक्सल गुट मौजूद हैं और इनके प्रभाव में देश की एक-तिहाई भूमि है। मैं समझती हूं कि इसके अधिकार क्षेत्र में और बढ़ोत्तरी होगी, क्योंकि समाज से असंतोष और विक्षोभ का नाश नहीं हुआ है। लाखों लोग भूखे, पीड़ित, शोषित और अपने मौलिक अधिकारों से भी वंचित हैं, ऐसे में नक्सलवाद का खात्मा कैसे होगा? अर्थव्यवस्था का जब तक असंतुलित विकास होगा, दबे-कुचले लोग व्यवस्था के प्रतिरोध में हथियार उठाएंगे ही। यह स्थिति सर्वकालिक व सर्वदेशीय होगी।
प्रस्तुति- आशुतोष प्रताप सिंह
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लालू से बेहाल लाल

सुरेन्द्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
बिहार–झारखंड में वाम दल, खासकर भाकपा–माकपा पहले ही कमजोर हो चुके थे। अब राजद जैसे मजबूत दल का सहारा छिन जाने के बाद तो इन दो राज्यों में उनका चुनावी भविष्य और भी अनिश्चित हो गया है। पूरे हिंदी इलाके में से सिर्फ झारखंड से सीपीआई के एक प्रतिनिधि मौजूदा लोकसभा में हैं। जबकि सन् 1991 के चुनाव में सीपीआई के अविभाजित बिहार से लोकसभा के लिए आठ सदस्य चुने गए थे। ऐसा लालू प्रसाद के जनता दल के साथ सीपीआई के चुनावी तालमेल के कारण ही संभव हो सका था। विधायिकाओं में वाम दलों की ताकत, राजद के साथ तालमेल पर निर्भर रहने लगा है। साथ ही खुद राजद की बढ़ती– घटती राजनीतिक ताकत का असर भी वामपंथियों पर पडा़ है। अब तो फिलहाल कोई तालमेल है ही नहीं। लोकसभा में हाल के विश्वास मत प्रकरण के बाद तो वाम दल राजद से कट गए हैं।
बिहार विधानसभा में इन दिनों सीपीआई के तीन और सीपीएम के एक सदस्य हैं। झारखंड विधानसभा में तो इन दलों का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है जबकि सत्तर के दशक में सीपीआई को एक समय अविभाजित बिहार विधानसभा में मुख्य प्रतिपक्षी दल का दर्जा हासिल था। तब सीपीआई राज्य की मुख्यधारा की पार्टी मानी जाती थी।अब वह हाशिए पर है यानी यदि विधायिका में ताकत का ध्यान रखें तो भाकपा बिहार में बसपा से भी छोटी पार्टी बन चुकी है।
वाम दल से राजद का साथ हालांकि गत चुनाव में ही छूट गया था। पर अगले लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से साठगांठ की संभावना बन सकती थी। हाल में परमाणु करार के मुद्दे पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेकर वाम दलों ने बिहार में ऐसी किसी संभावना को भी समाप्त कर दिया है। यदि कोई चमत्कार हुआ और भाजपा विरोध को आधार बना कर एक बार फिर राजद–वाम मिल कर चुनाव लड़ने को तैयार हो जाएं तो यहां वाम की स्थिति सुधरने की स्थिति बन सकती है। वैसे स्थिति सुधरेगी हीयह दावे के साथ अभी नहीं कहा जा सकता है।मंडल विवाद के बाद 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में बिहार में सीपीआई को जो आठ सीटें मिलीं, वे उसकी वास्तविक ताकत का प्रतिनिधित्व नहीं करती थीं। उसके बाद लालू प्रसाद के जनता दल और बाद में राजद से चुनावी तालमेल व राजनीतिक साठगांठ का अंतत: कम्युनिस्ट दलों को नुकसान ही हुआ। वाम के लिए लालू प्रसाद का यह ‘धृतराष्ट्र आलिंगन’ साबित हुआ।
नब्बे के दशक में आरक्षण को लेकर मंडल समर्थन–मंडल विरोध के आधार पर तब लगभग पूरा बिहार दो खेमों में बंट गया था।उन दिनों सीपीआई–सीपीएम के बीच के अनेक मंडल समर्थक तत्व व उनके समर्थक लालू प्रसाद के साथ चले गए और मंडल विरोधी लोग कांग्रेस व भाजपा के समर्थक बन गए। बिहार के एक प्रमुख सीपीआई नेता राज कुमार पूर्वे ने, जो कई बार विधायक रहे, अपनी किताब ‘स्मृति शेष’ में लिखा कि ‘सिर्फ जनता दल को ही नहीं ,बल्कि कांग्रेस व भाजपा को भी हमने (यानी भाकपा ने) अपने जनाधार में जातीय उन्माद फैलाने का मौका दिया। कठिन संघर्ष से बने हमारे जनाधार का बडा़ हिस्सा जातीय उन्माद का शिकार हो गया। हमारी पार्टी यूनिट भी इस आधार पर बंट गई। जिन लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ी, उन लोगों ने यह अनुभव किया कि उनका पुराना दल उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकता। हां,कुछ लोगों ने जरूर क्षणिक स्वार्थवश पार्टी छोड़ी।’ पूर्वे की ये कुछ पंक्तियां भाकपा की मौजूदा हालत को बखूबी बयान कर देती हैं।
कम्युनिस्ट पार्टियों ने लालू प्रसाद की सरकार के समक्ष इतनी नरमी दिखाई कि इनके काडर उदास हो चले। गरीबों की समस्याओं को लेकर शासन से लड़ने और जरूरत पड़ने पर जेल जाने की आदत ही अब वाम दलों में नहीं रही। यह सब सांप्रदायिक दल यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर होता रहा। हालांकि यह आरोप भी है कि नेतृत्व का बडा़ हिस्सा सुविधापरस्त हो गया। ऐसी रणनीति अपनाने के कारण बिहार में वाम दल न सिर्फ कथित सांप्रदायिक दल को सत्ता में आने से रोक सके ,बल्कि लगता है कि उनकी अपनी ताकत भी अब ऐसी नहीं रही कि कभी वे भविष्य में उठ कर खडा़ भी हो सकते हैं।
उधर,चुनाव लड़ने वाले वाम दलों से भी टूट कर अनेक लोग नक्सली आंदोलनमें गए। विनोद मिश्र के नेतृत्व वाला नक्सली संगठन कभी बिहार का सबसे बडा़ व प्रामाणिक नक्सली संगठन माना जाता था। पर उसने जब से चुनाव लड़ना शुरू किया है, तब से उसका भी विकास रूक सा गया है। अब कम्युनिस्ट आंदोलन के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माआ॓वादी) ही बिहार झारखंड में ताकतवर होते जा रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाए तो कम्युनिस्ट ताकत बिहार झारखंड में बढ़ी है। पर उसका बडा़ हिस्सा भूमिगत है और हथियार के बल पर सत्ता हासिल करना चाहता है। पता नहीं कि वे कभी सफल होंगे या नहीं, पर एक बात तय है कि चुनाव लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां बिहार –झारखंड की राजनीति को निर्णायक ढंग से आने वाले दिनों में प्रभावित नहीं कर पाएंगी। इस सिलसिले में एक आंकडा़ महत्वपूर्ण है। 1998 के लोक सभा चुनाव में सीपीआई को अविभाजित बिहार में मात्र 3।40 प्रतिशत मत मिले थे। यह मत 1999 में घटकर 2।70 रह गया। कभी बिहार में सीपीआई को अपने बल पर करीब 7 प्रतिशत मत मिलते।
नवम्बर 2005 में हुए बिहार विधान सभा के चुनाव में सीपीआई को 2।09 प्रतिशत और सीपीएम को 0.68 प्रतिशत मत मिले। इनसे अधिक वोट तो बिहार में बसपा को मिले। बसपा को सन् 2005 में 4.17 प्रतिशत और सपा को 2.52 प्रतिशत मत मिले। बसपा का सघन क्षेत्र उत्तर प्रदेश सटा हुआ बिहार का इलाका है। वहां वाम दलों को बसपा से तालमेल का कुछ लाभ मिल सकता है।
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कल का वाम

राजेन्द्र शर्मा
राजनीतिक विश्लेषक
वामपंथ ने जब से यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया है और खासतौर पर मनमोहन सिंह की सरकार ने जब से वामपंथ के बिना ही लोकसभा में अपना बहुमत साबित किया है, उसके बाद से ही वामपंथ के लिए जोर-जोर से शोक गीत पढ़े जाने की शुरूआत हो गयी है। एक आ॓र यूपीए सरकार को उकसाया जा रहा है कि वामपंथ के अंकुश से बरी होने के बाद, निर्द्वन्द्व होकर नव-उदारवादी रास्ते पर सरपट दौड़ चले। दूसरी आ॓र वामपंथ को समझाया जा रहा है कि इस विफलता से सबक ले कि आर्थिक नीतियों से लेकर विदेश नीति तक, विभिन्न क्षेत्रों में नव-उदारवादी नीतियों का विरोध करेगा तो घाटे में रहेगा। इन दोनों ही फतवों में एक बात समान है। ये फतवे देने वाले यह भूल जाते हैं कि यह झगडा़ सिर्फ वामपंथ बनाम अन्य का आपसी मामला नहीं है। इसमें इस देश की जनता का भी दखल है बल्कि अंतत: तो उसी को फैसला करना है। जनता की यह सत्ता ही वामपंथ के शोक गीत पढ़ने वालों को गलत साबित करते हुए आने वाले दिनों में वामपंथ की बढ़ती प्रासंगिकता साबित करने जा रही है।


इसके दो बहुत ही सीधे सरल से कारण हैं, जो परस्पर जुड़े हुए हैं। पहला, शासक हलकों के स्तर पर नव-उदारवादी नीतियों पर जितनी सर्वानुमति दिखाई देती है, जनता के स्तर पर इन नीतियों का उतना ही विरोध है। बेशक, जनता के इस विरोध को दबाने, छुपाने, भटकाने की तमाम कोशिशें लगातार जारी रही हैं और इन कोशिशों को कुछ न कुछ कामयाबी भी मिली है। इसके बावजूद इन नीतियों और आम आदमी के बीच खाई ज्यादा से ज्यादा चौड़ी ही होती जा रही है। इसी का नतीजा है कि न सिर्फ सत्ता में रहने वाले का आम चुनाव में सत्ता से हटाया जाना एक नियम ही बन गया है बल्कि श्रीमती गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए 1984 के असामान्य चुनावों के बाद से किसी भी आम चुनाव में जनता ने किसी एक पार्टी को तो दूर, किसी चुनाव-पूर्व गठबंधन को भी पूर्ण-बहुमत नहीं दिया है। उल्टे इन नव-उदारवादी नीतियों के मुख्य प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों से जनता इस कदर विमुख हो चुकी है कि आज ये पार्टियां मिलकर भी संसद की आधी सीटों तक भी मुश्किल से ही पहुंच पाती हैं। जिसे आज राजनीति में गठबंधन युग कहा जाने लगा है, आम जनता और प्रमुख सत्ताधारी पार्टियों की इसी विमुखता की सचाई का दूसरा नाम है।

इस राजनीतिक संकट से उबरने की कोशिश में सत्ता की राजनीति की एक धारा ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण का सहारा लेने का रास्ता पकडा़ है। तत्काल इसकी काट के लिए वामपंथ, उस मध्यमार्गी राजनीति को सहारा देकर खडा़ करने की कोशिश कर रहा है, जिसके झंडे नव-उदारवाद की आंधी में मुख्य-सत्ताधारी पार्टियों ने नव्बे के दशक के शुरू में ही गिरा दिए थे। 2004 के चुनाव में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए के इंडिया शाइनिंग के नारे के बुरी तरह से पिटने के बाद सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को बाहर से समर्थन देने के जरिए वामपंथ, मध्यमार्गी राजनीति का ही पुनराविष्कार करने की कोशिश कर रहा था। इसीलिए यह समर्थन एक सीमित किंतु जनहितकारी साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर दिया गया था ताकि वामपंथ के दबाव के सहारे सरकार को मध्यमार्ग पर रखा जा सके। असली मुद्दा यह नहीं है कि यह कोशिश सफल हुई या विफल रही या इस कोशिश को तो विफल होना ही था। असली मुद्दा मौजूदा हालात में ऐसी कोशिश के जरूरी होने का है।

जाहिर है कि नव-उदारवादी रास्ते की अपनी वफादारी के लिए कांग्रेस के नेतृत्व ने एक अपेक्षाकृत संतुलित रास्ता निकालने की इस कोशिश को विफल कर दिया है। लेकिन इससे जनता के पक्ष में संतुलित ऐसे रास्ते की जरूरत खत्म नहीं होती है बल्कि और बढ़ जाती है। वामपंथ की तीसरा मोर्चा या विकल्प खडा़ करने की कोशिश, इसी जरूरत से जुड़ा है। बेशक यह विकल्प न तो आसानी से खडा़ हो पाएगा और न ही इसका कोई बना-बनाया सांचा पहले से मौजूद है। एक-डेढ़ दशक पहले कौन कह सकता था कि वामपंथ, बाहर से ही सही समर्थन देकर कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार चार साल से ज्यादा चलवाएगा। वैसे यह भी कौन कह सकता था कि भारत में कथित आर्थिक सुधारों के सूत्रकार मनमोहन सिंह की सरकार पर चार बरस तक अनेक मामलों में जनता के हितों का अंकुश लगाए रखा जा सकेगा।

अचरज नहीं कि इन्हीं जटिलताओं के बीच, खुद वामपंथ की समझ तथा लक्ष्य की एकता की सीमाएं भी सामने आती हैं। ये जटिलताएं इस तथ्य से और भी बढ़ जाती हैं कि देश के तीन राज्यों में अपेक्षाकृत लंबी अवधि से जो वामपंथी राज्य सरकारें कायम हैं, उनके ऊपर अखिल भारतीय स्तर पर शासकों द्वारा अपनायी गयी नव-उदारवादी नीतियों का विरोध करने के साथ-साथ, देश के पैमाने पर लागू की जा रही इन नीतियों के ही दायरे में अपने -अपने राज्य में मेहनतकश जनता को राहत दिलाने की जिम्मेदारी भी है। इसी संदर्भ में वामपंथी नेतृत्व वाली सरकारों और खासतौर पर प। बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के उघोगीकरण के कुछ कदमों को लेकर नव-उदारवादी नीतियों के वामपंथ के विरोध की ही साख बिगाड़ने की कोशिश की गयी है। किसी खास कदम के सही-गलत, जरूरी-गैरजरूरी होने से अलग इस तरह के प्रचार का मकसद देश भर में ठीक उन्हीं नीतियों का रास्ता निरापद करने की कोशिश करना है, जिनकी आलोचना का स्वांग किया जा रहा होता है।

बेशक, वामपंथ की अपनी सीमाएं भी हैं। जाहिर है कि उसकी सबसे बड़ी सीमा तो देश के पैमाने पर उसका सीमित आधार ही है। वामपंथ उस आम राजनीतिक-सामाजिक वातावरण के प्रभावों से भी पूरी तरह से बरी होने का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बीच तथा एक अल्पसंख्यक उपस्थिति के रूप में उसे काम करना पड़ रहा है। सोमनाथ चटर्जी प्रकरण इसका ताजा गवाह है। फिर भी आज के दौर में जब शासकों और शासितों के बीच की दूरी अनुल्लंघनीय रूप से बढ़ती जा रही है, आम शासितों के हितों को अपना प्रस्थानबिंदु बनाने वाले वामपंथ की जरूरत बढ़ने ही जा रही है और उसकी संभावनाओं का भी बढ़ना तय है। हां, अंत में एक वैधानिक चेतावनी और खासतौर पर वामपंथ के आधार की सीमाओं के चलते, बहुत सी जगहों पर शासकों व शासितों के बीच की खाई, हिंसक विस्फोटों का भी रूप ले सकती है।

Tuesday, August 5, 2008

राष्ट्रीय राजनीति की अपूरणीय क्षति

राजेन्द्र शर्मा
कामरेड हरकिशनसिंह सुरजीत नहीं रहे। राष्ट्रीय राजनीति के चाणक्य कहलाने वाले सुरजीत, पिछले कुछ महीनों से अस्वस्थ थे। उनके निधन के साथ भारतीय राजनीति के उस दौर का अंत हो गया है, जिसमें देश की प्रमुख राजनीतिक शक्तियों का नेतृत्व ब्रिटिश हुकूमत से देश की आजादी की लड़ाई की आंच में तप कर राजनीति में आए लोगों के हाथों में था।
23 मार्च 1916 को जालंधर जिले के अंतर्गत रोपोवाल गांव में जन्मे सुरजीत, स्कूल के जमाने में ही राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े थे। 1931 में वह भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा स्थापित ‘नौजवान भारत सभा’ में शामिल हो गए। 1932 के मार्च के महीने में होशियारपुर में जिला अदालत पर, पुलिस के देखते ही गोली मारने के आदेश के बावजूद, राष्ट्रीय झंडा फहराने के असाधारण साहस के लिए, उन्हें पहली बार जेल भेजा गया। इसके बाद, शासन के दमन के बावजूद देश व जनता के हित में संघर्षों का जो सिलसिला शुरू हुआ, उनके आठ दशक लंबे राजनीतिक जीवन में बराबर जारी रहा। उन्होंने ब्रिटिश राज में आठ साल जेल में गुजारे और दो साल आजादी के बाद कांग्रेसी शासन की जेलों में।
1934 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए सुरजीत, कम्युनिस्टों की उस धारा से थे, जिसने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से शुरूआत की थी और आजादी को बहुजन हित के रूप में परिभाषित करते हुए, कांग्रेस, वर्कर्स एंड पीजेंट्स मंच, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से होते हुए, कम्युनिस्ट पार्टी तक की अपनी यात्रा पूरी की थी। इस विकास यात्रा ने कम्युनिस्टों की इस पीढ़ी को दो असाधारण गुण दिए थे। जनता के ठोस संघर्षों के बीच से रास्ता तलाश करना और मौजूदा शक्तियों की ठोस सचाई को ध्यान में रखकर, आगे बढ़ना। इसने कठोर परिस्थितियों में मार्क्सवाद के ठोस व्यवहार की जो सामर्थ्य सुरजीत में पैदा की थी, वह देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी बहुत दुर्लभ थी।
यह इसके बावजूद है, कि उनकी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा कम ही हुई थी और मार्क्सवाद तथा राजनीति पर उनकी गहरी पकड़, मुख्यत: स्वाध्याय तथा आंदोलन व जीवन के अनुभवों पर ही आधारित थी। यह जानकर किसी को भी अचरज होगा कि कम औपचारिक शिक्षा के बावजूद, सुरजीत अपने लंबे राजनीतिक जीवन के अधिकांश हिस्से में कम्युनिस्ट पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे। वह सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी के हिंदी मुखपत्र ‘लोकलहर’ के संस्थापक-संपादक थे।
किसान आंदोलन तथा किसान संगठन के रास्ते कम्युनिस्ट आंदोलन में आगे बढ़ते हुए सुरजीत, 1954 की जनवरी में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी की तीसरी कांग्रेस में ही पार्टी के पोलित ब्यूरो के लिए चुन लिए गए थे। तभी से कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका रही थी और 1964 में पार्टी में विभाजन के बाद सीपीआई(एम) के गठन तथा मार्गदर्शन में उनकी और भी प्रमुख भूमिका रही थी। इसके बावजूद, इमर्जेंसी के बाद 1978 में सीपीआई(एम) की जालंधर कांग्रेस ने जब जनसंघर्षों व आंदोलनों के हित में पूंजीवादी पार्टियों के आपसी अंतर्विरोधों का उपयोग करने की कार्यनीति तय की, अन्य राजनीतिक शक्तियों के नेताओं तक उनकी सहज पहुंच ने, सुरजीत को राष्ट्रीय राजनीति में कम्युनिस्टों के हस्तक्षेप के लिए और महत्वपूर्ण बना दिया।
केंद्र मे सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी तोड़ने से लेकर, पहले वीपी सिंह की सरकार और उसके बाद देवगौड़ा व गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन तक, सुरजीत के नेतृत्व में वामपंथ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे के संदर्भ में, बाहर से वामपंथ के समर्थन पर टिकी यूपीए सरकार के गठन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उनके निधन से सिर्फ कम्युनिस्ट आंदोलन की ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति की जो भारी क्षति हुई है, उसे भरने के लिए उनके कद का कोई दूसरा नेता अब शायद ही सामने आ सकेगा।
http://www.rashtriyasahara.com/ से साभार

लोकतंत्र की विचारधारा का विस्तार और विस्फोट

अनिल चमड़िया
भाजपा शासित बंगलूरू और अहमदाबाद में बम विस्फोट की घटनाएं और सूरत में बम विस्फोट की बड़े पैमाने पर तैयारी ने कुछ अहम सवाल खड़े किए हैं। पहली बात तो इन घटनाओं के बाद जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हुई हैं वे पिछली तमाम ऐसी घटनाओं से बिल्कुल भिन्न हैं । भाजपा की सुषमा स्वराज ने कहा है कि ये विस्फोट सुनियोजित हैं। उन्होंने विश्वास मत प्रकरण में पैसे देकर वोट खरीदने और अमेरिकी परस्त छवि से ध्यान हटाने के उद्देश्य से विस्फोट किए गए बताया है। पहली बार हुआ है कि विस्फोटों में पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरफ इशारा करके उनकी भूमिका की तरफ उंगुली नहीं उठाई गई है। बल्कि इससे उलट कहा गया कि अमेरिकी परस्त छवि से मुस्लिम मतदाताओं में पसरी नाजरागी को भुलाकर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक समीकरणों की तरफ मुस्लिमों को खींचने की कोशिश की गई है। पहला सवाल है कि पहले जितने विस्फोट हुए उनमें से किसी को भी सुनियोजित क्यों नहीं माना जाए? संभव है उन्हें भी किसी बात से ध्यान हटाने के लिए ही अंजाम दिया गया हो? दूसरा कि क्या राजनीति का इतना पतन हो चुका है कि किसी नकारात्मक रूख को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए किसी भी स्तर पर जाया जा सकता है? क्या राजनीति ने अपने हितों के लिए हिंसक गिरोह खड़े कर लिये हैं? इन विस्फोटों को साजिशन बताकर जिस तरफ इशारा किया जा रहा है यदि उसकी समझ सही है तो देश के लोगों के सामने क्या चारा रह जाता है? भूमंडलीकरण के दौर में आतंकवाद की राजनीति जिस साजिश के तहत विस्तारित हुई है इसकी जड़ें कितनी दूर तक और गहरे फैली हुई हैं?
ये सवाल तो सुषमा स्वराज की प्रतिक्रिया से सीधे खड़े होते हैं। लेकिन इन सवालों के विपरीत दिशा में भी सवाल खड़े होते हैं। भाजपा शासित राज्यों में ही ये विस्फोट क्यों? इन राज्यों से पहले जयपुर में भी इसी तरह विस्फोट हुए। क्या इन विस्फोटों को भाजपा को बदनाम करने की साजिश के बजाय इस तरह भी देखा जाए कि भाजपा की गतिविधियों ने आम जन जीवन को बेहद असुरक्षित बना दिया है? भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति से लोगों में असुरक्षा बोध बढ़ा है। अपने ऊपर उठते सवालों को लेकर वह चितित हो गई है और खुद को सुरक्षित करना अपनी प्राथमिकता समझने लगी है। यह महज संयोग तो नहीं हो सकता है कि गोधरा की ट्रेन आगजनी की घटना के बाद जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री ने सेना को बुलाने में कोताही बरती वहीं नरेन्द्र मोदी ने इन विस्फोटों के बाद आधे घंटे के अंदर सेना बुला ली और प्रतिक्रिया की भाषा में बात करने के बजाय लोगों से अमन चैन बनाए रखने की अपील के लिए दौड़ पड़े। अहमदाबाद में विस्फोट से पहले इसका दावा ठोकने वाले ने ईमेल के जरिये इसकी वजह 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों को बताया । बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद ही मुंबई में विस्फोट की घटनाएं हुई थीं।
देश एक गंभीर स्थिति में हैं। तत्काल राजनीतिक फायदे के लिए जो कुछ किया जाता है उससे सत्ता तो प्राप्त हो सकती है लेकिन उससे जो राजनीतिक प्रवृत्ति स्थापित होती है उसके गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ते हैं। देश के गृह राज्य मंत्री प्रकाश जायसवाल ने कहा है कि विस्फोट गुजरात दंगों की प्रतिक्रिया है। पंजाब में स्वर्ण मंदिर में ब्लू स्टार आपरेशन के बाद इंदिरा गांधी की हत्या की घटना और उसके बाद हुई हिसा को राजीव गांधी ने पेड़ के उखड़ने पर धरती के हिलने की भाषा में प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। पंजाब को अब तक शांत मानकर बैठा नहीं जा सकता है। यदि ऐसी तमाम घटनाओं को इस दिशा में देखा जाए कि क्या आतंकवाद का विस्तार लोकतंत्र के संकुचन और वर्चस्व की राजनीति स्थापित करने की योजना से जुड़ा हुआ है? देश में जिन घटनाओं को आतंकवाद की श्रेणी में रखकर बात की जाती है वह अल्पसंख्यकों से जुड़ी राजनीति के इर्द-गिर्द दिखाई देती है। देश में अल्पसंख्यकों की आमतौर पर सत्ता से शिकायत रही है। न केवल सत्ता मशीनरियों के उनके खिलाफ हमलों को लेकर, बल्कि उनके खिलाफ हमलों के बाद न्याय नहीं मिलने को लेकर भी। पिछले दिनों से यह भी देखा जा रहा है कि नक्सलवाद एवं माआ॓वाद को भी आतंकवाद की श्रेणी में शामिल करने की कोशिश हुई है। इन नक्सलवादियों और माआ॓वादियों के साथ कौन हैं? आखिर देश के दलितों के किसी छोटे से भी हिस्से को हथियार उठाने की जरूरत क्यों पड़ती है? सत्ता अपने भारी-भरकम बल के बूते हमले कर सकती है तो हमले के शिकार लोगों के सामने क्या चारा रह जाता है?
भारत को गणतांत्रिक बनाए रखना इसके बने रहने की अनिवार्यता से जुड़ा है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने लोकतंत्र को सत्ता में बने रहने से जोड़ दिया है और उसके लिए उन्हें बहुसंख्यक और वर्चस्ववादी समूहों की राजनीति तक समेट कर रख दिया है। ये बात सभी संसदीय पार्टियों की विचारधारा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हर राजनीतिक पार्टी लोकतंत्र के विस्तार के बजाय लोकतंत्र की सुरक्षा पर जिस तरह से जोर देती है उस पर गौर करने की जरूरत है। अब विस्फोटों की घटना के बाद मुख्यत: दो तरह की मांग सामने आती है। एक के द्वारा संघीय जांच एजेंसी बनाने की होती है तो दूसरे के द्वारा कठोर कानून बनाने की मांग दोहरायी जाती है। इन मांगों में क्या दिखाई देता है? संघीय जांच एजेंसी के क्या मायने है? गणतंत्र में राज्यों के अधीन कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी होती है। आखिर केन्द्र विस्फोटों के बाद राज्य की इस ताकत को ही अपने हाथों में लेने पर क्यों जोर देता है? इससे लोकतंत्र का विस्तार कहां जुड़ा है? लोकतंत्र का विस्तार तो राज्यों को मजबूत करने से जुड़ा है, राज्यों के बीच ताममेल की संस्कृति को बढ़ाने से जुड़ा है। केन्द्र ऐसी घटनाओं के पीछे भारतीय दंड विधान की धाराओं से देखने की ही ष्टि क्यों अपनाता है? दूसरा, कठोर कानून का क्या अर्थ है? कानून के साथ लगे कठोर के विशेषण को खोलकर क्यों नहीं बताया जाता है कि गणतांत्रिक व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया का जो ढांचा खड़ा है उसे सत्ता द्वारा तोड़ना शामिल है। टाडा और पोटा का सीधा अर्थ क्या है? पुलिस किसी वर्ग या जाति को अपने डंडों के बूते डरा धमकाकर रखे। लेकिन इससे लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। बल्कि इसमें लोकतंत्र में असुरक्षा के भाव का विस्तार हो जाता है। अल्पसंख्यकों के अंदर से निकल बहुसंख्यकों के दबे-कुचले हिस्से तक में सत्ता के भय और असुरक्षा का विस्तार हो जाता है।
देश में विस्फोटों की घटनाओं को अब तक जिस तरह से देखा जा रहा है उसने कई राजनीतिक सवाल खड़े किए हैं। इससे पहले महाराष्ट्र में विस्फोट की घटनाओं ने इस माइंड सेट को तोडा था कि इनमें केवल अल्पसंख्यकों के समूहों के बीच के लोग होते हैं। वहां हिन्दुओं के दस्तों की भूमिका पाई गई थी। विस्फोट की घटनाओं को आतंकवाद की अमेरिकी परिभाषा और भारतीय दंड विधान के नजरिये से देखने के बजाय लोकतंत्र के विस्तार पर कुंडली मारकर बैठने वाली राजनीति को समझने की दृष्टि से भी देखने की कोशिश की जानी चाहिए। सत्ता द्वारा आतंकवाद की घटनाओं को अपनी निरकुंशता मजबूत करने का बहाना बनाने की कोशिशों पर अंकुश लगाना चाहिए।
www.rashtriyasahara.com से साभार